श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 942 गुरमुखि रतनु लहै लिव लाइ ॥ गुरमुखि परखै रतनु सुभाइ ॥ गुरमुखि साची कार कमाइ ॥ गुरमुखि साचे मनु पतीआइ ॥ गुरमुखि अलखु लखाए तिसु भावै ॥ नानक गुरमुखि चोट न खावै ॥३५॥ {पन्ना 942} पद्अर्थ: गुरमुखि = जो मनुष्य गुरू के सन्मुख है। रतनु = प्रभू का नाम रूप कीमती पदार्थ। सुभाइ = स्वाभाविक ही, सहज ही। (नोट: जैसे 'नाउ' और 'नाइ' करणकारक हैं वैसे ही 'भाउ' और 'भाइ')। 'सुभाउ' असल में है 'स्वभाव' = अपना प्यार, अपनी लगन। अपनी लगन से ही। पतीआइ = तसल्ली करा लेता है। अलखु = जिसका कोई खास लक्षण ना दिखे। लखाऐ = सूझ पैदा कर देता है। तिसु = उस प्रभू को। चोट = मार। अर्थ: जो मनुष्य गुरू के कहे पर चलता है वह (प्रभू में) सुरति जोड़ के प्रभू-नाम-रूप रतन पा लेता है, वह मनुष्य (इस) अपनी लगन से ही नाम-रतन की कद्र जान लेता है। (बस! यही) सच्ची कार गुरमुख कमाता है और सच्चे प्रभू में अपने मन को मिला लेता है। (जब) उस प्रभू को भाता है तब गुरमुख उस अलख प्रभू (के गुणों की औरों को भी) सूझ दे देता है। हे नानक! जो मनुष्य गुरू के कहे पर चलता है वह (वह) विकारों की मार नहीं खाता।35। गुरमुखि नामु दानु इसनानु ॥ गुरमुखि लागै सहजि धिआनु ॥ गुरमुखि पावै दरगह मानु ॥ गुरमुखि भउ भंजनु परधानु ॥ गुरमुखि करणी कार कराए ॥ नानक गुरमुखि मेलि मिलाए ॥३६॥ {पन्ना 942} पद्अर्थ: गुरमुखि नामु = गुरमुखि मनुष्य का ही नाम (जपना प्रवान है), गुरू के हुकम में चल के ही नाम जपना ठीक है। सतगुरु पुरख न मंनिओ सबदि न लगो पिआर॥ इसनानु दानु जेता करहि दूजै भाइ खुआर॥५॥२०॥ सिरी रागु म:३॥ भउ भंजनु-दुनिया वाले डर सहम नाश करने वाला प्रभू। परधानु-सब का मुखी, सबका मालिक। गुरमुखि...परधानु-गुरमुखि (पावै) भउ भंजनु परधानु। करणी कार-करने योग्य काम। अर्थ: जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलता है, उसका नाम जपना दान करना और स्नान करना परवान है। गुरू के सन्मुख होने से ही अडोल अवस्था में सुरति जुड़ती है। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख है वह प्रभू की हजूरी में आदर पाता है वह उस प्रभू को मिल जाता है जो डर-सहम नाश करने वाला है और जो सबका मालिक है। गुरमुख मनुष्य (औरों से भी यही, भाव, गुरू के हुकम में चलने वाला) करने-योग्य काम करवाता है, (और इस तरह उनको) हे नानक! (प्रभू के) मेल में मिला देता है।36। गुरमुखि सासत्र सिम्रिति बेद ॥ गुरमुखि पावै घटि घटि भेद ॥ गुरमुखि वैर विरोध गवावै ॥ गुरमुखि सगली गणत मिटावै ॥ गुरमुखि राम नाम रंगि राता ॥ नानक गुरमुखि खसमु पछाता ॥३७॥ {पन्ना 942} पद्अर्थ: भेद = राज़, रम्ज़। घटि घटि = हरेक घट में व्यापक प्रभू। गणत = लेखा, हिसाब। अर्थ: जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलता है, वह (मानो) शास्त्रों स्मृतियों और वेदों का ज्ञान हासिल कर चुका है, (भाव, गुरू के हुकम में चलना ही गुरसिख के लिए वेद-शास्त्रों व वेदों का ज्ञान है)। गुरू के हुकम में चल के वह हरेक घट में व्यापक प्रभू का (सर्र्व-व्यापकता का) भेद समझ लेता है, (इस वास्ते) गुरमुखि (दूसरों के साथ) वैर-विरोध रखना भुला देता है, (इस वैर-विरोध का) सारा लेखा ही मिटा देता है (भाव, कभी ये सोच आने ही नहीं देता कि किसी ने कभी उसके साथ धक्केशाही की)। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख है, वह प्रभू के नाम के प्यार में रंगा रहता है। हे नानक! गुरू के सन्मुख मनुष्य ने पति (-प्रभू ) को पहचान लिया है।37। बिनु गुर भरमै आवै जाइ ॥ बिनु गुर घाल न पवई थाइ ॥ बिनु गुर मनूआ अति डोलाइ ॥ बिनु गुर त्रिपति नही बिखु खाइ ॥ बिनु गुर बिसीअरु डसै मरि वाट ॥ नानक गुर बिनु घाटे घाट ॥३८॥ {पन्ना 942} पद्अर्थ: भरमै = भटकता है। थाइ न पवई = कबूल नहीं होती। मनूआ = चंचल मन ('मन' से 'मनूआ' अल्पार्थक संज्ञा है, देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। डोलाइ = डोलता है, शंकाओं से घिरा रहता है। बिखु = विष, जहर। त्रिपति = तृप्ति, संतोख। बिसीअरु = साँप (जगत का मोह)। अर्थ: सतिगुरू (की शरण आए) बिना (मनुष्य माया में) भटकता है और पैदा होता मरता रहता है। गुरू की शरण के बिना कोई मेहनत कबूल नहीं होती (क्योंकि 'अहंकार' टिका रहता है)। सतिगुरू के बिना ये चंचल मन बहुत शंकाओं में घिरा रहता है, जहर खा-खा के भी (भाव दुनिया के पदार्थ भोग भोग के) तृप्त नहीं होता। गुरू (की राह पर चले) बिना (जगत का मोह-रूपी) साँप डंग मारता रहता है, (जिंदगी के सफर के) आधे रास्ते पर ही (आत्मिक मौत) मर जाता है। हे नानक! सतिगुरू के (हुकम में चले) बिना मनुष्य को (आत्मिक जीवन में) घाटा ही घाटा रहता है।38। जिसु गुरु मिलै तिसु पारि उतारै ॥ अवगण मेटै गुणि निसतारै ॥ मुकति महा सुख गुर सबदु बीचारि ॥ गुरमुखि कदे न आवै हारि ॥ तनु हटड़ी इहु मनु वणजारा ॥ नानक सहजे सचु वापारा ॥३९॥ {पन्ना 942} पद्अर्थ: गुण = गुणों से, गुण दे के। हारि = हार के। हटड़ी = सुंदर सी दुकान ('हट' से 'हटड़ी' अल्पार्थक संज्ञा है, देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। सहजे = सहज अवस्था में जुड़ के, आत्मिक अवस्था में टिक के। अर्थ: जिस मनुष्य को सतिगुरू मिल जाता है उसको (वह दुष्तर सागर से) पार लंघा लेता है, गुरू उसके अवगुण मिटा देता है और गुण दे के उसको (विकारों से) बचा लेता है। जो मनुष्य गुरू के सन्मुख (है वह जिंदगी की बाज़ी कभी) हार के नहीं आता, सतिगुरू का शबद विचार के उसको (माया के बँधनों से) आजादी का बड़ा सुख मिलता है। हे नानक! गुरमुख (अपने) शरीर को सुंदर सी दुकान व मन को व्यापारी बनाता है, अडोलता में रह के नाम का व्यापार करता है।39। गुरमुखि बांधिओ सेतु बिधातै ॥ लंका लूटी दैत संतापै ॥ रामचंदि मारिओ अहि रावणु ॥ भेदु बभीखण गुरमुखि परचाइणु ॥ गुरमुखि साइरि पाहण तारे ॥ गुरमुखि कोटि तेतीस उधारे ॥४०॥ {पन्ना 942} पद्अर्थ: सेतु = पुल। बिधाते = विधाता ने, करतार ने। दैत = दैत्य, राक्षस। संतापै = दुखी करता है। रामचंदि = श्री राम चंद्र ने। अहि = सांप (मन)। परचाइणु = उपदेश। साइरि = सागर पर। पाहण = पत्थर। बभीखण = रावण का भाई जिसने राम चंद्र जी को सारे भेद बताए थे। अर्थ: करतार ने (संसार-समुंद्र पर) गुरमुखि-रूप पुल बना दिया (जैसे रामचंद्र जी ने सीता को लाने के लिए पुल बाँधा था)। (रामचंद्र जी ने) लंका लूटी और राक्षस मारे, (वेसे ही गुरू ने कामादिकों के वश में हुए शरीर को उनसे छुड़वा लिया और वह पंच दूत भी वश में हो गए)। रामचंद्र (जी) ने रावण को मारा वैसे ही गुरमुख ने मन साँप को मार दिया; सतिगुरू का उपदेश (मन को मारने के लिए यूँ काम आया जैसे) विभीषण का भेद बताना (रावण को मारने के लिए काम आया)। (रामचंद्र जी ने पुल बनाने के लिए पत्थर समुंद्र पर तैराए) सतिगुरू ने (संसार-) समुंदर से (पत्थर दिलों को) पार लंघा दिया, गुरू के द्वारा तेतीस करोड़ (भाव, बेअंत जीवों का) उद्धार हो गया।40। गुरमुखि चूकै आवण जाणु ॥ गुरमुखि दरगह पावै माणु ॥ गुरमुखि खोटे खरे पछाणु ॥ गुरमुखि लागै सहजि धिआनु ॥ गुरमुखि दरगह सिफति समाइ ॥ नानक गुरमुखि बंधु न पाइ ॥४१॥ {पन्ना 942} पद्अर्थ: पछाणु = पहचान। सहजि = सहज में, आत्मिक अडोलता में। बंधु = रोक। गुरमुखि = गुरू के हुकम में चलने वाला मनुष्य। अर्थ: जो मनुष्य गुरू के हुकम में चलता है उसके जनम-मरन का चक्कर समाप्त हो जाता है, वह प्रभू की हजूरी में आदर लेता है। गुरू के सन्मुख मनुष्य खोटे और खरे कामों का भेदी हो जाता है (इस वास्ते खोटे कामों में फसता नहीं और) अडोलता में उसकी सुरति जुड़ी रहती है। गुरमुखि मनुष्य प्रभू की सिफत-सालाह के द्वारा प्रभू की हजूरी में टिका रहता है, (इस तरह) हे नानक! गुरमुख (की जिंदगी) के राह में (विकारों की) कोई रोक नहीं पड़ती।41। गुरमुखि नामु निरंजन पाए ॥ गुरमुखि हउमै सबदि जलाए ॥ गुरमुखि साचे के गुण गाए ॥ गुरमुखि साचै रहै समाए ॥ गुरमुखि साचि नामि पति ऊतम होइ ॥ नानक गुरमुखि सगल भवण की सोझी होइ ॥४२॥ {पन्ना 942} पद्अर्थ: निरंजन = निर+अंजन, माया से रहत (अंजन = सुरमा, कालख, माया की कालिख)। साचै = सच्चे प्रभू में। साचि = सत्य में। नामि = नाम में। पति = इज्जत। अर्थ: गुरू के हुकम में चलने वाला मनुष्य निरंजन का नाम प्राप्त करता है (क्योंकि) वह (अपने) अहंकार को गुरू के शबद द्वारा जला देता है। गुरू के सन्मुख हो के मनुष्य सच्चे प्रभू के गुण गाता है और सदा कायम रहने वाले प्रभू में लीन रहता है। सच्चे नाम में जुड़े रहने के कारण गुरमुखि को उच्च आदर मिलता है, हे नानक! गुरमुख मनुष्य को सारे भावनों की सोझी हो जाती है (भाव, गुरमुख को ये समझ आ जाती है कि प्रभू सारे ही भवनों में मौजूद है)।42। कवण मूलु कवण मति वेला ॥ तेरा कवणु गुरू जिस का तू चेला ॥ कवण कथा ले रहहु निराले ॥ बोलै नानकु सुणहु तुम बाले ॥ एसु कथा का देइ बीचारु ॥ भवजलु सबदि लंघावणहारु ॥४३॥ {पन्ना 942} पद्अर्थ: मूल = आदि, आरम्भ। वेला = समय। कथा = बात। कवण कथा ले = किस बात से। निराले = अलग, निर्लिप। बाले = हे बालक! सबदि = शबद द्वारा। लंघावनहार = पार कराने में समर्थ। अर्थ: (प्रश्न:) - (जीवन का) मूल क्या है? कौन सी शिक्षा लेने का (इस मनुष्य जनम का) समय है? तू किस गुरू का चेला है? कौन सी बात से तू निर्लिप रहता है? नानक कहता है (जोगियों ने कहा-) हे बालक (नानक!) सुन, (हमें) इस बात की विचार बता (हमें ये बात समझा कि कैसे) शबद से (गुरू जीव को) संसार समुंदर से पार लंघाने के समर्थ है।43। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |