श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कितु कितु बिधि जगु उपजै पुरखा कितु कितु दुखि बिनसि जाई ॥ हउमै विचि जगु उपजै पुरखा नामि विसरिऐ दुखु पाई ॥ गुरमुखि होवै सु गिआनु ततु बीचारै हउमै सबदि जलाए ॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी साचै रहै समाए ॥ नामे नामि रहै बैरागी साचु रखिआ उरि धारे ॥ नानक बिनु नावै जोगु कदे न होवै देखहु रिदै बीचारे ॥६८॥ {पन्ना 946}

पद्अर्थ: कितु = किससे? कितु बिधि = किस विधि से? पुरखा = हे पुरख! दुखि = दुख से। हउमै = अहंकार, मेर तेर, अपनी अलग अस्तित्व का ख्याल। नामि विसरिअै = अगर नाम बिसर जाए। सबदि = गुर शबद के द्वारा। साचै = सच्चे प्रभू में। नामे नामि = नामि ही नामि, नाम ही नाम में, निरोल प्रभू नाम में। जोगु = मिलाप।

अर्थ: (प्रश्न:) हे पुरख! जगत किस-किस विधि से उपजता है, किस तरह दुख में (पड़ता) है और कैसे नाश हो जाता है?

(उक्तर:) हे पुरख! जगत अहंकार में पैदा होता है, अगर (इसको) प्रभू का नाम बिसर जाए तो दुख पाता है। जो मनुष्य गुरू के हुकम में चलता है, वह तत्व-ज्ञान को विचारता है और (अपने) अहंकार को गुरू के शबद द्वारा जलाता है, उसका तन उसका मन और उसकी वाणी पवित्र हो जाते हैं; वह सदा कायम रहने वाले प्रभू में टिका रहता है; वह मनुष्य (प्रभू-चरणों का) मतवाला हो के निरोल प्रभू-नाम में जुड़ा रहता है, सदा प्रभू को हृदय में टिकाए रखता है। हे नानक! प्रभू के नाम के बिना प्रभू से मिलाप कभी नहीं हो सकता, अपने हृदय में विचार के देख लो (भाव, तुम्हारा अपना व्यक्तिगत अनुभव भी यही गवाही देगा)।68।

गुरमुखि साचु सबदु बीचारै कोइ ॥ गुरमुखि सचु बाणी परगटु होइ ॥ गुरमुखि मनु भीजै विरला बूझै कोइ ॥ गुरमुखि निज घरि वासा होइ ॥ गुरमुखि जोगी जुगति पछाणै ॥ गुरमुखि नानक एको जाणै ॥६९॥ {पन्ना 946}

पद्अर्थ: बाणी = गुरू की बाणी के द्वारा। निज घरि = अपने असल स्वरूप में। जुगति = जोग की युक्ति।

अर्थ: अगर कोई मनुष्य गुरू के हुकम में चलता है वह सच्चे शबद को बिचारता है, सतिगुरू की बाणी के माध्यम से सच्चा प्रभू (उसके हृदय में) प्रकट हो जाता है।

गुरमुख मनुष्य का मन (नाम-रस में) भीगता है, (पर इस बात को) कोई विरला ही समझता है। गुरू के सन्मुख मनुष्य का निवास अपने असल स्वरूप में बना रहता है।

जो मनुष्य सतिगुरू के हुकम में चलता है वह (असल) जोगी है वह (प्रभू से मिलाप की) जुगति पहचानता है। हे नानक! गुरू के हुकम में चलने वाला मनुष्य एक प्रभू को (हर जगह व्यापक) जानता है।69।

बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई ॥ बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई ॥ बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ ॥ बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ ॥ बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि ॥ नानक बिनु गुर मुआ जनमु हारि ॥७०॥ {पन्ना 946}

पद्अर्थ: गरबि = अहंकार में। गुबारि = अंधेरे में। हारि = हार के। जोगु = (परमात्मा से) मिलाप।

अर्थ: सतिगुरू की बताई हुई कार किए बिना (प्रभू से) मेल नहीं होता, गुरू को मिले बिना मुक्ति नहीं मिलती। गुरू को मिले बगैर प्रभू का नाम नहीं मिल सकता, मनुष्य बहुत कष्ट उठाता है। गुरू को मिले बग़ैर घोर अंधकार में अहंकार में रहता है। हे नानक! सतिगुरू के बिना मनुष्य जिंदगी (की बाजी) हार के आत्मिक मौत सहेड़ता है।70।

गुरमुखि मनु जीता हउमै मारि ॥ गुरमुखि साचु रखिआ उर धारि ॥ गुरमुखि जगु जीता जमकालु मारि बिदारि ॥ गुरमुखि दरगह न आवै हारि ॥ गुरमुखि मेलि मिलाए सुो जाणै ॥ नानक गुरमुखि सबदि पछाणै ॥७१॥ {पन्ना 946}

पद्अर्थ: उर = हृदय। बिदारि = फाड़ के। मेलि = संयोग से, संजोग बना के।

(नोट: 'सुो' अक्षर में 'स' के साथ दो मात्राएं = 'ु' और 'ो' हैं, पर यहाँ छंद की चाल को ठीक रखने के लिए (ु) लगा के पढ़नी है। देखें 'गुरबाणी व्याकरण')।

अर्थ: जो मनुष्य गुरू के हुकम में चलता है उसने (अपने) अहंकार को मार के अपना मन जीत लिया है, उसने सदा टिके रहने वाले प्रभू को अपने हृदय में परो लिया है, मौत का डर मार के उसने जगत जीत लिया है, वह (मनुष्य-जीवन की बाज़ी) हार के हजूरी में नहीं जाता (बल्कि, जीत के जाता है)।

गुरमुख मनुष्य को प्रभू संजोग बना के (अपने में) मिला लेता है (इस भेद को) वह गुरमुख (ही) समझता है। हे नानक! गुरू के सनमुख मनुष्य गुरू के शबद के माध्यम से (प्रभू के साथ) जान-पहचान बना लेता है।71।

सबदै का निबेड़ा सुणि तू अउधू बिनु नावै जोगु न होई ॥ नामे राते अनदिनु माते नामै ते सुखु होई ॥ नामै ही ते सभु परगटु होवै नामे सोझी पाई ॥ बिनु नावै भेख करहि बहुतेरे सचै आपि खुआई ॥ सतिगुर ते नामु पाईऐ अउधू जोग जुगति ता होई ॥ करि बीचारु मनि देखहु नानक बिनु नावै मुकति न होई ॥७२॥ {पन्ना 946}

पद्अर्थ: सबदै का = सारे शबद का, सारे उपदेश का। निबेड़ा = फैसला, सार। अउधू = हे जोगी! माते = मतवाले, मस्त। सचै = सच्चे प्रभू ने। खुआई = गलत रास्ते पर डाले हैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।

अर्थ: हे जोगी! सुन, सारे उपदेश का सार (ये है कि) प्रभू के नाम के बिना जोग (प्रभू का मिलाप) नहीं। जो 'नाम' में रति हैं वे हर समय मतवाले हैं। 'नाम' से ही सुख मिलता है; 'नाम' से ही पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है, 'नाम' से ही सारी सूझ पड़ती है।

प्रभू के नाम को छोड़ के जो मनुष्य और बहुत सारे भेख करते हैं उन्हें सच्चे प्रभू ने स्वयं गलत राह पर डाल दिया है।

हे जोगी! सतिगुरू से प्रभू का 'नाम' मिलता है ('नाम' मिलने से ही) जोग की सुरति सिरे चढ़ती है। हे नानक! मन में विचार के देख लो, 'नाम' के बिना मुक्ति नहीं मिलती (भाव, तुम्हारा अपना व्यक्तिगत अनुभव स्पष्ट कर देगा कि नाम सिमरन के बिना अहंकार से निजात नहीं मिलती)।72।

तेरी गति मिति तूहै जाणहि किआ को आखि वखाणै ॥ तू आपे गुपता आपे परगटु आपे सभि रंग माणै ॥ साधिक सिध गुरू बहु चेले खोजत फिरहि फुरमाणै ॥ मागहि नामु पाइ इह भिखिआ तेरे दरसन कउ कुरबाणै ॥ अबिनासी प्रभि खेलु रचाइआ गुरमुखि सोझी होई ॥ नानक सभि जुग आपे वरतै दूजा अवरु न कोई ॥७३॥१॥ {पन्ना 946}

नोट: इस लंबी बाणी के आरम्भ में जैसे 'मंगलाचरण' की पउड़ी थी, अब पौड़ी नं: 72 तक 'प्रभू मिलाप' के बारे में चर्चा को समाप्त करके आखिर में 'प्रार्थना' है।

पद्अर्थ: गति = हालत। मिति = मिनती। साधिक = साधना करने वाले। सिध = जोग साधना में सिद्धस्त जोगी। फुरमाणे = फुरमान में ही, तेरे हुकम में ही। प्रभि = प्रभू ने।

अर्थ: तू कैसा है और कितना बड़ा है, हे प्रभू! ये बात तू स्वयं ही जानता है। कोई और क्या कह के बता सकता है? तू स्वयं ही छुपा हुआ है तू स्वयं ही प्रकट है (भाव, सूक्षम और स्थूल तू स्वयं ही है), तू स्वयं ही सारे रंग भोग रहा है।

साधना करने वाले और साधना में सिद्ध जोगी, गुरू और उनके कई चेले तेरे हुकम में तुझे खोजते फिरते हैं, तुझसे तेरा 'नाम' माँगते हैं, तुझसे ये भिक्षा ले के तेरे दीदार से सदके होते हैं।

हे नानक! अविनाशी प्रभू ने (इस जगत की) खेल रची है गुरमुख मनुष्य को ये समझ आ जाती है। सारे ही युगों में वह स्वयं ही मौजूद है, कोई और दूसरा (उस जैसा) नहीं।73।1।

नोट: आखिर में अंक '1' का भाव है कि 'सिध गोसटि' की 73 पौड़ियों को समूचे तौर पर केवल एक ही बाणी समझना; सारी बाणी का एक सांझा भाव है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh