श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः २ ॥ जपु तपु सभु किछु मंनिऐ अवरि कारा सभि बादि ॥ नानक मंनिआ मंनीऐ बुझीऐ गुर परसादि ॥२॥ {पन्ना 954}

पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक (उद्यम)। मंनीअै = अगर मान लें, अगर मन प्रभू के नाम में पतीज जाए। अवरि कारा = और सारे काम। बादि = व्यर्थ। मंनिआ = जो मान गया है, जिसने 'नाम' मान लिया है, जिसका मन नाम में पतीज गया है। मंनीअै = माना जाता है, आदर पाता है। परसादि = कृपा से।

(नोट: 'मंनिअै' और 'मंनीअै' का फर्क याद रखने योग्य है)।

अर्थ: यदि मन प्रभू के नाम में पतीज जाए जो जप-तप आदि हरेक उद्यम (उसी में आ जाता है), (नाम के बिना) और सारे कर्म व्यर्थ हैं। हे नानक! 'नाम' को मानने वाला आदर पाता है, ये बात गुरू की कृपा से समझी जा सकती है।2।

पउड़ी ॥ काइआ हंस धुरि मेलु करतै लिखि पाइआ ॥ सभ महि गुपतु वरतदा गुरमुखि प्रगटाइआ ॥ गुण गावै गुण उचरै गुण माहि समाइआ ॥ सची बाणी सचु है सचु मेलि मिलाइआ ॥ सभु किछु आपे आपि है आपे देइ वडिआई ॥१४॥ {पन्ना 954}

पद्अर्थ: हंस = (संस्कृत शब्द) जीवात्मा। धुरि = आदि से। करतै = करतार ने। लिखि = लिख के (भाव) अपने हुकम के अनुसार। गुपतु = छुपा हुआ।

अर्थ: शरीर और जीवात्मा का संजोग धुर से करतार ने अपने हुकम के अनुसार बना दिया है। प्रभू सब जीवों में छुपा हुआ मौजूद है, गुरू के द्वारा प्रकट होता है, (जो मनुष्य गुरू की शरण आ के प्रभू के) गुण गाता है गुण उचारता है वह गुणों में लीन हो जाता है। (सतिगुरू की) सच्ची बाणी के द्वारा वह मनुष्य सच्चे प्रभू का रूप हो जाता है, गुरू ने सच्चा प्रभू उसको संगति में (रख के) मिला दिया।

हरेक हस्ती में (अस्तित्व में) प्रभू स्वयं ही मौजूद है और स्वयं ही वडिआई (महानता, महिमा) बख्शता है।14।

सलोक मः २ ॥ नानक अंधा होइ कै रतना परखण जाइ ॥ रतना सार न जाणई आवै आपु लखाइ ॥१॥ {पन्ना 954}

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य खुद अंधा हो और चल पड़े रत्न परखने, वह रत्नों की कद्र तो जानता नहीं, पर अपने आप को उजागर करा आता है (भाव, अपना अंधापन जाहिर कर आता है)।1।

मः २ ॥ रतना केरी गुथली रतनी खोली आइ ॥ वखर तै वणजारिआ दुहा रही समाइ ॥ जिन गुणु पलै नानका माणक वणजहि सेइ ॥ रतना सार न जाणनी अंधे वतहि लोइ ॥२॥ {पन्ना 954}

पद्अर्थ: रतन = नाम रत्न, प्रभू के गुण। रतनी = रतनों की परख करने वाला सतिगुरू। वखर = (भाव) व्यापार करने वाला, वस्तु बेचने वाला। तै = और। वणजारा = वाणज्य करने वाला गुरमुख। माणक = रतन, नाम। सेइ = वही लोग। वतहि = भटकते हैं। लोइ = जगत में। केरी = की।

अर्थ: प्रभू के गुण रूपी थैली सतिगुरू ने आ के खोली है, से गुत्थी बेचने वाले सतिगुरू और लेने वाले गुरमुख दोनों के हृदय में टिक रही है (भाव, दोनों को ये गुण प्यारे लग रहे हैं)।

हे नानक! जिनके पास (भाव, हृदय में) प्रभू की सिफत सालाह के गुण मौजूद हैं वही मनुष्य ही नाम-रत्न का लेन-देन (व्यापार) करते हैं; पर जो इन रत्नों की कद्र नहीं जानते वे अंधों की तरह जगत में फिरते हैं।2।

पउड़ी ॥ नउ दरवाजे काइआ कोटु है दसवै गुपतु रखीजै ॥ बजर कपाट न खुलनी गुर सबदि खुलीजै ॥ अनहद वाजे धुनि वजदे गुर सबदि सुणीजै ॥ तितु घट अंतरि चानणा करि भगति मिलीजै ॥ सभ महि एकु वरतदा जिनि आपे रचन रचाई ॥१५॥ {पन्ना 954}

पद्अर्थ: दरवाजै = इन्द्रियों के रूप में द्वार। कोटु = किला। बजर = कठोर। कपाट = किवाड़। खुलीजै = खुलते हैं। अनहद = एक रस। धुनि = सुर। तितु = उस में। घट = शरीर। जिनि = जिस प्रभू ने।

अर्थ: शरीर (मानो एक) किला है, इसकी नौ इन्द्रियों के रूप में गुप्त दरवाजे (प्रकट) हैं, और दसवाँ द्वार गुप्त रखा हुआ है; (उस दसवें दरवाजे के) किवाड़ बड़े कठोर हैं खुलते नहीं, खुलते (केवल) सतिगुरू के शबद से ही हैं, (जब ये कठोर किवाड़ खुल जाते हैं तो, मानो,) एक-रस वाले बाजे बज पड़ते हैं जो सतिगुरू के शबद के द्वारा सुने जाते हैं। (जिस हृदय में ये आनंद पैदा होता है) उस हृदय में (ज्ञान का) प्रकाश हो जाता है, प्रभू की भक्ति करके वह मनुष्य प्रभू में मिल जाता है।

जिस प्रभू ने यह सारी रचना रची है वह सारे जीवों में व्यापक है (पर उस से मेल गुरू के द्वारा ही होता है)।15।

सलोक मः २ ॥ अंधे कै राहि दसिऐ अंधा होइ सु जाइ ॥ होइ सुजाखा नानका सो किउ उझड़ि पाइ ॥ अंधे एहि न आखीअनि जिन मुखि लोइण नाहि ॥ अंधे सेई नानका खसमहु घुथे जाहि ॥१॥ {पन्ना 954}

पद्अर्थ: राहि दसिअै = राह बताने वाला। अंधै कै राहि दसिअै = अंधे के राह बताने से, अगर अंधा मनुष्य राह बताए। सु = वही मनुष्य। उझड़ि = गलत राह पर। ऐहि = (शब्द 'आखीअनु' और 'आखिअनि' में फर्क देखने योग्य है देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। मुखि = मुँह पर। लोइण = आँखें।

अर्थ: अगर कोई अंधा मनुष्य (किसी और को) राह बताए तो (उस राह पर) वही चलता है जो खुद अंधा हो; हे नानक! आँख वाला मनुष्य (अंधे के कहने पर) गलत राह पर नहीं पड़ता। (पर आत्मिक जीवन में) ऐसे लोगों को अंधे नहीं कहा जाता जिनके मुँह पर आँखें नहीं हैं, हे नानक! अंधे वही हैं जो मालिक प्रभू से टूटे हुए हैं।1।

मः २ ॥ साहिबि अंधा जो कीआ करे सुजाखा होइ ॥ जेहा जाणै तेहो वरतै जे सउ आखै कोइ ॥ जिथै सु वसतु न जापई आपे वरतउ जाणि ॥ नानक गाहकु किउ लए सकै न वसतु पछाणि ॥२॥ {पन्ना 954}

पद्अर्थ: साहिबि = सहिब ने, प्रभू ने। जेहा जाणै = (अंधा मनुष्य) जैसे समझता है। सउ = सौ बार। जे = यद्यपि। जिथै = जिस मनुष्य के अंदर। आपे वरतउ = स्वै भाव वाला व्यवहार, अपने समझ की बर्ताव, अहंकार का जोर। जाणि = जानो।

अर्थ: जिस मनुष्य को मालिक-प्रभू ने स्वयं अंधा कर दिया है वह तब ही आँख वाला हो सकता है यदि प्रभू स्वयं (आँख वाला) बनाए, (नहीं तो, अंधा मनुष्य तो) जिस तरह की समझ रखता है उसी तरह किए जाता है चाहे उसको कोई सौ बार समझाए। जिस मनुष्य के अंदर 'नाम'-रूप पदार्थ की समझ नहीं वहाँ अहंकार वाला व्यवहार ही समझो, (क्योंकि) हे नानक! गाहक जिस सौदे को पहचान ही नहीं सकता उसका वह वणज ही कैसे करे?।2।

मः २ ॥ सो किउ अंधा आखीऐ जि हुकमहु अंधा होइ ॥ नानक हुकमु न बुझई अंधा कहीऐ सोइ ॥३॥ {पन्ना 954}

पद्अर्थ: हुकमहु = हुकम से, रजा में। अंधा = नेत्र हीन।

नोट: अंक 2 का भाव है महला 2।

अर्थ: जो मनुष्य प्रभू की रजा में नेत्र-हीन हो गया उसको हम अंधा नहीं कहते, हे नानक! वह मनुष्य अंधा कहा जाता है जो रजा को समझता नहीं।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh