श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 939 हाटी बाटी नीद न आवै पर घरि चितु न डुोलाई ॥ बिनु नावै मनु टेक न टिकई नानक भूख न जाई ॥ हाटु पटणु घरु गुरू दिखाइआ सहजे सचु वापारो ॥ खंडित निद्रा अलप अहारं नानक ततु बीचारो ॥८॥ {पन्ना 939} पद्अर्थ: भूख = तृष्णा, लालच। हाटु = (असल व्यापार 'नाम' विहाजने के लिए) दुकान। पटणु = शहर। सहजे = थोड़ा। डुोलाई: अक्षर 'ड' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। शब्द की असल मात्रा (ो) है, पर यहाँ छंद की चाल को पूरा रखने के लिए (ु) लगा के पढ़ना है। अर्थ: हे नानक! असल (ज्ञान की) विचार यह है कि दुनियावी धंधों में रहते हुए मनुष्य को नींद ना आए (भाव, धंधों में ही ना ग़र्क हो जाए), पराए घर में मन को डोलने ना दे; (पर) हे नानक! प्रभू के नाम के बिना मन टिक के नहीं रह सकता और (माया की) तृष्णा हटती नहीं। (जिस मनुष्य को) सतिगुरू ने (नाम विहाजने का असल) ठिकाना, शहर और घर दिखा दिया है वह (दुनियां के धंधों में भी) अडोल रह कर 'नाम' विहाजता है; उस मनुष्य की नींद भी कम और खुराक भी थोड़ी होती है। (भाव, वह चस्कों में नहीं पड़ता)।8। दरसनु भेख करहु जोगिंद्रा मुंद्रा झोली खिंथा ॥ बारह अंतरि एकु सरेवहु खटु दरसन इक पंथा ॥ इन बिधि मनु समझाईऐ पुरखा बाहुड़ि चोट न खाईऐ ॥ नानकु बोलै गुरमुखि बूझै जोग जुगति इव पाईऐ ॥९॥ {पन्ना 939} पद्अर्थ: दरसनु = मत। जोगिंद्रा = जोगी राज का। खिंथा = गोदड़ी। बारह = जोगियों के बारह पंथ = रावल, हेतु पंथ, पाव पंथ, आई पंथ, गम्य पंथ, पागल पंथ, गोपाल पंथ, कंथड़ी पंथ, बन पंथ, ध्वज पेथ, चोली और दास पंथ। ऐकु = एक 'आई पंथ', हमारा आई पंथ। सरेवहु = धारण करो, कबूल करो। खटु दरसनु = छे भेख = जगम, जोगी, जैनी, सन्यासी, बैरागी, बैसनो। इक पंथा = हमारा जोगी पंथ। पुरखा = हे पुरख नानक! गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। (नोट: ये शब्द बताता है है कि यहाँ से सतिगुरू जी ने उक्तर शुरू कर दिया है)। इव = इस तरह (जैसे आगे बताया है)। नोट: जोगी यहाँ अपने मत की बढ़ाई करता है। पहली तीन तुकों में सतिगुरू जी जोगी का ख्याल बताते हैं। आखिरी तुक में अपना उक्तर शुरू करते हैं जो पउड़ी नंबर 11 तक जाता है। अर्थ: नानक कहता है (कि जोगी ने कहा-) हे पुरख (नानक!) छे भेखों में एक जोगी पंथ है, उसके बारह फिरके हैं, उनमें से हमारे 'आई पंथ' को धारण करो, जोगियों के इस बड़े भेख का मत स्वीकार करो, मुद्रा, झोली और गोदड़ी पहनो। हे पुरखा! ठस तरह मन को बुद्धि दी जा सकती है और फिर (माया की) चोट नहीं खानी पड़ती। (उक्तर:) नानक कहता है- गुरू के सन्मुख होने से मनुष्य (मन को समझाने का ढंग) समझता है, जोग की जुगति (तो) इस तरह मिलती है (कि), ।9। अंतरि सबदु निरंतरि मुद्रा हउमै ममता दूरि करी ॥ कामु क्रोधु अहंकारु निवारै गुर कै सबदि सु समझ परी ॥ खिंथा झोली भरिपुरि रहिआ नानक तारै एकु हरी ॥ साचा साहिबु साची नाई परखै गुर की बात खरी ॥१०॥ {पन्ना 939} पद्अर्थ: अंतरि = (मन के) अंदर। निरंतरि = निर+अंतर, एक रस, मतवातर, सदा। मम = मेरा। ममता = मेरा पन, अपनत्व, दुनियावी पदार्थों को अपना बनाने का विचार। निवारै = दूर करता है। सबदि = शबद से। सु = अच्छी। भरि पुरि = भरपूर, नाको नाक, सब जगह मौजूद। साचा = सदा कायम रहने वाला। नाई = वडिआई। (नोट: अरबी में 'स्ना' के दो पंजाबी रूप हैं, 'असनाई' और 'नाई'। देखें गुरबाणी व्याकरण)। खरी बात = खरी बातों से, सच्चे शबद से। अर्थ: मन में सतिगुरू के शबद को एक रस बसाना - ये (कानों में) मुद्राएं (पहननी) हैं, (जो मनुष्य गुरू शबद को बसाता है वह) अपने अहंकार और ममता को दूर कर लेता है; काम, क्रोध और अहंकार को मिटा लेता है, गुरू के शबद के द्वारा उसको सोहानी सूझ पड़ जाती है। हे नानक! प्रभू को सब जगह व्यापक समझना उस मनुष्य की गोदड़ी और झोली है। सतिगुरू के सच्चे शबद के द्वारा वह मनुष्य ये निर्णय कर लेता है कि एक परमात्मा ही (माया की चोट से) बचाता है जो सदा कायम रहने वाला मालिक है और जिसकी महिमा भी सदा टिकी रहने वाली है।10। ऊंधउ खपरु पंच भू टोपी ॥ कांइआ कड़ासणु मनु जागोटी ॥ सतु संतोखु संजमु है नालि ॥ नानक गुरमुखि नामु समालि ॥११॥ {पन्ना 939} पद्अर्थ: ऊँधउ = औंधा, उल्टा हुआ, सांसारिक ख्वाहिशों से मुड़ा हुआ। खपरु = जोगी अथवा मंगते का वह प्याला जिसमें भिक्षा डलवाता है। भू = तत्व। पंचभू = पंच तत्वों के उपकारी गुण = (आकाश की निर्लिपता, अग्नि का स्वभाव मैल जलाना, वायु की समदर्शिता, जल की शीतलता, धरती का धैर्य)। कड़ासणु = कट का आसन। कट = फूहड़ी (a straw mat)। जागोटी = लंगोटी। गुरमुखि = गुरू से। समालि = सम्भालता है। अर्थ: हे नानक! (जो मनुष्य) गुरू के द्वारा (प्रभू का) नाम याद करता है, सांसारिक ख्वाहिशों से पलटी हुई सुरति उसका खप्पर है, पाँच तत्वों के दैवी गुण उसकी टोपी हैं, शरीर (को विकारों से निर्मल रखना) उसका दभ का आसन है, (बस में आया हुआ) मन उसकी लंगोटी है, सत संतोख और संयम उसके साथ (तीन चेले) हैं।11। नोट: पौड़ी नं: 9 की चौथी तुक से शुरू हुआ उक्तर यहाँ आ के समाप्त होता है। कवनु सु गुपता कवनु सु मुकता ॥ कवनु सु अंतरि बाहरि जुगता ॥ कवनु सु आवै कवनु सु जाइ ॥ कवनु सु त्रिभवणि रहिआ समाइ ॥१२॥ घटि घटि गुपता गुरमुखि मुकता ॥ अंतरि बाहरि सबदि सु जुगता ॥ मनमुखि बिनसै आवै जाइ ॥ नानक गुरमुखि साचि समाइ ॥१३॥ {पन्ना 939} पद्अर्थ: गुपता = छुपा हुआ। अंतरि = अंदर से। बाहरि = बाहर से। अंतरि बाहरि = (भाव,) मन से और शरीर से। जुगता = जुड़ा हुआ, मिला हुआ। आवै जाइ = पैदा होता मरता। त्रिभवण = तीन भवनों के मालिक में, तीन भवनों में व्यापक प्रभू में (तीन भवन = आकाश, मातृ लोक, और पाताल लोक। सं: त्रिभवण)। घटि घटि = हरेक घट में (बरतने वाला प्रभू)। गुरमुखि = जो मनुष्य के सन्मुख है, जो गुरू के बताए हुए राह पर चलता है। सबदि = शबद में (जुड़ा हुआ)। बिनसै = नाश होता है। साचि = सदा कायम रहने वाले प्रभू में। नोट: पौड़ी नं:11 तक चरपट और लोहारीपा जोगी के प्रश्न समाप्त हो जाते हैं। अब आगे खुले प्रश्नोक्तर हैं। अर्थ: (प्रश्न:) छुपा हुआ कौन है? वह कौन है जो मुक्त है? वह कौन है जो अंदर बाहर से (भाव, जिसका मन भी और शारीरिक इन्द्रियां भी) मिली हुई हैं? (सदा) पैदा होता व मरता कौन है? त्रिलोकी के नाथ में लीन कौन है?।12। (उक्तर:) जो (प्रभू) हरेक शरीर में मौजूद है वह गुप्त है; गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य (माया के बँधनों से) मुक्त है। जो मनुष्य गुरू-शबद में जुड़ा है वह मन और तन से (प्रभू में) जुड़ा हुआ है। मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पैदा होता मरता रहता है। हे नानक! गुरमुख मनुष्य सच्चे प्रभू में लीन रहता है।13। किउ करि बाधा सरपनि खाधा ॥ किउ करि खोइआ किउ करि लाधा ॥ किउ करि निरमलु किउ करि अंधिआरा ॥ इहु ततु बीचारै सु गुरू हमारा ॥१४॥ {पन्ना 939} पद्अर्थ: सरपनि = सपनी, माया। किउकरि = कैसे? सु गुरू हमारा = वह हमारा गुरू है, हम उसको अपना गुरू मनाएंगे, हम उसके आगे सिर निवाएंगे। अर्थ: (प्रश्न:) (ये जीव) कैसे (ऐसा) बँधा पड़ा है कि सर्पनी (माया इस को) खाई जा रही है (और ये आगे से अपने बचाव के लिए भाग भी नहीं सकता) ? (इस जीव ने) कैसे (अपने जीवन का लाभ) गवा लिया है? कैसे (दोबारा वह लाभ) पा सके? (ये जीव) कैसे पवित्र हो सके? कैसे (इसके आगे) अंधेरा (टिका हुआ) है? जो इस अस्लियत को (ठीक तरह) विचारे, हमारी उसको नमस्कार है।14। दुरमति बाधा सरपनि खाधा ॥ मनमुखि खोइआ गुरमुखि लाधा ॥ सतिगुरु मिलै अंधेरा जाइ ॥ नानक हउमै मेटि समाइ ॥१५॥ सुंन निरंतरि दीजै बंधु ॥ उडै न हंसा पड़ै न कंधु ॥ सहज गुफा घरु जाणै साचा ॥ नानक साचे भावै साचा ॥१६॥ {पन्ना 939} पद्अर्थ: मेटि = मिटा के। सुंन = (संस्कृत: शून्य) अफुर परमात्मा, निर्गुण स्वरूप प्रभू। निरंतरि = एक रस, लगातार। बंधु = बंध, दीवार, रोक। उडै न = भटकता नहीं। हंसा = जीव, मन। कंधु = शरीर। न पड़ै = नहीं ढहता, गिरता नहीं, जर जर नहीं होता। सहज = मन की वह हालत जब यह अडोल है, अडोलता। अर्थ: (उक्तर:) (यह जीव) बुरी मति में (ऐसे) बँधा पड़ा है कि सर्पनी (माया इसको) खाए जा रही है (और इन चस्कों में से इसका निकलने को जी नहीं करता); मन के पीछे लगने वाले ने (जीवन का लाभ) गवा लिया है, और, गुरू के हुकम में चलने वाले ने कमा लिया है। (माया के चस्कों का) अंधकार तब ही दूर होता है अगर सतिगुरू मिल जाए (भाव, अगर मनुष्य गुरू के बताए रास्ते पर चलने लग जाए)। हे नानक! (मनुष्य) अहंकार को मिटा के ही प्रभू में लीन हो सकता है।15। (यदि माया के हमलों के राह में) एक-रस अफुर परमात्मा (की याद) की अटुट दीवार बना दें, (तो फिर माया की खातिर) मन भटकता नहीं, और शरीर भी जर्जर नहीं होता ( भाव, शरीर का सत्यानाश नहीं होता)। हे नानक! जो मनुष्य सहज-अवस्था की गुफा को अपना सदा टिके रहने का घर समझ ले (भाव, जिस मनुष्य का मन सदा अडोल रहे), वह परमात्मा का रूप हो के उस प्रभू को प्यारा लगने लगता है।16। किसु कारणि ग्रिहु तजिओ उदासी ॥ किसु कारणि इहु भेखु निवासी ॥ किसु वखर के तुम वणजारे ॥ किउ करि साथु लंघावहु पारे ॥१७॥ {पन्ना 939} पद्अर्थ: किसु कारणु = किस लिए? तजिओ = त्यागा था। उदासी = विरक्त हो के। निवासी = धारने वाले (हुए थे)। वणजारे = व्यापारी। साथु = (संस्कृत: सारथु) काफला। (नोट: शब्द 'साथु' और 'साथि' का फर्क याद रखने योग्य है। 'साथु' संज्ञा है, और 'साथि' संबंधक है। देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। नोट: सिधों से यह गोष्ठि बटाले (जिला गुरदासपुर, पंजाब) के पास 'अचल' में हुई थी। सतिगुरू जी 'शिवरात्रि' का मेला सुन के करतारपुर से आए थे और इस वक्त गृहस्ती लिबास में थे, तभी भंगरनाथ ने पूछा था- 'भेख उतारि उदासि दा, वति किउ संसारी रीति चलाई॥' इससे पहले दूसरी 'उदासी' के वक्त इन सिधों को सुमेर पर्वत पर मिले थे, तब उदासी (संतो वाले) भेष में थे। यहाँ पौड़ी नं: 17 के प्रश्न में उस वक्त के उदासी वेष की तरफ इशारा है। अर्थ: (प्रश्न:) (अगर 'हाटी बाटी' को त्यागना नहीं था, तो) तुमने क्यों घर छोड़ा था और 'उदासी' बने थे? क्यों यह (उदासी-) भेष (पहले) धारण किया था? तुम किस सौदे के व्यापारी हो? (अपने श्रद्धालुओं की) जमात को (इस 'दुष्तर सागर' से) कैसे पार करवाओगे? (भाव, अपने सिखों को इस संसार से पार लंघाने का उद्धार का तुमने कौन सा राह बताया है) ?।17। गुरमुखि खोजत भए उदासी ॥ दरसन कै ताई भेख निवासी ॥ साच वखर के हम वणजारे ॥ नानक गुरमुखि उतरसि पारे ॥१८॥ {पन्ना 939} पद्अर्थ: भऐ = बने थे। कै ताई = के लिए। दरसन = गुरमुखों के दर्शन। अर्थ: (उक्तर:) हम गुरमुखों को तलाशने के लिए उदासी बने थे, हमने गुरमुखों के दर्शनों के लिए (उदासी-) भेष धारण किया था। हम सच्चे प्रभू के नाम के सौदे के व्यापारी हैं। हे नानक! जो मनुष्य गुरू के बताए राह पर चलता है वह (दुष्तर सागर से) पार लांघ जाता है।18। कितु बिधि पुरखा जनमु वटाइआ ॥ काहे कउ तुझु इहु मनु लाइआ ॥ कितु बिधि आसा मनसा खाई ॥ कितु बिधि जोति निरंतरि पाई ॥ बिनु दंता किउ खाईऐ सारु ॥ नानक साचा करहु बीचारु ॥१९॥ {पन्ना 939-940} पद्अर्थ: कितु बिधि = किस तरीके से? जनमु वटाइआ = जिंदगी पलट ली है। काहे कउ = किस से? मनसा = मन का फुरना। खाई = खा ली है। निरंतरि = एक रस। जोति = रॅबी प्रकाश। दंत = दाँत। सारु = लोहा। अर्थ: (प्रश्न:) हे पुरखा! तूने अपनी जिंदगी किस ढंग से पलट ली है? तूने अपना ये मन किसमें जोड़ा है? मन की आशाएं और मन के फुरने तूने कैसे खत्म कर लिए हैं? रॅबी प्रकाश तुझे एक-रस कैसे मिल गया है? (माया के इस प्रभाव सें बचना वैसे ही मुश्किल है जैसे दाँतों के बिना लोहे चबाना) दाँतों के बिना लोहा कैसे चबाया जाय? हे नानक! कोई सही विचार बताओ? (भाव, कोई ऐसा तरीका बताओ जिससे हम संतुष्ट हो जाएं)।19। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |