श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 953 मः १ ॥ सो बैरागी जि उलटे ब्रहमु ॥ गगन मंडल महि रोपै थमु ॥ अहिनिसि अंतरि रहै धिआनि ॥ ते बैरागी सत समानि ॥ बोलै भरथरि सति सरूपु ॥ परम तंत महि रेख न रूपु ॥६॥ {पन्ना 953} पद्अर्थ: बैराग = (सं: वैराग्य) दुनिया से उपरामता। बैरागी = वह मनुष्य जिसने दुनियां की ख्वाहिशों से मन मोड़ लिया है। उलटे = पलट लिया, फेर लिया। गगन = आकाश, दसम द्वार। मंडल = चक्र। गगन मंडल = दसम द्वार का चक्र, वह अवस्था जहाँ मनुष्य की सुरति प्रभू में जुड़ती है। रोपै = खड़ा करता है। अहि = दिन। निसि = रात। धिआनि = ध्यान में। सत = सदा कायम रहने वाला प्रभू। समानि = जैसा। अर्थ: (असल) बैरागी वह है जो प्रभू को (अपने हृदय की ओर) पलटाता है (अर्थात, जो प्रभू पति को अपनी हृदय-सेज पर ला बसाता है), जो प्रभू का नाम-रूप दसम द्वार (रूपी शामियाने) में खड़ा करता है (भाव, जो मनुष्य प्रभू के नाम को इस तरह अपना सहारा बनाता है कि उसकी सुरति सदा ऊपर को प्रभू-चरणों में टिकी रहती है, मायावी पदार्थों के प्रभाव में नीचे नहीं गिरती), जो दिन-रात अपने अंदर ही (भाव, हृदय में ही) प्रभू की याद में जुड़ा रहता है। ऐसे बैरागी प्रभू का रूप हो जाते हैं। अगर भरथरी (भी ऐसे बैरागी की जुगति बरत के) सति-स्वरूप प्रभू को जपे तो (ये भरथरी भी) परम ब्रहम में लीन हो जाए, इसकी कोई (अलग) रूप-रेखा ना रह जाए।6। मः १ ॥ किउ मरै मंदा किउ जीवै जुगति ॥ कंन पड़ाइ किआ खाजै भुगति ॥ आसति नासति एको नाउ ॥ कउणु सु अखरु जितु रहै हिआउ ॥ धूप छाव जे सम करि सहै ॥ ता नानकु आखै गुरु को कहै ॥ छिअ वरतारे वरतहि पूत ॥ ना संसारी ना अउधूत ॥ निरंकारि जो रहै समाइ ॥ काहे भीखिआ मंगणि जाइ ॥७॥ {पन्ना 953} पद्अर्थ: मरै = दूर हो। मंदा = बुराई। किउ = कैसे? जीवै = सही जीवन जीए। जुगति = इस तरीके से। किआ खाजै = खाने का क्या लाभ? भुगति = जोगियों का चूरमा। आसति = अस्ति, मौजूद है। नासति = ना+अस्ति, नहीं है। हिआउ = हृदय। धूप छाव = दुख और सुख। सम = बराबर, एक समान। गुरु कहै = गुरू गुरू कहता है, गुरू को याद रखता है। को = कोई वह मनुष्य। छिअ वरतारे = छे भेषों में। पूत = चेले (जोगियों के)। निरंकारि = निरंकार में। अर्थ: कान फड़वा के चूरमा खाने का कोई (आत्मिक) लाभ नहीं (क्योंकि) इस जुगति से ना (मन में से) विकार दूर होता है ना ही (ऊँचा) जीवन मिलता है। (अगर कोई पूछे कि यदि कान छेद करवाने से मन नहीं टिकता तो) वह कौन सा अक्षर है जिसमें हृदय जुड़ा रह सकता है (और बुराई मिट जाती है, तो इसका उक्तर ये है कि वह) केवल वही (प्रभू का) नाम है जो संसार का अस्तित्व और अस्तित्व-हीन दोनों अवस्थाओं के वक्त मौजूद है। अगर कोई मनुष्य (इस 'नाम' की बरकति से) दुख और सुख को एक-समान सहता है, तो, नानक कहता है, वह मनुष्य ही (असल में) गुरू को याद रखता है (भाव, गुरू के वचन के मुताबिक चलता है)। (नाथ ने) चेले (भाव, जोगी लोग) (जो निरे) छे भेषों में ही व्यस्त हैं, (दरअसल) ना वे गृहस्ती हैं और ना ही विरक्त। जो मनुष्य एक निरंकार में जुड़ा रहता है वह क्यों कहीं ख़ैर माँगने जाए? (भाव, उसको फकीर बनने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती, हाथों से किरत-कमाई करता हुआ भी प्रभू के चरणों में लीन रहता है)।7। पउड़ी ॥ हरि मंदरु सोई आखीऐ जिथहु हरि जाता ॥ मानस देह गुर बचनी पाइआ सभु आतम रामु पछाता ॥ बाहरि मूलि न खोजीऐ घर माहि बिधाता ॥ मनमुख हरि मंदर की सार न जाणनी तिनी जनमु गवाता ॥ सभ महि इकु वरतदा गुर सबदी पाइआ जाई ॥१२॥ {पन्ना 953} पद्अर्थ: मंदरु = घर, रहने की जगह। मानस देह = मनुष्य शरीर। सभु = हर जगह। बिधाता = सृजनहार। हरि मंदर = ईश्वर के घर की। सार = मुल्य, कद्र। अर्थ: (वैसे तो सारे शरीर ही 'हरि मंदरु' अर्थात, ईश्वर के रहने की जगह हैं, पर असल में) वही शरीर 'हरि मंदरु' कहा जाना चाहिए जिसमें ईश्वर पहचाना जाए; (सो, मनुष्य का शरीर 'हरि मंदरु' है, क्योंकि) मनुष्य-शरीर में गुरू के हुकम में चल के ईश्वर को पा सकता है, हर जगह व्यापक ज्योति दिखती है। (शरीर से) बाहर तलाशने की बिल्कुल ही आवश्यक्ता नहीं, (इस शरीर-) घर में ही सृजनहार बस रहा है। पर मन के पीछे चलने वाले बंदे (इस मनुष्य-शरीर) 'हरि मंदरु' की कद्र नहीं जानते, वे मानस जन्म (मन के पीछे चल के ही) गवा जाते हैं। (वैसे तो) सभी में एक ही प्रभू व्यापक है, पर मिलता है गुरू के शबद से ही।12। सलोक मः ३ ॥ मूरखु होवै सो सुणै मूरख का कहणा ॥ मूरख के किआ लखण है किआ मूरख का करणा ॥ मूरखु ओहु जि मुगधु है अहंकारे मरणा ॥ एतु कमाणै सदा दुखु दुख ही महि रहणा ॥ अति पिआरा पवै खूहि किहु संजमु करणा ॥ गुरमुखि होइ सु करे वीचारु ओसु अलिपतो रहणा ॥ हरि नामु जपै आपि उधरै ओसु पिछै डुबदे भी तरणा ॥ नानक जो तिसु भावै सो करे जो देइ सु सहणा ॥१॥ {पन्ना 953} पद्अर्थ: लखण = लक्षण, इलामतें। करणा = कर्तव्य। मुगधु = मोहा हुआ, माया का ठगा हुआ। ऐतु कमाणै = माया के मोह में और अहंकार में रहने से। अति पिआरा = माया से बहुत प्यार करने वाला। किहु संजम करणा = बचाव का कौन सा उद्यम किया जा सकता है? खूहि = माया के कूएं में। संजमु = बचाव का उद्यम। किहु = कुछ, कोई। अलिपत = अलिप्त, अलग, निराला। अर्थ: मूर्ख का कहा वही सुनता है (भाव, मूर्ख के कहे वही लगता है) जो खुद मूर्ख हो। मूर्ख के क्या लक्षण हैं? कैसी करतूत होती है मूर्ख की? जो मूर्ख माया का ठगा हुआ हो और जो अहंकार में आत्मिक मौत मरा हुआ हो, उसको मूर्ख कहा जाता है। माया की मस्ती ओर अहंकार में जो कुछ करें उससे सदा दुख प्राप्त होता है और सदा दुखी रहा जाता है। माया से ज्यादा प्यार करने वाला मनुष्य (माया के मोह के) कूएं में गिरा रहता है। उसके बचाव के लिए कौन से प्रयास किए जा सकते हैं? जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह इस पर विचार करता है और (इस माया के मोह-रूप कूएं से) अलग रहता है; वह प्रभू का नाम जपता है, (नाम की बरकति से) वह खुद बचता है और उसके पद्चिन्हों पर चल कर डूबता हुआ साथी भी बच निकलता है। हे नानक! जो कुछ प्रभू को भाता है वही कुछ वह करता है (माया के मोह में पड़ के दुख या इससे अलोप रहके सुख) जो कुछ प्रभू देता है वही जीव सहता है।1। मः १ ॥ नानकु आखै रे मना सुणीऐ सिख सही ॥ लेखा रबु मंगेसीआ बैठा कढि वही ॥ तलबा पउसनि आकीआ बाकी जिना रही ॥ अजराईलु फरेसता होसी आइ तई ॥ आवणु जाणु न सुझई भीड़ी गली फही ॥ कूड़ निखुटे नानका ओड़कि सचि रही ॥२॥ {पन्ना 953} नोट: किसी मुसलमान के साथ हुए ये विचार हैं। पद्अर्थ: सही = सच्ची। सिख = शिक्षा। वही = बही, अमलों की किताब। तलबा = बुलावे। आकी = बाग़ी। बाकी = लेखे में से बकाया। अजराईलु फरेसता = मौत का फरिश्ता। तई = तैयार, तईनात, तैनात, मॅुकरर। फही = फसी हुई (जिंद) को। कूड़ = झूठ कमाने वाले। निखुटे = हार जाते हैं। सचि = सच से, सच्चा सौदा करने से। आवण जाणु = कोई चारा, किधर जाऊँ क्या करूँ? = ये बात। अर्थ: नानक कहता है- हे मन! सच्ची शिक्षा सुन, (तेरे किए अमलों अर्थात तेरे किए कर्मों के लेखे वाली) किताब निकाल के बैठा हुआ ईश्वर (तुझसे) हिसाब पूछेगा। जिन-जिन का लेखे का हिसाब बकाया रह जाता है उन-उन लोगों को बुलावे आएंगे, मौत का फरिश्ता (किए हुए कर्मों के अनुसार दुख देने के लिए सिर पर) आ तैयार खड़ा होगा। उस मुश्किल में फसी हुई जिंद को (उस वक्त) कुछ सूझता नहीं। हे नानक! झूठ के व्यापारी हार के जाते हैं, सच का सौदा करने से ही अंत को विजय मिलती है।2। पउड़ी ॥ हरि का सभु सरीरु है हरि रवि रहिआ सभु आपै ॥ हरि की कीमति ना पवै किछु कहणु न जापै ॥ गुर परसादी सालाहीऐ हरि भगती रापै ॥ सभु मनु तनु हरिआ होइआ अहंकारु गवापै ॥ सभु किछु हरि का खेलु है गुरमुखि किसै बुझाई ॥१३॥ {पन्ना 953} पद्अर्थ: सचु = हर जगह। आपै = खुद ही। न जापै = नहीं सूझता। रापै = रंगे जाते हैं। गवापै = नाश हो जाता है। किसै = किसी विरले को। अर्थ: ये सारा (जगत का आसरा) परमात्मा का (मानो) शरीर है, हर जगह प्रभू खुद ही व्यापक है, परमात्मा (की महानता वडिआई) का मूल्य नहीं आँका जा सकता, कोई बात सूझती नहीं (जिससे) उसकी महानता को बयान कर सकें। सतिगुरू की कृपा से परमात्मा की सिफतसालाह की जा सकती है (जो करता है वह प्रभू की भक्ति में रंगा जाता है, उसका मन और तन खिल उठता है और अहंकार नाश हो जाता है)। ये सारा जगत प्रभू का बनाया हुआ तमाशा है, सतिगुरू के द्वारा किसी विरले को इस खेल की समझ देता है।13। सलोकु मः १ ॥ सहंसर दान दे इंद्रु रोआइआ ॥ परस रामु रोवै घरि आइआ ॥ अजै सु रोवै भीखिआ खाइ ॥ ऐसी दरगह मिलै सजाइ ॥ रोवै रामु निकाला भइआ ॥ सीता लखमणु विछुड़ि गइआ ॥ रोवै दहसिरु लंक गवाइ ॥ जिनि सीता आदी डउरू वाइ ॥ रोवहि पांडव भए मजूर ॥ जिन कै सुआमी रहत हदूरि ॥ रोवै जनमेजा खुइ गइआ ॥ एकी कारणि पापी भइआ ॥ रोवहि सेख मसाइक पीर ॥ अंति कालि मतु लागै भीड़ ॥ रोवहि राजे कंन पड़ाइ ॥ घरि घरि मागहि भीखिआ जाइ ॥ रोवहि किरपन संचहि धनु जाइ ॥ पंडित रोवहि गिआनु गवाइ ॥ बाली रोवै नाहि भतारु ॥ नानक दुखीआ सभु संसारु ॥ मंने नाउ सोई जिणि जाइ ॥ अउरी करम न लेखै लाइ ॥१॥ {पन्ना 953-954} नोट: इस शलोक में उन पौराणिक कथाओं के हवाले दिए गए हैं जो हिन्दुओं में आम प्रचलित हैं। पद्अर्थ: सहंसर = हजार। दान = दण्ड। हजार भगों का दण्ड जो इन्द्र देवते को गौतम ऋषि ने श्राप दे के लगाया था। इन्द्र ने ऋषि की स्त्री अहिल्या के साथ धोखे से संग किया था। परस रामु = ब्राहमण था, इसके पिता जमदगनी को सहस्रबाहु ने मार दिया था; बदले की आग में परसराम ने क्षत्रिय-कुल का नाश करना शुरू कर दिया, पर जब इसने श्री रामचंद्र जी पर अपना कोहाड़ा उठाया तो उन्होंने इसका बल खींच लिया। अजै = राजा अजै ने (जो श्री रामचंद्र जी का दादा था) एक साधू को भिक्षा में लिद दी थी, बाद में उसे खुद खानी पड़ी। निकाला = देश निकाला। दहदिसु = (सं: दशशिर) दस सिरों वाला, रावण। डउरू वाइ = डमरू बजा के, साधू का भेस बना के। सुआमी = कृष्ण जी। खुइ गइआ = गवा बैठा। ऐकी = एक गली। जनमेजा (जो हस्तिनापुर का राजा था) ने 18 ब्राहमणों को मार दिया था, जिसका प्रायश्चित करने के लिए इसने ऋषि 'वैशंपाइन' से 'महाभारत' सुना था। मसाइक = मशायख़, शब्द 'शेख' का बहुवचन। भीड़ = मुसीबत। राजे = भरथरी गोपीचंद आदि राजे। किरपन = कंजूस। संचहि = इकट्ठा करते हैं। बाली = लड़की। जिणि = जीत के। अउरी = और। अर्थ: (गौतम ऋषि ने) हजार (भगों) का दण्ड दे के इन्द्र का रुला दिया, (श्री रामचंद्र से अपना बल छिनवा के) परस राम घर आ के रोया। राजा अजै रोया जब उसको (लिद की दी हुई) भिक्षा खानी पड़ी, प्रभू की हजूरी से ऐसी ही सजा मिलती है। जब राम (जी) को देश निकाला मिला सीता लक्ष्मण विछुड़े तब राम जी भी रोए। रावण, जिसने साधू बन के सीता (का हरण करके) ले आया, लंका गवा के रोया। (पाँचों) पाण्डव, जिनके पास श्री कृष्ण जी रहते थे (भाव, जिनका पक्ष करते थे), जब (राजा वैराट के) मजदूर बने तब रोए। राजा जनमेजा चूक गया (18 ब्राहमणों को जान से मार बैठा, प्रायश्चित के लिए 'महाभारत' सुना, पर शंका की, इस) एक गलती के कारण पापी ही बना रहा (भाव, कोढ़ ना हटा) और रोया। शेख पीर आदि भी रोते हैं कि कहीं ऐसा ना हो कि अंत के समय कोई बिपता आ पड़े। (भरथरी गोपीचंद आदिक) राजा, जोगी बन के दुखी होते हैं जब घर-घर जा के भिक्षा माँगते हैं। कँजूस धन इकट्ठा करते हैं पर रोते हैं ज बवह धन (उनके पास से) चला जाता है, ज्ञान की कमी के कारण पण्डित भी ख्वार होते हैं। स्त्री रोती है जब (सिर पर) पति ना रहे। हे नानक! सारा जगत ही दुखी है। जो मनुष्य प्रभू के नाम को मानता है (भाव, जिसका मन प्रभू के नाम में पतीजता है) वह (जिंदगी की बाजी) जीत के जाता है, ('नाम' के बिना) कोई और काम (जिंदगी की बाजी जीतने के लिए) सफल नहीं होता। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |