श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ५ ॥ मनमुखा केरी दोसती माइआ का सनबंधु ॥ वेखदिआ ही भजि जानि कदे न पाइनि बंधु ॥ जिचरु पैननि खावन्हे तिचरु रखनि गंढु ॥ जितु दिनि किछु न होवई तितु दिनि बोलनि गंधु ॥ जीअ की सार न जाणनी मनमुख अगिआनी अंधु ॥ कूड़ा गंढु न चलई चिकड़ि पथर बंधु ॥ अंधे आपु न जाणनी फकड़ु पिटनि धंधु ॥ झूठै मोहि लपटाइआ हउ हउ करत बिहंधु ॥ क्रिपा करे जिसु आपणी धुरि पूरा करमु करेइ ॥ जन नानक से जन उबरे जो सतिगुर सरणि परे ॥२॥ {पन्ना 959}

पद्अर्थ: केरी = की। सनबंधु = संबंध, जोड़। वेखदिआ ही = देखते देखते, बड़ी जल्दी। भजि जानि = भाग जाते हैं, साथ छोड़ देते हैं। पाइनि = पाते हैं। बंधु = बंधन, पक्की गाँठ। पैननि = पहनते हैं, पहनने को कपड़ा मिलता है। खावने = खाते हैं, खाने को मिलता है। गंढु = गाँठ, मेल। गंधु = गंदे बोल, रूखे बोल। चिकड़ि = कीचड़ से। पथर बंधु = पत्थरों का बाँध। फकड़ु धंधु = फजूल का टंटा। बिहंधु = बीतती है। करमु = मेहर। से जन = वह लोग।

अर्थ: मन के पीछे चलने वाले लोगों की मित्रता निरी माया की खातिर ही ताना-बाना होता है, वह कभी (मित्रता की) पक्की गाँठ नहीं डालते, जल्दी ही साथ छोड़ जाते हैं। मनमुख को जब तक पहनने-खाने को मिलता रहे तब तक ही जोड़ के रखते हैं, जिस दिन उनके खाने-पहनने की बात रास नहीं आती, उस दिन वे फीके बोल बोलने लगते हैं; अंधे ज्ञान-हीन मनुष्यों को (सिर्फ शरीर का ही फिक्र रहता है) आत्मा की कोई सूझ नहीं होती।

मनमुखों का कच्चा ताना-बाना (बहुत समय तक) नहीं चलता जैसे कीचड़ से बंधा हुआ पत्थरों का बाँध (जल्दी ही गिर जाता है); अंधे मनमुख अपने असल को नहीं समझते (सिर्फ बाहरी) व्यर्थ की व्यथा को रोते-पीटते रहते हैं, निकम्मे मोह में फंसे हुए मनमुखों की उम्र 'मैं मैं' करते हुए गुजर जाती है।

हे नानक! जिस-जिस मनुष्य पर प्रभू अपनी कृपा करता है, धुर से ही पूरी बख्शिश करता है वह लोग (इस झूठे मोह में से) बच जाते हैं, वे सतिगुरू की शरण पड़ते हैं।2।

पउड़ी ॥ जो रते दीदार सेई सचु हाकु ॥ जिनी जाता खसमु किउ लभै तिना खाकु ॥ मनु मैला वेकारु होवै संगि पाकु ॥ दिसै सचा महलु खुलै भरम ताकु ॥ जिसहि दिखाले महलु तिसु न मिलै धाकु ॥ मनु तनु होइ निहालु बिंदक नदरि झाकु ॥ नउ निधि नामु निधानु गुर कै सबदि लागु ॥ तिसै मिलै संत खाकु मसतकि जिसै भागु ॥५॥ {पन्ना 959}

पद्अर्थ: हाकु = कह, समझ। किउ = कैसे? किस तरह? खाकु = चरण धूड़। पाकु = पवित्र। महलु = ठिकाना। ताकु = दरवाजा। धाकु = धक्का। निहाल = प्रसन्न। बिंदक = रक्ती भर भी। झाकु = झाती, निगाह। सबदि = शबद में। संत खाकु = गुरू के चरणों की धूड़। मसतकि = माथे पर।

अर्थ: जिन लोगों को प्रभू के दर्शन का रंग चढ़ गया है, उन्हें ही सच्चे प्रभू का रूप समझो। जिन्होंने पति-प्रभू के साथ सांझ डाल ली है, यतन करो कि किसी ना किसी तरह उनकी चरण-धूड़ मिल जाए, क्योंकि जो मन (विकारों से) मैला हो के विकार-रूप ही बन चुका है वह उनकी संगति में पवित्र हो जाता है, (उनकी संगति की बरकति से) प्रभू का दर दिखाई दे जाता है, और, भरम-भुलेखों के कारण (बंद होया हुआ आत्मिक) दरवाजा खुल जाता है।

(पर ये प्रभू की अपनी मेहर ही है) जिसको अपना ठिकाना दिखा देता है, उसको (उसके उस ठिकाने से फिर) धक्का नहीं मिलता, उस प्रभू की मेहर की रक्ती भर भी निगाह से उसका तन-मन खिल उठता है।

(हे भाई!) गुरू के शबद में जुड़, परमात्मा का नाम रूपी नौ खजाने (मिल जाएंगे)। जिसके माथे पर भाग्य जाग उठे, उसको गुरू के चरणों की धूल मिलती है।5।

सलोक मः ५ ॥ हरणाखी कू सचु वैणु सुणाई जो तउ करे उधारणु ॥ सुंदर बचन तुम सुणहु छबीली पिरु तैडा मन साधारणु ॥ दुरजन सेती नेहु रचाइओ दसि विखा मै कारणु ॥ ऊणी नाही झूणी नाही नाही किसै विहूणी ॥ पिरु छैलु छबीला छडि गवाइओ दुरमति करमि विहूणी ॥ ना हउ भुली ना हउ चुकी ना मै नाही दोसा ॥ जितु हउ लाई तितु हउ लगी तू सुणि सचु संदेसा ॥ साई सुोहागणि साई भागणि जै पिरि किरपा धारी ॥ पिरि अउगण तिस के सभि गवाए गल सेती लाइ सवारी ॥ करमहीण धन करै बिनंती कदि नानक आवै वारी ॥ सभि सुहागणि माणहि रलीआ इक देवहु राति मुरारी ॥१॥ {पन्ना 959}

पद्अर्थ: हरणाखी = हिरन की आँखों जैसी आँखों वाली, सुंदर जीव स्त्री। कू = को। तउ = तेरा। छबीली = हे सुंदरी! मन साधारणु = मन को आसरा देने वाला। विखा = मैं देखूँ। ऊणी = कम, खाली। झूणी = उदास। करम = भाग्य। जै = जिस पर। पिरि = पिर ने। वैणु = वचन, बात। जितु = जिस तरफ। धन = स्त्री। कदि = कब। मुरारी = हे प्रभू!

अर्थ: हे सुंदर जीव स्त्री! मैं तुझे एक सच्ची बात सुनाती हूँ जो तेरा उद्धार करेगी। हे सुंदरी! तू वह सुंदर बचन सुन- तेरा पति-प्रभू मन को आसरा देने वाला है (उसको बिसार के) तूने दुर्जन से प्यार डाल लिया है, मुझे बता, मैं देखूँ इसका क्या कारण है। तू किसी बात में कम नहीं है, किसी गुण की कमी नहीं है, पर तुझ कर्मों की मारी ने बुरी मति के पीछे लग के सुंदर बाँका पति भुला दिया है।

(हे सखी!) तू सच्चा उक्तर सुन ले- मैंने भूल नहीं की, मैंने कोई गलती नहीं की, मेरे में दोष नहीं, मुझे जिस तरफ उसने लगाया है, मैं उधर लगी हूँ। वही जीव-स्त्री सोहाग-भाग्य वाली हो सकती हैजिस पर पति ने स्वयं मेहर की है, पति-प्रभू ने उस स्त्री के सारे ही अवगुण दूर कर दिए हैं और उसको गले से लगा के सँवार दिया है।

मैं भाग्यहीन जीव-स्त्री आरजू करती हूँ, मुझ नानक की कब बारी आएगी? हे प्रभू! सारी सुहागनें मौजें कर रही हैं, मुझे भी (मिलने के लिए) एक रात दे।1।

मः ५ ॥ काहे मन तू डोलता हरि मनसा पूरणहारु ॥ सतिगुरु पुरखु धिआइ तू सभि दुख विसारणहारु ॥ हरि नामा आराधि मन सभि किलविख जाहि विकार ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ तिन रंगु लगा निरंकार ॥ ओनी छडिआ माइआ सुआवड़ा धनु संचिआ नामु अपारु ॥ अठे पहर इकतै लिवै मंनेनि हुकमु अपारु ॥ जनु नानकु मंगै दानु इकु देहु दरसु मनि पिआरु ॥२॥ {पन्ना 959}

पद्अर्थ: मनसा = मन की कामना। पुरखु = व्यापक प्रभू। सभि = सारे। मन = हे मन! किलविख = पाप। जाहि = नाश हो जाएंगे। पूरबि = पिछले, पहले के। रंगु = प्रेम। सुआवड़ा = कड़वा स्वाद, बुरा चस्का। संचिआ = जोड़ा। इकतै = एक में ही। मनि = मन में।

अर्थ: हे मन! तू क्यों डोलता है? परमात्मा तेरी कामना पूरी करने वाला है, गुरू को अकाल-पुरख को सिमर, वह सारे दुख नाश करने वाला है। हे मन! प्रभू का नाम जप, तेरे सारे पाप और विकार दूर हो जाएंगे।

जिनके माथे पर धुर से लेख लिखा हो, उनके हृदय में परमात्मा का प्यार पैदा होता है, वे माया का बुरा चस्का छोड़ देते हैं, और बेअंत प्रभू का नाम-धन इकट्ठा करते हैं, वे आठों पहर एक प्रभू की ही याद में जुड़े रहते हैं, प्रभू का ही हुकम मानते हैं।

(हे प्रभू!) दास नानक भी (तेरे दर से) एक ख़ैर माँगता है- मुझे दीदार दे और मुझे मन में अपना प्यार बख्श।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh