श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 940 सतिगुर कै जनमे गवनु मिटाइआ ॥ अनहति राते इहु मनु लाइआ ॥ मनसा आसा सबदि जलाई ॥ गुरमुखि जोति निरंतरि पाई ॥ त्रै गुण मेटे खाईऐ सारु ॥ नानक तारे तारणहारु ॥२०॥ {पन्ना 940} पद्अर्थ: सतिगुर कै = सतिगुरू के घर में। सतिगुर के जनमे = सतिगुरू के घर में जनम लेने से, जब गुरू की शरण आ के पिछला स्वभाव मिटा दिया। गवनु = भटकना, आवागवन। अनहति = अनाहद में। अनहत = एक रस व्यापक प्रभू (अनाहतं = आहतं छेदो भोगो वा तन्नास्ति यस्य)। राते = मस्त हुआ। लाइआ = लगा लिया, प्रभावित कर लिया। त्रैगुण = माया के तीन गुण = तमो गुण; रजो गुण; सतो गुण। अज्ञान, प्रवृक्ति, ज्ञान; प्रकृति में से उठी लहरें जो तीन किस्म के असर हमारे मन पर डालती हैं, ये तीन गुण हैं माया के = सुस्ती, चुस्ती और शांति। अर्थ: (उक्तर:) ज्यों-ज्यों सतिगुरू की शिक्षा पर चले, त्यों-त्यों मन की भटकना समाप्त होती गई। ज्यों-ज्यों एक-रस व्यापक प्रभू में जुड़ने का आनंद आया, त्यों-त्यों ये मन परचता गया (प्रभावित हो के उसमें समाता चला गया)। मन के फुरने और दुनियावी आशाएं हमने गुरू के शबद से जला दी हैं, गुरू के सन्मुख होने से ही एक-रस रॅबी-प्रकाश मिला है। (इस ईश्वरीय-रौशनी की बरकति से) हमने माया के झलक की तीनों ही किस्मों के प्रभाव (तमो, रजो, सतो) अपने ऊपर नहीं पड़ने दिए, और (इस तरह माया की चोट से बचने का अत्यंत आसान कार्य-रूपी) लोहा चबाया गया है। (पर) हे नानक! (इस 'दुश्तर सागर' से) तैराने का समर्थ प्रभू स्वयं ही उद्धार करता है।20। आदि कउ कवनु बीचारु कथीअले सुंन कहा घर वासो ॥ गिआन की मुद्रा कवन कथीअले घटि घटि कवन निवासो ॥ काल का ठीगा किउ जलाईअले किउ निरभउ घरि जाईऐ ॥ सहज संतोख का आसणु जाणै किउ छेदे बैराईऐ ॥ गुर कै सबदि हउमै बिखु मारै ता निज घरि होवै वासो ॥ जिनि रचि रचिआ तिसु सबदि पछाणै नानकु ता का दासो ॥२१॥ {पन्ना 940} पद्अर्थ: आदि = शुरूआत, आरम्भ, जगत रचना का आरंभ। कथीअले = कहा जाता है। सुंन = (सं: शून्य) अफुर परमात्मा, निर्गुण स्वरूप प्रभू। घर वासो = ठिकाना, स्थान। गिआन = ज्ञान, परमात्मा के साथ गहरी जान पहचान। मुद्रा = 1. मुंद्राएं, 2. निशानी, 3. जोगियों के पाँच साधन = खचरी, भूचरी, गोचरी, चाचरी और उनमनी। ठीगा = चोट, सोटा, डंडा। जलाईअले = जलाया जाए। घरि = घर में। बैराईअै = वैरी को। जिनि = जिस (प्रभू) ने। अर्थ: (प्रश्न:) तुम (सृष्टि के) के आदि के बारे में क्या कहते हो? (तब) अफुर परमात्मा का कहाँ निवास था? परमात्मा को जानने के साधन क्या बताते हो? हरेक घट में किस का निवास है? काल की चोट कैसे समाप्त की जाए? निर्भय अवस्था तक कैसे पहुँच जाता है? कैसे (अहंकार) वैरी का नाश हो जिससे सहज और संतोख के आसन को पहचाना जा सके (भाव, जिसके कारण सहज और संतोख प्राप्त हो) ? (उक्तर:) (जो मनुष्य) सतिगुरू के शबद के द्वारा अहंकार के जहर को खत्म कर लेता है, वह निज-स्वरूप में टिक जाता है। जिस प्रभू ने रचना रची है जो मनुष्य उसको गुरू के शबद में जुड़ के पहचानता है, नानक उसका दास है।21। कहा ते आवै कहा इहु जावै कहा इहु रहै समाई ॥ एसु सबद कउ जो अरथावै तिसु गुर तिलु न तमाई ॥ किउ ततै अविगतै पावै गुरमुखि लगै पिआरो ॥ आपे सुरता आपे करता कहु नानक बीचारो ॥ हुकमे आवै हुकमे जावै हुकमे रहै समाई ॥ पूरे गुर ते साचु कमावै गति मिति सबदे पाई ॥२२॥ {पन्ना 940} पद्अर्थ: कहा ते = कहां से? इहु = ये जीव। अरथावै = समझा दे। तमाई = तमा, लालच। ततु = तत्व, अस्लियत, जगत की अस्लियत प्रभू। अविगत = अव्यक्त, व्यक्ति रहत, अदृश्य प्रभू। सुरता = श्रोता, सुनने वाला। गति = हालत। मिति = माप। अर्थ: (प्रश्न:) ये जीव कहाँ से आता है? कहाँ जाता है? कहाँ टिका रहता है? ( भाव, जीव कैसे जीवन व्यतीत करता है?) - जो ये बात समझा दे, (हम मानेंगे कि) उस गुरू को रक्ती भर भी लोभ नहीं है। जीव जगत के मूल व अदृश्य प्रभू को कैसे मिले? गुरू के द्वारा (प्रभू के साथ इसका) प्यार कैसे बने? हे नानक! (हमें उस प्रभू की) विचार बता जो स्वयं ही (जीवों को) पैदा करने वाला है और स्वयं ही, (उनकी) सुनने वाला है। (उक्तर:) (जीव प्रभू के) हुकम में ही (यहाँ) आता है, हुकम में ही (यहाँ से) चला जाता है, जीव को हुकम में ही जीवन व्यतीत करना पड़ता है। पूरे गुरू के द्वारा मनुष्य सच्चे प्रभू के (सिमरन की) कमाई करता है, ये बात गुरू के शबद से ही मिलती है कि प्रभू कैसा है और कितना (बेअंत) है।22। आदि कउ बिसमादु बीचारु कथीअले सुंन निरंतरि वासु लीआ ॥ अकलपत मुद्रा गुर गिआनु बीचारीअले घटि घटि साचा सरब जीआ ॥ गुर बचनी अविगति समाईऐ ततु निरंजनु सहजि लहै ॥ नानक दूजी कार न करणी सेवै सिखु सु खोजि लहै ॥ हुकमु बिसमादु हुकमि पछाणै जीअ जुगति सचु जाणै सोई ॥ आपु मेटि निरालमु होवै अंतरि साचु जोगी कहीऐ सोई ॥२३॥ {पन्ना 940} पद्अर्थ: बिसमादु = आश्चर्य। निरंतरि = एक रस। कलपत = कल्पित, बनाई हुई, नकली। अकलपत = अकल्पित, असली। मुद्रा = साधन। अविगत = अव्यक्त हरी में, अदृश्य प्रभू में। सहजि = अडोलता में। निरालमु = निराला, निर्लिप। अर्थ: (पउड़ी नंबर 21 और 22 का उक्तर:) सृष्टि के आदि का विचार तो 'आश्चर्य, आश्चर्य' ही कहा जा सकता है, (तब) एक-रस अफुर परमात्मा का ही वजूद था। ज्ञान का असली साधन ये समझो कि सतिगुरू से मिला ज्ञान हो (भाव, ज्ञान प्राप्ति का असली साधन सतिगुरू की शरण ही है)। हरेक घट में, सारे जीवों में, सदा कायम रहने वाला प्रभू ही बसता है। अदृश्य प्रभू में सतिगुरू के शबद द्वारा लीन हुआ जाता है, (गुरू-शबद के द्वारा) अडोल अवस्था में टिका जगत का मूल निरंजन (माया से रहित प्रभू) मिल जाता है। हे नानक! (निरंजन को तलाशने के लिए गुरू के बचनों पर चलने के अतिरिक्त) और कोई काम करने की आवश्यक्ता नहीं, जो सिख (गुरू के आशय अनुसार) सेवा करता है वह तलाश के 'निरंजन' को पा लेता है। 'हुकम' मानना आश्चर्य (ख्याल) है, भाव यह (ख्याल कि गुरू के हुकम में चलने से 'अविगत' में समाया जाता है हैरानगी पैदा करने वाला है; पर) जो मनुष्य 'हुकम' में (चल के 'हुकम' को) पहचानता है वह जीवन की (सही) जुगति के 'सच' को जान लेता है; वह 'स्वै भाव' (अहंम्) मिटा के (दुनिया में रहते हुए भी दुनिया से) अलग होता है (क्योंकि उसके) हृदय में सदा कायम रहने वाला प्रभू (साक्षात) है, (बस!) ऐसा मनुष्य ही जोगी कहलवाने के योग्य है।23। नोट: इससे आगे पौड़ी नं:42 तक प्रश्न-उक्तर नहीं हैं, सतिगुरू जी अपने ही मत की व्याख्या करते हैं। अविगतो निरमाइलु उपजे निरगुण ते सरगुणु थीआ ॥ सतिगुर परचै परम पदु पाईऐ साचै सबदि समाइ लीआ ॥ एके कउ सचु एका जाणै हउमै दूजा दूरि कीआ ॥ सो जोगी गुर सबदु पछाणै अंतरि कमलु प्रगासु थीआ ॥ जीवतु मरै ता सभु किछु सूझै अंतरि जाणै सरब दइआ ॥ नानक ता कउ मिलै वडाई आपु पछाणै सरब जीआ ॥२४॥ {पन्ना 940} पद्अर्थ: अविगतो = अव्यक्त से, अदृश्य से। उपजे = प्रकट होता है। निरगुण = माया के तीन गुणों से रहत। सरगुणु = माया के तीन गुणों समेत। परचै = पतीजने से। परम पदु = ऊँची आत्मिक अवस्था। अर्थ: (जब) अदृश्य अवस्था से निर्मल प्रभू प्रकट होता है और निर्गुण रूप से सर्गुण बनता है (भाव, अपने अदृश्य आत्मिक स्वरूप से आकार वाला बन के सूक्ष्म और स्थूल रूप धारण कर लेता है) तब इस दृश्यमान संसार में से जिस जीव का मन सतिगुरू के शबद से पतीजता जाता है (उस जीव को) ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है (तब समझें कि) गुरू के शबद के द्वारा सच्चे प्रभू ने (उसको अपने में) लीन कर लिया है। (तब) वह केवल एक प्रभू को ही (सदा रहने वाली हस्ती) जानता है, उसने अहंकार व दूजा भाव (अर्थात, प्रभू के बिना किसी और ऐसी हस्ती की संभावना का ख्याल) दूर कर लिया होता है, (बस!) वही (असल) जोगी है, वह सतिगुरू के शबद को समझता है उसके अंदर (हृदय-रूप) कमल-फूल खिल उठा होता है। जो मनुष्य जीते हुए ही मर जाता है (भाव, 'अहम्' का त्याग करता है, स्वार्थ मिटाता है) उसको (जिंदगी के) हरेक (पहलू) की समझ आ जाती है, वह मनुष्य सारे जीवों पर दया करने (का असूल) अपने मन में पक्का कर लेता है। हे नानक! उसी मनुष्य को आदर मिलता है, वह सारे जीवों में अपने आप को देखता है (भाव, वह उसी ज्योति को सबमें देखता है जो उसके अपने अंदर है)।24। साचौ उपजै साचि समावै साचे सूचे एक मइआ ॥ झूठे आवहि ठवर न पावहि दूजै आवा गउणु भइआ ॥ आवा गउणु मिटै गुर सबदी आपे परखै बखसि लइआ ॥ एका बेदन दूजै बिआपी नामु रसाइणु वीसरिआ ॥ सो बूझै जिसु आपि बुझाए गुर कै सबदि सु मुकतु भइआ ॥ नानक तारे तारणहारा हउमै दूजा परहरिआ ॥२५॥ {पन्ना 940-941} पद्अर्थ: साचौ = सदा कायम रहने वाले प्रभू से। सूचे = पवित्र मनुष्य। ऐक मइआ = एक मेक, एक रूप। आवा गउणु = आवागवन, जनम मरण का चक्कर। बेदन = वेदना, पीड़ा, दुख। दूजै = प्रभू के बिना और से प्यार के कारण। बिआपी = सता रही है। रसाइणु = (रस+अयन) रसों का घर। आपि = (पउड़ी नं:24 में शब्द 'आपि' का फर्क समझने के लिए देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। परहरिआ = दूर किया। अर्थ: (गुरमुखि) सच्चे प्रभू से पैदा होता है और सच्चे में ही लीन रहता है; प्रभू और गुरमुख एक-रूप हो जाते हैं। पर झूठे (भाव, नाशवंत माया में लगे हुए लोग) जगत में आते हैं, उनको मन का टिकाव नहीं हासिल होता (सो इस) दूजे-भाव के कारण उनका जनम-मरण का चक्कर बना रहता है। ये जनम-मरण का चक्कर सतिगुरू के शबद से ही मिटता है (गुरू-शबद में जुड़े मनुष्य को) प्रभू स्वयं पहचान लेता है, और (उस पर) मेहर करता है। (पर जिनको) सारे रसों-का-घर-प्रभू का नाम बिसर जाता है उन्हें दूसरे भाव में फसने के कारण यह अहंकार की पीड़ा सताती है। (ये भेद) वह मनुष्य समझता है जिसको प्रभू खुद समझ बख्शता है, गुरू के शबद में जुड़ने के कारण वह मनुष्य (अहंकार से) आजाद हो जाता है। हे नानक! जिसने अहंकार और दूजा भाव त्याग दिया है उसको तारनहार प्रभू तार लेता है।25। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |