श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पाधा गुरमुखि आखीऐ चाटड़िआ मति देइ ॥ नामु समालहु नामु संगरहु लाहा जग महि लेइ ॥ सची पटी सचु मनि पड़ीऐ सबदु सु सारु ॥ नानक सो पड़िआ सो पंडितु बीना जिसु राम नामु गलि हारु ॥५४॥१॥ {पन्ना 938}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। चाटड़िआ = चेलों, शागिर्दों, विद्यार्थियों को। समालहु = याद करो। संगरहु = संग्रह करो। लाहा = लाभ। मनि = मन में। सारु = श्रेष्ठ। बीना = देखने वाला, समझदार। जिसु गलि = जिसके गले में।

अर्थ: वह पांधा (पंडित, शिक्षक व अध्यापक) गुरमुखि कहा जाना चाहिए, (वह पांधा) दुनिया में (असल) लाभ कमाता है जो अपने शागिर्दों को ये शिक्षा देता है कि (हे विद्यार्थियो!) प्रभू का नाम जपो और नाम-धन एकत्र करो।

सच्चा प्रभू मन में बस जाना - यही सच्ची पट्टी है (जो पांधे को अपने चेलों को पढ़ाना चाहिए)। (प्रभू को हृदय में बसाने के लिए) सतिगुरू का श्रेष्ठ शबद पढ़ना चाहिए। हे नानक! वही मनुष्य विद्वान है वही पंडित है और समझदार है जिसके गले में प्रभू का नाम-रूप हार है (भाव, जो हर वक्त प्रभू को याद रखता है और हर जगह देखता है)।54।1।

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रामकली महला १ सिध गोसटि {पन्ना 938}

सिध गोसटि (गुरू नानक देव जी की सिद्धों के साथ हुई गोष्ठी) का भाव

पउड़ी वार:

(1) पहली पौड़ी 'मंगलाचरन' की है। इसमें 'संत सभा' की वडिआई की गई है कि 'सत्संगि' की बरकति से परमात्मा की प्राप्ति होती है।

(रहाउ) देश-देशांतर और तीर्थों के प्रर्यटन से कोई लाभ नहीं होता। सतिगुरू के शबद द्वारा परमात्मा में जुड़ने से ही संसार-समुंद्र की विकार-लहरों से बचाव हो सकता है और आत्मिक पवित्रता हासिल होती है।

(2,3) चरपट जोगी द्वारा प्रश्न- तुम्हारा क्या मत है और उसका क्या मनोरथ है? गुरू नानक देव जी का उक्तर- मेरा मत है 'सतसंग का आसरा ले के प्रभू का सिमरन करना'। मनुष्य की सबसे बड़ी समझदारी यही है कि गुरू के बताए हुए राह पर चल कर अपने आप को पहचाने और प्रभू चरणों में जुड़ा रहे।

(4,5) चरपट का प्रश्न- संसार एक ऐसे समुंद्र जैसा है जिसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है। तुम्हारे मन के मुताबिक इसमें से पार लांघने का क्या तरीका है?

गुरू नानक साहिब का उक्तर- जो मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा एक परमात्मा को अपने मन में बसाए रखता है वह दुनियावी आशाओं के जाल से बचा रहता है, और इस तरह जगत में किरत-कार करता हुआ भी ऐसे अछूता रहता है जैसे पानी में भी कमल का फूल नहीं भीगता अथवा जैसे मुर्गाबी के पंख नहीं भीगते।

(6) चरपट का प्रश्न- पर, ये कैसे पता चले कि गुरू का दर मिल गया है?

उक्तर: गुरू को मिलने की निशानी ये है कि चंचल मन चंचलता छोड़ के प्रभू की याद में जुड़ा रहता है, प्रभू का नाम मनुष्य की जिंदगी का आसरा बन जाता है। वैसे यह प्राप्ति अकाल पुरख की मेहर से होती है।

(7,8) संसार-समुंद्र से अछोह रहने के लिए लोहारीपा जोगी ने जोग-मत की विधि इस प्रकार बताई- दुनियां के धंधों से अलग रहना, घर-बार त्याग के वृक्षों के नीचे ठहरना और कंद-मूल खा के गुजारा करना, और तीर्थों का स्नान - इस तरह मन को विकारों की मैल नहीं लगती और मन सुखी रहता है।

गुरू नानक देव जी का उक्तर- जो मनुष्य सतिगुरू की मति ले के प्रभू का नाम सिमरता है, वह घर-परिवार वाला होते हुए भी धंधों में खचित नहीं होता, उसका मन सदा अडोल रहता है, कोई सांसारिक चस्के उसको छू नहीं सकते।

(9,10,11) लोहारीपा जोगी अपने मत की प्रसंशा करता है - अगर जोगियों के 'आई पंथियों' का भेष धारण किया जाए, मुंद्रा, झोली और गोदड़ी पहनी जाए, तो मन माया की चोट से बच जाता है।

गुरू नानक देव जी का उक्तर- गुरू के शबद को मन में बसाना कानों की मुद्राएं हैं, हर जगह प्रभू को व्यापक जानना गोदड़ी और झोली है, नाम की बरकति से सांसारिक ख्वाहिशों से मुड़ी हुई सुरति खप्पर है, शरीर को विकारों से पवित्र रखना दॅभ का आसन है, वश में किया हुआ मन लंगोटी है। सो, गुरू की शरण पड़ कर प्रभू का नाम ही सिमरो।

नोट: चरपट जोगी ने दो प्रश्न किए जो पौड़ी नंबर 4 और 6 में दर्ज हैं। लोहारीपा जोगी ने अपने मत की प्रसंशा करके गुरू नानक देव जी को जोग मत में शामिल होने की प्रेरणा की। ये ज़िक्र और इसका उक्तर नं: 9,10और 11 में है। इससे आगे जोगियों द्वारा प्रश्न और सतिगुरू जी द्वारा उक्तर हैं, पर किसी विशेष जोगी का नाम नहीं है।

(12,13) लोहारीपे ने तो जोग के चिन्ह धारण करने के लिए प्रेरित किया था, पर सतिगुरू जी ने जवाब दिया था कि हर जगह व्यापक प्रभू को जानो, गुरू के शबद को मन में बसाओ, और सुरति को सांसारिक ख्वाहिशों से मोड़ लो। इसी ही विचार-कड़ी को जारी रख के और जोगियों ने पूछा कि वह कौन है जिसको आप 'भरपुरि रहिआ' कहते हो, और उसमें मन से तन से कैसे लीन हो के मुक्त हो सकते हैं।12।

सतिगुरू जी का उक्तर-परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक है, गुरू के शबद द्वारा मन से तन से उसमें जुड़ के 'दुनिया सागर दुतरु' से मुक्त हुआ जाता है। पर जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, वह चाहे मुंद्रा, खिंथा आदि भी धारण कर ले, फिर भी वह जनम-मरन के चक्कर में पड़ा रहता है।13।

(14,15,16) प्रश्न-यह जीव कैसे ऐसा बँधा हुआ है कि सर्पनी माया इसे खाए जा रही है, और ये आगे से अपने बचाव के लिए भाग भी नहीं सकता?

उक्तर- मनुष्य खोटी मति का शिकार हुआ रहता है, माया सर्पनी इसको अंदर-अंदर से खाती जा रही है, पर चस्कों में से इसका निकलने को जी नहीं करता, चस्कों का यह अंधकार इसको अच्छा लगता है। जो मनुष्य गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलता है उसका मन चस्कों से ऊपर उठ के एक ऐसी अवस्था पर पहुँचता है जहाँ माया वाली भटकना छू नहीं सकती, जहाँ माया के फुरनों की ओर से, जैसे, शून्यता बनी रहती है।

घर त्याग के किसी गुफा में समाधि लगाने के बजाय हम गृहस्त में रहते हुए ही उस सहज-गुफा में बैठ के सुंन-समाधि लगाते हैं।15, 16।

(17,18) प्रश्न-जब सुमेर पर्वत पर आप हमें मिले थे, तब तो आपने भी उदासी भेष धारण किया हुआ था। अगर 'हाटी बाटी' को त्यागना नहीं है, तो आपने घर क्यों छोड़ा था? इस संसार-सागर से पार लांघनें के लिए अपने सिखों को आप कौन सा रास्ता बताते हो? ।17।

उक्तर-हम तो तब गुरमुखों को ढूँढने के लिए घर से निकले थे। 'दुतर सागर' से पार लांघने के लिए गृहस्त त्यागने की जरूरत नहीं, मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के प्रभू का नाम सिमर के विकारों से बच सकता है।18।

(19,20) प्रश्न- दुनिया में रह के माया के प्रभाव से बचना इस तरह ही बहुत मुश्किल है जैसे कोई मनुष्य दाँतों के बग़ैर लोहा चबाने की कोशिश करे। हे नानक! तूने अपनी जिंदगी कैसे पलट ली? मन की आशाएं और मन के फुरने तूने कैसे समाप्त कर लिए? तुझे कैसे मिल गया ईश्वरीय प्रकाश?।19।

उक्तर-माया की चोट से बचना है तो वाकई लोहा चबाने के समान, बड़ा मुश्किल। पर मैं जैसे जैसे गुरू की शिक्षा पर चला, मेरे मन की भटकना खत्म होती गई। जैसे जैसे मुझे प्रभू के चरणों में जुड़ने का आनंद आया, मेरा मन ठहरता गया। गुरू के शबद की बरकति से मेरे मन के फुरने और दुनिया की आशाएं खत्म होती गई। मुझे ईश्वरीय-प्रकाश मिल गया, और माया मेरे नजदीक ना पहुँच सकी। ये सब कुछ प्रभू की अपनी मेहर थी।20।

नोट: धर्म से संबंध रखने वाले व्यक्तियों का ये स्वभाव ही बन गया है कि वे सृष्टि की उत्पक्ति के बारे में प्रश्न भी धर्म में से हल करना चाहते हैं। जोगियों ने भी अब गुरू नानक देव जी से ऐसे ही सवाल पूछने शुरू कर दिए।

(21,22,23) प्रश्न- सृष्टि की उत्पक्ति के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? जब जगत नहीं होता, तब निर्गुण-स्वरूप प्रभू कहाँ रहता है? ये जीव कहाँ से आता है? कहाँ चला जाता है?

नोट: इन प्रश्नों के साथ-साथ और भी साधारण प्रश्न भी जोगियों ने पूछे: ज्ञान प्राप्त करने का क्या साधन है? मौत का डर कैसे दूर किया जा सकता है? कामादिक वैरियों पर विजय कैसे पाई जा सकती है?

नोट: पौड़ी नंबर 21 और 22 में छे-छे तुकें हैं। दोनों पौड़ियों की पहली चार-चार तुकों में जोगियों द्वारा किए गए प्रश्न हैं, और आखिरी दो-दो तुकों में सतिगुरू जी द्वारा साधारण सा उक्तर है, फिर पौड़ी नंबर 23 में विस्तार से उक्तर दिया गया है।

उक्तर-सृष्टि की उत्पक्ति का विचार तो हैरानी ही हैरानी पैदा करता है, कोई भी इसके बारे में कुछ नहीं बता सकता। जब जगत नहीं था तब परमात्मा अपने आप में ही समाया हुआ था। जगत रचना हो जाने पर ये जीव प्रभू के हुकम में ही यहाँ आता है और हुकम के अनुसार ही यहाँ से चल पड़ता है।

और प्रश्नों के उक्तर- ज्ञान प्राप्त करने का असल साधन ये है कि मनुष्य सतिगुरू की शरण पड़े। सतिगुरू के शबद द्वारा ही अदृश्य प्रभू में लीन हुआ जा सकता है, कामादिक वैरियों पर विजय पाई जा सकती है, और मौत का डर नहीं सताता।

नोट: इससे आगे पौड़ी नंबर 42 तक प्रश्नोक्तर नहीं हैं। सतिगुरू जी खुद ही अपने मत की व्याख्या करते हैं।

(24) गुरू-शबद की बरकति से मनुष्य को यकीन बन जाता है कि ये सारा जगत-पसारा प्रभू ने अपने-आप से बनाया है। इस ऊँची आत्मिक अवस्था पर पहुँच के वह मनुष्य सब जीवों में उसी ज्योति को देखता है जो उसके अपने अंदर है, सब जीवों से दया-प्रेम का बर्ताव करता है, और, उसका अपना हृदय-कमल खिला रहता है। बस! यही है असल योगी।

(25) गुरू-शबद में टिका रहने वाला मनुष्य प्रभू में जुड़ा रहता है। पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य सदा भटकना में पड़ा रहता है, नाम बिसारने के कारण उसको सदा ही अहंकार की पीड़ा सताती है। इससे निजात पाने का एक मात्र गुरू-शबद ही तरीका है।

(26) अपने मन के पीछे चलने वाला सख्श कई किस्म के विकारों वाले बुराईयों के रास्ते पर पड़ा रहता है, मुँह से भी जब बोलता है, दुर-वचन ही बोलता है, इस तरह वह हमेशा घाटे वाले रास्ते पर ही चलता है।

(27) गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य गुरू-शबद की सहायता से अपने इस अमोघ मन को सुधारता है, प्रभू की सिफत-सालाह के द्वारा ऊँचा आत्मिक जीवन बना के प्रभू में ही एक रूप हो जाता है।

(28) गुरू के सन्मुख हो के मनुष्य ज्यों-ज्यों गुरू के शबद में जुड़ता है, इसकी समझ ऊँची होती जाती है, अपनी आत्मा की इसको सूझ पड़ जाती है और संसार के विकारों से बच के जीने की जाच आ जाती है।

(29) गुरमुख मनुष्य घर-बार वाला होते हुए ही जिंदगी की बाजी में सिद्ध-हस्त हो जाता है, क्योंकि शबद की सहायता से वह प्रभू की प्रेमा-भगती करता है और शुद्ध-आचरण वाला बनता है, उसके अंदर अहंकार (खुदगर्जी) नहीं रहती।

(30) परमात्मा ने यह जगत बनाया ही इसलिए है कि इसमें मनुष्य सतिगुरू के शबद के द्वारा प्रभू से प्यार जोड़ के गुरमुख बनें और यहाँ से इज्जत कमा के जाएं।

(31) गुरू के सन्मुख हो के मनुष्य को ये समझ आ जाती है कि यहाँ गुण ग्रहण करने हैं और विकार त्यागने हैं; गुरमुख को किसी रिद्धि-सिद्धि की चाहत नहीं रह जाती।

(32,33, 34) ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रभू की याद में जुड़ता है, उसका अहंकार (खुदगर्ज स्वभाव) दूर होता है, और सारी सृष्टि ही इसको अपनी लगने लगती है। परमात्मा के साथ मिलाप का वसीला ही यही है कि उसकी याद में जुड़ें, क्योंकि नाम-सिमरन में जुड़ने से ही प्रभू के गुणों के साथ जान-पहचान बनती है। पर नाम की दाति सिर्फ गुरू के पास से ही मिलती है। कोई अपने आप को जोगी कहलवाए अथवा सन्यासी, जो गुरू के शबद में नहीं जुड़ा वह माया-जाल में ही फसा रहा।

(35) गुरू के सन्मुख रहके मनुष्य ज्यों-ज्यों प्रभू में सुरति जोड़ता है उसका मन प्रभू की याद में जुड़ जाता है, और विकारों की मार नहीं खाता।

(36) अपने आप को गुरू के हवाले करने से ही मनुष्य का मन नाम में अडोल रह सकता है। स्वै को गुरू के अर्पण करना ही असल में दान है, गुरू-तीर्थ में डुबकी लगानी ही असल तीर्थ-स्नान है। ऐसा मनुष्य औरों को भी प्रभू-चरणों में जोड़ता है।

(37) गुरू के हुकम में चलना ही सभी धर्म-पुस्तकों का ज्ञान है। गुरू के हुकम में चल के मनुष्य परमात्मा की सर्व-व्यापकता का भेद समझ लेता है। इसलिए वह दूसरों के साथ वैर-विरोध रखना बिल्कुल ही भुला देता है। बस! ईश्वर को पहचाना ही उसने है (ईश्वर के साथ सांझ डाली ही उसने है) जो गुरू के हुकम में चला है।

(38) जब तक मनुष्य गुरू के बताए हुए रास्ते पर नहीं चलता, इसका मन माया के मोह (लालच) की चोटें खाता रहता है, कोई भी और घाल-मुशक्कत मनुष्य को इस मार से नहीं बचा सकती।

(39) जिस मनुष्य को सतिगुरू मिल जाता है वह अपने तन को सुंदर सी दुकान पर मन को व्यापारी बना के माया के मोह की ओर से अडोल रहके नाम का वणज करता है। इस तरह माया के बँधनों से निजात पा के वह संसार-रूप 'दुतर सागर' से पार लांघ जाता है।

(40) रावण सीता को समुंद्र से पार लंका में ले के गया था, श्री रामचंद्र जी ने समुंद्र पर पुल बाँधा, दैत्यों को मारा, लंका लूटी और सीता को छुड़ा के ले आए। घर के भेदी विभीषण के बताए हुए भेद ने ये सारी मुहिम में बहुत सहायता की।

इस तरह, माया-ग्रसित मन ने जीव-स्त्री को प्रभू-पति से विछोड़ा हुआ है। दोनों के बीच संसार-समुंदर की दूरी बनी हुई है। परमात्मा ने जगत में गुरू भेजा। गुरू, मानो, पुल बन गया। जिस जीव-स्त्री को गुरू मिला, उसकी प्रभू-पति से दूरी मिट गई। गुरू ने घर का भेद समझाया कि कैसे मन विकारों में फसाता है। सो, गुरू-शरण आ के लाखों पत्थर-दिल जीव संसार-समुंद्र से पार लांघते हैं।

(41) जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है वह खोटे और खरे कामों का भेदी हो जाता है, इस वास्ते वह खोटे कामों में फसता नहीं, सिर्फ प्रभू की सिफत-सालाह में उसकी सुरति टिकी रहती है, जिसकी बरकति के सदका कोई विकार उसके जीवन-सफर में रुकावट नहीं डाल सकता।

(42) अहंकार और हरी-नाम एक साथ नहीं रह सकते। जो मनुष्य सतिगुरू की शरण पड़ता है, वह गुरू-शबद में मन जोड़ के अंदर से अहंकार (खुद गर्जी) दूर कर लेता है, सिफत सालाह की बरकति से उसको सारे संसार में ही परमात्मा की ज्योति दिखाई देती है।

नोट: इससे आगे फिर प्रश्नोक्तरों का सिलसिला आरम्भ होता है।

(43,44) प्रश्न- मनुष्य किस के आसरे जीवित रह सकता है? मनुष्य किस की शिक्षा पर चले कि 'दुतर सागर' दुनिया में रहते हुए भी माया के मोह से निर्लिप रह सके?

उक्तर-जीवन सांसों के आसरे टिका रहता है। अगर मनुष्य सतिगुरू के शबद में अपनी सुरति जोड़े रखे, परमात्मा के गुण याद रखता रहे, तो माया के मोह से बचा रहता है, क्योंकि गुरू-शबद से मनुष्य के अहंकार की आग जल जाती है।

(45,46, 47) मनुष्य के अंदर ईश्वरीय ज्योति बस रही है जो प्यार, कोमलता और शांति का पुँज है; पर माया की ममता के कारण इस जीव को तृष्णा की आग ने घेरा हुआ है, इस आग में जीव जलता है और भटकता है। अहंकार में फस के जीव दूसरों से रूखा सलूक करता है, इस रूखे-पन के कारण जीवन दुखदाई हो जाता है, जैसे, जीव को लोहा चबाना पड़ रहा है।

नोट: जोगी गुरू नानक देव जी से इस अवस्था के बारे में रम्ज़ भरे प्रश्न पूछते हैं;

प्रश्न- मोम के दाँतों के साथ लोहा कैसे चबाया जाए?

बर्फ के घर के चारों तरफ अगर आग का चोला डाला हुआ हो, तो कौन सी गुफा बरतें जहाँ वह बर्फ पिघले ना?

उक्तर-ईश्वरीय कोमलता और शांति बर्फ के समान हैं, इसको तृष्णा की आग से बचाने के लिए एक ही तरीका है कि मनुष्य गुरू की रजा में चले, और हर जगह एक परमात्मा को ही देखे। गुरू की रजा के अंदर रहना एक ऐसी गुफा है जहाँ तृष्णा की आग अंदरूनी आत्मिक शांति को मिटा नहीं सकती।

ज्यों-ज्यों मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है त्यों-त्यों उसका अहंकार बढ़ता है, दूसरों के साथ रूखा सलूक करता है, और चारों तरफ़ से अपने लिए रूखापन सहेड़ता है जो इसको दुखी करता है। इसका इलाज यही है कि मनुष्य सतिगुरू के शबद में अपना मन जोड़े; शबद की बरकति से ज्यों-ज्यों अहंकार मिटेगा, जगत की ओर से भी रूखा सलूक नहीं होगा। इस तरह अपने अंदर नया पैदा हुआ प्यार बाहरी रूखे बोलों को खत्म कर देगा। यही है मोम के दाँतों से लोहे को चबाना।46।

सतिगुरू के शबद की सहायता से परमात्मा का अदब हृदय में टिकाने से मनुष्य का तन-मन शीतल हो जाता है, इस शीतलता की बरकति से वह काम-क्रोध-अहंकार और तृष्णा की अग्नि समाप्त हो जाती है जो इस जीवन को दुखी बना रही थीं।47।

नोट: उस चर्चा को जारी रखते हुए जोगियों ने फिर रम्ज़ भरे अंदाज में पूछा कि (48 से 49)

वह कौन सा तरीका है जिससे बर्फ का चन्द्रमा अपना प्रभाव बनाए रखे? और

कैसे सूरज तपता रहे?

भाव

1. किस तरह मनुष्य के मन में सदा ठंड-शांति बनी रह सकती है?

2. कैसे मन में ज्ञान का प्रकाश सदा बना रह सकता है?

3. कैसे मौत का सहम मनुष्य के मन से दूर हो? ।48।

उक्तर-ज्यों-ज्यों मनुष्य गुरू के शबद को अपने मन में बसाता है, उसके अंदर शांति पैदा होती है, और शांत हृदय में ज्ञान का सूरज चढ़ने से मनुष्य के अंदर से अज्ञानता का अंधेरा दूर हो जाता है।

गुरू-शबद की बरकति से जब मनुष्य प्रभू की याद को अपनी जिंदगी का रास्ता बनाता है तो प्रभू इसको 'दुतर सागर' से पार लंघा लेता है। सतिगुरू के शबद के साथ गहरी सांझ बनाने से मन हर वक्त प्रभू-चरणों में लीन रहने के कारण उसे मौत का सहम नहीं व्यापता।49।

नोट: अगली पाँच पौड़ियों में प्रभू की याद की महत्वता के बारे में ही जोर देते हैं;

प्रभू का नाम सिमरने से मेर-तेर वाला स्वभाव दूर हो जाता है, मनुष्य के अंदर रॅबी-जीवन की एक ऐसी लहर चल पड़ती है कि जीव का प्रभू के साथ मिलाप सदा के लिए पक्का हो जाता है।50।

नाम-सिमरन की बरकति से मनुष्य को ये समझ आ जाती है कि परमात्मा हरेक घट में मौजूद भी है और फिर भी उस पर माया का कोई असर नहीं पड़ता। इस यकीन से ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रभू की याद में जुड़ता है, वह खुद भी दुनिया की किरत-कार करता हुआ माया के मोह से बचा रहता है।51।

ये बात याद रखने वाली है कि ये ऊपर वर्णन किया गया निर्लिप और शून्य अवस्था वाला जीवन जीने से ही इस अवस्था की समझ पड़ सकती है। इस अवस्था में टिके हुए लोग परमात्मा जैसे ही हो जाते हैं।52।

सिमरन की बरकति से मनुष्य को परमात्मा अपने अंग-संग और सबमें व्यापक दिख जाता है, निर्लिप अवस्था उसके अंदर इतनी बलवान हो जाती है कि कोई भी और विचार वहाँ नहीं आ सकता, उसकी इन्द्रियों की मायावी पदार्थों की तरफ की दौड़ खत्म हो जाती है।53।

सिफतसालाह की बाणी मनुष्य को परमात्मा में जोड़े रखती है, इस बाणी की सहायता से गुरमुखि खुद विकारों से बचा रहता है व दूसरों को भी 'दुतर सागर' से बाहर लंघाता है।54।

(55,56, 57) प्रश्न- बुरी मति के पीछे लग के मनुष्य लोगों में आदर-ऐतबार गवा लेता है, दुनिया के विकारों में फसा होने के कारण मौत से भी हर वक्त सहमा रहता है। ऐसा मारें सदा खाता है और दुखी होता है, फिर भी इसको जीवन के सही रास्ते की समझ नहीं पड़ती। इसे कैसे समझ आए, और बुरी मति से इसकी कैसे खलासी हो?

उक्तर-गुरू की शरण पड़ कर, गुरू के शबद के विचारने से दुर्मति दूर हो जाती है, ऐसा मनुष्य विकारों में पड़ने की बजाए नाम-धन कमा के खुद 'दुष्तर सागर' से पार लांघता है। व औरों को भी इस रास्ते की सूझ देता है; उसके हर तरफ प्रभू ही प्रभू व्यापक दिखाई देता है।56, 57।

(58,59 60) प्रश्न-जिस शबद की बाबत तुम कहते हो कि उसके द्वारा संसार-समुंद्र तैरा जा सकता है उस शबद का निवास कहाँ है?

ये श्वास, जो बाहर निकालने पर हवा दस उंगली के फासले तक बाहर जाती है, ये दस-उंगल-प्रमाण श्वास किसके आसरे हैं?

उक्तर-प्रभू और प्रभू की सिफतसालाह का शबद एक-रूप ही हैं, मैं जिधर देखता हूँ शबद ही शबद है। और, जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर की नजर करता है उसके हृदय में यह शबद बसता है। जो मनुष्य इस शबद को पहचान लेता है उस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता, उसके अंदर से मेर-तेर मिट जाती है।

यह सिफत-सालाह का शबद ही, प्रभू का नाम ही, गुरमुखि के श्वासों का आसरा है, गुरमुखि श्वास-श्वास प्रभू को याद करता है। गुरमुखि मनुष्य को अपने स्वरूप की समझ बख्शता है। गुरमुख को ये ज्ञान हो जाता है कि प्रभू का मिलाप ईड़ा, पिंगला, सुखमना के अभ्यास से ऊपर है, प्रभू में तो गुरू के शबद द्वारा ही लीन हो सकते हैं।59।60।

नोट: पौड़ी नंबर: 61 में दो बार प्रश्न किए हैं, और इसी में ही उक्तर भी दिए गए हैं। पौड़ी नं: 62 और 63 में उन उक्तरों का विस्तार है।

(61,62, 63) प्रश्न- प्राणों का आसरा क्या है? और ज्ञान की प्राप्ति का कौन सा साधन है?

उक्तर-सतिगुरू का शबद ही गुरमुख के प्राणों का आसरा है।

प्रश्न- वह कौन सी मति है जिससे मन सदा टिका रह सकता है?

उक्तर-गुरू से जो मति मिलती है उससे मन अडोल हो जाता है, चाहे सुख मिले या दुख हो।

जिस मनुष्य ने सतिगुरू के शबद का आसरा नहीं लिया, वह जती बन के भी कुछ नहीं कमाता, और प्राणायाम में से उसको कुछ हासिल नहीं होता।

ज्ञान की प्राप्ति का साधन केवल गुर-शबद ही है; जिसको यह दाति मिलती है उसकी तृष्णा-अग्नि बुझ जाती है, उसको आत्मिक सुख प्राप्त हो जाता है।

(64, 65) प्रश्न-यह मन जो आम तौर पर माया में मस्ताया रहता है कहाँ टिकता है? ये प्राण कहाँ टिकते हैं

जिस शबद से तुम्हारे मत के मुताबिक मन की भटकना समाप्त होती है वह शबद कहाँ बसता है?

उक्तर-जब प्रभू मेहर की नजर करता है तो मनुष्य गुरू के हुकम में चलता है और ये मन अडोल हो के अंदर ही हृदय में टिक जाता है। प्राणों का स्तम्भ नाभि है। दुष्तर सागर से तैराने वाला शबद शून्य प्रभू में टिकता है, भाव शबद और प्रभू में कोई भेद नहीं है। शबद के द्वारा ये समझ आ जाती है कि ईश्वरीय जीवन की रौंअ हर जगह एक-रस व्यापक है।

(66,67) प्रश्न- जब ना ये हृदय था, ना ही ये शरीर था, तब मन (चेतन सक्ता) का ठिकाना कहाँ था?

जब नाभि का चक्कर ही नहीं था, तब श्वास कहाँ टिकते थे?

जब कोई रूप-रेख नहीं था, तब शबद का ठिकाना कहाँ था?

जब ये शरीर नहीं था, तब मन प्रभू में कैसे जुड़ता था?

उक्तर-जब हृदय और शरीर नहीं थे, तब वैरागी मन निर्गुण प्रभू में लीन था।

जब नाभि, चक्र का स्तम्भ नहीं थी, तब प्राण भी प्रभू में ही टिके हुए थे।

जब जगत का रूप-रेख ही नहीं था, तब 'दुष्तर सागर' से तैराने वाला शबद भी प्रभू में ही लीन था, क्योंकि जब जगत का अस्तित्व ही नहीं था, तब आकार-रहित त्रिभवणी ज्योति स्वयं ही स्वयं थी।

(68,69,70, 71) प्रश्न-जगत क्यों पैदा होता है? और, दुखी क्यों होता है?

उक्तर- जगत अहंकार में पैदा होता है (भाव, जगत की भाग-दौड़ स्वार्थ के आसरे है)। अगर इसको प्रभू का नाम बिसर जाए तो ये दुख पाता है। जो मनुष्य गुरू के शबद द्वारा अहंकार (स्वार्थ) को जलाता है वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा में टिका रहता है।68।

नोट: पौड़ी नं: 69,70 और 71 में फिर इसी ख्याल पर जोर देते हैं कि सतिगुरू के बताए हुए रास्ते पर चलना ही जीवन का सही रास्ता है, सतिगुरू की बाणी के द्वारा ही परमात्मा मनुष्य के हृदय में प्रकट होता है। गुरू के हुकम में चलने वाला ही असल योगी है। गुरू के मिले बिना मनुष्य घोर अंधकार में टिका रहता है, और जिंदगी की बाजी हार के जाता है।

नोट: पौड़ी नंबर 72 में सारी चर्चा का तत्व-सार बताते हैं।

(72) सारे उपदेश का तत्व-सार ये है कि प्रभू की याद के बिना जोग (प्रभू से मिलाप) नहीं है, और, प्रभू का नाम सतिगुरू से ही मिलता है।

(73) नोट: जैसे एक लंबी बाणी के आरम्भ में मंगलाचरण की पौड़ी थी, अब पौड़ी नं: 72 तक 'प्रभू मिलाप' के बारे में सारी चर्चा समाप्त करके आखिर में 'प्रार्थना' है, हे प्रभू! ये बात तू खुद ही जानता है कि तू कैसा और कितना बड़ा है। जिनको तू बँदगी की दाति बख्शता है वे तेरे दर्शन से बलिहार जाते हैं। तू खुद ही इस रचना की खेल रचने वाला है।

सिध गोसटि (सिद्ध गोष्ठी) के दौरान जोगियों द्वारा किए गए प्रश्न

गुरू नानक देव से किए गए निजी प्रश्न:

तुम्हारा मत क्या है और उसका उद्देश्य क्या है?

तुम्हारे मत के मुताबिक संसार-समुंद्र से कैसे पार लांघा जाता है?

तुम जो कहते हो कि गुरू के माध्यम से संसार-समुंद्र तैरा जाता है, ये कैसे पता लगे कि गुरू मिल गया है

नोट: ये तीनों प्रश्न चरपट जोगी ने किए थे। गुरू नानक देव जी का उक्तर सुन के लोहारीपा जोगी ने जगत से अछोह रहने के लिए अपने अपने मत की प्रशंसा की- घर-बार छोड़ के वृक्षों के नीचे ठिकाना, कंद-मूल खा के गुजारा करना, तीर्थ-स्नान, मुंद्रा झोली गोदड़ी आदि धारण करने - इस तरह मन माया की चोट से बच जाता है।

पर सतिगुरू जी ने इस रास्ते को गलत बताया।

इससे आगे जोगियों द्वारा खुले सवाल हैं।

किसी विशेष जोगी की ओर से नहीं।

वह कौन है जिसे तुम 'भरपुरि रहिआ' कहते हो? उसमें कैसे मन से तन से लीन हो के मुक्त हुआ जा सकता है?

ये जीव कैसे ऐसा बँधा पड़ा है कि सपनी माया इसे खाए जा रही है, और ये आगे से अपने बचाव के लिए भाग भी नहीं सकता?

जब आप हमें सुमेर पर्वत पर मिले थे, तब आपने भी उदासी का भेष धारण किया हुआ था। 'अगर 'हाटी बाटी' को त्यागना ही नहीं, तब आपने घर छोड़ा क्यों था? तुम अपने सिखों को कौन सा रास्ता बताते हो?

दुनिया में रहके माया के प्रभाव से बचना वैसे ही बड़ा मुश्किल है, जैसे कोई मनुष्य दाँतों के बिना लोहा चबाने की कोशिश करे। हे नानक! तूने अपने जिंदगी कैसे पलट ली? मन की आशाओं और मन के फुरने कैसे खत्म कर लिए? ईश्वरीय प्रकाश तुम्हें कैसे मिल गया?

सृष्टि की उत्पक्ति के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? जब जगत नहीं होता, तब निर्गुण-रूप प्रभू कहाँ टिका रहता है? ये जीव कहाँ से आता है? कहाँ चला जाता है?

ज्ञान प्राप्त करने के क्या साधन हैं?

मौत का डर कैसे दूर हो सकता है?

कामादिक वैरियों को कैसे जीता जाता है?

मनुष्य किस आसरे से जीवित रह सकता है? किस की शिक्षा पर चल कर मनुष्य दुनियाँ में रहता हुआ भी माया के मोह से बचा रह सकता है?

मोम के दाँतों से लोहा कैसे चबाया जाए? यदि बर्फ के घर के चारों तरफ आग का गोला हो, तो कौन सी गुफा बरतें कि बर्फ पिघल ना जाय?

वह कौन सा वसीला है जिससे बर्फ का घर-चंद्रमा अपना प्रभाव बनाए रखे? किस तरह सूरज हमेशा तपता रहे? मौत का सहम कैसे दूर हो?

बुरी मति के पीछे लग के मनुष्य इज्जत-ऐतबार गवा लेता है, हर वक्त सहमा भी रहता है। इस दुमर्ति से खलासी कैसे मिले?

जिस शबद की बाबत तुम कहते हो कि उसके द्वारा संसार-समुंद्र तैरा जाता है, उस शबद का निवास कहाँ है? ये दस-उंगल-प्रमाण प्राण किस के आसरे हैं?

प्राणों का आसरा क्या है? ज्ञान की प्राप्ति का कौन सा साधन है? मन कैसे सदा टिका रह सकता है?

जिस शबद के माध्यम से तुम्हारे मत के मुताबिक मन की भटकना खत्म होती है वह शबद बसता कहाँ है?

जब ना ये हृदय था, ना ये शरीर था तब चेतन-सक्ता का ठिकाना कहाँ था? जब नाभि का चक्र ही नहीं था, तब श्वास कहाँ टिकते थे? जब कोई रूप-रेख ही नहीं था, तब शबद का ठिकाना कहाँ था? जब ये शरीर ही नहीं था, तब मन प्रभू में कैसे जुड़ता था?

जगत क्यों पैदा होता है? और, जगत दुखी क्यों होता है?

सिध गोष्ठि का केन्द्रिय भाव

हरेक शबद का, अथवा लंबी बाणी का केन्द्रिय भाव उन तुकों में हुआ करता है जिनके आखिर में शब्द 'रहाउ' लिखा होता है। शब्द 'रहाउ' का अर्थ है 'ठहर जाउ', भाव, अगर आपने सारे शबद का या सारी बाणी का केन्द्रिय भाव समझना है तो इन तुकों को ध्यान से विचारो।

'सिध गोसटि' की 'रहाउ' की तुकें ये है;

किआ भवीअै? सचि सूचा होइ॥

साच सबद बिनु मुकति न कोइ॥

सो, 'सिध गोसटि' का केन्द्रिय विचार है- गृहस्त छोड़ने का कोई लाभ नहीं। गृहस्त छोड़ के कोई सच्चा व पवित्र नहीं हो सकता, माया के बँधनों से आजादी नहीं मिलती। परमात्मा की याद में जुड़ने से मन पवित्र होता है। जब तक प्रभू की सिफतसालाह की बाणी में मन ना जुड़े, माया की कसक से खलासी नहीं होती।

सारी 'सिध गोसटि' में इसी केन्द्रिय विचार का विस्तार है।

जोगियों और गुरू नानक देव जी केमत में फर्क;

मनुष्य आजीविका के लिए पहले रोजी कमानी आरम्भ करता है। पर सहजे-सहजे उस कमाई से मनुष्य का प्यार बढ़ना शुरू हो जाता है। यहाँ तक, कि आखिर इसको हर समय अपने ही सुख का, अपने ही बड़प्पन का ख्याल बना रहता है। गुरमति की बोली में इस अवस्था का नाम 'हउमै' (अहंकार) है। इसका कुदरती नतीजा यह निकलता है कि इसके अंदर मेर-तेर बढ़ती है, भेदभाव पक्का होता जाता है, अपनापन और बेगानापन बढ़ता जाता है। सतिगुरू जी ने इस हालत को बयान करने के लिए शब्द 'दुबिधा' बरता है। 'दुबिधा' का अर्थ है 'दो किस्म का', 'दो हिस्सों में बँटा हुआ'। मन की यही अवस्था भेदभाव का मूल है। ये 'दुबिधा' कहाँ से पैदा होती है? 'हउमै' से, अहंकार से।

'हउमै दो शब्दों का जोड़ है- 'हउ' और 'मैं'। 'हउ' संस्कृत के शब्द 'अहं' का प्राक्रित रूप है, जिसका अर्थ है 'मैं'। सो, 'हउमै' का अर्थ है 'मैं मैं' हर बात में, हर जगह, हर समय यही ख्याल बना रहना कि 'मैं बड़ा बन जाऊँ, मैं अमीर हो जाऊँ, इस काम में से मैं ही कमा लूँ, मैं ही मैं, मैं ही मैं'। भाव, स्वार्थ खुदगर्जी। जिस मनुष्य ने स्वार्थ को ही जीवन का निशाना बना लिया हो, वह कुदरती तौर पर भेदभाव में फस जाता है, दूसरों का नुकसान करके भी अपना लाभ सोचता है।

परिवार, कौम, देश, दुनियाकहीं भी ध्यान मार के देख लो, हर जगह स्वार्थ ही, वैर-विरोध का मूल है। एक घर के जीव खुदगर्जी के कारण वैरी बन जाते हैं, एक ही कौम के लोग एक ही देश के बाशिंदे एक-दूसरे के लहू के प्यासे हो जाते हैं, देश-देश आपस में टकरा जाते हैं। यह स्वार्थ दुनिया को नर्क बना देता है। स्वार्थी व्यक्ति दूसरों को भी दुखी करता है, और खुद भी सुखी नहीं रह सकता।

जोगियों ने इसका इलाज ये समझा कि घर-घाट छोड़ के, मल्कियत खत्म करके जंगल बसेरा कर लिया जाय। पर, माया सिर्फ स्त्री-बच्चों का प्यार ही नहीं, माया केवल धन का नाम नहीं। माया के अनेकों रूप हैं। जंगल में किए तपों का घमण्ड भी माया है, समाधियों की एकाग्रता से पैदा हुई मानसिक ताकतों का नशा भी माया है, इन मानसिक शक्तियों के आसरे लोगों को वर-श्राप के लालच-डरावे देने भी माया के हाथों में ही खेलना है। जंगलों में जा के भी 'मैं मैं' ही टिकी रही, 'मैं वर दे सकता हॅूँ, मैं श्राप दे सकता हूँ' अहंकार और क्रोध बने रहे।

धरती के सारे मनुष्यों के लिए यह रास्ता है ही असम्भव। काम-काज छोड़ने से, सारे जीवों के लिए वृक्ष खुराक पैदा नहीं कर सकते। अगर सारे ही मनुष्य गृहस्त छोड़ के जंगल में चलें जाएं, तो मनुष्य जाति ही खत्म हो जाएगी। पर अगर जंगल जा के भी, स्त्री-पुरुष संबंध बने रहे, तो फिर गृहस्त हो गया।

गुरू नानक देव जी का रास्ता यह है कि गृहस्त में ही रह के 'हउमै' का त्याग किया जाए। 'हउमै' ही जगत के दुखों का मूल कारण है। 'हउमै' को त्यागना है दुखों से बचने के लिए। पर सिर्फ त्याग से क्या बनेगा? असल निशाना है मन की शांति, मन का सदीवी सुख। सुख-शांति का श्रोत है परमात्मा। सो नरक भरे जीवन से बचने के लिए परमात्मा में मिले रहना आवश्यक शर्त है। पर, पूर्ण मिलाप सिर्फ उन पदार्थों का ही हो सकता है जिनका असल एक ही हो। पानी और तेल को बोतल में डाल कर जितना मर्जी हिलाएं, फिर भी वे अलग-अलग ही रहेंगे। परमात्मा है सारे जीवों को प्यार करने वाला, हम है सिर्फ अपने आप को प्यार करने वाले। वह है सर्व-प्रिय, हम हैं स्वै-प्रिय। वह है अल-गरज, हम हैं खुद गरज। खुद-गरज और अल-गरज एक जान कैसे हो सकेंगे?

हउमै नावै नालि विरोधु है, दुइ न वसहि इक ठाइ॥

फिर, मेल का कोई तरीका? हाँ, पानी बन के ही पानी में समाया जा सकता है। हमारा और प्रभू का स्वभाव मिलने पर ही हम उसमें एक-मेक हो सकते हैं। अपने आप को प्यार करना छोड़ दें, परमात्मा की तरह सारी सृष्टि को प्यार करने लग पड़ें। कोई ऐसा प्रबंध बने कि सारा ही जगत प्रभू-पिता का एक ही परिवार दिखने लग जाए। स्वभाव मिलाने का एक मात्र तरीका है वह है प्यार। जिसके साथ गहरा प्यार बन जाय, उसके साथ स्वभाव भी मिल जाता है। पर यह गहरा प्यार कैसे पड़े? जिससे प्यार हो? उसे याद किए बिना नहीं रह सकते। जैसे-जैसे बार-बार किसी को याद करते रहें, वैसे-वैसे उसके साथ प्यार बढ़ता जाता है। याद और प्यार, प्यार और याद-इनका आपस में गहरा रिश्ता है। परमात्मा की याद परमात्मा से प्यार पैदा करेगी। प्यार उसके साथ हमारा स्वभाव मिलाएगा। हम खुद-गरजी से हट के सारे जगत को एक का परिवार समझ के सारे जगत से प्यार करने लगेंगे। बस! स्वभाव मिल गया तो एक हो गए;

'जिउ जल महि जलु आइ खटाना॥
तिउ जोती संगि जोति समाना॥'

सो, गुरू नानक देव जी का ये मार्ग है कि गृहस्त में रहते हुए ख़लकत के लिए जीएं; ख़लकत से प्यार, ख़ालक से प्यार डालने पर ही बन सकता है।

सिध गोसटि के लिखे जाने का अवसर:

संन् 1521 में तीसरी 'उदासी' (गुरू नानक देव जी द्वारा की गई तीन यात्राओं में से तीसरी यात्रा) से वापस आ के गुरू नानक देव जी पक्के तौर पर करतारपुर आ के बस गए थे। करतारपुर सन् 1515 के आखिर में बसाया गया था, जब सतिगुरू जी पहली 'उदासी' से वापस आ के तलवंडी माता-पिता को मिलने के बाद पखोके रंधावे अपनी पत्नी और बच्चों को मिलने के लिए आए थे। सतिगुरू जी ने सिर्फ तीन 'उदासियां' ही की थीं।

करतारपुर रावी नदी के उक्तरी किनारे पर बसा हुआ है। यहाँ से बटाला नगर तकरीबन 21 मील की दूरी पर दक्षिण की ओर है। डेहरा बाबा नानक से बटाले को सीधी सड़क जाती है। इस सड़क पर बटाले से तीन मील की दूरी पर एक मन्दिर है जिसका नाम 'अॅचल' है। यही मंदिर जोगियों का है। हर साल फाल्गुन के महीने यहाँ मेला लगता था, और, जोगी लोग दूर-दूर से यहाँ आ के इकट्ठे होते थे। इलाके के गाँवों के लोग इन जोगियों की बड़ी मानता-पूजा करते थे।

संन् 1539 के मेले पर गुरू नानक देव जी भी करतारपुर से चल कर अचॅल गए। जोगी गाँवों के भोले-भाले लोगों पर अपनी रिद्धियों-सिद्धियों का प्रभाव डाल रहे थे। यही इन लोगों की राशि पूँजी थी। किसी को वर का लालच देना और किसी को श्राप से डराना- यही था इनके पास हथियार, जिसके चलते गृहस्ती लोग इनकी मानता करते थे। पर, गुरू नानक देव जी के प्रचार का असर बढ़ रहा था। लोगों के दिलों में जोगियों की कद्र कम हो रही थी। जोगियों को भी ये काँटा चुभ रहा था।

जब जोगियों ने गुरू नानक देव जी को अचॅल के मेले में आया हुआ देखा, तो उन्होंने आपस में राय बनाई कि अब मौका है ढलता रसूख बहाल करने का, लोगों को करामातें दिखा के अपनी महानता का सिक्का जमाएं, जब गुरू नानक कोई करामात नहीं दिखा पाएगा, तो हमारे पैर फिर जम जाएंगे।

जोगियों ने लोगों को कई करिश्मे दिखाए। फिर गुरू नानक देव जी को भी वंगारा। पर सतिगुरू जी ने सिर्फ ये सादा सा उक्तर दिया कि हमारे पास तो केवल प्रभू की याद ही याद है जिसकी बरकति से हमें वह सब जीवों में दिखाई देता है, और हम किसी पर और कोई डर-दबाव नहीं डालते। लोगों को डराने की जगह उनसे प्यार करना- हमें सबसे बड़ी करामात यही दिखती है, और, ये करामात मिलती है साध-संगति में से।

सुनने-देखने वाले लोगों को जोगियों के तमाशों से गुरू नानक देव जी का उक्तर ज्यादा जचा। उनके रसूख पर बल्कि एक और चोट लगी। अब उन्होंने नया पैंतरा बदला। सारे जोगी सतिगुरू जी के चारों तरफ बहस करने के लिए इकट्ठे हो गए।

नोट: इस लेख के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए पढ़ें मेरा लेख 'गुरू नानक देव जी की उदासियाँ' पंना 114 पुस्तक 'गुरमति प्रकाश' (सिंघ ब्रदर्ज, बाजार माई सेवा, अमृतसर)

मुखिया सिध

जो बहस गुरू नानक देव जी की जोगियों के साथ हुई, सतिगुरू जी ने उसको इतमिनान से कविता का रूप दे के 'सिध गोसटि' नाम दिया। 'सिध गोसटि' में सतिगुरू जी ने सिर्फ दो सिधों का नाम लिखा है- चरपट और लोहारीपा। चर्चा छेड़ने वाले यही दोनों थे। यही मेले में एकत्र हुए जोगियों के मुखी होंगे। पर अन्य जोगी भी कई प्रश्न पूछते रहे। गुरू नानक देव जी ने वह सारे प्रश्न और अपनी ओर से दिए गए उक्तर तो 'सिध गोसटि' में दर्ज कर दिए हैं, पर प्रश्न करने वाले जोगियों के नाम नहीं दिए। हाँ, भाई गुरदास जी ने उनमें से एक का नाम भंगरनाथ दिया है, जिसने ये पूछा था कि अगर जिंदगी का सही रास्ता गृहस्त में रह के स्वार्थहीन होना है तो गृहस्त क्यों छोड़ा था।

नोट: पहला चरपट जोगी दसवीं शताब्दी में हुआ, गुरू नानक देव से पाँच सदी पहले। पर हम ये बात आम देखते हैं कि प्रसिद्ध हस्तियों के नाम उनके श्रद्धालु अपने परिवारों में बरतते रहते हैं। सिख पंथ में पाँच-प्यारों के नाम खास आदर-सत्कार रखते हैं, पर ये नाम आम बरते जा रहे हैं। कई सज्जन तो सतिगुरू जी के नाम के प्रयोग से भी नहीं झिझकते। इस तरह ये चरपट भी गुरू नानक देव जी के समय का कोई प्रसिद्ध जोगी है।

कब लिखी गई?

भाई गुरदास जी ने अपनी पहली 'वार' में इस बहस का काफी विस्तार से जिक्र किया है। वहाँ वे लिखते हैं कि शिवरात्रि का मेला सुन के गुरू नानक देव जी करतारपुर से अचॅल बटाले गए। मेला खत्म होने पर आप मुल्तान पहुँचे। मुल्तान से वापस करतारपुर आ के जल्द ही सतिगुरू जी ने बाबा लहिणा जी को अपनी जिम्मेवारी सौंप दी।

शिवरात्रि फरवरी-मार्च में आती है। गुरू नानक देव जी सितंबर 1539 में ज्योति-जोति समाए थे (देहांत)। इससे प्रकट होता है कि सिद्धों से सतिगुरू जी की गोसटि फरवरी-मार्च संन् 1539 में हुई थी, और मुल्तान से वापस करतारपुर पहुँच के सतिगुरू जी ने बाणी 'सिध गोसटि' लिखी थी, जो हर हालत में सितंबर से पहले थी।

नोट: जोगियों को गुरू नानक देव जी पहली 'उदासी' के वक्त भी 'गोरख मते' आदि जगहों पर मिले थे। दूसरी उदासी में तो गए ही सीधे सुमेर पर्वत पर और जोगियों के पास ही। जोगी हमेशा प्रश्न करते रहे, और सतिगुरू जी को अपने मत में लाने के लिए प्रेरते रहे। बाणी 'सिध गोसटि' में गुरू नानक देव जी ने वह सारे ही प्रश्नोक्तर दर्ज किए हैं। पहले मिलने की बाबत जोगी भंगरनाथ का प्रश्न बताता है।

'सिध गोसटि' के बारे में भाई गुरदास जी की लिखत

तीसरी 'उदासी' से वापस मुड़ के

फिरि बाबा आइआ करतारपुरि, भेख उदासी सगल उतारा॥ पहिरि संसारी कपड़े, मंजी बैठि कीआ अवतारा॥ उलटी गंग वहाईओनि, गुर अंगदु सिरि उपरि धारा॥ पुतरी कउलु न पालिआ, मनि खोटे आकी नसिआरा॥ बाणी मुखहु उचारीअै, हुइ रुशनाई मिटै अंधारा॥ गिआनु गोसटि चरचा सदा, अनहदि सबदि उठे धुनकारा॥ सोदरु आरती गावीअै, अंम्रित वेले जापु उचारा॥ गुरमुखि भारि अथरबणि तारा॥३८॥१॥

नोट: बाबा लहिणा जी संन् 1532 में गुरू नानक देव जी की शरण आए थे।

मेला सुणि सिवराति दा, बाबा अचल वटाले आई॥ दरसनु वेखणि कारने, सगली उलटि पई लोकाई॥ लगी बरसणि लछमी, रिधि सिधि नउ निधि सवाई॥ जोगी वेखि चलत्र नो, मन विचि रिसकि घनेरी खाई॥ भगतीआ पाई भगति आणि, लोटा जोगी लइआ छपाई॥ भगतीआ गई भगति भुलि, लोटे अंदरि सुरति भुलाई॥ बाबा जाणी जाणु पुरख, कढिआ लोटा जहा लुकाई॥ वेखि चलित्रि जोगी खुणिसाई॥३९॥

खाधी खुणसि जोगीसोरां, गोसटि करनि सभे उठि आई॥ पुछै जोगी भंगर नाथु, तुहि दुध विचि किउ कांजी पाई॥ फिटिआ चाटा दुध दा, रिड़किआ मखणु हथि न आई॥ भेख उतारि उदासि दा वति किउ संसारी की रीति चलाई॥ नानक आखै, भंगरनाथ! तेरी माउ कुचजी आई॥ भांडा धोइ न जातिओनु, भाइ कुचजे फुलु सड़ाई॥ होइ अतीतु ग्रिहसति तजि, फिरि उनहु के घरि मंगणि जाई॥ बिनु दिते किछु हथि न आई॥४०॥

भाव: हक की कमाई में से बाँट के खाए बिना आत्मिक सुख नहीं मिलता।

इहि सुणि बचनि जोगीसरां, मारि किलक बहु रूइ उठाई॥ खटि दरसन कउ खेदिआ, कलिजुगि बेदी नानक आई॥ सिधि बोलनि सभि अउखधीआ, तंत्र मंत्र की धुनो चढ़ाई॥ रूप वटाऐ जोगीआं, सिंघ बाघि बहु चलत दिखाई॥ इकि पर करि कै उडरनि, पंखी जिवै रहे लीलाई॥ इक नाग होइ पउनु छोडि, इकना वरखा अगनि वसाई॥ तारे तोड़े भंगरनाथु, इक उडि मिरगानी जलु तरि जाई॥ सिधां अगनि न बुझै बुझाई॥४१॥

अगनि-ईष्या की आग।

करामातें दिखा के

सिधि बोलनि, सुणि नानका! तुहि जग नो करामाति दिखाई॥ कुछु दिखाइ असानूं भी, तूं किउं ढिलॅ अजेही लाई॥ बाबा बोलै, नाथ जी! असां वेखे जोगी वसतु न काई॥

(भाव, हमारे पास जोगियों को दिखाने के लिए कोई चीज नहीं)

गुरुसंगति बाणी बिना, दूजी ओट नही है राई॥ सिव रूपी करता पुरखु, चलै नाही धरति चलाई॥ सिधि तंत्र मंत्र करि झड़ि पऐ, सबद गुरू के कला छपाई॥ ददै दाता गुरू है, कके कीमति किनै न पाई॥ सो दीन, नानक सतिगुरु सरणाई॥४२॥

बाबा बोलै, नाथ जी! सबदु सुनहु सचु, मुखहु अलाई॥ बाझहु सचे नाम दे, होर करामाति असांथै नाहीं॥ करउं रसोई सार दी, सगली धरती नॅथि चलाई॥ बसत्र पहिरउं अगनि के बरफ हिमालै मंदरु छाई॥ ऐवड करीं विथार कउ, सगली धरती हकी जाई॥ तोलीं धरति अकासु दुइ, पिछै छाबै टंकु चढ़ाई॥ इहु बलु रॅखां आप विचि, जिसु आखां तिसु पारि कराई॥ सतिनामु बिनु, बादर छाई॥४३॥

बाबे कीती सिध गोसटि, शबद शांति सिधां विचि आई॥ जिणि मेला शिवराति दा, खट दरसनि आदेसु कराई॥ सिधि बोलनि शुभ बचन, धंन नानक! तेरी वडी कमाई॥ वडा पुरखु परगटिआ, कलिजुग अंदरि जोति जगाई॥ मेलिओं बाबा उठिआ, मुलतानै दी ज़िआरति जाई॥ अगहु पीर मुलतान दे, दॅुध कटोरा भरि लै आई॥ बाबे कढि करि बगल ते, चंबेली दुधि विचि मिलाई॥ जिउ सागर विचि गंग समाई॥४४॥

ज़िआरति करि मुलतान दी, फिरि करतारपुरे नो आइआ॥ चढ़ै सवाई दह दिही, कलिजुगि नानकि नामु धिआइआ॥ विणु नावै होरु मंगणा, सिरि दुखां दै दुखु सबाइआ॥ मारिआ सिका जगति विचि, नानक निरमलु पंथु चलाइआ॥ थापिआ लहिणा जींवदै, गुरिआई सिरि छत्रु फिराइआ॥ जोती जोति मिलाइ कै, सतिगुरि नानकि रूपु वटाइआ॥ लखि न कोई सकई, आचरजै आचरजु दिखाइआ॥ काइआ पलटि सरुपु बणाइआ॥४५॥

थोड़ा बहुत योग मत के बारे में

जोगी शिव जी के उपासक हैं, जिसे वे महायोगी और सबसे पहला योगी मानते हैं। पंजाब में जगह-जगह पर, खास करके शमशान-मढ़ियों में, भैरव की मूर्तियां देखने को मिल जाती हैं।

हर धर्म के लोग जोग मत धारण कर सकते हैं। जो जाने-माने जोगी-फकीर हैं, उनके 12 पंथ हैं: हेतू, पाव, आई, राम्य, पागल, गोपाल, कंथड़ी, बन, ध्वज, चोली, रावल और दास।

सभी जोगी रुद्राक्ष की माला पहनते हैं। बहुत सारे मांस खाते हैं, शराब और चरस पीते हैं, इनको वे जरूरी समझते हैं।

गोरखनाथ के पंथ के जोगीश्वर अथवा कान-फटे, कानों में लकड़ी, शीशे या पत्थर की बड़ी-बड़ी मुद्राएं पहनते हैं। इनके नाम के पीछे शब्द 'नाथ' आता है। औघड़ व ओघड़ जोगियों के नाम से शबद 'दास' होता है।

जोग का निशाना यह है कि मनुष्य पत्थर-रूप हो जाए। इस अवस्था का नाम वे 'कैवल्य' रखते हैं।

हमारे देश के पुरातन विद्वानों के मुताबिक शरीर में बहक्तर हजार नाड़ियाँ हैं, जो दिल में से निकलती हैं। जिस-जिस जगह ये नाड़ियाँ चारों तरफ से आ के मिलती हैं, वहाँ पदम् अथवा कमल बन जाते हैं। ये कमल हर किस्म के शारीरिक कामों को करने के लिए ताकत का श्रोत होते हैं। काठ-उपनिशद में लिखा है कि दिल में इकहक्तर सौ नाड़ियाँ हैं। उनमें से एक (सुखमना नाड़ी) सिर को जाती है। मौत के समय इस रास्ते से जीव ऊपर चढ़ कर अमर होता है।

'ज्ञान सरोदय' (प्राणायम की एक शाखा) के अनुसार एक नाड़ी (ईड़ा) दाहिनी नासिका को आती है, और 'पिंगला' बांई नासिका की ओर। 'सुखमना' (सुस्मना) दसम द्वार को जाती है।

योग के निम्नलिखित आठ अंग हैं:

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रतिआहार, धारणा, धिआन, समाधि।

1. 'यम'- अन्य लोगों के साथ स्वच्छ व्यवहार रखने के लिए अपने ऊपर लगाए हुए अनुशासन का नाम 'यम' है। भाईचारिक जीव साधारण-सरल बनाए रखने के लिए योग के इस अंग की अत्यंत आवश्यक्ता है।

'यम' दस किस्म का निहित किया गया है;

अहिंसा, सत्य, असतेय, ब्रहमचर्य, क्षमा, धैर्य (ध्रिती), दया, सादगी (आरजव), मिताहार व शोच।

अहिंसा- अपने मन वचन और कर्मों से किसी को भी दुख-कलेश ना देने को अहिंसा कहते हैं।

सत्य- सच, सच बोलना।

असतेय- पर धन का त्याग, कोई भी पराई चीज अंगीकार ना करने का नाम है 'असतेय'।

ब्रहमचर्य- स्थिर वीर्य रहने को ब्रहमचर्य कहा जाता है। काम वासना के अधीन ना होना।

क्षमा- बोल और कुबोल दोनों को एक-समान सहने को क्षमा कहते हैं।

धैर्य (ध्रिती) - सुख और विपक्ति के समय अडोलचिक्त रहना धीरज है।

दया- वैरी और परदेसी के साथ मित्र वाला हित करने का नाम दया है।

सादगी (आरजव) - सादगी भरा जीवन, सादा जीवन।

मिताहार- कम खाना।

शोच- अंदरूनी और बाहरी पवित्रता।

नोट: इनके अलावा निर्लोभता और निर्भयता को विद्वान 'यम' में ही शामिल करते हैं।

2. नियम- अपने अंदर शांति कायम रखने के लिए अपने ऊपर लगाई हुई बंदिश का नाम नियम है। नियम की भी निम्नलिखित दस किस्में होती हैं;

तप, संतोष, आस्तिकता, दान, ईश्वर भक्ति, सिद्धांत श्रवण, हृ (लज्जा), मती (श्रद्धा), जप, हुती।

तप- सर्दी-गर्मी आदि द्वंद सहने का नाम तप है।

संतोष- सहज स्वभाव से आए सुख-दुख को खुशी से सहना।

आस्तिकता- परमात्मा के अस्तित्व को मानना।

दान- हक की कमाई में से भले पुरुषों की सेवा करनी।

ईश्वर भक्ति- परमात्मा की पूजा।

सिद्धांत श्रवण- धर्म-ग्रंथों को सुनना और मानना।

हृ (लज्जा) - कोई बुरा काम करने से मन में संकोच पैदा होना।

मती (श्रद्धा) - धर्म शास्त्र के बताए हुए काम को करने में दृढ़ विश्वास।

जप-मंत्र को बार बार उचारना।

हुती- हवन।

नोट: कई शास्त्रकार पाँच-पाँच नियम बताते हैं, कई दस-दस कहते हैं, और कई दसों से भी ज्यादा बताते हैं। पर इस गिनती के कम-ज्यादा होने से कोई नुकसान नहीं है। ये सारे गुण एक-दूसरे के पूरक और आसरे हैं।

3. आसन: योग के तीसरे अंग का नाम है 'आसन'। आसनों के अभ्यास से शरीर में खून का संचार ठीक तरह बना रहता है, शरीर की सारी माँस-पेशियाँ नरोई और साफ रहती हैं, और आँतों की प्राकृतिक हालत ठीक बनी रहती है। जिन्होंने पहले पहल ही आसन सीखने शुरू करने हों, उन्हें पतझड़ व बसंत ऋतु में आरम्भ करने चाहिए। आसन करने के लिए जगह भी कोई ऐसी चाहिए जो एकांत व साफ-सुथरा हो, जहाँ कोई विकार आदि उपद्रव मन को बिगाड़ ना सकें।

हरेक आसन का शरीर और मन पर अपना असर होता है। अलग-अलग आसन और प्राणायाम करके जोगी हर किस्म की बिमारी से बच सकता है।

वशिष्ट, यज्ञ वलक्य व अन्य कई ऋषियों ने आसनों की गिनती 84 लिखी है। इन आसनों का अगुवा महादेव माना गया है। पर, मुख्य आसन दस हैं। योगाभ्यास करते हुए जब तक आसन ठीक ना हो जाए, तब तक अगले आसन करने की मनाही है।

4. प्राणायाम- कुछ नियमों के अनुसार सांस अंदर खींचना (पूरक), बाहर निकालना (रेचक), और अंदर रोक के रखना (कुंभक) - इस अभ्यास को प्राणायाम कहते हैं। इस अभ्यास का मुख्य मंतव ये है कि 'प्राण वायु' को 'अपान वायु' (बिल्कुल नीचे की वायु) से मिला के आहिस्ता-आहिस्ता ऊपर खींचा जाए। इस तरह करने से नाभि के पास जो अनोखी शक्ति कुण्डलनी की पड़ी हुई गाँठ खुल जाती है, और रिद्धियाँ-सिद्धियाँ मिलती हैं।

प्राणों की वाहन (नाड़ियां) जब तक अशुद्ध पदार्थों के कारण रुकी हुई हैं, तब तक प्राण सुखमना नाड़ी में नहीं चलता, और 'उनमनी' मुद्रा प्राप्त नहीं हो सकती। सो इन अशुद्धियों को दूर करने के लिए पहले प्राणायाम करने की आवश्यक्ता होती है।

5. प्रत्याहार-इन्द्रियों का अपने-अपने काम से रुकना।

नोट: ये उपरोक्त पाँचों बाहरी साधन हैं।

6. धारना- चिक्त को किसी जगह बाँध के टिका के रखना।

7. ध्यान- मन का किसी चीज के साथ एक-रूप हो जाना।

8. समाधि- मन अपना स्वरूप ही भूल के 'ध्यान' वाली चीज बन जाएं उस अवस्था का नाम है समाधि।

नोट: ये उपरोक्त तीनों संयम हैं। इनके अभ्यास से विभूतियाँ और सिद्धियाँ हासिल होती हैं।

सिद्धियाँ

अणिमा, गरिमा, लघिमा, महिमा, प्राकाम्य, ईशत्व, वशित्व, काम-वश्यत्व। (देखें पौड़ी नं: 31)

खट कर्म

अगर जोगी, उपरोक्त 8 अंगों से शरीर को शुद्ध ना कर सकें, तो उनको छह और अभ्यास करने पड़ते हैं:

नेती- काले सूत्र का एक धागा ग्यारह इंच ले के एक नासिका से चढ़ा के मुँह में से निकाल के नासिका में फेरना। इसी तरह दूसरी नासिका में से।

धोती-तीन इंच चौड़ी पंदरह हाथ लंबी नर्म बारिका कपड़े का टुकड़ा पानी से गीला करके निगलना, और फिर बाहर निकालना।

निउली- नाक और पेट सीधे रख के, झुक के, घुटनों पर रख कर आँतों को चक्कर दिलाने।

त्राटक- नाक की नोक पर दोनों आँखों से निगाह केंद्रित करनी।

गज करम- मेदे को गले तक पानी से भर के और भरवटों के बीच नजर टिका के उल्टी (कै) करनी।

उनमनी

जब नाड़ियाँ साफ हो जाएं और सुखमना नाड़ी खुल जाए तब मन में वह शांति पैदा हो जाती है जो समाधि का अत्यंत आवश्यक निशाना है। उस शांत अवस्था का नाम उनमनी अवस्था है।

मुद्रा और बँध

प्राणायाम की सहायता के लिए कुछ क्रिया करनी पड़ती है जिसको मुद्रा और बँध कहते हैं।

बँध चार हैं- मूल, जालंधर, उद्यान और महाबँध।

मुद्राएं दस हैं-महा मुद्रा, महा वेध, खेचरी, भूचरी, चाचरी, विपरीत करणी, वजरोली, शक्ति चालन, अगोचरी, उनमनी।

खेचरी मुद्रा में जोगी जीभ को गले में निगल लेता है, जिसके कारण खुली सांस आनी बंद हो जाती है। फेफड़ों को हवा के साथ भर के शरीर को सब छेद मोम मोम अथवा रूई की बक्तियों से बंद कर देता है।

भूचरी- पदम आसन लगा के नाक की नोक पर ताड़ी लगानी।

चाचरी- आँखों से तीन इंच ऊपर नजर जमानी।

मूल बँध-बाँई एड़ी गुदा पर और दाहिनी लिंग पर दबा के पदम आसन लगा के बैठना, गुदा का रास्ता बंद कर देना कि हवा ना निकले।

योग की किस्में

योग चार तरह का है- मंत्र, लय, राज, हठ।

मंत्र जोग- किसी देवते के नाम का, या, किसी और शबद का एक-रस दिल लगा के जाप करना।

लय योग- किसी चीज या उसके ख्याल पर ऐसा मन जमाना कि उसके साथ एक-रूप हो जाए।

राज योग- सांस को इस तरह रोकना कि उससे मन की दौड़ रुक जाए।

हठ योग-कई तरह के आसन करके मन की स्थिरता हासिल करनी।

सिध गोसटि की बोली

इस बाणी के तकरीबन पौने सात हजार अक्षर हैं। पर आश्चर्यजनक बात ये है गुरू ग्रंथ साहिब के नौ पृष्ठों की बाणी में सिर्फ निम्नलिखित 15 शब्द फारसी बोली के आए हैं:

अरबी- रजाए, दुनिया, तमाई, हुकम, सिफति, नदरि, हजूरे, कीमति, फुरमाणे।

फारसी- बखसि, दरगह, पिराहनु, दाना, बीना, गुबारि।

इन शब्दों की भी शक्ल अरबी फारसी वाली नहीं रह गई। पंजाबियों की ज़बान पर चढ़ कर इनका रूप बदल गया, और ये शब्द भी वो हैं जो आम बोलचाल में शामिल हैं। सिर्फ शब्द 'पिराहनु' जरा अलग सा लग रहा है। अरबी के अक्षर 'ज़े', 'ज़ुइ', 'ज़ुआद' का उच्चारण पंजाबी में आम तौर पर अक्षर 'द' के रूप में होने लग पड़ा। ऐसी तब्दीलियाँ जान-बूझ के नहीं की जातीं, अलग-अलग जलवायु के असर तले लोगों की जीभ विशेष तरह की आवाजें ही उचारने की आदी हो जाती हैं। अरब लोग खुद भी 'ज़ुआद' को 'ज़ुआद' और 'दुआद', दो तरह से उचारते हैं। गुरबाणी में इन अक्षरों वाले शब्द यूँ मिलते हैं:

कागज़- कागद।

हज़ूरि- हदूरि (कहीं कहीं 'हजूरि' भी)

काज़ी- कादी।

नज़रि-नदरि।

जिक्र ये चला था कि इतनी लंबी बाणी में इस्लामी शब्द सिर्फ 15 ही आए हैं। ये क्यों? क्या गुरू नानक देव जी इस्लामी शब्दों के प्रयोग से संकोच करते थे? नहीं; देखें निम्नलिखित शबद:

सिरी रागु महला १ घरु ३॥ अमलु करि धरती, बीजु सबदो करि, सच की आब नित देहि पाणी॥ होइ किरसाणु ईमानु जंमाइलै, भिसतु दोजकु मूढ़े ऐव जाणी॥१॥ मतु जाणसहि गली पाइआ॥ माल कै माणै रूप की सोभा, इतु बिधी जनमु गवाइआ॥१॥ रहाउ॥ ऐब तनि चिकड़ो, इहु मनु मीडको, कमल की सार नही मूलि पाई॥ भउरु उसतादु नित भाखिआ बोले, किउ बूझै जा नह बुझाई॥२॥ आखणु सुणणा पउण की बाणी इहु मनु रता माइआ॥ खसम की नदरि दिलहि पसिंदे, जिनी करि ऐकु धिआइआ॥३॥ तीह करि रखे पंज करि साथी, नाउ सैतानु मतु कटि जाई॥ नानकु आखै राहि पै चलणा, मालु धनु कित कू संजिआही॥४॥

चार बंदों वाले इस शबद में कितने ही इस्लामी शब्द आ गए हैं। इसे जरा सा ध्यान से पढ़ के देखें, साफ दिखाई देता है कि किसी उस नमाज़ी और रोज़े रखने वाले इनसान को समझा रहे हैं जो शरह में तो पक्का है पर दुनिया वाली 'मैं मेरी' में भी नाको नाक डूबा हुआ है।

'सिध गोसटि' से पहले लिखी बाणी 'ओअंकारु' है। उसकी विषय-वस्तु साफ बताती है कि किसी पांडे से हुई चर्चा को बाणी का रूप दे रहे हैं। 'ओअंकारु' में भी थोड़े से तकरीबन वही इस्लामी शब्द हैं जो 'सिध गोसटि' में आए हैं, और लोगों की रोजमर्रा की आम बोली में शामिल हो चुके हैं।

'सिध गोसटि' के बारे में भी यही बात है। इस बाणी में उस चर्चा का वर्णन है जो जोगियों-सिद्धों के साथ हुई। आम तौर पर वे लोग हिन्दू धर्म में से ही थे। उनकी बोली भी हिन्दकी। उनके मत के साथ संबंध रखने वाले खास शब्द भी हिन्दके। यही कारण है कि गुरू नानक देव जी ने भी उस चर्चा को बाणी का रूप देते हुए हिन्दके शब्द ही बरते हैं।

दो मात्राओं वाले अक्षर

गुरबाणी में कई जगहों पर एक ही अक्षर पर दो मात्राएं (ु) (ो) लगी होती हैं। (ु) एक-मात्रा और (ो) दु-मात्रा है। छंद की चाल के अनुसार कई बार एक मात्रक अक्षर को दु-मात्रक पढ़ना पड़ता है, और कभी-कभी दु-मात्रक को एक-मात्रक। ऐसी जगहों पर (ु) अथवा (ो) वाले अक्षर के साथ दोनों मात्राएं दी गई हैं। जैसे;

'टूटी गाढनहारु गुोपाल' -सुखमनी

यहाँ असल शब्द 'गोपाल' है। अक्षर 'ग' की दो मात्राएं हैं, पर छंद की चाल में 'ग' को एक-मात्रक पढ़ने की आवश्यक्ता है। इसलिए इसके साथ (ु) भी लगा दिया गया है। यहाँ भाव ये है कि असल शब्द 'गोपाल' है इसे पढ़ना 'गुपाल' है।

'सिध गोसटि' में भी दो जगहों पर (ु) और (ो) का एक साथ प्रयोग मिलता है।

1. पउड़ी 59

नदरि करे सबदु घट महि वसै, विचहु भरमु गवाऐ॥

तनु मनु निरमलु निरमल बाणी, नामुो मंनि वसाऐ॥

असल शब्द है 'नामु', पढ़ना है 'नामो'।

2. पउड़ी नं: 71

गुरमुखि मेलि मिलाऐ सुो जाणै॥

नानक गुरमुखि सबदि पछाणै॥

असल शब्द 'सो' है, यहाँ पढ़ना है 'सु'।

जिसु, तिसु, किसु, इसु, उसु

ऊपर लिखे सर्वनाम सदा (ु) से बंद होते हैं। पर जब इनके साथ को निम्नलिखित संबंधक प्रयोग किया जाए तो ये (ु) मात्रा हट जाती है;

1. का, के, की, कै, दा, दे, दी, दै

2. कउ, नो

3. ते

जैसे:

1. जिस का - पउड़ी 43

2. जिस कउ - पउड़ी 45

3. जिस ते - पउड़ी 52

नोट: पाठक याद रखें कि किसी और संबंधक के साथ प्रयोग करने से ये (ु) नहीं हटेगी। जैसे;

1. तिसु आगै - पउड़ी 1

नोट: जब ये शब्द किसी संज्ञा का विशेषण हो, तब भी इनकी (ु) मात्रा नहीं हटेगी, चाहे ऊपर दिए गए तीनों किस्मों के संबंधक भी साथ लगे हों। जैसे;

1. किसु वखर के -पउड़ी 17

2. ऐसु सबद कउ - पउड़ी 43

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रामकली महला १ सिध गोसटि {पन्ना 938}

पद्अर्थ: सिध = जोग साधना में माहिर जोगी। गोसटि = गोष्ठी, चर्चा, बहस, बातचीत।

नोट: शब्द 'सिध' का दूसरा अर्थ है 'परमात्मा'; जैसे-

सिध साधिक जोगी अरु जंगम ऐकु सिधु जिनी धिआइआ॥
परसत पैर सिझत ते सुआमी अखरु जिन कउ आइआ॥२॥६॥ (रामकली महला १, पंना 878)

इस तुक में पहले शब्द 'सिध' का अर्थ है 'पहुँचे हुए जोगी'; दूसरे शब्द 'सिधु' का अर्थ है 'परमात्मा'। शब्द 'गोसटि' का भी दूसरा अर्थ है 'मेल, संबंध'। सो, इस तरह 'सिध गोसटि' के दो अर्थ हैं:

(1) सिद्धों के साथ बातचीत
(2) परमात्मा के साथ मिलाप

इस सारी बाणी में उस चर्चा का वर्णन है जो गुरू नानक देव जी की सिद्धों के साथ हुई। उस चर्चा का विषय-वस्तु क्या था? विषय-वस्तु था 'सिध गोसटि', भाव, 'परमात्मा से मिलाप'।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सिध सभा करि आसणि बैठे संत सभा जैकारो ॥ तिसु आगै रहरासि हमारी साचा अपर अपारो ॥ मसतकु काटि धरी तिसु आगै तनु मनु आगै देउ ॥ नानक संतु मिलै सचु पाईऐ सहज भाइ जसु लेउ ॥१॥ {पन्ना 938}

पद्अर्थ: सिध = सिद्ध की, परमात्मा की। सभा = मजलिस। सिध सभा = ईश्वरीय सभा, वह मजलिस जहाँ परमात्मा की बातें हो रही हों। करि = बना के। आसणि = आसन पर (भाव) अडोल। जैकारो = नमस्कार। तिसु आगै = उस 'संत सभा' के आगे। रहरासि = अरदास। मसतकु = माथा। धरी = मैं धरूँ। सहज भाइ = आसानी से ही। जसु लेउ = यश करूँ, प्रभू के गुण गाऊँ।

नोट: शब्द 'सिध' का अर्थ 'परमात्मा' किया गया है। इसी ही बाणी की पौड़ी नं:33 में भी शब्द 'सिध' आया है जिसका अर्थ है 'परमात्मा':

'नामि रते सिध गोसटि होइ॥ नामि रते सदा तपु होइ॥'

'सिध गोसटि'- प्रभू से मिलाप।

'सिध गोसटि' की लंबी बाणी के आरम्भ में पहली पउड़ी 'मंगलाचरण' के रूप में है, जो अपने आप में बाणी का उद्देश्य भी प्रकट करता है। 'मंगलाचरण' है संत सभा की महिमा। 'उद्देश्य' है 'सचु पाईअै'।

अर्थ: (हमारी) नमस्कार उन संतों की सभा को है जो 'ईश्वरीय सभा' (सत्संग) बना के अडोल बैठे हैं, हमारी अरदास उस संत सभा के आगे है जिसमें सदा कायम रहने वाला अपर-अपार प्रभू (प्रत्यक्ष बसता) है। मैं उस संत-सभा के आगे सिर काट के धर दूँ, तन और मन भेट कर दूँ (ताकि) आसानी से ही प्रभू के गुण गा सकूँ; (क्योंकि) हे नानक! संत मिल जाए तो ईश्वर मिल जाता है।1।

किआ भवीऐ सचि सूचा होइ ॥ साच सबद बिनु मुकति न कोइ ॥१॥ रहाउ ॥ {पन्ना 938}

पद्अर्थ: किआ भवीअै = भ्रमण करने का क्या लाभ? देस देसांतरों व तीर्थों पर भ्रमण का क्या लाभ? सचि = 'सच' में, सदा कायम रहने वाले प्रभू में (जुड़ने से)। सूचा = पवित्र। रहाउ = ठहर जाओ, (भाव) इस सारी लंबी बाणी का 'मुख्य भाव' इन दो तुकों में है।

नोट: 'सुखमनी' की 24 अष्टपदीयां हैं, पर इस लंबी बाणी का भी भाव इन दो तुकों में है, जिनके अंत में 'रहाउ' दर्ज है:

सुखमनी सुख अंम्रित प्रभ नामु॥ भगत जना कै मनि बिस्राम॥ रहाउ॥

इसी तरह 'ओअंकारु' एक लंबी बाणी है, इसका 'मुख्य भाव' भी 'रहाउ' की तुक में इस प्रकार है:

सुणि पाडे, किआ लिखहु जंजाला॥

लिखु राम नामु, गुरमुखि गोपाला॥१॥ रहाउ॥

अर्थ: (हे चरपट! देश-देसांतरों और तीर्थों पर) भ्रमण करने से क्या लाभ? सदा कायम रहने वाले प्रभू में जुड़ने से ही पवित्र हुआ जा सकता है; (सतिगुरू के) सच्चे शबद के बिना ('दुनिया सागर दुतर से' अर्थात दुश्वार दुनिया सागर से) निजात नहीं मिलती।1। रहाउ।

कवन तुमे किआ नाउ तुमारा कउनु मारगु कउनु सुआओ ॥ साचु कहउ अरदासि हमारी हउ संत जना बलि जाओ ॥ कह बैसहु कह रहीऐ बाले कह आवहु कह जाहो ॥ नानकु बोलै सुणि बैरागी किआ तुमारा राहो ॥२॥ {पन्ना 938}

पद्अर्थ: तुमे् = तुम्हें। मारगु = रास्ता, पंथ, मत। सुआओ = मनोरथ, उद्देश्य, प्रयोजन। कहउ = मैं कहता हूँ, मैं जपता हूँ। हउ = मैं। कह = कहाँ? किस के आसरे? बैसहु = (तुम) बैठते हो, शांत चिक्त होते हो। बाले = हे बालक! क्ह = कहाँ? नानकु बोलै = नानक कहता है (कि जोगी ने पूछा)। बैरागी = हे वैरागी! हे वैरागवान! हे संत जी! साचु = सदा कायम रहने वाला प्रभू। राहो = राह, मत, मार्ग।

अर्थ: (चरपट जोगी ने पूछा-) तुम कौन हो? तुम्हारा क्या नाम है? तुम्हारा क्या मत है? (उस मत का) मनोरथ क्या है?

(गुरू नानक देव जी का उक्तर-) मैं सदा कायम रहने वाले प्रभू को जपता हूँ, हमारी (प्रभू के आगे ही सदा) प्रार्थना है और मैं संत जनों से बलिहार जाता हूँ (बस! यह मेरा मत है)।

(नानक कहता है- चरपट ने पूछा-) हे बालक! तुम किस के आसरे शांत-चिक्त हो? तुम्हारी सुरति किसमें जुड़ती है? कहाँ से आते हो? कहाँ जाते हो? हे संत! सुन, तेरा क्या मत है?।2।

घटि घटि बैसि निरंतरि रहीऐ चालहि सतिगुर भाए ॥ सहजे आए हुकमि सिधाए नानक सदा रजाए ॥ आसणि बैसणि थिरु नाराइणु ऐसी गुरमति पाए ॥ गुरमुखि बूझै आपु पछाणै सचे सचि समाए ॥३॥ {पन्ना 938}

पद्अर्थ: घटि = घट में, शरीर में। घटि घटि = हरेक घट में, हरेक शरीर में (भाव, हरेक घट में व्यापक प्रभू की याद में)। बैसि = बैठ के, टिक के। निरंतरि = निर+अंतरि, एक रस, सदा। अंतर = दूरी, वकफा। रहीअै = रहते हैं, सुरति जुड़ती है। भाऐ = भाव में, मर्जी में। सहजे = सहज ही। हुकमि = हुकम में। सिधाऐ = फिरते हैं। रजाऐ = रजा में। आसणि = आसन वाला। बैसणि = बैठने वाला। थिरु = कायम रहने वाला। बूझै = समझ वाला बनता है, ज्ञानवान होता है। आपु = अपने आप को।

नोट: पौड़ी नंबर 2 की आखिरी दो तुकों के प्रश्न का उक्तर पौड़ी नं:3 में है।

अर्थ: (सतिगुरू जी का उक्तर-) (हे चरपट!-) सर्व-व्यापक प्रभू (की याद) में जुड़ के सदा शांत-चित रहते हैं। हम सतिगुरू जी की मर्जी से चलते हैं। हे नानक- (कह-) प्रभू के हुकम में सहज ही (जगत में) आए, हुकम में विचर रहे हैं, सदा उसकी ही रजा में रहते हैं। (पक्के) आसन वाला, (सदा) टिके रहने वाला प्रभू खुद ही है, हमने यही गुरू-शिक्षा ली है। गुरू के राह पर चलने वाला मनुष्य ज्ञानवान हो जाता है, अपने आप को पहचानता है, और, सदा सच्चे प्रभू में जुड़ा रहता है।3।

दुनीआ सागरु दुतरु कहीऐ किउ करि पाईऐ पारो ॥ चरपटु बोलै अउधू नानक देहु सचा बीचारो ॥ आपे आखै आपे समझै तिसु किआ उतरु दीजै ॥ साचु कहहु तुम पारगरामी तुझु किआ बैसणु दीजै ॥४॥ {पन्ना 938}

पद्अर्थ: दुतरु = दुश्+तर, जिसको तैरना मुश्किल है। किउ करि = कैसै? किस तरह? पारो = परला किनारा। नानक = हे नानक! अउधू = विरक्त। साचु कहहु = सदा कायम रहने वाले प्रभू को जपो। पारगरामी = (संसार समुंद्र से) पार लंघाने वाला। बैसणु = (संस्कृत: व्यसन) कमी, नुक्स (व्यसन = प्रहारी। व्यसन प्रहारिन = वह जो चर्चा में अपने विरोधी की किसी कमी पर चोट मारता है)।

अर्थ: चरपट कहता है (भाव, चरपट ने कहा-) जगत (एक ऐसा) समुंद्र कहा जाता है जिसको तैरना मुश्किल है, हे विरक्त नानक! ठीक विचार बता कि (इस संसार समुंद्र का) परला किनारा कैसे मिले?

उक्तर- (जो मनुष्य जो कुछ) स्वयं कहता है और स्वयं ही (उसको) समझता (भी) है उसको (उसके प्रश्न का) उक्तर देने की आवश्यक्ता नहीं होती; (इस वास्ते, हे चरपट!) तेरे (प्रश्न) में कोई कमी ढूँढने की जरूरत नहीं, (वैसे उक्तर ये है कि) सदा कायम रहने वाले प्रभू को जपो तो तुम (इस दुष्तर सागर से) पार लांघ जाओगे।4।

जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नै साणे ॥ सुरति सबदि भव सागरु तरीऐ नानक नामु वखाणे ॥ रहहि इकांति एको मनि वसिआ आसा माहि निरासो ॥ अगमु अगोचरु देखि दिखाए नानकु ता का दासो ॥५॥ {पन्ना 938}

पद्अर्थ: निरालमु = निरालंभ, (निर+आलंभ) निर आसरा, (निर+आलय) निराला, अलग। नै = नयी, नदी में। साणे = जैसे। सबदि = शबद में। वखाणे = बखान के, जप के। अगमु = अ+गम, जिस तक जाया ना जा सके (गम = जाना)। अगोचर = अ+गो+चर (अ = नहीं। गो = ज्ञान इन्द्रियां। चर = पहुँचना) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके।

नोट: दूसरी और चौथी तुक के शब्द 'नानक' और 'नानकु' में अंतर को समझें।

नोट: सतिगुरू जी का उक्तर इस पौड़ी के आखिर तक चला आ रहा है।

अर्थ: जैसे पानी में (उगा हुआ) कमल का फूल (पानी से) निराला रहता है, जैसे नदी में (तैरती) मुरगाई (भाव, उसके पंख पानी से नहीं भीगते, इसी तरह) हे नानक! गुरू के शबद में सुरति (जोड़ के) नाम जपने से संसार समुंद्र तैरा जा सकता है।

(जो मनुष्य संसार की) आशाओं में निराश रहते हैं, जिनके मन में एक प्रभू ही बसता है (वे संसार में रहते हुए भी संसार से अलग) एकांत में बसते हैं। (ऐसे जीवन वाला जो मनुष्य) अगम और अगोचर प्रभू के दर्शन करके औरों को दर्शन करवाता है, नानक उसका दास है।5।

सुणि सुआमी अरदासि हमारी पूछउ साचु बीचारो ॥ रोसु न कीजै उतरु दीजै किउ पाईऐ गुर दुआरो ॥ इहु मनु चलतउ सच घरि बैसै नानक नामु अधारो ॥ आपे मेलि मिलाए करता लागै साचि पिआरो ॥६॥ {पन्ना 938}

पद्अर्थ: साचु = सही, ठीक। रोसु = गुस्सा। गुरदुआरो = गुरू का दर। चलतउ = चंचल। सच घरि = सच्चे के घर में, सदा कायम रहने वाले प्रभू की याद में। अधारो = आसरा। साचि = सच्चे प्रभू में।

अर्थ: (चरपट के प्रश्न:) हे स्वामी! मेरी विनती सुन, मैं सही विचार पूछता हूँ; गुस्सा ना करना, उक्तर देना कि गुरू का दर कैसे प्राप्त होता है? (भाव, कैसे पता लगे कि गुरू का दर प्राप्त हो गया है) ?

(उक्तर:) (जब सच-मुच गुरू का दर प्राप्त हो जाता है तब) हे नानक! ये चंचल मन प्रभू की याद में जुड़ा रहता है, (प्रभू का) नाम (जिंदगी का) आसरा हो जाता है। (पर ऐसा) प्यार सच्चे प्रभू में (तब ही) लगता है (जब) करतार स्वयं (जीव को) अपनी याद में जोड़ लेता है।6।

हाटी बाटी रहहि निराले रूखि बिरखि उदिआने ॥ कंद मूलु अहारो खाईऐ अउधू बोलै गिआने ॥ तीरथि नाईऐ सुखु फलु पाईऐ मैलु न लागै काई ॥ गोरख पूतु लोहारीपा बोलै जोग जुगति बिधि साई ॥७॥ {पन्ना 938-939}

पद्अर्थ: हाटी = मेला, मंडी, दुकान। बाटी = घर बार के काम। रूखि = पेड़ों के तले। बिरखि = वृक्षों के तले। उदिआने = जंगल में। कंद = धरती के अंदर उगने वाली गाजर मूली जैसी सब्जियां। कंद मूल = मूली। अहारो = खुराक। अउधू = विरक्त, जोगी। बोलै = (भाव) बोला। तीरथि = तीर्थ पर। गोरख पूतु = गोरखनाथ का चेला। साई = यही।

अर्थ: जोगी ने (जोग का) ज्ञान-मार्ग इस तरह बताया- हम (दुनिया के) मेलों-मसाधों (भाव, सांसारिक झमेलों) से अलग जंगलों में किसी पेड़-वृक्ष के तले रहते हैं और गाजर-मूली पर गुजारा करते हैं; तीर्थों पर स्नान करते हैं; इसका फल मिलता है 'सुख', और (मन को) कोई मैल (भी) नहीं लगती। गोरखनाथ का चेला लोहारीपा बोलाकि यही है जोग की जुगती, जोग की बिधि।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh