श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 955 पउड़ी ॥ काइआ अंदरि गड़ु कोटु है सभि दिसंतर देसा ॥ आपे ताड़ी लाईअनु सभ महि परवेसा ॥ आपे स्रिसटि साजीअनु आपि गुपतु रखेसा ॥ गुर सेवा ते जाणिआ सचु परगटीएसा ॥ सभु किछु सचो सचु है गुरि सोझी पाई ॥१६॥ {पन्ना 955} पद्अर्थ: लाईअनु = लगाई हुई उसने। साजीअनु = रची है उसने। गुर सेवा = गुरू की बताई हुई सेवा से, गुरू के हुकम में चल के। गुरि = गुरू से। अर्थ: (मनुष्य का) शरीर के अंदर (मनुष्य का हृदय-रूप) जिस प्रभू का किला है गढ़ है वह प्रभू सारे देश-देशांतरों में मौजूद है, सारे जीवों के अंदर परवेश करके उसने खुद ही (जीवों के अंदर) समाधि (ताड़ी) लगाई हुई है (वह खुद ही जीवों के अंदर टिका हुआ है)। प्रभू ने खुद ही सृष्टि रची है और खुद ही (उस सृष्टि में उसने अपने आप को) छुपाया हुआ है। उस प्रभू की सूझ सतिगुरू के हुकम में चलने से आती है (तब ही) सच्चा प्रभू प्रकट होता है। है तो हर जगह सच्चा प्रभू खुद ही खुद, पर ये समझ सतिगुरू के द्वारा ही आती है।16। सलोक मः १ ॥ सावणु राति अहाड़ु दिहु कामु क्रोधु दुइ खेत ॥ लबु वत्र दरोगु बीउ हाली राहकु हेत ॥ हलु बीचारु विकार मण हुकमी खटे खाइ ॥ नानक लेखै मंगिऐ अउतु जणेदा जाइ ॥१॥ {पन्ना 955} पद्अर्थ: दरोगु = झूठ। बीउ = बींज। हाली राहकु = हल चलाने वाला, बीजने वाला। हेत = मोह। मण = बोहल। अउतु = (अ+उतु, अ+पुतु) बगैर पुत्र के, संतान हीन, अउत्रा। जणेदा = पैदा करने वाला, पिता। अर्थ: (जिस जीव की) रात खरीफ (सावणी) की फसल है और 'काम' जिसका खेत है (भाव, जो जीव अपनी रात 'काम' के अधीन हो के गुजारता है), जिसका दिन रबी (हाड़ी) की फसल है और 'क्रोध' जिसका खेत है (भाव, जो दिन का समय क्रोध में बिताता है), जिस जीव के लिए 'लब' वत्र (वतर- जोत के सींच के तैयार की गई जमीन की उपयुक्त अवस्था जो बीज बीजने का सही समय होता है) का काम (देता) है और झूठ (जिसकी फसल के लिए) बीज है (भाव, जो लब अर्थात लालच का प्रेरा हुआ झूठ बोलता है), 'मोह' जिस जीव के लिए हल चलाने वाला है और बीज बीजने वाला है; विकारों की विचार जिस जीव का 'हल' है; जिसने विकारों के बोहल (अनाज की ढेरी) इकट्ठे किए हैं, वह मनुष्य प्रभू के हुकम में अपनी की हुई कमाई का कमाया खाता है। हे नानक! जब जीव की करतूत का लेखा माँगा जाता है तब पता लगता है कि ऐसा (जीव-रूप) पिता (जगत से) बे-औलाद ही चला जाता है (भाव, जीवन व्यर्थ गवा के जाता है)।1। मः १ ॥ भउ भुइ पवितु पाणी सतु संतोखु बलेद ॥ हलु हलेमी हाली चितु चेता वत्र वखत संजोगु ॥ नाउ बीजु बखसीस बोहल दुनीआ सगल दरोग ॥ नानक नदरी करमु होइ जावहि सगल विजोग ॥२॥ {पन्ना 955} पद्अर्थ: भुइ = भूमि, खेती, पैली। पवितु = पवित्र, शुद्ध आचरण। बलेद = बल्द, बैल। संजोगु = गुरू के साथ मेल। दरोग = नाशवंत। करमु = कृपा, बख्शिश। हलेमी = निम्रता। चेता = सिमरन। वखत = बीजने का समय। अर्थ: अगर प्रभू का डर भूमि बने, शुद्ध आचरण (उस खेती के लिए) (सिंचाई का) पानी हो, सत् और संतोख (उस खेती को जोतने के लिए) बैल हो; विनम्रता हल हो, (जुड़ा हुआ) चिक्त हल जोतने वाला हो, प्रभू के सिमरन का वतर (बीज बीजने के लिए तैयार भूमि) हो और गुरू का मिलाप (बीज बीजने का) समय हो, प्रभू का 'नाम' बीज हो तो प्रभू की बख्शिश का बोहल (फसल का ढेर) इकट्ठा होता है और (तब) दुनिया सारी झूठी दिख पड़ती है (भाव, ये समझ आ जाती है कि दुनिया का साथ सदा निभने वाला नहीं)। हे नानक! (इस उद्यम से जब) प्रभू की मेहर होती है तब (उससे) सारे विछोड़े दूर हो जाते हैं।2। पउड़ी ॥ मनमुखि मोहु गुबारु है दूजै भाइ बोलै ॥ दूजै भाइ सदा दुखु है नित नीरु विरोलै ॥ गुरमुखि नामु धिआईऐ मथि ततु कढोलै ॥ अंतरि परगासु घटि चानणा हरि लधा टोलै ॥ आपे भरमि भुलाइदा किछु कहणु न जाई ॥१७॥ {पन्ना 955} पद्अर्थ: गुबारु = गहरा अंधेरा। भाइ = भाव में, प्यार में। दूजै भाइ = प्रभू के बिना किसी और के मोह में। नीरु = पानी। विरोलै = रिड़कता है, मथता है। मथि = मथ के। ततु = अस्लियत। टोलै = टोल के। अर्थ: जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है उसके अंदर मोह-रूपी घोर अंधेरा है, (वह जो बचन बोलता है) माया के मोह में ही बोलता है, वह (मानो) सदा पानी मथता है और माया के मोह के कारण उसको सदा दुख (होता) है। जो मनुष्य गुरू के हुकम में चलता है वह प्रभू का नाम सिमरता है वह (मानो, दूध) मथ के प्रभू का नाम-रूप मक्खन निकालता है। उसके हृदय में (प्रभू का) प्रकाश हो जाता है दिल में (ज्ञान की) रौशनी हो जाती है, उसने (गुरू के द्वारा) तलाश करके प्रभू को पा लिया है। (जिस किसी को भुलाता है) प्रभू खुद ही भ्रम में भुलाता है (किसी के सिर क्या दोष?) कोई बात कहीं नहीं जा सकती।17। सलोक मः २ ॥ नानक चिंता मति करहु चिंता तिस ही हेइ ॥ जल महि जंत उपाइअनु तिना भि रोजी देइ ॥ ओथै हटु न चलई ना को किरस करेइ ॥ सउदा मूलि न होवई ना को लए न देइ ॥ जीआ का आहारु जीअ खाणा एहु करेइ ॥ विचि उपाए साइरा तिना भि सार करेइ ॥ नानक चिंता मत करहु चिंता तिस ही हेइ ॥१॥ {पन्ना 955} पद्अर्थ: चिंता = फिक्र। तिस ही = उस प्रभू को ही। उपाइअनु = पैदा किए हैं उसने। रोजी = रिज़क। ओथै = पानी में। किरस = खेती, किसानी। आहारु = खुराक। साइरा = समुंद्रों। सार = संभाल। अर्थ: हे नानक! (अपनी रोजी के लिए) फिकर-चिंता ना करो, ये फिक्र उस प्रभू को खुद ही है। उसने पानी में जीव पैदा किए हैं उनको भी रिजक देता है; पानी में ना कोई दुकान चलती है ना ही वहाँ कोई खेती करता है, ना वहाँ कोई सौदा-सूत हो रहा है ना ही कोई लेन-देन का व्यापार है; पर वहाँ ये खुराक बना दी है कि जीवों का खाना जीव ही हैं। सो, जिनको समुंद्र में उसने पैदा किया है उनकी भी संभाल करता है। हे नानक! (रोजी के लिए) चिंता ना करो, उस प्रभू को खुद ही फिक्र है।1। मः १ ॥ नानक इहु जीउ मछुली झीवरु त्रिसना कालु ॥ मनूआ अंधु न चेतई पड़ै अचिंता जालु ॥ नानक चितु अचेतु है चिंता बधा जाइ ॥ नदरि करे जे आपणी ता आपे लए मिलाइ ॥२॥ {पन्ना 955} पद्अर्थ: मछुली = छोटी सी मछली। झीवरु = माछी, मछली पकड़ने वाला जाल। कालु = मौत, आत्मिक मौत लाने वाला। मनूआ = मूर्ख मन। अचिंता = अचनचेत, बेखबरी में। अचेतु = गाफल, बेपरवाह। अर्थ: हे नानक! ये जिंद छोटी सी मछली है, आत्मिक मौत लाने वाली तृष्णा रूपी जाल है; मूर्ख मन (इस तृष्णा में) अंधा (होया हुआ परमात्मा को) याद नहीं करता, बेख़बरी में ही (आत्मिक मौत का) जाल (इस पर) पड़ता जाता है। हे नानक! (तृष्णा में फसा हुआ) मन गाफ़िल हो रहा है, सदा चिंता में जकड़ा रहता है। अगर प्रभू स्वयं अपनी मेहर की नजर करे तो (जीवात्मा को तृष्णा की पकड़ से निकाल के) अपने में मिला लेता है।2। पउड़ी ॥ से जन साचे सदा सदा जिनी हरि रसु पीता ॥ गुरमुखि सचा मनि वसै सचु सउदा कीता ॥ सभु किछु घर ही माहि है वडभागी लीता ॥ अंतरि त्रिसना मरि गई हरि गुण गावीता ॥ आपे मेलि मिलाइअनु आपे देइ बुझाई ॥१८॥ {पन्ना 955} पद्अर्थ: मनि = मन में। वडभागी = बड़े भाग्यों वालों ने। गावीता = गाने से। मिलाइअनु = मिलाए हैं उस (प्रभू) ने। बुझाई = समझ, मति। अर्थ: जिन मनुष्यों ने प्रभू का नाम-अमृत पीया है वह मनुष्य नित्य प्रभू के साथ एक-रूप रहते हैं, गुरू के हुकम में चलके सदा कायम रहने वाला प्रभू उनके मन में बसता है, उन्होंने प्रभू का नाम-रूपी वणज किया है। ये नाम-रूपी सौदा है तो सारा मनुष्य के हृदय में ही, पर (इसका) वाणिज्य किया है बड़े भाग्यशालियों ने ही; (जिन्होंने ये वाणिज्य किया है) प्रभू के गुण गा के उनके अंदर से तृष्णा मर गई है। (ये नाम-रूप सौदा करने की) मति प्रभू ही देता है, और उसने खुद ही (नाम के व्यापारी अपने) मेल में मिलाए हैं।18। सलोक मः १ ॥ वेलि पिंञाइआ कति वुणाइआ ॥ कटि कुटि करि खु्मबि चड़ाइआ ॥ लोहा वढे दरजी पाड़े सूई धागा सीवै ॥ इउ पति पाटी सिफती सीपै नानक जीवत जीवै ॥ होइ पुराणा कपड़ु पाटै सूई धागा गंढै ॥ माहु पखु किहु चलै नाही घड़ी मुहतु किछु हंढै ॥ सचु पुराणा होवै नाही सीता कदे न पाटै ॥ नानक साहिबु सचो सचा तिचरु जापी जापै ॥१॥ {पन्ना 955} पद्अर्थ: लोहा = कैंची। इउ = इसी तरह ही। पति पाटी = गवाई हुई इज्जत। सिफती = प्रभू की सिफत सालाह करने से। जीवत जीवै = असल जीवन गुजारने लग पड़ता है। माहु = महीना। पखु = (प्रकाश और अंधकार पक्ष) आधा महीना। किहु = कुछ। चलै = चलता है। मुहतु = महूरत, घड़ी। तिचरु जापी जापै = उतने समय तक दिखता है जितने समय तक जपें। अर्थ: (रूई को बेलने में) बेल के पिंजाई की जाती है, कात के (कपड़ा) बुना जाता है, इसके टुकड़े करके (धोने के लिए) साँचे में चढ़ाते हैं। (इस कपड़े को) कैंची कतरती है, दर्जी इसे चीरता है, और सूई-धागा सिलता है। (जैसे ये कटा हुआ फाड़ा हुआ कपड़ा सुई-धागे से सिला जाता है) वैसे ही, हे नानक! मनुष्य की खोई हुई इज्जत प्रभू की सिफत-सलाह करने से फिर बन जाती है और मनुष्य सदाचारी जीवन गुजारने लग जाता है। कपड़ा पुराना हो के फट जाता है, सुई-धागा इसको सी देता है, (पर ये सिला हुआ मरम्मत किया हुआ पुराना कपड़ा) कोई महीना आधा महीना नहीं चलता, सिर्फ घड़ी दो घड़ी (थोड़े वक्त) ही चलता है; (पर) प्रभू का नाम (-रूपी पटोला) कभी पुराना नहीं होता, (नाम से) सिला हुआ कभी फटता नहीं (उस प्रभू से जुड़ा हुआ मन उससे कभी टूटता नहीं)। हे नानक! प्रभू-पति सदा कायम रहने वाला है, पर इस बात की समझ तब ही पड़ती है जब उसको सिमरें।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |