श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 951

पउड़ी ॥ तुधु जेवडु दाता नाहि किसु आखि सुणाईऐ ॥ गुर परसादी पाइ जिथहु हउमै जाईऐ ॥ रस कस सादा बाहरा सची वडिआईऐ ॥ जिस नो बखसे तिसु देइ आपि लए मिलाईऐ ॥ घट अंतरि अम्रितु रखिओनु गुरमुखि किसै पिआई ॥९॥ {पन्ना 951}

पद्अर्थ: किसु = किसलिए? रस = रस छह किस्म के हैं (कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त, कषाय)। कस = कसैला रस। देइ = देता है। रखिओनु = रखा है उसने (देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। पिआई = पिलाता है। जिथहु = (भाव) सतिगुरू से।

अर्थ: (हे प्रभू!) तेरे जितना कोई दाता नहीं, किस की बाबत कह के बताएं (कि वह तेरे जितना दाता है) ? (भावसब दातें तुझसे ही मिलती हैं, नाम-अमृत का दाता भी तू ही है)। (अमृत) सतिगुरू की कृपा से ही मिलता है, जहाँ से (भाव,? गुरू से ही) अहंकार नाश होता है, (नाम अमृत का दाता प्रभू) सारे रसों और स्वादों (के प्रभाव) से ऊपर है, उसकी बुजुर्गी सदा कायम रहने वाली है। प्रभू जिस पर मेहर करता है उसको (अमृत) बख्शता है और उसको स्वयं ही (अपने में) जोड़ लेता है, (वैसे तो यह) अमृत उसने हरेक के हृदय में रखा हुआ है पर जिस किसी को मिलाता है गुरू के माध्यम से मिलाता है।9।

सलोक मः ३ ॥ बाबाणीआ कहाणीआ पुत सपुत करेनि ॥ जि सतिगुर भावै सु मंनि लैनि सेई करम करेनि ॥ जाइ पुछहु सिम्रिति सासत बिआस सुक नारद बचन सभ स्रिसटि करेनि ॥ सचै लाए सचि लगे सदा सचु समालेनि ॥ नानक आए से परवाणु भए जि सगले कुल तारेनि ॥१॥ {पन्ना 951}

पद्अर्थ: बाबाणी = बाबे की। बाबाणीआ = बाबों की, बुजुर्गों की, सतिगुरू की। सपुत = सपुत्र। करेनि = बना देती हैं। बिआस = ये 'पराशर' ऋषि का पुत्र था, पहले इसका नाम 'कृष्णद्वैपायन' था क्योंकि इसका रंग काला (कृष्ण) था और ये द्वीप में पैदा हुआ था; पर बाद में इसका नाम 'ब्यास' पड़ गया। शब्द 'व्यास' का अर्थ है 'तरतीब देने वाला', इसके बारे में विचार है कि इस ऋषि ने वेदों को मौजूदा तरतीब दी थी (विव्यास वेदान् यस्मात्स: तस्माद् व्यास इति स्मृत:)। 'महाभारत का कर्ता भी इसी ऋषि को बताया जाता है, अठारह पुराण, ब्रह्म सूत्र व अन्य कई पुस्तकें भी इसी की लिखी मानी जाती हैं। सात प्रसिद्ध 'चिरचीवियों' में से एक ये भी था। सुक = एक ऋषि का नाम है। नारद = (नरस्य धर्मो नारं तत् ददाति स नारद:) ब्रह्मा के दस पुत्रों में से एक था, उसकी जाँघ में से पैदा हुआ माना जाता है। इसकी बाबत ये माना जाता है कि ये देवताओं के संदेश मनुष्यों के पास और मनुष्यों के संदेश व आवश्यक्ताएं देवताओं के पास पहुँचाता था। देवताओं और मनुष्यों के बीच झगड़े डालने का इसको बड़ा शौक था; सो इसका नाम पड़ गया 'कलिप्रिय' (कलहप्रेमी)। 'वीणा' साज का जन्मदाता यही ऋषी माना जाता है। इसने एक 'स्मृति' भी लिखी थी। बचन = उपदेश। सचै = सदा स्थिर प्रभू ने। सचि = सच्चे में। सगले = सारे।

अर्थ: सतिगुरू की साखियाँ (सिख-) पुत्रों को (गुरमुख) पुत्र बना देती हैं; (गुरू-साखियों की बरकति से, गुरमुख सिख-पुत्र) उन बातों पर विश्वास करने लगते हैं और वह काम करते हैं जो सतिगुरू को भाते हैं। (अगर इस बात की तस्दीक करनी हो तो पुरातन धर्म-पुस्तक) स्मृतियाँ और शास्त्र (और पुरातन ऋषी) व्यास, सुक और नारद (आदि) को पूछ के देख लो ( भाव, उनकी रचनाएं पढ़ के देख लो) जो सारी सृष्टि को (सांझा) उपदेश देते हैं।

जिनको सच्चे प्रभू ने (सतिगुरू के करिश्मों की याद में) लगाया, वह सच्चे प्रभू में (भी) जुड़े, वह सदा सच्चे प्रभू को (भी) याद रखते हैं। हे नानक! (वे सिर्फ स्वयं ही नहीं पार हुए, अपनी) सारी कुलों को भी पार लंघाते हैं, उनका ही जगत में आना कबूल है।1।

मः ३ ॥ गुरू जिना का अंधुला सिख भी अंधे करम करेनि ॥ ओइ भाणै चलनि आपणै नित झूठो झूठु बोलेनि ॥ कूड़ु कुसतु कमावदे पर निंदा सदा करेनि ॥ ओइ आपि डुबे पर निंदका सगले कुल डोबेनि ॥ नानक जितु ओइ लाए तितु लगे उइ बपुड़े किआ करेनि ॥२॥ {पन्ना 951}

पद्अर्थ: डुोबेनि = अक्षर 'ड' के साथ (ु) मात्रा लगा के पढ़ना है, वैसे शब्द 'डोबेनि' है। जितु = जिस में, जिस तरफ। तितु = उसी में।

अर्थ: जिन मनुष्यों का गुरू (खुद) अज्ञानी अंधा है वह सिख भी अंधे काम (भाव, बुरे काम) ही करते हैं; (अंधे गुरू के) वह (सिख) अपने मर्जी के पीछे लगते हैं, और सदा झूठ बोलते हैं; झूठ और ठगी कमाते हैं, सदा दूसरों की निंदा करते हैं; दूसरों की निंदा करने वाले वह मनुष्य खुद भी डूबते हैं और अपनी सारी कुलों को भी ग़रक करते हैं।

(पर) हे नानक! वह बिचारे करें भी क्या? जिधर उनको (प्रभू ने) लगाया है वे उधर ही लगे हुए हैं।2।

पउड़ी ॥ सभ नदरी अंदरि रखदा जेती सिसटि सभ कीती ॥ इकि कूड़ि कुसति लाइअनु मनमुख विगूती ॥ गुरमुखि सदा धिआईऐ अंदरि हरि प्रीती ॥ जिन कउ पोतै पुंनु है तिन्ह वाति सिपीती ॥ नानक नामु धिआईऐ सचु सिफति सनाई ॥१०॥ {पन्ना 951}

पद्अर्थ: इकि = कई जीव। कूड़ि = झूठ में। कुसति = कुसत्य में। लाइअनु = लगाए हैं उसने। पोतै = पल्ले में, कपड़े में। वाति = (वात में), मुँह में। तिन् = तिन्ह। सिपीती = सिफति। सनाई = (अरबी = स्ना) वडिआई, उपमा।

अर्थ: (प्रभू ने) जितनी सृष्टि पैदा की है, उस सारी को अपनी नजर तले रखता है, उसने कई जीवों को झूठ और ठॅगी में लगा रखा है, वह जीव अपने मन के पीछे चल के ख्वार हो रहे हैं। जो मनुष्य गुरू के हुकम में चलते हैं वे सदा प्रभू का ध्यान धरते हैं क्योंकि उनके हृदय में प्रभू की प्रीति है। जिनके पल्ले (कोई पिछली की हुई) भलाई है उनके मुँह में (प्रभू की) सिफत सालाह टिकी रहती है। हे नानक! नाम ही सिमरना चाहिए। परमातमा की सिफत-सालाह ही सदा कायम रहने वाली चीज है।10।

सलोकु मः १ ॥ सती पापु करि सतु कमाहि ॥ गुर दीखिआ घरि देवण जाहि ॥ इसतरी पुरखै खटिऐ भाउ ॥ भावै आवउ भावै जाउ ॥ सासतु बेदु न मानै कोइ ॥ आपो आपै पूजा होइ ॥ काजी होइ कै बहै निआइ ॥ फेरे तसबी करे खुदाइ ॥ वढी लै कै हकु गवाए ॥ जे को पुछै ता पड़ि सुणाए ॥ तुरक मंत्रु कनि रिदै समाहि ॥ लोक मुहावहि चाड़ी खाहि ॥ चउका दे कै सुचा होइ ॥ ऐसा हिंदू वेखहु कोइ ॥ जोगी गिरही जटा बिभूत ॥ आगै पाछै रोवहि पूत ॥ जोगु न पाइआ जुगति गवाई ॥ कितु कारणि सिरि छाई पाई ॥ नानक कलि का एहु परवाणु ॥ आपे आखणु आपे जाणु ॥१॥ {पन्ना 951}

पद्अर्थ: सती = (Virtuous men) धरमी लोग। सतु = सद् आचरण, धर्म। गुर जाहि = गुरू जाते हैं। घरि = (चेलों के) घर में। दीखिआ = शिक्षा। पुरखै भाउ = पति का प्यार, पति से प्यार। आपो आपै पूजा = अपने अपने गरज की पूजा। निआइ = न्याय करने के लिए। तुरक मंत्रु = तुर्क (हाकिम) का मंत्र। कनि = कान में। समाहि = टिका के रखते हैं। मुहावहि = लुटाते हैं। चाड़ी = चुग़ली। गिरही = गृहस्ती। बिभूत = राख। सिरि = सिर पर। छाई = राख। परवाणु = माप, प्रभाव। आखणु = कहने वाला, चौधरी। जाणु = जानने वाला, कद्र करने वाला, वडिआई करने वाला।

अर्थ:

( नोट: इस शलोक में उन लोगों की हालत को बयान किया गया है जो अपने आप को धर्मी कहलवाते हैं, पर अंदर से जीवन घटिया है)।

जो मनुष्य अपने आप को धर्मी (भाव, सदाचारी) कहलवाते हैं वे (छुप के) विकार करके भी (बाहर) जाहिर यही करते हैं कि धर्म कमा रहे हैं। (अपने आप को) गुरू (कहलवाने वाले) (माया की खातिर) चेलों के घर में शिक्षा देने जाते हैं।

(कहलवाती पतिव्रता है पर) स्त्री का अपने पति के साथ प्यार तभी है जब वह कमा के लाए (वरना) पति चाहे घर आए चाहे चला जाए (स्त्री परवाह नहीं करती)।

(ब्राह्मण का हाल देखो, अपने) कोई भी वेद-शास्त्र नहीं मान रहा, अपनी-अपनी मतलब की ही पूजा हो रही है।

काज़ी बन के (दूसरों का) न्याय करने बैठता है, तसब्बी फेरता है खुदा खुदा कहता है, (पर न्याय करने के वक्त) रिश्वत ले के (दूसरे का) हक मारता है, अगर कोई (उसके इस काम पर) ऐतराज़ करे तो (कोई ना कोई शरा की बात) पढ़ के सुना देता है

(हिन्दू आगुओं का हाल देखो, अपने) कान और हृदय में (तो) तुर्क (हाकिमों) का हुकम टिकाए रखते हैं, लोगों को लुटवाते हैं उनकी चुगली (हाकिमों के पास) करते हैं, पर देखो ऐसे हिन्दू की ओर (सिर्फ) चौका दे के ही स्वच्छ बना फिरता है।

जोगी ने जटाएं रखी हुई हैं, राख भी मली हुई है, पर है गृहस्ती, उसके आगे-पीछे बच्चे रोते-फिरते हैं, जोग-मार्ग भी नहीं मिला और जीने की जुगति भी गवा बैठे हैं। सिर पर राख उसने किस लिए डाली है?

हे नानक! ये है कलियुग का प्रभाव कि कलिजुग खुद ही (भाव, कलियुगी स्वभाव वाला आदमी खुद ही) चौधरी है और खुद ही अपनी करतूत की महिमा करने वाला है।1।

मः १ ॥ हिंदू कै घरि हिंदू आवै ॥ सूतु जनेऊ पड़ि गलि पावै ॥ सूतु पाइ करे बुरिआई ॥ नाता धोता थाइ न पाई ॥ मुसलमानु करे वडिआई ॥ विणु गुर पीरै को थाइ न पाई ॥ राहु दसाइ ओथै को जाइ ॥ करणी बाझहु भिसति न पाइ ॥ जोगी कै घरि जुगति दसाई ॥ तितु कारणि कनि मुंद्रा पाई ॥ मुंद्रा पाइ फिरै संसारि ॥ जिथै किथै सिरजणहारु ॥ जेते जीअ तेते वाटाऊ ॥ चीरी आई ढिल न काऊ ॥ एथै जाणै सु जाइ सिञाणै ॥ होरु फकड़ु हिंदू मुसलमाणै ॥ सभना का दरि लेखा होइ ॥ करणी बाझहु तरै न कोइ ॥ सचो सचु वखाणै कोइ ॥ नानक अगै पुछ न होइ ॥२॥ {पन्ना 951-952}

पद्अर्थ: हिंदू = (भाव) ब्राहमण। पढ़ि = (मंत्र आदि) पढ़ के। थाइ न पाई = कबूल नहीं होता। दसाइ = पूछता है। को = कोई विरला। करणी = अच्छा आचरण। भिसति = बहिश्त, स्वर्ग। दसाई = पूछता है। तितु कारणि = उस ('जुगति') की खातिर। संसारि = संसार में। जिथै किथै = हर जगह। वाटाऊ = मुसाफिर। चीरी = चिट्ठी, आमंत्रण। ऐथै = इस जीवन में। फकड़ु = फोकट, फोका दावा। दरि = प्रभू के दर पर। सचो सचु = केवल सच्चे प्रभू को। कोइ = अगर कोई।

अर्थ: (किसी खत्री आदि) हिन्दू के घर में ब्राहमण आता है और (मंत्र आदि) पढ़ के (उस खत्री के) गले में धागा जनेऊ डाल देता है; (ये मनुष्य जनेऊ पहन तो लेता है, पर) जनेऊ पहन के भी बुरे-कर्म किए जाता है (इस तरह नित्य) नहाने-धोने से वह (प्रभू के दर पर) कबूल नहीं हो जाता।

मुसलमान मनुष्य (दीन की) वडिआई (बड़ाई) करता है पर अगर गुरू-पीर के हुकम में नहीं चलता तो (दरगाह में) कबूल नहीं हो सकता। (बहिश्त का) रास्ता तो हर कोई पूछता है पर उस रास्ते पर चलता कोई विरला है और नेक अमलों के बिना बहिश्त नहीं मिलता।

जोगी के डेरे पर (मनुष्य जोग की) जुगति पूछने जाता है उस ('जुगति') की खातिर कान में मुंद्राएं डाल लेता है; मुंद्राएं डाल के संसार में चक्कर लगाता है (भाव, गृहस्त छोड़ के बाहर जगत में भटकता है), पर सृजनहार तो हर जगह मौजूद है (बाहर जंगलों में तलाशना व्यर्थ है)।

(जगत में) जितने भी जीव (आते) हैं सारे मुसाफिर हैं, जिस-जिस को आमंत्रण आता है वह यहाँ देरी नहीं कर सकता (जाना ही पड़ता है); जिसने इस जनम में ईश्वर को पहचान लिया है वह (परलोक में) जा के भी पहचान लेता है (अगर ये उद्यम नहीं किया तो) और दावा कि मैं हिन्दू हूँ अथवा मुसलमान हूँ, सब फोका है। (हिंदू हो चाहे मुसलमान) हरेक के कर्मों का लेखा प्रभू की हजूरी में होता है, अपने नेक आचरण के बिना कभी कोई पार नहीं लांघा। जो मनुष्य (इस जन्म में) केवल सच्चे ईश्वर को याद करता है, हे नानक! परलोक में उसको लेखा नहीं पूछा जाता।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh