श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ३ ॥ रामकली रामु मनि वसिआ ता बनिआ सीगारु ॥ गुर कै सबदि कमलु बिगसिआ ता सउपिआ भगति भंडारु ॥ भरमु गइआ ता जागिआ चूका अगिआन अंधारु ॥ तिस नो रूपु अति अगला जिसु हरि नालि पिआरु ॥ सदा रवै पिरु आपणा सोभावंती नारि ॥ मनमुखि सीगारु न जाणनी जासनि जनमु सभु हारि ॥ बिनु हरि भगती सीगारु करहि नित जमहि होइ खुआरु ॥ सैसारै विचि सोभ न पाइनी अगै जि करे सु जाणै करतारु ॥ नानक सचा एकु है दुहु विचि है संसारु ॥ चंगै मंदै आपि लाइअनु सो करनि जि आपि कराए करतारु ॥२॥ {पन्ना 950}

पद्अर्थ: मनि = मन में। बनिआ = फब गया, सफल हुआ। भंडारु = खजाना। अगला = बहुत। रवै = भोगती है। जासनि = जाएंगे। हारि = हार के। होइ खुआरु = ख्वार हो के। पाइनी = पाते हैं। अगै = परलोक में। जि करे = जो कुछ (प्रभू) करता है। दुहु विचि = जनम मरण में। चंगै = अच्छे काम में। लाइअनु = लगाए हैं उसने।

अर्थ: रामकली (रागिनी) के माध्यम से अगर राम (जीव-स्त्री) के मन में बस जाए तब ही उसका (प्रभू-पति को मिलने के लिए किया हुआ उद्यम रूप) श्रृंगार सफल है। अगर सतिगुरू के शबद के द्वारा हृदय-कमल खिल जाए तो ही भक्ति का खजाना मिलता है। अगर (गुरू-शबद के द्वारा) मन की भटकना दूर हो जाए तो ही मन जागा हुआ (समझो, क्योंकि) अज्ञान का अंधकार समाप्त हो जाता है। जिस (जीव-स्त्री) का प्रभू (-पति) के साथ प्यार बन जाता है उस (की आत्मा) को बहुत सुंदर रूप चढ़ता है, वह शोभावंती (जीव-) स्त्री सदा अपने (प्रभू-) पति को सिमरती है।

मन के पीछे चलने वाली (जीव-सि्त्रयाँ प्रभू को प्रसन्न करने वाला) श्रृंगार करना नहीं जानतीं; वे सारा (मनुष्य-) जनम हार के जाएंगी; प्रभू (-पति) की भक्ति के बिना (और कर्म-धर्म आदि) श्रंृगार जो (जीव-सि्त्रयाँ) करती हैं वह नित्य ख्वार हो के पैदा होती हैं (भाव, जनम-मरण के चक्कर में पड़ती हैं और दुखी रहती हैं); ना तो उन्हें इस लोक में शोभा मिलती है और परलोक में जो उनके साथ बर्ताव होता हैं वह प्रभू ही जानता है।

हे नानक! (जनम-मरण से रहित) सदा कायम रहने वाला एक परमात्मा ही है, संसार (भाव, दुनियादार) जनम-मरण (के चक्कर) में है। अच्छे काम में और बुरे काम में (जीव) प्रभू ने स्वयं ही लगाए हुए हैं, जो कुछ करतार (उनसे) करवाता है वही वे करते हैं।2।

मः ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे सांति न आवई दूजी नाही जाइ ॥ जे बहुतेरा लोचीऐ विणु करमा पाइआ न जाइ ॥ अंतरि लोभु विकारु है दूजै भाइ खुआइ ॥ तिन जमणु मरणु न चुकई हउमै विचि दुखु पाइ ॥ जिनी सतिगुर सिउ चितु लाइआ सो खाली कोई नाहि ॥ तिन जम की तलब न होवई ना ओइ दुख सहाहि ॥ नानक गुरमुखि उबरे सचै सबदि समाहि ॥३॥ {पन्ना 950}

पद्अर्थ: जाइ = जगह। खुआइ = ख्वार होता है, दुखी होता है। दूजै भाइ = (प्रभू के बिना) किसी और से प्यार के कारण। तलब = सदा। ओइ = वह लोग।

अर्थ: सतिगुरू के हुकम में चले बिना (मन को) शांति नहीं आती (और इस शांति के लिए गुरू के बिना) कोई (और) जगह नहीं; चाहे कितनी तमन्ना करें, भाग्यों के बिना (गुरू) मिलता भी नहीं (क्योंकि जितने समय तक मनुष्य के) अंदर लोभ -रूपी विकार है (तब तक वह प्रभू को छोड़ के) औरों के प्यार में ही भटकता फिरता है, (जिनका ये हाल है) उनका जनम-मरण का चक्कर समाप्त नहीं होता, उन्हें अहंकार में (ग्रसित हुओं को) दुख मिलता है।

जिन मनुष्यों ने सतिगुरू से मन लगाया है उनमें से कोई भी (प्यार से) सूने हृदय वाला नहीं है; उन्हें जम का बुलावा नहीं आता (भाव, उनको मौत से डर नहीं लगता) ना ही वे किसी तरह दुखी होते हैं। हे नानक! गुरू के हुकम में चलने वाले लोग ('जम की तलब' से) बचे हुए हैं (क्योंकि) वे गुरू के शबद द्वारा सच्चे प्रभू में लीन रहते हैं।3।

पउड़ी ॥ आपि अलिपतु सदा रहै होरि धंधै सभि धावहि ॥ आपि निहचलु अचलु है होरि आवहि जावहि ॥ सदा सदा हरि धिआईऐ गुरमुखि सुखु पावहि ॥ निज घरि वासा पाईऐ सचि सिफति समावहि ॥ सचा गहिर ग्मभीरु है गुर सबदि बुझाई ॥८॥ {पन्ना 950}

पद्अर्थ: अलिपतु = अलिप्त, निर्लिप, निराला। होरि = और सारे जीव। धंधै = दुनिया के झमेले में। धावहि = दौड़ते हैं। निहचलु = ना हिलने वाला, अटल। निज घरि = अपने असल घर में। सचि = सच्चे प्रभू में। गहिर गंभीरु = गहरा, अथाह।

अर्थ: (परमात्मा) स्वयं (माया के प्रभाव से) निराला रहता है, और सारे जीव (माया के) झमेले में भटक रहे हैं। प्रभू स्वयं सदा-स्थिर और अटल है, और जीव पैदा होते-मरते रहते हैं, (ऐसे प्रभू को) सदा सिमरना चाहिए। (जो) गुरू के हुकम में चल के (सिमरते हैं वे) सुख पाते हैं (गुरू के द्वारा प्रभू को सिमर के) अपने असल घर में जगह मिलती है, सिफत सालाह के द्वारा (गुरमुखि) सच्चे प्रभू में लीन रहते हैं।

प्रभू सदा कायम रहने वाला और अथाह है (ये बात वह स्वयं ही) सतिगुरू के शबद द्वारा समझाता है।8।

सलोक मः ३ ॥ सचा नामु धिआइ तू सभो वरतै सचु ॥ नानक हुकमै जो बुझै सो फलु पाए सचु ॥ कथनी बदनी करता फिरै हुकमु न बूझै सचु ॥ नानक हरि का भाणा मंने सो भगतु होइ विणु मंने कचु निकचु ॥१॥ {पन्ना 950}

पद्अर्थ: सभो = हर जगह। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभू। सचु फलु = प्रभू की प्राप्ति रूपी फल। कथनी बदनी = मुँह की बातें। सचु = सदा कायम रहने वाला। कचु निकचु = बिल्कुल कच्चा, अल्हड़ मन वाला।

अर्थ: हे नानक! (उस प्रभू का) सदा-स्थिर रहने वाला नाम सिमर जो हर जगह मौजूद है। जो मनुष्य प्रभू के हुकम को समझता है (भाव, हुकम में चलता है) वह प्रभू की प्राप्ति रूपी फल पाता है, (पर, जो मनुष्य सिर्फ) मुँह की बातें ही करता है वह अटल हुकम को नहीं समझता। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा का हुकम मानता है वह (असल) भगत है। हुकम माने बिना मनुष्य बिल्कुल कच्चा है (भाव, अल्लहड़ मन वाला है जो हर वक्त डोलता है)।1।

मः ३ ॥ मनमुख बोलि न जाणनी ओना अंदरि कामु क्रोधु अहंकारु ॥ ओइ थाउ कुथाउ न जाणनी उन अंतरि लोभु विकारु ॥ ओइ आपणै सुआइ आइ बहि गला करहि ओना मारे जमु जंदारु ॥ अगै दरगह लेखै मंगिऐ मारि खुआरु कीचहि कूड़िआर ॥ एह कूड़ै की मलु किउ उतरै कोई कढहु इहु वीचारु ॥ सतिगुरु मिलै ता नामु दिड़ाए सभि किलविख कटणहारु ॥ नामु जपे नामो आराधे तिसु जन कउ करहु सभि नमसकारु ॥ मलु कूड़ी नामि उतारीअनु जपि नामु होआ सचिआरु ॥ जन नानक जिस दे एहि चलत हहि सो जीवउ देवणहारु ॥२॥ {पन्ना 950}

पद्अर्थ: थाउ कुथाउ = अच्छी बुरी जगह। उन अंतरि = उनके अंदर। सुआइ = स्वार्थ की खातिर। बहि = बैठ के। जंदारु = (फारसी: जंदाल) अवैड़ा, वहिशी, जालम। लेखै मंगीअै = लेखा माँगे जाने पर।

(नोट: पाठक शब्द 'मंगीअै' और 'मंगिअै' में फर्क को समझें)।

कीचहि = किए जाते हैं। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी। कूड़ै की = उस पदार्थ की जिसने साथ नहीं निभना। किउ = कैसे? कढहु = बताओ, ढूँढो। दिढ़ाऐ = दृढ़ कराता है। किलविख = पाप। सभि = सारे। नामि = नाम से। उतारीअनु = उतारी है उसने। सचिआरु = सच का वणजारा। हहि = हैं। जीवउ = (रॅब करके) जीओ (देखें 'गुरबाणी व्याकरण')।

अर्थ: जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते हैं चुँकि उनके मन में काम-क्रोध और लोभ अहंकार प्रबल हैं वे ना ही जगह वगैरा समझते हैं और ना ही समय सिर सटीक बात करनी जानते हैं; (जहाँ भी) वह आ के बैठते हैं (सत्संग में आ के भी) अपने स्वार्थ के अनुसार ही बातें करते हैं, (सो हर वक्त) उन्हें भयानक जम मारता रहता है (भाव, हर वक्त आत्मिक मौत उन्हें दबा के रखती है); आगे प्रभू की हजूरी में लेखा माँगे जाने से वह झूठ के व्यापारी मार-मार के ख्वार किए जाते हैं

कोई मनुष्य ये विचार बताए कि यह झूठ की मैल (भाव, उन पदार्थों के मोह जो साथ नहीं निभने) कैसे दूर हो।

अगर सतिगुरू मिल जाए वह प्रभू का नाम (हृदय में) पक्का करके बैठा देता है (गुरू ये बात दृढ़ करा देता है कि) 'नाम' सारे पापों को काटने में समर्थ है। (सो, गुरू के सन्मुख हो के) जो मनुष्य नाम जपता है नाम ही सिमरता है उस मनुष्य को सारे सिर झुकाओ, झूठे पदार्थों (के मोह) की मैल उस मनुष्य ने प्रभू के नाम के द्वारा उतार ली है, नाम जप के वह सत्य का व्यापारी बन गया है।

हे दास नानक! (अरदास कर कि) जिस प्रभू के नाम में ये बरकतें हैं वह दाता जीता रहे (भाव, सदा हमारे सिर पर हाथ रखी रखे)।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh