श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 949 पउड़ी ॥ राति दिनसु उपाइअनु संसार की वरतणि ॥ गुरमती घटि चानणा आनेरु बिनासणि ॥ हुकमे ही सभ साजीअनु रविआ सभ वणि त्रिणि ॥ सभु किछु आपे आपि है गुरमुखि सदा हरि भणि ॥ सबदे ही सोझी पई सचै आपि बुझाई ॥५॥ {पन्ना 949} पद्अर्थ: वरतणि = बर्ताव व्यवहार के लिए। घटि = हृदय में। बिनासणि = नाश करने के लिए। सभ = सारी सृष्टि। वणि = वन में। त्रिणि = तृण में। सचै = सच्चे ने। अर्थ: (इस 'वेकी सृष्टि' में) संसार के बर्ताव-व्यवहार के लिए उस (प्रभू ने) रात और दिन पैदा किए हैं; (जीवों के दिलों में) अंधेरा (जो उसने स्वयं ही बनाया है) दूर करने के लिए सतिगुरू की मति के द्वारा (मनुष्य के) हृदय में रौशनी (भी वह खुद ही पैदा करने वाला है)। सारी सृष्टि उसने अपने हुकम में ही रची है और वह हरेक वन में तृण में खुद ही मौजूद है, (जो कुछ बना हुआ है वह) सब कुछ स्वयं ही स्वयं है, गुरू के हुकम में चल के सदा उस प्रभू को सिमरा जा सकता है। गुरू के शबद के द्वारा ही (जीव को) सूझ पड़ती है, प्रभू स्वयं समझ देता है।5। सलोक मः ३ ॥ अभिआगत एहि न आखीअनि जिन के चित महि भरमु ॥ तिस दै दितै नानका तेहो जेहा धरमु ॥ अभै निरंजनु परम पदु ता का भूखा होइ ॥ तिस का भोजनु नानका विरला पाए कोइ ॥१॥ {पन्ना 949} पद्अर्थ: अभिआगत = (संस्कृत: अभ्यागत, a guest, a visitor, प्राहुणा, मेहमान, परदेसी) ओपरा बंदा, फकीर, मंगता, जरूरतमंद, परदेसी। भरमु = भटकना। ऐहि = ऐसा मनुष्य। आखीअनि = कहे जाते हैं (देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। धरमु = पुन्य। अभै = भय से रहित। भूखा = जरूरतमंद। पाऐ = देता है। अर्थ: जिन मनुष्यों के मन में भटकना हो (भाव, जो दर-दर पर भटक के रोटियाँ आटा माँगते फिरें) उनको 'अभ्यागत' नहीं कहते; हे नानक! ऐसे व्यक्ति को देने से पुन्य भी ऐसा ही होता है (भाव, कोई पुन्य-कर्म नहीं)। सबसे ऊँचा दर्जा है निर्भय और माया-रहित प्रभू को मिलना। जो मनुष्य इस 'परम पद' का अभिलाषी है, हे नानक! उसकी आवश्यक खुराक कोई विरला सख्श ही देता है।1। मः ३ ॥ अभिआगत एहि न आखीअनि जि पर घरि भोजनु करेनि ॥ उदरै कारणि आपणे बहले भेख करेनि ॥ अभिआगत सेई नानका जि आतम गउणु करेनि ॥ भालि लहनि सहु आपणा निज घरि रहणु करेनि ॥२॥ {पन्ना 949} पद्अर्थ: करेनि = करते हैं (देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। उदर = पेट। बहले = कई। गउणु = सैर। लहनि = लेते हैं। रहणु = निवास। अर्थ: जो मनुष्य पराए घर में रोटी खाते हैं और अपना पेट भरने की खातिर कई भेष करते हैं, उनको अभ्यागत (साधू) नहीं कहा जाता। हे नानक! 'अभ्यागत' वही हैं जो आत्मिक मण्डल की सैर करते हैं, अपने असल घर (प्रभू) में निवास रखते हैं और अपने पति-प्रभू को पा लेते हैं।2। पउड़ी ॥ अ्मबरु धरति विछोड़िअनु विचि सचा असराउ ॥ घरु दरु सभो सचु है जिसु विचि सचा नाउ ॥ सभु सचा हुकमु वरतदा गुरमुखि सचि समाउ ॥ सचा आपि तखतु सचा बहि सचा करे निआउ ॥ सभु सचो सचु वरतदा गुरमुखि अलखु लखाई ॥६॥ {पन्ना 949} पद्अर्थ: अंबरु = आकाश। विछोड़िअनु = विछोड़े हैं उस (प्रभू) ने। सचा = सदा कायम रहने वाला प्रभू। असराउ = असराज, स्वराज, अपना हुकम। सचि = सच्चे में। सभु = सब जगह। अलखु = जिसका कोई खास चिन्ह लक्षण नहीं। अर्थ: (इस 'वेकी सृष्टि' में) आकाश और धरती उस प्रभू ने खुद ही अलग-अलग किए हैं, और इनके अंदर वह सदा स्थिर प्रभू अपना हुकम चला रहा है; (इस सृष्टि में) हरेक घर हरेक दर सदा-स्थिर प्रभू (का ठिकाना) है क्योंकि इसमें (हर जगह) सच्चा 'नाम' मौजूद है। हर जगह (प्रभू का) सदा कायम रहने वाला हुकम चल रहा है, गुरू के हुकम में चल के उस सदा-स्थिर प्रभू में लीनता होती है। प्रभू स्वयं सदा एक-रस रहने वाला है, (जगत-रूप उसका) तख्त (भी) (उसी का स्वरूप) सच्चा है, (इस तख़्त पर) बैठ के वह अॅटल न्याय कर रहा है। हर जगह वही सच्चा निरोल प्रभू मौजूद है, (पर) वह अलख प्रभू लखा तभी जा सकता है अगर सतिगुरू के सन्मुख हों (घर-घाट को त्याग के नहीं)।6। सलोकु मः ३ ॥ रैणाइर माहि अनंतु है कूड़ी आवै जाइ ॥ भाणै चलै आपणै बहुती लहै सजाइ ॥ रैणाइर महि सभु किछु है करमी पलै पाइ ॥ नानक नउ निधि पाईऐ जे चलै तिसै रजाइ ॥१॥ {पन्ना 949} पद्अर्थ: रैणाइर = (सं: रय+नार। रय = नदी का बहाव। नार = नीर, जल) नदियों का सारा जल, समुंद्र। कूड़ी = झूठ (नाशवंत पदार्थों) में लगी हुई। करमी = मेहर से। नउनिधि = नौ खजाने (प्रभू का नाम जो, मानो, सृष्टि के नौ खजाने हैं)। अर्थ: (इस संसार-) समुंद्र में बेअंत प्रभू स्वयं बस रहा है, पर (उस 'अनंत' को छोड़ के) नाशवंत पदार्थों में लगी हुई जिंद पैदा होती-मरती रहती है। जो मनुष्य अपनी मर्जी के अनुसार चलता है उसको बहुत दुख प्राप्त होता है (क्योंकि वह 'अनंत' को छोड़ के नाशवंत पदार्थों के पीछे दौड़ता है); सब कुछ इस सागर में मौजूद है, पर प्रभू की मेहर से मिलता है। हे नानक! मनुष्य को सारे ही नौ खजाने मिल जाते हैं अगर मनुष्य (इस सागर में व्यापक प्रभू की) रजा में चले।1। मः ३ ॥ सहजे सतिगुरु न सेविओ विचि हउमै जनमि बिनासु ॥ रसना हरि रसु न चखिओ कमलु न होइओ परगासु ॥ बिखु खाधी मनमुखु मुआ माइआ मोहि विणासु ॥ इकसु हरि के नाम विणु ध्रिगु जीवणु ध्रिगु वासु ॥ जा आपे नदरि करे प्रभु सचा ता होवै दासनि दासु ॥ ता अनदिनु सेवा करे सतिगुरू की कबहि न छोडै पासु ॥ जिउ जल महि कमलु अलिपतो वरतै तिउ विचे गिरह उदासु ॥ जन नानक करे कराइआ सभु को जिउ भावै तिव हरि गुणतासु ॥२॥ {पन्ना 949} पद्अर्थ: सहजे = सहज अवस्था में, अडोलता में, सिदक श्रद्धा से। जनमि = जनम के, पैदा हो के। रसना = जीभ (से)। परगासु = खिलाव। मोहि = मोह में। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। वासु = बसेवा, वासा। दासनि दासु = दासों का दास। अनदिनु = हर रोज, नित्य। पासु = पासा, साथ। अलिपतो = अलिप्त, निर्लिप, निराला। गिरहु = गृहस्त। गुणतासु = गुणों का खजाना। अर्थ: जो मनुष्य सिदक-श्रद्धा से सतिगुरू के हुकम में नहीं चला, वह अहंकार में (रह के) (जगत में) जनम ले के (जीवन) वयर्थ गवा गया; जिसने जीभ से प्रभू के नाम का आनंद नहीं लिया उसका हृदय-रूप कमल पुष्प नहीं खिला। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (विकारों की) विष खाता रहा, (असल जीवन की ओर से) मरा ही रहा और माया के मोह में उसकी जिंदगी तबाह हो गई। एक प्रभू का नाम सिमरन बिना (जगत में) जीना-बसना धिक्कारयोग्य है। जब सच्चा प्रभू स्वयं ही मेहर की नजर करता है तो मनुष्य (प्रभू के) सेवकों का सेवक बन जाता है, नित्य सतिगुरू के हुकम में चलता है, कभी गुरू का पल्ला नहीं छोड़ता, (फिर) वह गृहस्त में रहता हुआ भी ऐसे उपराम सा रहता है जैसे पानी में (उगा हुआ) कमल-फूल (पानी के असर से) बचा रहता है। हे दास नानक! जैसे गुणों के खजाने परमात्मा को अच्छा लगता है वैसे हरेक जीव उसका कराया हुआ (जो वह करवाना चाहता है) ही करता है।2। पउड़ी ॥ छतीह जुग गुबारु सा आपे गणत कीनी ॥ आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपि मति दीनी ॥ सिम्रिति सासत साजिअनु पाप पुंन गणत गणीनी ॥ जिसु बुझाए सो बुझसी सचै सबदि पतीनी ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे बखसि मिलाई ॥७॥ {पन्ना 949} पद्अर्थ: छतीह जुग = (भाव,) कई जुग, बहुत सारा समय। गुबारु = अंधेरा (भाव, उस समय की हालत का कोई बयान नहीं किया जा सकता)। सा = थी। गणत = विचार, सृष्टि रचने का ख्याल। नोट: ('साजीअनु' और 'साजिअनु' में फर्क समझने के लिए पढ़ें 'गुरबाणी व्याकरण')। गणत = लेखा, विचार, निर्णय। पतीनी = पतीजता। सभु = हर जगह, हरेक कार्य में। अर्थ: (पहले जब प्रभू निर्गुण रूप में थे तब) कई युगों तक (बहुत समय) अंधकार था (अर्थात, तब क्या स्वरूप था- ये बात बताई नहीं जा सकती), (फिर सरगुण रूप रच के) उसने स्वयं ही (जगत-रचना की) विचार की; उस (प्रभू) ने स्वयं ही सृष्टि पैदा की और स्वयं ही (जीवों को) बुद्धि दी; (इस तरह मनुष्य) बुद्धिवानों के द्वारा उसने स्वयं ही स्मृतियाँ और शास्त्र (आदि धर्म-पुस्तकें) बनाए, (उनमें) पाप और पुन्य का निखेड़ा किया (भाव, बताया कि 'पाप' क्या है और 'पुन्य' क्या है)। जिस मनुष्य को (ये सारा राज़) समझाता है वही समझता है, उस मनुष्य का मन गुरू के सच्चे शबद में श्रद्धा धार लेता है। हरेक कार्य में प्रभू स्वयं ही स्वयं मौजूद है, स्वयं ही मेहर करके (जीव को अपने में) मिलाता है।7। सलोक मः ३ ॥ इहु तनु सभो रतु है रतु बिनु तंनु न होइ ॥ जो सहि रते आपणै तिन तनि लोभ रतु न होइ ॥ भै पइऐ तनु खीणु होइ लोभ रतु विचहु जाइ ॥ जिउ बैसंतरि धातु सुधु होइ तिउ हरि का भउ दुरमति मैलु गवाइ ॥ नानक ते जन सोहणे जो रते हरि रंगु लाइ ॥१॥ {पन्ना 949-950} पद्अर्थ: रतु = लहू। रतु बिनु = लहू के बिना। (नोट: 'संबंधक' के साथ भी शब्द 'रतु' की 'ु' मात्रा टिकी रही, इसको समझने के लिए देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। तंनु = शरीर। आपणे सहि = अपने पति में। तनि = शरीर में। भै पइअै = अगर भय में रहें। खीणु = क्षीण, नर्म दिल हो जाता है और पराया हक नहीं छेड़ता। बैसंतरि = आग में। रंगु = प्यार। नोट: ये श्लोक गुरू अमरदास जी ने फरीद जी के एक श्लोक की व्याख्या के लिए उचारा था; देखें फरीद जी के शलोक नं:51, 52। अर्थ: ये सारा शरीर लहू है (भाव, सारे शरीर में लहू मौजूद है), लहू के बिना शरीर रह नहीं सकता (फिर शरीर को चीरने से, अर्थात शरीर की पड़ताल करने से कौन सा लहू नहीं निकलता?) जो बंदे अपने पति (-प्रभू के प्यार) में रंगे हुए हैं उनके शरीर में लालच का लहू नहीं होता। अगर (परमात्मा के) डर में जीएं तो शरीर (इस तरह) क्षीण हो जाता है (कि) इसमें से लोभ का लहू निकल जाता है। जैसे आग में (डालने पर सोना आदि) धातु साफ हो जाती है, इसी तरह परमात्मा का डर (मनुष्य की) दुर्मति की मैल को काट देता है। हे नानक! वह लोग सुंदर हैं जो परमात्मा के साथ प्रेम जोड़ के (उसके प्रेम में) रंगे हुए हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |