श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 960 पउड़ी ॥ जिसु तू आवहि चिति तिस नो सदा सुख ॥ जिसु तू आवहि चिति तिसु जम नाहि दुख ॥ जिसु तू आवहि चिति तिसु कि काड़िआ ॥ जिस दा करता मित्रु सभि काज सवारिआ ॥ जिसु तू आवहि चिति सो परवाणु जनु ॥ जिसु तू आवहि चिति बहुता तिसु धनु ॥ जिसु तू आवहि चिति सो वड परवारिआ ॥ जिसु तू आवहि चिति तिनि कुल उधारिआ ॥६॥ {पन्ना 960} पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। जम दुख = जमों के दुख सहम। कि काड़िआ = कौन सी चिंता? सभि = सारे। परवाणु = कबूल। वड परवारिआ = बड़े परिवार वाला, जिसको सारा जगत ही अपना परिवार दिखाई देता है। तिनि = उस (मनुष्य) ने। उधारिआ = (विकारों से) बचा लिया। अर्थ: हे प्रभू! तू जिस मनुष्य के हृदय में बस जाए, वह मनुष्य (तेरी नजरों में) कबूल हो गया। उसके पास तेरा बेअंत नाम-धन इकट्ठा हो जाता है, (तेरी याद की बरकति से) सारा जगत ही उसको अपना परिवार दिखाई देता है, उसने अपनी (भी) सारी कुलों (के जीवों) को (संसार समुंद्र की विकार-लहरों से) पार लंघा लिया है।6। सलोक मः ५ ॥ अंदरहु अंना बाहरहु अंना कूड़ी कूड़ी गावै ॥ देही धोवै चक्र बणाए माइआ नो बहु धावै ॥ अंदरि मैलु न उतरै हउमै फिरि फिरि आवै जावै ॥ नींद विआपिआ कामि संतापिआ मुखहु हरि हरि कहावै ॥ बैसनो नामु करम हउ जुगता तुह कुटे किआ फलु पावै ॥ हंसा विचि बैठा बगु न बणई नित बैठा मछी नो तार लावै ॥ जा हंस सभा वीचारु करि देखनि ता बगा नालि जोड़ु कदे न आवै ॥ हंसा हीरा मोती चुगणा बगु डडा भालण जावै ॥ उडरिआ वेचारा बगुला मतु होवै मंञु लखावै ॥ जितु को लाइआ तित ही लागा किसु दोसु दिचै जा हरि एवै भावै ॥ सतिगुरु सरवरु रतनी भरपूरे जिसु प्रापति सो पावै ॥ सिख हंस सरवरि इकठे होए सतिगुर कै हुकमावै ॥ रतन पदारथ माणक सरवरि भरपूरे खाइ खरचि रहे तोटि न आवै ॥ सरवर हंसु दूरि न होई करते एवै भावै ॥ जन नानक जिस दै मसतकि भागु धुरि लिखिआ सो सिखु गुरू पहि आवै ॥ आपि तरिआ कुट्मब सभि तारे सभा स्रिसटि छडावै ॥१॥ {पन्ना 960} पद्अर्थ: अंदरहु बाहरहु = मन से भी और कर्मों से भी। कूड़ी कूड़ी = झूठ मूठ। देही = शरीर। धावै = भटकता है। कामि = कामना से। बैसनौ = विष्णु का भगत। हउ = अहम्। जुगता = जुड़ा हुआ। तुह = चावलों के छिलके। बगु = बगुला। तार = ताड़ी, सुरति। मुंञु = मेरा स्वै। होवै लखावै = उघड़ आए। जितु = जिस तरफ। दिचै = दिया जाए। भावै = अच्छा लगता है। सरवरु = सुंदर तालाब। सरवरि = सरोवर में। हुकमावै = हुकम अनुसार। तित ही: 'तितु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: अगर मनुष्य मन से माया में फसा हुआ है और करतूतें भी काली हैं, पर झूठ-मूठ में (विष्णु-पद) गाता है, शरीर को स्नान करवाता है (शरीर पर) चक्र बनवाता है, और वैसे माया की खातिर भटकता फिरता है, (इन चक्र आदि से) मन में से अहंकार की मैल नहीं उतरती, वह बार-बार जनम के चक्कर में पड़ा रहता है; गफ़लत की नींद में दबा हुआ, काम का मारा हुआ, मुँह से ही 'हरे! हरे!' कहता है, अपना नाम भी वैश्णव (विष्णु का भक्त) रखा हुआ है, पर करतूतों के कारण अहंकार में जकड़ा हुआ है, (सो, शरीर धोने, चक्र बनाने आदि कर्म चावल के छिलके के कूटने के तूल्य हैं) चावल का छिलका कूटने से (उनमें से) चावल नहीं निकलने वाले। हंसों में बैठा हुआ बगला हंस नहीं बन जाता, (हंसों में) बैठा हुआ भी वह सदा मछली (पकड़ने) के लिए ताड़ी लगाता है; जब हंस मिल के विचार करके देखते हैं तो (यही नतीजा निकलता है कि) बगलों के साथ उनका मेल फबता नहीं, (क्योंकि) हंसों की खुराक़ हीरे-मोती हैं और बगला मेंढकियाँ तलाशने जाता है; बेचारा बगला (आखिर हंसों के झुंड में से) उड़ ही जाता है कि कहीं मेरी पोल खुल ही ना जाए। पर, दोष किस को दिया जाय? परमात्मा को भी यही बात भाती है; जिधर कोई जीव लगाया जाता है उधर ही वह लगता है। सतिगुरू (मानो) एक सरोवर है जो रत्नों से नाको-नाक भरा हुआ है, जिसके भाग्य हों उसी को ही मिलता है। सतिगुरू के हुकम अनुसार ही सिख-हंस (गुरू की शरण-रूप) सरोवर में आ एकत्र होते हैं, उस सरोवर में (प्रभू के गुण रूप) हीरे-मोती नाको-नाक भरे हुए हैं, सिख इनको खुद इस्तेमाल करते व औरों को बाँटते हैं ये हीरे-मोती खत्म नहीं होते। करतार को ऐसा ही भाता है कि सिख-हंस गुरू-सरोवर से दूर नहीं जाता। हे नानक! धुर से ही जिसके माथे पर लिखे लेख हों वह सिख सतिगुरू की शरण आता है, (गुरू शरण आ के) वह स्वयं तैर जाता है, सारे संबंधियों को तैरा लेता है और सारे जगत को बचा लेता है।1। मः ५ ॥ पंडितु आखाए बहुती राही कोरड़ मोठ जिनेहा ॥ अंदरि मोहु नित भरमि विआपिआ तिसटसि नाही देहा ॥ कूड़ी आवै कूड़ी जावै माइआ की नित जोहा ॥ सचु कहै ता छोहो आवै अंतरि बहुता रोहा ॥ विआपिआ दुरमति कुबुधि कुमूड़ा मनि लागा तिसु मोहा ॥ ठगै सेती ठगु रलि आइआ साथु भि इको जेहा ॥ सतिगुरु सराफु नदरी विचदो कढै तां उघड़ि आइआ लोहा ॥ बहुतेरी थाई रलाइ रलाइ दिता उघड़िआ पड़दा अगै आइ खलोहा ॥ सतिगुर की जे सरणी आवै फिरि मनूरहु कंचनु होहा ॥ सतिगुरु निरवैरु पुत्र सत्र समाने अउगण कटे करे सुधु देहा ॥ नानक जिसु धुरि मसतकि होवै लिखिआ तिसु सतिगुर नालि सनेहा ॥ अम्रित बाणी सतिगुर पूरे की जिसु किरपालु होवै तिसु रिदै वसेहा ॥ आवण जाणा तिस का कटीऐ सदा सदा सुखु होहा ॥२॥ {पन्ना 960} पद्अर्थ: बहुती राही = बहुत शास्त्र आदि को पढ़ने से, बहुत राहों से। जिनेहा = जैसा। तिसटसि = टिकता। तिसटसि नाही देहा = शरीर टिकता नहीं, भटकना खतम नहीं होती। कूड़ी = झूठ मूठ, व्यर्थ। जोहा = ताकना, झाक। छोह = खिझ। रोह = गुस्सा। कुमूड़ा = बहुत मूर्ख। मनि = मन में। सेती = साथ। नदरी विचदो कढै = नजर में से निकालता है, गहु से परखता है। मनूर = जला हुआ लोहा। कंचनु = सोना। सत्र = शत्रु, वैरी। समाने = बराबर, एक जैसे। सुधु = शुद्ध, पवित्र। सनेहा = स्नेह, प्यार। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली बाणी। अर्थ: बहुत सारे शास्त्र आदि पढ़ने के कारण (ही अगर अपने आप को कोई मनुष्य) पंडित कहलवाता है (पर) है वह कोड़कू मोठ जैसा (जैसा उबालने पर गलता नहीं), उसके मन में मोह (प्रबल) है, उस पण्डित की (विद्या वाली) सारी दौड़-भाग झूठ-मूठ है (क्योंकि) उसको सदा माया की ही झाक लगी रहती है। यदि उसे कोई ये अस्लियत बताए तो उसको खिझ चढ़ती है (क्योंकि शास्त्र आदि पढ़ के भी) उसके मन में गुस्सा बहुत है। (ऐसा पंडित असल में) बुरी कोझी मति का मारा हुआ महा मूर्ख होता है क्योंकि उसके मन में माया का मोह (बलवान) है। ऐसे ठॅग के साथ एक और ऐसा ही ठॅग मिल जाता है, दोनों का बाखूब मेल बन जाता है। जब सर्राफ़ सतिगुरू ध्यान से परख करता है तो (ये बाहर से विद्या से चमकता सोना दिखने वाला, पर अंदर से) लोहा उघड़ आता है। कई जगह चाहे इसे मिला मिला के रखें, पर इसका पाज खुल के अस्लियत सामने आ ही जाती है। (ऐसा व्यक्ति भी) यदि सतिगुरू की शरण में आ जाए तो जले हुए लोहे से (जंग लगे लोहे से) सोना बन जाता है। सतिगुरू को किसी के साथ वैर नहीं, उसको पुत्र और वैरी एक समान ही प्यारे लगते हैं (अगर कोई भी उसकी शरण आए उसके) अवगुण काट के (गुरू) उसके शरीर को शुद्ध कर देता है। हे नानक! जिस मनुष्य के माथे पर धुर से लेख लिखें हों, उसका गुरू से प्रेम बनता है; पूरे गुरू की आत्मिक जीवन देने वाली बाणी उस मनुष्य के हृदय में बसती है जिस पर गुरू मेहर करे। उस मनुष्य का जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है, उसको सदा ही सुख प्राप्त होता है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |