श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सतिगुर प्रसादि॥ रामकली की वार महला ३॥   (पन्ना 947)

पउड़ी का भाव:

ये सारी कुदरत परमात्मा ने खुद रची है, अपने बैठने के लिए तख़्त बनाया है।

सृष्टि रंग-बिरंगी है।

इसमें कई जीवों को परमात्मा ने अपनी सिफतसालाह में लगा रखा है।

माया का मोह भी उसने आप ही बनाया है।

6. जो मनुष्य गुरू की शरण आते हैं, वह परमात्मा का सिमरन करते हैं।

7. सरगुण रूप से पहले क्या था- ये नहीं बताया जा सकता। जब परमात्मा ने सृष्टि रच दी, तब धर्म-पुस्तकों के द्वारा भले-बुरे की सूझ पड़ने लगी।

8. गुरू के शबद से जो मनुष्य परमात्मा का सिमरन करते हैं वह सुखी हैं।

9. परमात्मा का नाम-अमृत मनुष्य के अंदर ही है, पर जिसको गुरू मिलता है वही पीता है।

10. सबकी संभाल परमात्मा स्वयं करता है। 'झूठ' में लगाने वाला भी स्वयं ही है, और सिफतसालाह में जोड़ने वाला भी स्वयं ही है।

11. गुरू के माध्यम से समझ आ जाती है कि परमात्मा इस शरीर में रहता है, ये शरीर उसका 'मन्दिर' है।

12. सो, गुरू के हुकम में चल के इस 'घर' में ही उसको तलाशना चाहिए।

13. वैसे तो प्रभू हरेक शरीर में है, पर मिलता गुरू के माध्यम से ही है। जो मनुष्य गुरू की शरण में आया, उसका अहंकार दूर हो गया, उसका हृदय खिला रहता है।

14. परमात्मा सबके अंदर है पर गुप्त है। गुरू के द्वारा गुण गाने से प्रकट होता है।

15. प्रभू इस शरीर-किले में बैठा है। पर माया के तगड़े किवाड़ लगे हुए हैं जो गुरू के शबद से खुलते हैं।

16. अंदर-बाहर सब जगह परमात्मा स्वयं ही है। गुरू के हुकम में चलने से ये समझ आती है।

17. अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अंधेरे में रहता है, पर गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य को आत्मिक जीवन की सूझ पड़ जाती है प्रकाश हो जाता है।

18. जिन मनुष्यों ने गुरू के हुकम में चल के 'नाम' का व्यापार किया, उनकी तृष्णा समाप्त हो गई।

19. जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर नाम सिमरते हैं वह प्रभू का रूप ही हो जाते हैं।

20. हरी-नाम ही सदा साथ निभने वाला धन है, इसके बिना जीवन व्यर्थ है।

21. बुरा किसे कहें? हरेक में वह स्वयं ही स्वयं है, गुरू के द्वारा स्वयं ही भक्ति में जोड़ता है।

लड़ीवार भाव:

(1से 7) ये रंग-बिरंगी सृष्टि परमात्मा ने स्वयं बनाई है, इसमें हर जगह वह स्वयं ही मौजूद है। माया रचने वाला भी स्वयं ही है। उसकी रजा के अनुसार ही कई जीव माया के मोह में फसे रहते हैं, कई गुरू की शरण पड़ के उसका नाम सिमरते हैं। ये कोई जीव नहीं बता सकता कि इस जगत-रचना से पहले क्या था।

(8 से 14) परमात्मा हरेक मनुष्य के अंदर ही बसता है, पर गुरू की शरण पड़ने से ही मनुष्य को ये समझ आती है। गुरू के बताए हुए राह पर चल के मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता है, जो सिमरता है उसका मन सदा खिला रहता है।

(15 से 21) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को सही आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ती। भले ही परमात्मा हरेक मनुष्य के शरीर-किले में बसता है पर मनुष्य की परमात्मा से दूरी बनी रहती है। गुरू की शरण पड़े रहने से ये समझ आती है कि सदा साथ निभने वाला परमात्मा का नाम ही है। पर किसी को बुरा नहीं कहा जा सकता। प्रभू स्वयं ही गुरू की शरण में लगा के मनुष्य को अपनी भक्ति में जोड़ता है।

मुख्य भाव:

सर्व-व्यापक सृजनहार प्रभू स्वयं ही गुरू की शरण में लगा के माया के मोह में से निकालता है और अपनी भक्ति में जोड़ता है। अपनी रची हुई माया में वह खुद ही फसाता है, और अपनी भक्ति में भी खुद ही जोड़ता है।

'वार' की संरचना:

इस 'वार' में 21 पउड़ियाँ हैं। हरेक पौड़ी में पाँच-पाँच तुकें हैं। पर इस 'वार' की अनोखी बात ये है कि पहली पौड़ी के साथ 'रहाउ' की भी तुक है- 'वाहु वाहु सचे पातिसाह तू, सची नाई'। हरेक पौड़ी की आखिरी तुक का आखिरी शब्द, उच्चारण में इस 'रहाउ' की तुक के आखिरी शब्द 'नाई' जैसा ही तुकबंद किया हुआ है- धिआई, सुणाई, पाई, समाई, बुलाई, लखाई, मिलाई, बुझाई, पिआई, सनाई, जाई, जाई, बुझाई, वडिआई, रचाई, पाई, जाई, बुझाई, वडिआई, रचाई, पाई, जाई, बुझाई, वडिआई, जाई, वडिआई।

शब्द 'नानक' सिर्फ आखिरी पउड़ी में है। सारी पौड़ियों की सारी ही तुकें तकरीबन एक ही आकार की हैं। काव्य-रचना के दृष्टिकोण से सारी ही 'वार' एक-समान है।

सलोकों का वेरवा:

सारे शलोक 52 हैं। पउड़ियों की काव्य-संरचना तो बंधी हुई एक-समान है, पर शलोकों की शूलियत में कोई नियम नहीं अपनाया गया है। पौड़ी नंबर 1, 4, 8, 16 और 19 के साथ तीन-तीन शलोक हैं। पौड़ी नंबर 12 के साथ सात शलोक हैं। बाकी 15 पौड़ियों के साथ दो-दो शलोक हैं।

गुरू अमरदास जी के-----------------24 शलोक हैं
गुरू नानक देव जी के---------------19
गुरू अंगद देव जी के----------------07
और भगत कबीर जी के------------02
कुल जोड़-----------------------------52

पउड़ी नंबर 8 के साथ दिया हुआ पहला शलोक शेख फरीद जी के शलोकों में भी है नंबर 52 पर। वहाँ ये शलोक फरीद जी के शलोक नंबर 51 के प्रथाय लिखा है-

फरीदा रती रतु न निकलै, जे तनु चीरै कोइ॥ जो तन रते रब सिउ, तिन तनि रतु न होइ॥५१॥

महला ३॥ इहु तनु सभो रतु है, रतु बिनु तंनु न होइ॥ जो सह रते आपणे, तितु तनि लोभु रतु न होइ॥ भै पइअै तनु खीणु होइ, लोभु रतु विचहु जाइ॥ जिउ बैसंतरि धातु सुधु होइ, तिउ हरि का भउ दुरमति मैलु गवाइ॥ नानक ते जन सोहणे, जि रते हरि रंगु लाइ॥५२॥

कबीर जी के शलोक:

पउड़ी नंबर 2 के साथ पहला शलोक कबीर जी का है, जो कबीर जी के शलोकों में नंबर 65 पर इस प्रकार है;

कबीर महिदी करि घालिआ, आपु पीसाइ पीसाइ॥

तै सह बात न पूछीअै, कबहु न लाई पाइ॥६५॥

पर पौड़ी नंबर 2 के साथ थोड़े से फर्क के साथ इस तरह लिखा हुआ है;

कबीर महिदी करि कै घालिआ, आपु पीसाइ पीसाइ॥

तै सह बात न पुछीआ, कबहू न लाई पाइ॥१॥

फर्क- नं: 65 में - करि

'वार' में - करि कै

नं: 65 में - पूछीअै

'वार' में - पुछीआ

नं: 65 में - कबहु

'वार' में - कबहू

नोट: इस शलोक के प्रथाय पौड़ी नंबर 2 के साथ दूसरा शलोक महला ३ का है;

नानक महिदी करि कै रखिआ, सो सहु नदरि करेइ॥ आपे पीसै आपे घसै, आपे ही लाइ लऐइ॥ इहु पिरम पिआला खसम का, जै भावै तै देइ॥२॥

सरसरी नजर से पढ़ने पर साफ दिखता है कि महला ३ का ये शलोक कबीर जी के शलोक के संबंध में है। पर ये शलोक कबीर जी के शलोकों में शलोक नं:65 में दर्ज नहीं है। सारे ही गुरू ग्रंथ साहिब में और कहीं भी नहीं। इसका भाव ये है कि पहले ये शलोक गुरू अमरदास जी के शलोकों के संग्रह में था, वहाँ से निकाल के गुरू अरजन देव जी ने कबीर जी के शलोक नं:65 समेत इस पउड़ी नं: 2 के साथ दर्ज कर दिया।

पउड़ी नंबर 4 के साथ शामिल कबीर जी का शलोक, शलोकों के संग्रह में नंबर 33 पर है। इसमें थोड़ा सा फर्क है:

जो मर जीवा होइ॥ पउड़ी नंबर 4 के साथ

जो मरि जीवा होइ॥ शलोक नंबर 33

सारे शलोक गुरू अरजन देव जी द्वारा दर्ज किए गए:

गुरू अमरदास जी की 4 वारें निम्नलिखित रागों में हैं:

1. गुजरी, 2. सूही, 3. रामकली और 4. मारू

गुजरी की वार महला ३ में पउड़ी नं: 4 के साथ पहला शलोक कबीर जी का है, बाकी सारे शलोक गुरू अमरदास जी के हैं। कुल पौड़ियाँ 22 हैं।

सूही की वार महला ३ की 20 पउड़ियाँ हैं। इसमें 46 शलोक हैं- शलोक महला ३ के 14; शलोक म: २ के 11 और शलोक महला १ के 21 शबद।

रामकली की वार महला ३ की 21 पौड़ियां हैं। इसके साथ भी शलोक म: ३, महला २ और महला १ के शबद हैं। दो शलोक कबीर जी के हैं।

ये ठीक है कि गुरू अमरदास जी के पास गुरू नानक देव जी की सारी बाणी मौजूद थी, गुरू अंगद देव जी की भी सारी बाणी मौजूद थी। भगतों की बाणी पहली 'उदासी' के समय गुरू नानक देव जी लाए थे, ये भी गुरू अमरदास जी के पास मौजूद थी।

पर इसका ये मतलब नहीं कि राग गुजरी, सूही और रामकली की 'वारों' की पउड़ियों के साथ शलोक गुरू अमरदास जी ने खुद ही दर्ज किए थे।

ये घुंडी खुलती है मारू की वार महला ३ में से। इस 'वार' की 22 पउड़ियां हैं। इसके साथ 47 शलोक हैं। शलोकों का वेरवा- महला १=18; महला २=1; म: ३=22; म: ४=3; म: ५=2। कुल=47। पउड़ी नंबर 1 के साथ एक शलोक महला ४ का है और एक शलोक म: ३ का। पउड़ी नंबर 2 के साथ 2 शलोक महला ४ के हैं, और एक शलोक म: ३ का। पउड़ी नंबर 20 के साथ दोनों शलोक म: ५ के हैं; म: ३ का एक भी नहीं।

अगर ये सारे शलोक गुरू अमरदास जी ने खुद ही दर्ज किए होते, तो पउड़ी नं: 20को खाली ना रहने देते, और पउड़ी नं:1 और 2 के साथ एक-एक ही अपना शलोक दर्ज करके बस ना कर देते। महला ४ और म: ५ के शलोक तो उनके पास थे नहीं। सो, इस 'वार' में सारे शलोक गुरू अरजन देव जी ने दर्ज किए।

ये भी नहीं हो सकता था कि 4 'वारों' में से गुरू अमरदास जी की एक 'वार' की पउड़ियां बिल्कुल खाली रहने देते, और बाकी की 3 'वारों' की पौड़ियों के साथ शलोक दर्ज कर देते। सारा ही उद्यम काव्य-दृष्टिकोण से एक-समान था।

सारी ही 'वारों' की पउड़ियों के साथ शलोक गुरू अरजन साहिब ने ही दर्ज किए हैं।


ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
रामकली की वार महला ३ ॥
जोधै वीरै पूरबाणी की धुनी ॥ {पन्ना 947}

इस वार की पौड़ियां उसी सुर (धुनि) में गानी हैं जिस सुर में जोधे और वीरे की वार की पउड़ियाँ गाई जाती थीं।

जोधा और वीरा दो भाई थे, एक राजपूत पूरबाण के पुत्र थे। जंगल में रहते थे। अकबर बादशाह से आकी हुए थे। अकबर ने इन पर हमला बोल दिया, ये बड़ी ही बहादुरी से रण में लड़ के मरे। ढाढियों ने इनकी शूरवीरता की वार बनाई, इस वार में से बतौर नमूना निम्नलिखित पौड़ी यहाँ दी जा रही है;

जोधे वीर पूरबाणिऐं दो गलां करीन करारीआं॥ फौजां चाढ़ीआं बादशाह अकबर ने भारीआं॥ सनमुख होऐ राजपूत सुत्री रण कारीआं॥ इंदर सणे अपॅछरां मिलि करनि जुहारीआं॥ ऐही कीती जोध वीर पतशाही गलां सारीआं॥

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुरु सहजै दा खेतु है जिस नो लाए भाउ ॥ नाउ बीजे नाउ उगवै नामे रहै समाइ ॥ हउमै एहो बीजु है सहसा गइआ विलाइ ॥ ना किछु बीजे न उगवै जो बखसे सो खाइ ॥ अ्मभै सेती अ्मभु रलिआ बहुड़ि न निकसिआ जाइ ॥ नानक गुरमुखि चलतु है वेखहु लोका आइ ॥ लोकु कि वेखै बपुड़ा जिस नो सोझी नाहि ॥ जिसु वेखाले सो वेखै जिसु वसिआ मन माहि ॥१॥ {पन्ना 947}

पद्अर्थ: सहज = अडोलता। भाउ = प्यार। नामे = नाम में ही। बीजु = मूल, आदि। गइआ विलाइ = दूर हो जाता है। अंभु = पानी (संस्कृत: अंभस्)। बहुड़ि = फिर। निकसिआ जाइ = निकाला नहीं जा सकता, अलग नहीं किया जा सकता। चलतु = खेल। बपुड़ा = बिचारा।

अर्थ: सतिगुरू अडोलता और शांति का खेत है, (प्रभू) जिसको (इस अडोलता के खेत गुरू से) प्यार बख्शता है (वह भी 'सहजै दा खेतु' बन जाता है, तो वह उस खेत में) प्रभू का नाम बीजता है (वहाँ) नाम उगता है, वह मनुष्य नाम में टिका रहता है। ये जो (शंकाओं का) मूल अहंकार है (ये अहंकार उस मनुष्य में नहीं होता, सो इससे पैदा होने वाली) 'शंका' (उस मनुष्य की) दूर हो जाती है, ना वह कोई ऐसा बीज बीजता है ना (वहाँ 'शंका') उपजती है। वह मनुष्य प्रभू की बख्शिश का फल खाता है। (नाम सिमरता है, नाम में लीन रहता है)।

जैसे पानी में पानी मिल जाए तो फिर (वह पानी) अलग नहीं किया जा सकता। इसी तरह, हे नानक! उस मनुष्य की हालत है जो गुरू के हुकम में चलता है। हे लोगो! (बेशक) आ के देख लो (परख लो)।

पर बेचारा जगत क्या देखे? इसको तो (ये परखने की) समझ ही नहीं है; (ये बात) वही मनुष्य देख सकता है जिसको प्रभू स्वयं देखने की जाच सिखाए, जिसके मन में प्रभू स्वयं आ बसे।1।

मः ३ ॥ मनमुखु दुख का खेतु है दुखु बीजे दुखु खाइ ॥ दुख विचि जमै दुखि मरै हउमै करत विहाइ ॥ आवणु जाणु न सुझई अंधा अंधु कमाइ ॥ जो देवै तिसै न जाणई दिते कउ लपटाइ ॥ नानक पूरबि लिखिआ कमावणा अवरु न करणा जाइ ॥२॥ {पन्ना 947}

पद्अर्थ: दुखि = दुख में। विहाइ = बीतती है (उम्र)। अंधु = अंधों वाला काम। दिते कउ = (प्रभू के) दिए हुए पदार्थों को। लपटाइ = जफा मारता है। पूरबि = पहले किए अनुसार। लिखिआ = उकरा हुआ।

अर्थ: जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है वह (समझो) दुखों का खेत है (जिसमें) वह दुख बीजता है और दुख (ही फल काट के) खाता है। मनमुख दुख में पैदा होता है, दुख में मरता है, उसकी सारी उम्र 'मैं, मैं' करते हुए गुजरती है। उसको ये समझ में नहीं आता कि मैं जनम-मरण के चक्करों में पड़ा हुआ हूँ, वह अंधा जहालत के ही काम किए जाता है।

मनमुख उस मालिक को नहीं पहचानता जो (दातें) देता है, पर उसके दिए हुए पदार्थों को जफा मारता है। हे नानक! (मनमुख करे भी क्या?) पिछले किए कर्मों के अनुसार जो (संस्कार मन पर) उकरे पड़े हैं (उसके असर तले मनुष्य) कर्म किए जाता है (उन संस्कारों से अलग) और कुछ नहीं कर सकता।2।

मः ३ ॥ सतिगुरि मिलिऐ सदा सुखु जिस नो आपे मेले सोइ ॥ सुखै एहु बिबेकु है अंतरु निरमलु होइ ॥ अगिआन का भ्रमु कटीऐ गिआनु परापति होइ ॥ नानक एको नदरी आइआ जह देखा तह सोइ ॥३॥ {पन्ना 947}

पद्अर्थ: सोइ = वह (प्रभू)। सुखै = सुख का। बिबेकु = परख, पहचान। अंतरु = अंदरूनी (भाव, आत्मा)। भ्रमु = वहम, भुलेखा। ऐको = एक (प्रभू) ही। गिआनु = प्रभू के साथ जान पहचान।

अर्थ: अगर सतिगुरू मिल जाए तो हमेशा के लिए सुख हो जाता है, (पर गुरू मिलता उसे है) जिसको वह प्रभू स्वयं मिलाए। (फिर) उस सुख की पहचान ये है कि (मनुष्य) अंदर से पवित्र हो जाता है, आत्मिक जीवन की ओर से बे-समझी की भूल दूर हो जाती है, आत्मिक जीवन की समझ हासिल हो जाती है। हे नानक! (हर जगह) वह प्रभू ही दिखता है, जिधर देखो उधर वही प्रभू (दिखता है)।3।

पउड़ी ॥ सचै तखतु रचाइआ बैसण कउ जांई ॥ सभु किछु आपे आपि है गुर सबदि सुणाई ॥ आपे कुदरति साजीअनु करि महल सराई ॥ चंदु सूरजु दुइ चानणे पूरी बणत बणाई ॥ आपे वेखै सुणे आपि गुर सबदि धिआई ॥१॥ {पन्ना 947}

पद्अर्थ: सचै = सदा कायम रहने वाले प्रभू ने। जांई = जगह। सबदि = शबद ने। सुणाई = बताई है। साजीअनु = पैदा की है उसने (देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। पूरी मुकम्मल, जो अधूरी नहीं है। गुर सबदि = गुरू के शबद से।

अर्थ: सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने ये (जगत-रूपी) तख्त अपने बैठने के लिए जगह बनाई है। (इस जगत में) हरेक चीज उस प्रभू का अपना ही स्वरूप है- ये बात सतिगुरू ने शबद द्वारा समझाई है। ये सारी कुदरति उसने खुद ही पैदा की है, (कुदरति के सारे पेड़-पौधे आदि, मानो, उसने निवास के लिए) महल-माढ़ियां हैं; इन महल-माढ़ियों (में) चंद्रमा और सूरज दोनों (जैसे उसके जगाए हुए) दीए हैं। (प्रभू ने कुदरति की सारी) संरचना सम्पूर्ण बनाई हुई है। (इसमें बैठ के वह) खुद ही देख रहा है, खुद ही सुन रहा है; उस प्रभू को सतिगुरू के शबद द्वारा ध्याया जा सकता है।1।

वाहु वाहु सचे पातिसाह तू सची नाई ॥१॥ रहाउ ॥ {पन्ना 947}

नोट: शब्द 'रहाउ' का अर्थ है 'ठहर जाओ', भाव, इस सारी लंबी बाणी का केन्द्रिय मूल भाव इस तुक में है जिसके अंत में शब्द 'रहाउ' लिखा गया है।

पद्अर्थ: वाहु = आश्चर्य। पातिशाह = हे पातशाह! नाई = वडिआई, महिमा।

अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले पातशाह! तू आश्चर्य है, तू अचम्भा है। तेरी महिमा सदा कायम रहने वाली है।

सलोकु ॥ कबीर महिदी करि कै घालिआ आपु पीसाइ पीसाइ ॥ तै सह बात न पुछीआ कबहू न लाई पाइ ॥१॥ {पन्ना 947}

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। सह = हे पति! पाइ = पैर में। तै = तू।

अर्थ: हे कबीर! (कह-) मैंने अपने आप को महिंदी बना के (भाव, महिंदी की तरह) पीस-पीस के बड़ी मेहनत की, (पर) हे पति (प्रभू!) तूने मेरी बात भी नहीं पूछी (भाव, तूने मेरी सार ही नहीं ली) और तूने मुझे अपने चरणों से नहीं लगाया।1।

मः ३ ॥ नानक महिदी करि कै रखिआ सो सहु नदरि करेइ ॥ आपे पीसै आपे घसै आपे ही लाइ लएइ ॥ इहु पिरम पिआला खसम का जै भावै तै देइ ॥२॥ {पन्ना 947}

पद्अर्थ: पिरम पिआला = प्रेम का प्याला। जै भावै = जो उसको अच्छा लगता है।

अर्थ: हे नानक! (हमें) महिंदी बनाया भी उसने खुद ही है, जब वह पति (प्रभू) मेहर की नजर करता है, वह खुद ही (महिंदी को) पीसता है, खुद ही (महिंदी को) रगड़ता है, खुद ही (अपने पैरों पर) लगा लेता है (भाव, बंदगी की मेहनत बंदे को खुद ही लगाता है)। ये प्रेम का प्याला पति प्रभू की अपनी (वस्तु) है, उस मनुष्य को देता है जो उसको प्यारा लगता है।2।

पउड़ी ॥ वेकी स्रिसटि उपाईअनु सभ हुकमि आवै जाइ समाही ॥ आपे वेखि विगसदा दूजा को नाही ॥ जिउ भावै तिउ रखु तू गुर सबदि बुझाही ॥ सभना तेरा जोरु है जिउ भावै तिवै चलाही ॥ तुधु जेवड मै नाहि को किसु आखि सुणाई ॥२॥ {पन्ना 947}

पद्अर्थ: वेकी = अलग अलग किस्म की। उपाईअनु = उसने पैदा की है। हुकमि = हुकम में, हुकम अनुसार। समाही = समा जाते हैं। विगसदा = खुश होता है। बुझाही = (तू) समझ देता है। चलाही = तू चलाता है। किसु = किसकी बाबत? सुणाई = मैं सुनाऊँ।

अर्थ: उस (प्रभू) ने रंग-बिरंगी सृष्टि पैदा की है, सारे जीव उसके हुकम में पैदा होते और समा जाते हैं; प्रभू ही (अपनी रचना को) देख के खुश हो रहा है, उसका कोई शरीक नहीं।

(हे प्रभू!) जैसे तुझे अच्छा लगे वैसे (जीवों को) रख; तू स्वयं ही गुरू शबद के द्वारा (जीवों को) मति देता है। सब जीवों को तेरा आसरा है, जैसे तुझे अच्छा लगे वैसे (जीवों को) तू चलाता है।

मुझे, (हे प्रभू!) तेरे जितना कोई नहीं दिखाई देता; किस की बाबत कह के बताऊँ (कि वह तेरे जितना है) ?

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh