श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सुइना रुपा संचीऐ धनु काचा बिखु छारु ॥ साहु सदाए संचि धनु दुबिधा होइ खुआरु ॥ सचिआरी सचु संचिआ साचउ नामु अमोलु ॥ हरि निरमाइलु ऊजलो पति साची सचु बोलु ॥ साजनु मीतु सुजाणु तू तू सरवरु तू हंसु ॥ साचउ ठाकुरु मनि वसै हउ बलिहारी तिसु ॥ माइआ ममता मोहणी जिनि कीती सो जाणु ॥ बिखिआ अम्रितु एकु है बूझै पुरखु सुजाणु ॥४८॥ {पन्ना 937}

पद्अर्थ: रूपा = चाँदी। संचीअै = इकट्ठा करते हैं। बिखु = विष, जहर। छारु = राख, व्यर्थ। संचि = इकट्ठा कर के, जोड़ के। दुबिधा = दोचिक्तापन, भेदभाव। सचिआरी = सच के बनजारों ने। सचु नामु अमोलु = सदा स्थिर रहने वाला नाम-धन। निरमाइलु = पवित्र। पति = इज्जत। मनि = (जिसके) मन में। तिसु = उस (जीव हंस) से। जिनि = जिस गोपाल ने। बिखिआ = माया। ऐकु = सिर्फ।

अर्थ: (आम तौर जगत में) सोना-चाँदी ही इकट्ठा किया जाता है, पर ये धन होछा है, विष (-रूप, भाव दुखदाई) है, तुच्छ है। जो मनुष्य (ये) धन जोड़ के (अपने आप को) शाह कहलवाता है वह मेर-तेर में दुखी होता है।

सच्चे व्यापारियों ने सदा-स्थिर रहने वाला नाम-धन इकट्ठा किया है, सच्चा अमूल्य नाम-धन सम्भाला है, उज्जवल और पवित्र प्रभू (का नाम कमाया है), उनको सच्ची इज्जत मिलती है (प्रभू के) सच्चे (मीठे आदर वाले) बोल (मिलते हैं)। (हे पांडे! तू भी मन की तख्ती पर गोपाल का नाम लिख और उसके आगे ऐसे अरदास कर - हे प्रभू!) तू ही (सच्चा) समझदार सज्जन-मित्र है, तू ही (जगत-रूप) सरोवर है और तू ही (इस सरोवर का जीव-रूप) हँस है; मैं सदके हूँ उस (हँस) से जिसके मन में तू सच्चा ठाकुर बसता है।

(हे पांडे!) उस गोपाल को याद रख जिसने मोहनी माया की ममता (जीवों को) लगा दी है, जिस किसी ने उस सुजान पुरख को समझ लिया है, उसके लिए सिर्फ (नाम-) अमृत ही 'माया' है।48।

खिमा विहूणे खपि गए खूहणि लख असंख ॥ गणत न आवै किउ गणी खपि खपि मुए बिसंख ॥ खसमु पछाणै आपणा खूलै बंधु न पाइ ॥ सबदि महली खरा तू खिमा सचु सुख भाइ ॥ खरचु खरा धनु धिआनु तू आपे वसहि सरीरि ॥ मनि तनि मुखि जापै सदा गुण अंतरि मनि धीर ॥ हउमै खपै खपाइसी बीजउ वथु विकारु ॥ जंत उपाइ विचि पाइअनु करता अलगु अपारु ॥४९॥ {पन्ना 937}

पद्अर्थ: खूहणि = (संस्कृत: अक्षौहिणी = एक बड़ी भारी सेना जिसमें 21870 रथ, 21870 हाथी, 65610 घोड़ सवार और 109350 पैदल सिपाही हों) बेअंत जीव। असंख = अनगिनत। किउ गणी = गिनने का क्या लाभ? गिने नहीं जा सकते। बिसंख = अनगिनत। खूलै = खुल जाता है, खुले दिल वाला हो जाता है। बंधु = रोक, तंग दिली। महली = महल वाला, ठिकाने वाला, टिका हुआ। तू = हे प्रभू! तू। खरा = प्रकट, प्रत्यक्ष, असल सवरूप में। सुख भाइ = आसानी से। खरचु = जिंदगी के सफर की पूँजी। वसहि = तू बसता है। सरीरि = (उसके) शरीर में। जापै = जपता है। अंतरि = (उसके) अंदर। बीजउ वथु = दूसरी वस्तु, दूसरी राशि पूँजी। विचि = (अहंकार) में। पाइअनु = डाले है उस (प्रभू) ने। अलगु = अलग, निर्लिप।

(नोट: इस शब्द की व्याकरण के अनुसार संरचना समझने के लिए देखें मेरा 'गुरबाणी व्याकरण'। उपाइअनु = उसने उपाए हैं। लाइअनु = उसने लगाए हैं। खुआइअनु = उसने गवाए हैं। रखिअनु = उसने रखे हैं। बखसिअनु = उसने बख्शे। शब्द 'पाइअनु' और 'पाईअनु' में अंतर का ध्यान रखें। 'पाइअनु' के अर्थ है उसने डाले। 'पाईअनु' का मतलब उसने पाए। उपाईअनु = उसने पैदा की।)।

अर्थ: (मोहनी माया की ममता से पैदा हुए भेदभाव के कारण) क्षमा-हीन हो के बेअंत, लाखों अनगिनत जीव खप के मर गए हैं, गिने नहीं जा सकते। गिनती का भी क्या लाभ? अगिनत ही जीव (क्षमा-विहीन हो के) दुखी हुए हैं।

जो मनुष्य अपने मालिक प्रभू को पहचानता है, वह खुले दिल वाला हो जाता है, तंग-दिली (उसमें) नहीं रहती, गुरू के शबद के द्वारा वह टिक जाता है (भाव, जिगरे वाला हो जाता है); (हे प्रभू!) तू उसे प्रत्यक्ष रूप से दिखाई दे जाता है, क्षमा और सत्य उसको आसानी से मिल जाते हैं। (हे प्रभू!) तू ही उसका (जिंदगी के सफर का) खर्च बन जाता है, तू ही उसका खरा (सच्चा) धन हो जाता है, तू स्वयं ही उसका ध्यान (सुरति का निशाना) बन जाता है, तू स्वयं ही उसके शरीर में (प्रत्यक्ष) बसने लग जाता है, वह मन से, तन से, मुँह से सदा (तुझे ही) जपता है, उसके अंदर (तेरे) गुण पैदा हो जाते हैं, उसके मन में धीरज आ जाता है।

(गोपाल के नाम के बिना) दूसरा पदार्थ विकार (-रूप) है, (इसके कारण) जीव अहंकार में खपता-खपाता है। (आश्चर्यजनक खेल ये है) करतार ने जंतु पैदा करके (अहंकार) में डाल दिए हैं, (पर) वह बेअंत करतार अलग ही रहता है।49।

स्रिसटे भेउ न जाणै कोइ ॥ स्रिसटा करै सु निहचउ होइ ॥ स्मपै कउ ईसरु धिआईऐ ॥ स्मपै पुरबि लिखे की पाईऐ ॥ स्मपै कारणि चाकर चोर ॥ स्मपै साथि न चालै होर ॥ बिनु साचे नही दरगह मानु ॥ हरि रसु पीवै छुटै निदानि ॥५०॥ {पन्ना 937}

पद्अर्थ: स्रिसटा = सृष्टा, सृजनहार, करतार। भेउ = भेद। निहचउ = अवश्य। संपै = सम्पक्ति, धन। ईसरु = परमात्मा। पुरबि = (अब से) पहले समय में, अब तक के समय में। होर = और (की बन जाती है)। निदानि = अंत को। छुटै = (माया के मोह से) बचता है।

अर्थ: कोई जीव सृजनहार प्रभू का भेद नहीं पा सकता ( और, कोई उसकी रजा में दख़ल नहीं दे सकता, क्योंकि जगत में) अवश्य ही वही होता है जो सृजनहार करतार करता है। (सृजनहार की यह एक अजब खेल है कि आम तौर पर मनुष्य) धन की खातिर ही परमात्मा को ध्याता है, और अबतक की हुई मेहनत के अनुसार धन मिल (भी) जाता है। धन की खातिर मनुष्य दूसरों के नौकर (भी) बनते हैं, चोर (भी) बनते हैं (भाव, चोरी भी करते हैं)। पर, धन किसी के साथ नहीं निभता, (मरने पर) औरों का बन जाता है।

सदा-स्थिर रहने वाला गोपाल (के नाम) के बिना उसकी हजूरी में आदर नहीं मिलता। जो मनुष्य परमात्मा के नाम का रस पीता है वह (वह धन-संपक्ति के मोह से) अंत को बच जाता है।50।

हेरत हेरत हे सखी होइ रही हैरानु ॥ हउ हउ करती मै मुई सबदि रवै मनि गिआनु ॥ हार डोर कंकन घणे करि थाकी सीगारु ॥ मिलि प्रीतम सुखु पाइआ सगल गुणा गलि हारु ॥ नानक गुरमुखि पाईऐ हरि सिउ प्रीति पिआरु ॥ हरि बिनु किनि सुखु पाइआ देखहु मनि बीचारि ॥ हरि पड़णा हरि बुझणा हरि सिउ रखहु पिआरु ॥ हरि जपीऐ हरि धिआईऐ हरि का नामु अधारु ॥५१॥ {पन्ना 937}

पद्अर्थ: हेरत हेरत = देख देख के। करती = करने वाली। सबदि = शबद में। मनि = मन में। गिआनु = प्रभू से जान पहचान। कंकन = कंगन। घणे = बहुत। गलि = गले में। किनि = किस ने? किसी ने भी नहीं। बीचारि = विचार के। अधारु = आसरा।

अर्थ: हे सखी! (ये बात) देख-देख के मैं हैरान हो रही हूँ कि (मेरे अंदर) 'मैं मैं' करने वाली 'मैं' मर गई है (भाव, अहंकार करने वाली आदत खत्म हो गई है)। (अब मेरी सुरति) गुरू-शबद में जुड़ रही है, और (मेरे) मन में प्रभू के साथ जान-पहचान बन गई है।

मैं बहुत सारे हारों-कंगनों के हार श्रृंगार करके थक चुकी थी (पर प्रीतम-प्रभू के मिलाप का सुख ना मिला, भाव, बाहरी धार्मिक उद्यमों से आनंद नहीं मिल पाया, पर, अब जब 'अहंकार' खत्म हो गया) प्रीतम-प्रभू को मिल के सुख मिल गया है (उसके गुण मेरे हृदय में आ बसे हैं, यही उसके) सारे गुणों का मेरे गले में हार है (अब किसी और हार-श्रृंगार की आवश्यक्ता नहीं रही)।

हे नानक! प्रभू के साथ प्रीत, प्रभू से प्यार, सतिगुरू के माध्यम से ही हो सकता है; और, (बेशक) मन में विचार के देख लो, (भाव, तुम्हे अपनी आत्म-बीती ही बता देगी कि) प्रभू के मेल के बिना कभी किसी को सुख नहीं मिला।

(सो, हे पांडे! अगर सुख तलाशता है तो) प्रभू का नाम पढ़, प्रभू का नाम विचार, प्रभू के साथ ही प्यार बना, (जीभ से) प्रभू का नाम जपें, (मन में) प्रभू को ही सिमरें, और प्रभू का नाम ही (जिंदगी का) आसरा (बनाएं)।51।

लेखु न मिटई हे सखी जो लिखिआ करतारि ॥ आपे कारणु जिनि कीआ करि किरपा पगु धारि ॥ करते हथि वडिआईआ बूझहु गुर बीचारि ॥ लिखिआ फेरि न सकीऐ जिउ भावी तिउ सारि ॥ नदरि तेरी सुखु पाइआ नानक सबदु वीचारि ॥ मनमुख भूले पचि मुए उबरे गुर बीचारि ॥ जि पुरखु नदरि न आवई तिस का किआ करि कहिआ जाइ ॥ बलिहारी गुर आपणे जिनि हिरदै दिता दिखाइ ॥५२॥ {पन्ना 937}

पद्अर्थ: लेखु = (अहंकार का) लेख, किए कर्मों के अनुसार मन में अहंकार के बने हुए संस्कार। करतारि = करतार ने (भाव, करतार की बनाई हुई मर्यादा में)। जिनि = जिस (करतार) ने। पगु धारि = पगु धारे, (हृदय में) चरन रखता है, मिलता है। वडिआईआ = प्रभू के गुण गाने, प्रभू की सिफत सालाह। लिखिआ = अहंकार के संस्कार जो हमारे मन में उकरे जाते हैं। फेरि न सकीअै = पलटे नहीं जा सकते। सारि = संभाल। जि पुरखु = जो व्यापक प्रभू। हिरदै = हृदय में। कारणु = ('अहंकार' के लेख का) सबब, (भाव, प्रभू चरणों से विछोड़ा जिसके कारण व्यक्ति अहंकार में फसता है)।

अर्थ: हे सखी! (हमारे किए कर्मों के अनुसार, अहंकार का) जो लेख करतार ने (हमारे माथे पर) लिख दिया है वह (हमारी अपनी चतुराई व हिम्मत से) नहीं मिट सकते। (यह लेख तब ही मिटता है, जब) जिस प्रभू ने खुद ही (इस अहंकार के लेख का) सबब, (भाव, विछोड़ा) बनाया है वह मेहर करके (हमारे अंदर) आ बसे।

करतार के गुण गाने की दाति करतार के अपने हाथ में है; गुरू के शबद की विचार के द्वारा समझने का यत्न करो (तो समझ आ जाएगी)।

(हे प्रभू! अहंकार के) जो संस्कार (हमारे मन में हमारे कर्मों के अनुसार) उकरे जाते हैं वह (हमारी अपनी चतुराई से) बदले नहीं जा सकते; जैसे तुझे अच्छा लगे तू स्वयं (हमारी) संभाल कर। हे नानक! (कह-) गुरू के शबद को विचार के (देख लिया है कि हे प्रभू!) तेरी मेहर की नजर से ही सुख मिलता है।

जो मनुष्य अपने मन के पीछे चले वह (इस अहंकार के चक्र-व्यूह में फस के) दुखी हुए। बचे वह जो गुरू-शबद की विचार में (जुड़े)। (मनुष्य अपनी चतुराई करे भी क्या? क्योंकि) जो प्रभू (इन आँखों से) दिखता ही नहीं, उसके गुण गाए नहीं जा सकते। (तभी तो) मैं अपने गुरू से सदके हूँ जिसने (मुझे मेरे) हृदय में ही (प्रभू) दिखा दिया है।52।

पाधा पड़िआ आखीऐ बिदिआ बिचरै सहजि सुभाइ ॥ बिदिआ सोधै ततु लहै राम नाम लिव लाइ ॥ मनमुखु बिदिआ बिक्रदा बिखु खटे बिखु खाइ ॥ मूरखु सबदु न चीनई सूझ बूझ नह काइ ॥५३॥ {पन्ना 937-938}

पद्अर्थ: आखीअै = कहा जाता है। पढ़िआ = विद्वान। बिदिआ = विद्या के द्वारा। बिचरै = विचरता है, जीवन व्यतीत करता है। सहजि = सहिज में, अडोलता में, शांति में। सोधै = (अपने आप को) सही करता रहता है, (अपने आप का) विचार करता है, सवै चिंतन करता है और स्वयं को सुधारता है। ततु = अस्लियत, जीवन का असल जीवन मनोरथ। बिक्रदा = बिक्री करता, बेचता। बिखु = जहर। चीनई = पहचानता, समझता। काइ = कोई भी।

अर्थ: उस पांधे (पंडित व अध्यापक) को विद्वान कहना चाहिए, जो विद्या के द्वारा शांति के स्वभाव में जीवन व्यतीत करता है, जो विद्या के द्वारा ही अपने असल की विचार करता है, और परमात्मा के नाम के साथ सुरति जोड़ के जीवन का असल मनोरथ हासिल कर लेता है।

(पर) जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, वह विद्या को (सिर्फ) बेचता ही है (भाव, सिर्फ आजीविका के लिए इस्तेमाल करता है। विद्या के बदले आत्मिक मौत लाने वाली) माया-विष को ही कमाता है। वह मूर्ख गुरू के शबद को नहीं पहचानता, शबद की सुध-बुध उसको रक्ती भर भी नहीं होती।53।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh