श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ जो तुधु भाणा जंतु सो तुधु बुझई ॥ जो तुधु भाणा जंतु सु दरगह सिझई ॥ जिस नो तेरी नदरि हउमै तिसु गई ॥ जिस नो तू संतुसटु कलमल तिसु खई ॥ जिस कै सुआमी वलि निरभउ सो भई ॥ जिस नो तू किरपालु सचा सो थिअई ॥ जिस नो तेरी मइआ न पोहै अगनई ॥ तिस नो सदा दइआलु जिनि गुर ते मति लई ॥७॥ {पन्ना 961}

पद्अर्थ: तुधु = तुझे। भाणा = प्यारा लगा। बुझई = समझता है, सांझ डाल लेता है। सिझई = कामयाब हो जाता है। तिसु = उसकी। हउमै = मैं मैं, अहंकार, स्वै भाव, खुद गर्जी। संतुसटु = प्रसन्न। कलमल = पाप। खई = नाश हो गए। थिअई = हो जाता है। मइआ = दया। अगनई = (विकारों की) आग। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। मति = अक्ल। वलि = पक्ष से, की ओर। सचा = अडोल चिक्त। ते = से।

तिस नो: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे प्रभू! जो जीव तुझे प्यारा लगता है, वह तेरे साथ सांझ डाल लेता है, वह (जीवन-यात्रा में) सफल (हो के) तेरी हजूरी में पहुँचता है।

जिस पर तेरी मेहर की नजर हो, उसका स्वै भाव दूर हो जाता है। जिस पर तू खुश हो जाए उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।

(हे भाई!) मालिक प्रभू जिस मनुष्य के पक्ष में हो, वह (दुनियां के डर-सहम से) निडर हो जाता है।

हे प्रभू! जिस पर तू दयालु हो, वह (माया के हमलों के आगे) अडोल हो जाता है, जिस पर तेरी मेहर हो उसका (माया की) आग छू भी नहीं सकती।

पर, (हे प्रभू!) तू उस पर सदा दयालु है, जिसने गुरू से (मनुष्य-जीवन जीने की) युक्ति (मति) सीखी।7।

सलोक मः ५ ॥ करि किरपा किरपाल आपे बखसि लै ॥ सदा सदा जपी तेरा नामु सतिगुर पाइ पै ॥ मन तन अंतरि वसु दूखा नासु होइ ॥ हथ देइ आपि रखु विआपै भउ न कोइ ॥ गुण गावा दिनु रैणि एतै कमि लाइ ॥ संत जना कै संगि हउमै रोगु जाइ ॥ सरब निरंतरि खसमु एको रवि रहिआ ॥ गुर परसादी सचु सचो सचु लहिआ ॥ दइआ करहु दइआल अपणी सिफति देहु ॥ दरसनु देखि निहाल नानक प्रीति एह ॥१॥ {पन्ना 961}

पद्अर्थ: आपे = खुद ही। जपी = मैं जपूँ। पाइ = पैरों पर। न विआपै = जोर ना डाल ले। रैणि = रात। कंमि = काम में। निरंतरि = एक रस सब में। रवि रहिआ = मौजूद है। लोहिआ = पा लिया।

अर्थ: हे कृपालु (प्रभू)! मेहर कर, और तू स्वयं ही मुझे बख्श ले, सतिगुरू के चरणों में गिर के मैं सदा ही तेरा नाम जपता रहॅूँ।

(हे कृपालु!) मेरे मन में तन में आ बस (ता कि) मेरे दुख समाप्त हो जाएं; तू स्वयं मुझे अपना हाथ दे के रख, कोई डर मुझ पर अपना जोर ना डाल सके।

(हे कृपालु!) मुझे इसी काम में लगाए रख कि मैं दिन-रात तेरे गुण गाता रहूँ, गुरमुखों की संगति में रह के मेरा अहंकार का रोग काटा जाए।

(हे भाई! भले ही) पति-प्रभू सब जीवों में एक रस व्यापक है, पर उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू को जिसने पाया है गुरू की मेहर से पाया है।

हे दयालु प्रभू! दया कर, मुझे अपनी सिफत-सालाह बख्श, (मुझ) नानक की यही तमन्ना है कि तेरे दर्शन करके प्रफुल्लित रहूँ।1।

मः ५ ॥ एको जपीऐ मनै माहि इकस की सरणाइ ॥ इकसु सिउ करि पिरहड़ी दूजी नाही जाइ ॥ इको दाता मंगीऐ सभु किछु पलै पाइ ॥ मनि तनि सासि गिरासि प्रभु इको इकु धिआइ ॥ अम्रितु नामु निधानु सचु गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ वडभागी ते संत जन जिन मनि वुठा आइ ॥ जलि थलि महीअलि रवि रहिआ दूजा कोई नाहि ॥ नामु धिआई नामु उचरा नानक खसम रजाइ ॥२॥ {पन्ना 961}

पद्अर्थ: मनै माहि = मन ही में। पिरहड़ी = प्रेम। जाइ = जगह। पलै पाइ = पलै पाय, मिलता है। सभु किछु = हरेक चीज। गिरासि = ग्रास के साथ, खाते पीते। निधानु = खजाना। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। वडभागी = बड़े भाग्यों वाले। मनि = मन में। वुठा = बसा। महीअलि = मही तल, धरती के तल पर, धरती के ऊपर, आकाश में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला।

अर्थ: एक प्रभू को ही मन में ध्याना चाहिए, एक प्रभू की ही शरण लेनी चाहिए। हे मन! एक प्रभू के साथ ही प्रेम डाल, उसके बिना और कोई जगह-ठिकाना नहीं है। एक प्रभू-दाते से ही माँगना चाहिए, हरेक चीज उसी से ही मिलती है। हे भाई! मन से शरीर से श्वास-श्वास खाते-पीते एक प्रभू को ही सिमर।

प्रभू का आत्मिक जीवन देने वाला नाम सदा कायम रहने वाला खजाना गुरू के द्वारा ही मिलता है। वह गुरमुख लोग बड़े ही भाग्यों वाले हैं जिनके मन में प्रभू आ बसता है।

प्रभू जल में धरती में आकाश में (हर जगह) मौजूद है, उसके बिना (कहीं भी) कोई और नहीं है। हे नानक! (अरदास कर कि) मैं भी उस प्रभू का नाम सिमरूँ, नाम (मुँह से) उचारूँ और उस पति-प्रभू की रजा में रहूँ।2।

पउड़ी ॥ जिस नो तू रखवाला मारे तिसु कउणु ॥ जिस नो तू रखवाला जिता तिनै भैणु ॥ जिस नो तेरा अंगु तिसु मुखु उजला ॥ जिस नो तेरा अंगु सु निरमली हूं निरमला ॥ जिस नो तेरी नदरि न लेखा पुछीऐ ॥ जिस नो तेरी खुसी तिनि नउ निधि भुंचीऐ ॥ जिस नो तू प्रभ वलि तिसु किआ मुहछंदगी ॥ जिस नो तेरी मिहर सु तेरी बंदिगी ॥८॥ {पन्ना 961}

पद्अर्थ: तिनै = उसी ने। भैणु = भवन, जगत। अंगु = पक्ष, आसरा। तिसु मुखु = उसका मुँह। लेखा = जिंदगी में किए कर्मों का हिसाब। तिनि = उस ने। भुंचीअै = बरता है, भोगा है। मुहछंदगी = मुथाजी।

जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: (हे प्रभू!) जिस मनुष्य को तू रक्षक मिला है, उसको कोई (विकार आदि) मार नहीं सकता, क्योंकि उसने तो (सारा) जगत (ही) जीत लिया है।

(हे प्रभू!) जिसको तेरा आसरा प्राप्त है वह (मानवता की जिम्मेवारी में) सुर्खरू हो गया है, वह बड़े ही पवित्र जीवन वाला बन गया है।

(हे प्रभू!) जिसको तेरी (मेहर की) नजर नसीब हुई है उसको (जिंदगी में किए कामों का) हिसाब नहीं पूछा जाता, क्योंकि हे प्रभू! जिसको तेरी खुशी प्राप्त हुई है उसने तेरे नाम-रूप नौ खजानों का आनंद ले लिया है।

हे प्रभू! तू जिस व्यक्ति के पक्ष में है उसको किसी की मुथाजी नहीं रहती (क्योंकि) जिस पर तेरी मेहर है वह तेरी भक्ति करता है।8।

सलोक महला ५ ॥ होहु क्रिपाल सुआमी मेरे संतां संगि विहावे ॥ तुधहु भुले सि जमि जमि मरदे तिन कदे न चुकनि हावे ॥१॥ {पन्ना 961}

पद्अर्थ: विहावे = बीत जाए। सि = वह लोग। तिन = उनके। हावे = हाहुके, आहें। चुकनि = खत्म होते।

अर्थ: हे मेरे स्वामी! मेरे पर दया कर, मेरी उम्र संतों की संगति में रह कर बीते। जो मनुष्य तुझसे विछुड़ जाते हैं वे सदा पैदा होते मरते रहते हैं, उनकी आहें कभी खत्म नहीं होतीं।1।

मः ५ ॥ सतिगुरु सिमरहु आपणा घटि अवघटि घट घाट ॥ हरि हरि नामु जपंतिआ कोइ न बंधै वाट ॥२॥ {पन्ना 961}

पद्अर्थ: घटि = हृदय में। अवघटि = हृदय में। घट = घाटी। घाट = पक्तन। घट घाट = घाटी हो चाहे पक्तन, (भाव,) हर समय हर जगह। कोइ = कोई (विकार)। बंधै = रोक सकता, रुकावट डाल सकता। वाट = रास्ता, जिंदगी की बाट।

अर्थ: ( हे भाई!) अपने गुरू को (अपने) हृदय में उठते-बैठते हर समय (हर जगह) याद रखो। परमात्मा का नाम सिमरते हुए जिंदगी के रास्ते में कोई विकार रुकावट नहीं डाल सकता।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh