श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ हरि का मंदरु आखीऐ काइआ कोटु गड़ु ॥ अंदरि लाल जवेहरी गुरमुखि हरि नामु पड़ु ॥ हरि का मंदरु सरीरु अति सोहणा हरि हरि नामु दिड़ु ॥ मनमुख आपि खुआइअनु माइआ मोह नित कड़ु ॥ सभना साहिबु एकु है पूरै भागि पाइआ जाई ॥११॥ {पन्ना 952}

पद्अर्थ: कोटु = किला। गढ़ = किला। जवेहरी = जवाहरात, हीरे। खुआइअनु = गवाए हैं उसने। कढ़ु = काढ़ा, झोरा, चिंता। आखीअै = कहना चाहिए।

अर्थ: इस शरीर को परमात्मा के रहने के लिए सुंदर घर कहना चाहिए, किला गढ़ कहा जाना चाहिए। अगर गुरू के हुकम में चल के परमात्मा का नाम जपोगे तो इस शरीर के अंदर ही अच्छे गुण-रूपी लाल-जवाहर मिल जाएंगे।

(हे मन!) परमात्मा का नाम (हृदय में) पक्का करके रख, तब ही ये शरीर ये प्रभू का मन्दिर बहुत सुंदर हो सकता है। (पर) जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते हैं उन्हें प्रभू ने स्वयं तोड़ा हुआ है उनको माया के मोह की चिंता नित्य (दुखी करती) है।

सारे जीवों का मालिक वही एक परमात्मा है, पर मिलता पूरी किस्मत से है।11।

सलोक मः १ ॥ ना सति दुखीआ ना सति सुखीआ ना सति पाणी जंत फिरहि ॥ ना सति मूंड मुडाई केसी ना सति पड़िआ देस फिरहि ॥ ना सति रुखी बिरखी पथर आपु तछावहि दुख सहहि ॥ ना सति हसती बधे संगल ना सति गाई घाहु चरहि ॥ जिसु हथि सिधि देवै जे सोई जिस नो देइ तिसु आइ मिलै ॥ नानक ता कउ मिलै वडाई जिसु घट भीतरि सबदु रवै ॥ सभि घट मेरे हउ सभना अंदरि जिसहि खुआई तिसु कउणु कहै ॥ जिसहि दिखाला वाटड़ी तिसहि भुलावै कउणु ॥ जिसहि भुलाई पंध सिरि तिसहि दिखावै कउणु ॥१॥ {पन्ना 952}

पद्अर्थ: ना सति = (संस्कृत: नास्ति, न+अस्ति) नहीं है, भाव सिद्धि और वडिआई (बड़ाई, महानता) नहीं है। मूंड = सिर। मूंड केसी मुडाई = सिर के केस मुंडाने से।

(नोट: हरेक विचार के साथ शब्द 'नासति' बरता गया है; सो, 'मूड मुंडाई केसी' इकट्ठा ही एक ख्याल है)।

आपु = अपने आप को। तछावहि = कटाते हैं। रवै = व्यापक है, मौजूद है। खुआई = मैं गवाता हूँ। वाटड़ी = सुंदर वाट, बढ़िया रास्ता। पंध सिरि = पंध के सिर पर, (पंध = राह), यात्रा के आरम्भ में ही।

अर्थ: (तप आदि से) दुखी होने में (सिद्धि और महानता की प्राप्ति) नहीं है, सुख में भी नहीं, और पानी में खड़े हो के भी नहीं है (अगर ऐसा होता तो बेअंत) जीव जो पानी में ही विचरते हैं (उन्हें सहज ही सिद्धि मिल जाती)। सिर के केश मुनाने में (भाव, रुंड-मुंड हो जाने पर) सिद्धि नहीं है; इस बात में भी (जीवन-मनोरथ की) सिद्धि नहीं कि विद्वान बन के (और लोगों को चर्चा में जीतने के लिए) देश-देशांतरों में फिरें। रुखों-वृक्षों और पत्थरों पर भी सिद्धि नहीं है ये अपने आप को कटाते हैं और (कई किस्म के) दुख बर्दाश्त करते हैं (भाव, रुखो-वृक्षों व पत्थरों की तरह ही जड़ हो के अपने ऊपर कई तरह के कष्ट सहने से भी जनम-मनोरथ की सिद्धि प्राप्त नहीं होती)। (कमर के साथ संगल बाँधने से भी) सिद्धि नहीं है, हाथी संगलों से ही बँधे होते हैं; (कंद-मूल खाने में भी) सिद्धि नहीं है, गाएं घास चुगती ही हैं (भाव, हाथियों की तरह संगल बाँधने में और गायों की तरह कंद-मूल खाने में भी सिद्धि की प्राप्ति नहीं है)।

जिस प्रभू के हाथ में सफलता है अगर वह स्वयं दे और जिसको देता है उसको प्राप्त होती है। हे नानक! महानता (आदर व वडिआई) उस जीव को मिलता है जिसके हृदय में (प्रभू की सिफतसालाह का) शबद हर वक्त मौजूद है।

(प्रभू तो ऐसे कहता है कि जीवों के) सारे शरीर मेरे (शरीर) हैं, मैं सबमें बसता हूँ, जिस जीव को मैं गलत रास्ते पर डाल देता हूँ उसको कौन समझा सकता है? जिसको मैं सुंदर (बढ़िया) रास्ता दिखा देता हूँ उसको कौन भुला सकता है? जिसको मैंने (जिंदगी के) सफर के आरम्भ में भटका दिया उसको रास्ता कौन दिखा सकता है?।1।

मः १ ॥ सो गिरही जो निग्रहु करै ॥ जपु तपु संजमु भीखिआ करै ॥ पुंन दान का करे सरीरु ॥ सो गिरही गंगा का नीरु ॥ बोलै ईसरु सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥२॥ {पन्ना 952}

पद्अर्थ: गिरही = गृहस्ती। निग्रहु = इन्द्रियों को विकारों की ओर जाने से रोकना। भीखिआ करै = (प्रभू से) भिक्षा मांगे, ख़ैर मांगे। नीरु = जल। सति = परम ज्योति, परम आत्मा। तंत = (सं: तंतु = The Supreme Brahm) परम ज्योति, अकाल-पुरख। पुंन = भलाई। दान = सेवा।

अर्थ: (असल) गृहस्ती वह है जो इन्द्रियों को विकारों की ओर से रोकता है, जो (प्रभू से) जप-तप और संजम रूपी खैर माँगता है, जो अपना शरीर भी पुन्य-दान वाला ही बना लेता है (भाव, ख़लकत की सेवा व भलाई करने का स्वभाव जिसके शरीर के साथ रच-मिच जाता है); वह गृहस्ती गंगा जल (जैसा पवित्र) हो जाता है।

अगर ईशर (जोगी भी असल गृहस्ती वाली ये जुगति लगा के) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू को जपे तो ये भी परम ब्रहम में लीन हो जाए, इसकी कोई (अलग) रूप-रेखा ना रह जाय (अर्थात, हे ईशर जोगी! अगर तू भी ऊपर बताई हुई जुगति से प्रभू को जपे तो तू भी परम-ब्रहम में एक-मेक हो जाए; गृहस्त त्यागने की आवश्यक्ता ही नहीं पड़ेगी)।2।

नोट: ईशर जोगी को असल गृहस्ती के लक्षण बता के, उस जोगी को संबोधन करने की बजाए अॅन-पुरख (Third Person) के रूप में प्रयोग किया है।

मः १ ॥ सो अउधूती जो धूपै आपु ॥ भिखिआ भोजनु करै संतापु ॥ अउहठ पटण महि भीखिआ करै ॥ सो अउधूती सिव पुरि चड़ै ॥ बोलै गोरखु सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥३॥ {पन्ना 952}

पद्अर्थ: अउधूती = अवधूत, जिसने माया के बँधन तोड़ दिए हैं। धूपै = धुखाता है, जला देता है। आपु = स्वै भाव। भिखिआ भोजनु = मांग मांग के लाया हुआ भोजन। संतापु = खिझ। शिव = कल्याण रूप प्रभू। पुरी = पुरी में। अउहठ = अवघट, हृदय। पटण = शहर।

अर्थ: (असल) अवधूत वह है जो स्वै भाव (अहंकार) को जला देता है; जो संताप (खिझ) को मांग-मांग के लाया हुआ भोजन बनाता है (जो मांग-मांग के लाए हुए टुकड़े खाने की जगह संताप को ही खा जाय, समाप्त कर दे); जो हृदय-रूपी शहर में टिक के (प्रभू से) खैर माँगता है, वह अवधूत कल्याण-रूप प्रभू के देश में पहुँच जाता है।

अगर गोरख (जोगी भी इस अवधूत की जुगति प्रयोग करके) सति-स्वरूप प्रभू को जपे तो (ये गोरख भी) परम ब्रहम में लीन हो जाए, इसकी कोई (अलग) रूप-रेखा ना रह जाए।3।

मः १ ॥ सो उदासी जि पाले उदासु ॥ अरध उरध करे निरंजन वासु ॥ चंद सूरज की पाए गंढि ॥ तिसु उदासी का पड़ै न कंधु ॥ बोलै गोपी चंदु सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥४॥ {पन्ना 952}

पद्अर्थ: उदासी = विरक्त, माया से उपराम। उदासु = माया से उपरामता। पाले = सदा कायम रखता है। अरध = (सं: अर्ध; जैसे 'अर्धदेव' देवताओं के पास रहने वाला), आधे बीच में, नजदीक। उरध = (सं: उध्र्व) ऊपर। अरध उरध = नजदीक और ऊपर, (भाव, हर जगह)। निरंजन = माया से रहित। चंद = शीतलता, शांति। सूरज = ज्ञान का तेज। पड़ै न = नहीं पड़ता, नहीं गिरता। कंधु = दीवार, शरीर।

अर्थ: (असल) विरक्त वह है जो उपरामता को सदा कायम रखता है, हर जगह माया-रहित प्रभू का निवास जानता है; (अपने हृदय में) शांति और ज्ञान दोनों को इकट्ठा करता है; उस विरक्त मनुष्य का शरीर (विकारों में) नहीं गिरता।

अगर गोपी चंद (जोगी) (भी इस उदासी की जुगति बरत के) सति-स्वरूप प्रभू को जपे तो (ये गोपीचंद भी) परम ब्रहम में लीन हो जाए, इसका कोई (अलग) रूप-रेख ना रह जाए।4।

मः १ ॥ सो पाखंडी जि काइआ पखाले ॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजाले ॥ सुपनै बिंदु न देई झरणा ॥ तिसु पाखंडी जरा न मरणा ॥ बोलै चरपटु सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥५॥ {पन्ना 952}

पद्अर्थ: पाखंडी = (संस्कृत: पाखंड = a heretic) नास्तिक वाम-मार्गियों का एक फिरका। पखाले = धोए, पापों से साफ़ रखे। अगनि ब्रहमु = ब्रहमाग्नि, ईश्वरीय ज्योति। परजाले = (सं: प्रज्वालय) अच्छी तरह चमकाए, रौशन करे। बिंदु = वीर्य। जरा = बुढ़ापा।

अर्थ: (असली) नास्तिक वह है जो (परमात्मा की हस्ती ना मानने की जगह) शरीर को धोए (भाव, शरीर में से पापों की मौजूदगी मिटा दे), जो अपने शरीर में ईश्वरीय ज्योति जगाता है, सपने में भी वीर्य को गिरने नहीं देता (भाव, सपने में भी अपने आप को काम-वश नहीं होने देता); उस नास्तिक को (भाव, उस मनुष्य को जिसने अपने अंदर से पापों का नाश कर दिया है) बुढ़ापा और मौत (उसे) छू नहीं सकते (भाव, वह इनके डर से मुक्त हो जाता है)।

अगर चरपट (भी ऐसी नास्तिक जुगति बरत के) सति-स्वरूप प्रभू को जपे तो (ये चरपट भी) परम ब्रहम में लीन हो जाए, इसकी कोई (अलग) रूप-रेखा ना रह जाए।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh