श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 941 मनमुखि भूलै जम की काणि ॥ पर घरु जोहै हाणे हाणि ॥ मनमुखि भरमि भवै बेबाणि ॥ वेमारगि मूसै मंत्रि मसाणि ॥ सबदु न चीनै लवै कुबाणि ॥ नानक साचि रते सुखु जाणि ॥२६॥ {पन्ना 941} पद्अर्थ: काणि = मुथाजी। जोहै = देखता है। होणे हाणि = हानि ही हानि, घाटा ही घाटा। भरमि = भ्रम में, भुलेखे में। बेबाणि = जंगल में। वेमारगि = कुमार्ग, गलत रास्ते पर। मूसै = ठगा जाता है। मंत्रि = मंत्र पढ़ने वाला। मसाणि = मसाण में। लवै = लब लबाना, ऊल जलूल बोलना। कुबाणि = दुरवचन, कुबोल। अर्थ: जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है वह (जीवन का सही रास्ता) गवा देता है और जम की मुथाजी में हो जाता है, पराया घर देखता है, उसको (इस कुकर्म में) घाटा ही घाटा रहता है। भुलेखे में पड़ा हुआ मनमुख (मानो) जंगल में भटक रहा है, गलत रास्ते पर पड़ कर (इस प्रकार) ठगा जा रहा है जैसे मसाण में मंत्र पढ़ने वाला मनुष्य (बुरी तरफ पड़ा है)। (मनमुख) गुरू के शबद को नहीं पहचानता (भाव, गुरू के शबद की उसको कद्र नहीं पड़ती), और दुर्वचन ही बोलता है। हे नानक! सुख उसको (मिला) जानो जो सच्चे प्रभू में रंगा हुआ है।26। गुरमुखि साचे का भउ पावै ॥ गुरमुखि बाणी अघड़ु घड़ावै ॥ गुरमुखि निरमल हरि गुण गावै ॥ गुरमुखि पवित्रु परम पदु पावै ॥ गुरमुखि रोमि रोमि हरि धिआवै ॥ नानक गुरमुखि साचि समावै ॥२७॥ {पन्ना 941} पद्अर्थ: अघड़ ु = बिना घड़ा हुआ मन, अमोड़ मन, जो अच्छी तरह घड़ा नहीं हुआ, बगैर तराशे हुए। परम पदु = सबसे उक्तम दर्जा। रोमि रोमि = हरेक रोम से, (भाव,) तन मन से। साचि = सच्चे प्रभू में। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू के अनुसार हो के चलता है वह सच्चे प्रभू का डर अपने हृदय में बसाता है, गुरू की बाणी से अपने अमोड़ मन को तराशता है, निर्मल परमात्मा की सिफत सालाह करता है (और इस तरह) पवित्र और ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। गुरमुख मनुष्य तन-मन से परमात्मा को याद करता है, हे नानक! (बँदगी से) गुरमुख सदा कायम रहने वाले प्रभू में लीन रहता है।27। गुरमुखि परचै बेद बीचारी ॥ गुरमुखि परचै तरीऐ तारी ॥ गुरमुखि परचै सु सबदि गिआनी ॥ गुरमुखि परचै अंतर बिधि जानी ॥ गुरमुखि पाईऐ अलख अपारु ॥ नानक गुरमुखि मुकति दुआरु ॥२८॥ {पन्ना 941} पद्अर्थ: परचा = गहरी सांझ, प्यार (संस्कृत: परिचि = परिचय बनाना, मित्रता कायम करनी, सांझ बनानी)। अंतर = अंदर की। (नोट: पौड़ी नं: 24 में शब्द 'अंतरि' और इस 'अंतर' में फर्क है। अंतरि = अपने अंदर। अंतर बिधि = अंदर की हालत)। गिआनी = ज्ञानवान, प्रभू के साथ गहरी जान पहचान वाला। अलख = जिसके कोई खास चिन्ह व निशान नहीं। दुआरु = द्वार, दरवाजा। अर्थ: जो मनुष्य गुरू के साथ गहरी सांझ बना लेता है (भाव, जिसको सतिगुरू में पूर्ण विश्वास हो जाता है) वह (मानो) वेदों का ज्ञाता हो गया है (उसको वेदों की आवश्क्ता नहीं रह जाती)। गुरू के साथ गहरी सांझ बनाने से संसार-समुंद्र से पार हुआ जाता है, गुरू शबद के माध्यम से परमात्मा के साथ जान-पहचान वाला बना जाता है और (अपने) अंदर की सूझ आ जाती है। गुरू के सन्मुख होने से अदृश्य और बे-अंत प्रभू मिल जाता है; हे नानक! गुरू के द्वारा ही (अहंकार से) खलासी का रास्ता मिलता है।28। गुरमुखि अकथु कथै बीचारि ॥ गुरमुखि निबहै सपरवारि ॥ गुरमुखि जपीऐ अंतरि पिआरि ॥ गुरमुखि पाईऐ सबदि अचारि ॥ सबदि भेदि जाणै जाणाई ॥ नानक हउमै जालि समाई ॥२९॥ {पन्ना 941} पद्अर्थ: अकथु = जो कथन ना किया जा सके, जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। बीचारि = विचार से। निबहै = निभता है, पुगता है। सपरवारि = स+परवारि, परिवार में रहते हुए। अंतरि = हृदय में। पिआरि = प्यार से। सबदि = गुर शबद से। अचारि = आचार से, अच्छे आचरण से। भेदि = भेदित करके। जाणाई = जनाता है, औरों को बताता है। जालि = जला के। अर्थ: गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य (गुरू की बताई) विचार से उस प्रभू के गुण गाता है जिसका सही रूप बयान नहीं किया जा सकता, (इस तरह) गुरमुख घर-बार वाला होते हुए ही (जिंदगी की बाजी में) सिद्ध (सफल, माहिर) हो जाता है। गुरू के सन्मुख होने से ही हृदय में प्यार से प्रभू का नाम जपा जा सकता है, और गुर-शबद के द्वारा ऊँचा आचरण बन के प्रभू मिलता है। (गुरू के बताए हुए मार्ग पर चलने वाला मनुष्य) गुरू के शबद द्वारा (अपने मन को) परो के (प्रभू को) पहचानता है व औरों को पहचान करवाता है। हे नानक! गुरमुख (अपने) अहंकार (खुदगर्जी को) जला के (प्रभू में) लीन रहता है।29। गुरमुखि धरती साचै साजी ॥ तिस महि ओपति खपति सु बाजी ॥ गुर कै सबदि रपै रंगु लाइ ॥ साचि रतउ पति सिउ घरि जाइ ॥ साच सबद बिनु पति नही पावै ॥ नानक बिनु नावै किउ साचि समावै ॥३०॥ {पन्ना 941} पद्अर्थ: साचै = सच्चे प्रभू ने। तिसु महि = उस (धरती) में। ओपति = उत्पक्ति। खपति = खपत, नाश। बाजी = खेल। रपै = रंगा रहता है। रतउ = रति हुआ, रंगा हुआ। पति = इज्ज्त। रंगु = प्यार। अर्थ: सच्चे प्रभू ने गुरमुख मनुष्य (पैदा करने) के लिए धरती बनाई है; इस धरती में उत्पक्ति और नाश (गुरमुखता के विकास के लिए) एक खेल है; जब मनुष्य गुरू के शबद के द्वारा प्रभू के साथ प्यार जोड़ के (प्रभू के रंग में) रंगा जाता है तो सच्चे में रति हुआ (गुरमुखि) इज्जत ले के अपने घर में पहुँचता है (और उसकी बनने-टूटने की खेल समाप्त हो जाती है)। सच्चे शबद के बिना कोई मनुष्य इज्जत हासिल नहीं कर सकता। हे नानक! प्रभू के नाम के बिना प्रभू में मनुष्य कैसे समा सकता है? (नहीं समा सकता)।30। गुरमुखि असट सिधी सभि बुधी ॥ गुरमुखि भवजलु तरीऐ सच सुधी ॥ गुरमुखि सर अपसर बिधि जाणै ॥ गुरमुखि परविरति नरविरति पछाणै ॥ गुरमुखि तारे पारि उतारे ॥ नानक गुरमुखि सबदि निसतारे ॥३१॥ {पन्ना 941} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की ओर मुँह रखना, गुरू के बताए हुए राह पर चलना। असट = आठ। असट सिधी = आठ सिद्धियां (आठ करामाती ताकतें = अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशीता, वशिता। अणिमा = दूसरे का रूप हो जाना। महिमा = देह को बड़ा कर लेना। लघिमा = शरीर को छोटा कर लेना। गरिमा = भारी हो जाना। प्राप्ति = मन इच्छित भोग हासिल कर लेने की समर्था। प्राकाम्य = औरों के दिल की जानने की ताकत। ईशीता = अपनी इच्छा अनुसार सबको प्रेरित करना। वशिता = सब को वश में कर लेना)। सुधी = श्रेष्ठ मत। अपसर = बुरा समय। सर = अच्छा समय। परविरति = ग्रहण। नरविरति = त्याग। अर्थ: गुरू के बताए हुए राह पर चलना ही सारी आठों करामाती ताकतों और कौशल की प्राप्ति है, गुरू के सन्मुख होने से संसार-समुंद्र से पार हुआ जाता है और सच्चे की सुंदर मति आ जाती है। गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य अच्छे-बुरे समय की हालत को जान लेता है, और पहचान लेता है कि क्या छोड़ना है और क्या ग्रहण करना है। गुरमुख मनुष्य (औरों को संसार-समुंद्र से) तैरा के उस पार लगा देता है। हे नानक! गुरू की शिक्षा पर चलने वाला बंदा (गुरू के) शबद से (दूसरों की भी) उद्धार कर देता है।31। नामे राते हउमै जाइ ॥ नामि रते सचि रहे समाइ ॥ नामि रते जोग जुगति बीचारु ॥ नामि रते पावहि मोख दुआरु ॥ नामि रते त्रिभवण सोझी होइ ॥ नानक नामि रते सदा सुखु होइ ॥३२॥ {पन्ना 941} पद्अर्थ: नामे = नाम में ही। मोख = मुक्ति, आजादी, खलासी, अहंकार से मुक्ति। त्रिभवण = त्रिलोकी की। सदा सुख = सदा कायम रहने वाला सुख। राते = रंगे हुए की। अर्थ: (प्रभू के) नाम में रंगे हुए का अहंकार नाश होता है। जो मनुष्य प्रभू के नाम में रंगे हुए हैं वह प्रभू में समाए रहते हैं। जो प्राणी प्रभू के नाम में रंगे हुए हैं उन्हें ही जोग की जुगति और विचार प्राप्त हूई है। प्रभू के नाम में रंगे हुए बंदे ही अहंकार से छुटकारा पाने का रास्ता पाते हैं, (क्योंकि) नाम में रति हुए (रंगे हुए) बंदों को त्रिलोकी की सूझ पड़ जाती है (भाव, अपनी छोटी सी अपनत्व की पकड़ की जगह सारी त्रिलोकी ही उन्हें रॅबी सांझ के कारण अपनी ही दिखती है)। हे नानक! प्रभू के नाम में रते हुए को सदा टिके रहने वाला सुख मिलता हैं।32। नामि रते सिध गोसटि होइ ॥ नामि रते सदा तपु होइ ॥ नामि रते सचु करणी सारु ॥ नामि रते गुण गिआन बीचारु ॥ बिनु नावै बोलै सभु वेकारु ॥ नानक नामि रते तिन कउ जैकारु ॥३३॥ {पन्ना 941} पद्अर्थ: सिध = पूरन परमात्मा। गोसटि = मिलाप। सिध गोसटि = परमात्मा से मिलाप (देखें, इस बाणी के आरंभ में शब्द 'सिध गोसटि' पर विचार)। सारु = श्रेष्ठ। वेकारु = व्यर्थ। तपु = 1. मन को मारने के लिए शरीर पर कष्ट सहने का साधन; 2. पुन्य कर्म। गिआन = ज्ञान, पहचान, सांझ। अर्थ: (प्रभू के) नाम में रति रहने पर ही प्रभू से मिलाप होता है। प्रभू-नाम में रंगे रहना ही सदा कायम रहने वाला पुन्य कर्म है। नाम में लगना ही सच्ची और उक्तम करणी है। नाम में रति रहने से ही प्रभू के गुणों के साथ जान-पहचान होती है और सांझ बनती है। (प्रभू के) नाम के बिना मनुष्य जो बोलता है व्यर्थ है। हे नानक! जो मनुष्य नाम में रति हैं, उनको हमारी नमस्कार है।33। पूरे गुर ते नामु पाइआ जाइ ॥ जोग जुगति सचि रहै समाइ ॥ बारह महि जोगी भरमाए संनिआसी छिअ चारि ॥ गुर कै सबदि जो मरि जीवै सो पाए मोख दुआरु ॥ बिनु सबदै सभि दूजै लागे देखहु रिदै बीचारि ॥ नानक वडे से वडभागी जिनी सचु रखिआ उर धारि ॥३४॥ {पन्ना 941-942} पद्अर्थ: सचि = सच में, सदा कायम रहने वाले प्रभू में। बारह = जोगियों के बारह फिरके = हेतु, पाव, आई, गम्य, पागल, कंथड़ी, बन, आरन्य,गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वत, भारती, पुरी। उरधारि = उरि+धारि, हृदय में धार के। उर = हृदय। अर्थ: (प्रभू का) नाम गुरू से मिलता है। सच्चे प्रभू में लीन रहना- यही है (असल) जोग की जुगति। (पर) जोगी लोग (अपने) बारह फिरकों (के बँटवारे) में (इस असल निशाने से) टूट रहे हैं और संयासी लोग (अपने) दस फिरकों (अलग-अलग साधनों) में। जो मनुष्य सतिगुरू के शबद के द्वारा (माया की ओर से) मर के जीता है वह (अहंकार से) मुक्ति का राह ढूँढ लेता है। हृदय में विचार के देख लो (भाव, अपना जाती तजरबा ही इस बात की गवाही दे देगा कि) गुरू के शबद (में जुड़े) बिना सारे लोग (प्रभू को छोड़ के) और ही (व्यस्तता) में लगे रहते हैं। हे नानक! वे मनुष्य बड़े हैं और बहुत भाग्यशाली हैं जिन्होंने सच्चे प्रभू को टिका रखा है।34। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |