श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ तिथै तू समरथु जिथै कोइ नाहि ॥ ओथै तेरी रख अगनी उदर माहि ॥ सुणि कै जम के दूत नाइ तेरै छडि जाहि ॥ भउजलु बिखमु असगाहु गुर सबदी पारि पाहि ॥ जिन कउ लगी पिआस अम्रितु सेइ खाहि ॥ कलि महि एहो पुंनु गुण गोविंद गाहि ॥ सभसै नो किरपालु सम्हाले साहि साहि ॥ बिरथा कोइ न जाइ जि आवै तुधु आहि ॥९॥ {पन्ना 962}

पद्अर्थ: समरथु = सहायता करने योग्य। रख = रक्षा, आसरा। उदर अगनी = (माँ के) पेट की आग। बिखमु = मुश्किल। असगाहु = बहुत गहरा, जिसका थाह ना पाया जा सके। पारि पाहि = पार लांघ जाते हैं। सेइ = वही लोग। कलि = संसार। पुंन = नेक काम। गाहि = गाते हैं। सभसै नो = हरेक जीव को। साहि साहि = हरेक सांस में। बिरथा = व्यर्थ, खाली। तुधु आहि = तेरी शरण। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। खाहि = खाते हैं। जि = जो।

अर्थ: ( हे प्रभू!) जहाँ और कोई (जीव सहायता करने लायक) नहीं, वहाँ हे प्रभू! तू ही मदद करने योग्य है, माँ के पेट की आग में जीव को तेरा ही आसरा होता है।

(हे प्रभू! तेरा नाम) सुन के जमदूत (नजदीक नहीं फटकते), तेरे नाम की बरकति से (जीव को) छोड़ के चले जाते हैं। इस मुश्किल और अथाह संसार-समुंद्र को जीव गुरू के शबद (की सहायता) से पार कर लेते हैं।

पर वही लोग आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते हैं जिनके अंदर इसकी भूख-प्यास पैदा हुई है, जो संसार में नाम-सिमरन को ही सबसे अच्छा नेक काम जान के प्रभू के गुण गाते हैं।

कृपालु प्रभू हरेक जीव की सांस-सांस संभाल करता है।

हे प्रभू! जो जीव तेरी शरण आता है वह (तेरे दर से) खाली नहीं जाता।9।

सलोक मः ५ ॥ दूजा तिसु न बुझाइहु पारब्रहम नामु देहु आधारु ॥ अगमु अगोचरु साहिबो समरथु सचु दातारु ॥ तू निहचलु निरवैरु सचु सचा तुधु दरबारु ॥ कीमति कहणु न जाईऐ अंतु न पारावारु ॥ प्रभु छोडि होरु जि मंगणा सभु बिखिआ रस छारु ॥ से सुखीए सचु साह से जिन सचा बिउहारु ॥ जिना लगी प्रीति प्रभ नाम सहज सुख सारु ॥ नानक इकु आराधे संतन रेणारु ॥१॥ {पन्ना 962}

पद्अर्थ: तिसु = उस मनुष्य को। आधारु = आसरा। निहचलु = अटल। पारावारु = पार+अवार, इस पार उस पार। बिखिआ = माया। रस = चस्के। छारु = राख। रेणारु = चरण धूड़। सारु = श्रेष्ठ। सहज = आत्मिक अडोलता।

अर्थ: हे पारब्रहम! जिस मनुष्य को तू अपने नाम का आसरा देता है, उसको तू कोई और आसरा नहीं सुझाता; तू अपहुँच है, इन्द्रियों की दौड़ से परे है, तू हरेक सक्ता वाला मालिक है, तू सदा-स्थिर रहने वाला दाता है, तू अटल है, तेरा किसी के साथ वैर नहीं, तेरा दरबार सदा कायम रहने वाला है, तेरा अंत नहीं पाया जा सकता, तेरी हद-बंदी नहीं मिल सकती, तेरा मूल्य नहीं पाया जा सकता।

(हे भाई!) परमात्मा को बिसार के और-और चीजें माँगनी- ये सब माया के चस्के हैं और राख के तुल्य हैं। (असल में) वही लोग सुखी हैं, वही सदा कायम रहने वाले शाह हैं जिन्होंने सदा-स्थिर रहने वाले नाम का व्यापार किया है। जिन लोगों की प्रीति प्रभू के नाम के साथ बनी है उनको आत्मिक अडोलता का श्रेष्ठ सुख नसीब है। हे नानक! वह मनुष्य गुरमुखों की चरणों की धूल में रह कर एक प्रभू को आराधते हैं।1।

मः ५ ॥ अनद सूख बिस्राम नित हरि का कीरतनु गाइ ॥ अवर सिआणप छाडि देहि नानक उधरसि नाइ ॥२॥ {पन्ना 962}

पद्अर्थ: गाइ = (गाय), गा के, गाने से। नाइ = (नाय) नाम से। उधरसि = उद्धार होगा, तू बच जाएगा।

अर्थ: प्रभू की सिफत सालाह करने से सदा आनंद सदा सुख और सदा शांति बनी रहती है। हे नानक! और चतुराईयाँ छोड़ दे, नाम की बरकति से (संसार समुंद्र से तेरा) उद्धार हो जाएगा।2।

पउड़ी ॥ ना तू आवहि वसि बहुतु घिणावणे ॥ ना तू आवहि वसि बेद पड़ावणे ॥ ना तू आवहि वसि तीरथि नाईऐ ॥ ना तू आवहि वसि धरती धाईऐ ॥ ना तू आवहि वसि कितै सिआणपै ॥ ना तू आवहि वसि बहुता दानु दे ॥ सभु को तेरै वसि अगम अगोचरा ॥ तू भगता कै वसि भगता ताणु तेरा ॥१०॥ {पन्ना 962}

पद्अर्थ: घिणावणे = घिघियाने से, दिखावे वाले तरले लेने से। तीरथि = तीर्थ पर। धरती धाईअै = सारी धरती पर अगर दौड़ते फिरें। अगम = हे अपहुँच! अगोचर = अ+गो+चर, गो = ज्ञान इन्द्रियाँ। चर = पहुँच। अगोचर = जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। ताणु = बल, आसरा। भगत = भजन करने वाले। वसि = वश में। नाईअै = अगर स्नान किया जाए। दे = दे के। सभु को = हरेक जीव।

अर्थ: हे प्रभू! बहुत दिखावे वाले तरले लेने से, वेद पढ़ने-पढ़ाने से, तीर्थ पर स्नान करने से, (रमते साधुओं की तरह) सारी धरती गाहने से, किसी चतुराई-सयानप से, बहुत दान देने से, तू किसी जीव के वश में नहीं आता (किसी पर रीझता नहीं)।

हे अपहुँच और अगोचर प्रभू! हरेक जीव तेरे अधीन है (इन दिखावे के उद्यमों से कोई जीव तेरी प्रसन्नता प्राप्त नहीं कर सकता)।

तू सिर्फ उन पर रीझता है जो सदा तेरा सिमरन करते हैं, (क्योंकि) तेरा भजन-सिमरन करने वालों को (सिर्फ) तेरा आसरा-सहारा होता है।10।

सलोक मः ५ ॥ आपे वैदु आपि नाराइणु ॥ एहि वैद जीअ का दुखु लाइण ॥ गुर का सबदु अम्रित रसु खाइण ॥ नानक जिसु मनि वसै तिस के सभि दूख मिटाइण ॥१॥ {पन्ना 962}

पद्अर्थ: ऐहि वैद = ये (दुनिया वाले) हकीम, पाखण्डी धार्मिक आगू। जीअ का = जिंद का, आत्मा का। खाइण = खाने के लिए (भोजन)। जिसु मनि = जिस के मन में। नाराइणु = परमात्मा। सभि = सारे।

अर्थ: परमात्मा स्वयं ही (आत्मा के रोग हटाने वाला) हकीम है, ये (दुनियावी) हकीम (पाखण्डी धार्मिक आगू) आत्मा पर बल्कि दुख चिपका देते हैं; (आत्मा का रोग काटने के लिए) खाने योग्य चीज (औषधि) सतिगुरू का शबद है (जिसमें से) अमृत का स्वाद (आता है), हे नानक! जिस मनुष्य के मन में (गुरू का शबद) बसता है उसके सारे दुख मिट जाते हैं।1।

मः ५ ॥ हुकमि उछलै हुकमे रहै ॥ हुकमे दुखु सुखु सम करि सहै ॥ हुकमे नामु जपै दिनु राति ॥ नानक जिस नो होवै दाति ॥ हुकमि मरै हुकमे ही जीवै ॥ हुकमे नान्हा वडा थीवै ॥ हुकमे सोग हरख आनंद ॥ हुकमे जपै निरोधर गुरमंत ॥ हुकमे आवणु जाणु रहाए ॥ नानक जा कउ भगती लाए ॥२॥ {पन्ना 962}

पद्अर्थ: उछलै = उछलता है, कूदता है, भटकता है। रहै = टिकता है। सम = बराबर। दाति = बख्शिश। नाना = नन्हा सा। हरख = हर्ष, खुशी। निरुध = (to ward of evil) दुख कलेश विकार आदि को दूर करना। निरोधर = विकारों को दूर करने वाला। हुकमि = हुकम अनुसार।

अर्थ: प्रभू के हुकम अनुसार जीव भटकता है, हुकम अनुसार ही टिका रहता है; प्रभू के हुकम में ही जीव दुख-सुख को एक समान जान के सहता है। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभू बख्शिश करता है, वह उसके हुकम में ही दिन-रात उसका नाम जपता है।

प्रभू के हुकम में जीव मरता है, हुकम में ही जीता है, हुकम में ही (पहले) छोटा सा (और फिर) बड़ा हो जाता है; हुकम में ही (जीव को) चिंता और खुशी आनंद घटित होते हैं, प्रभू के हुकम में ही (कोई जीव) गुरू का शबद जपता है जो विकारों को दूर करने के समर्थ है।

हे नानक! जिस मनुष्य को प्रभू अपनी भक्ति में जोड़ता है उसका पैदा होना मरना भी प्रभू अपने अनुसार ही रोकता है।2।

पउड़ी ॥ हउ तिसु ढाढी कुरबाणु जि तेरा सेवदारु ॥ हउ तिसु ढाढी बलिहार जि गावै गुण अपार ॥ सो ढाढी धनु धंनु जिसु लोड़े निरंकारु ॥ सो ढाढी भागठु जिसु सचा दुआर बारु ॥ ओहु ढाढी तुधु धिआइ कलाणे दिनु रैणार ॥ मंगै अम्रित नामु न आवै कदे हारि ॥ कपड़ु भोजनु सचु रहदा लिवै धार ॥ सो ढाढी गुणवंतु जिस नो प्रभ पिआरु ॥११॥ {पन्ना 962}

पद्अर्थ: ढाढी = वार (पंजाबी लोक गायन विषोश रूप से वीर रस की शैली) गाने वाला, सिफत करने वाला। अपार = मैं। अपार = बेअंत प्रभू के। धनु धंनु = भाग्यों वाला। लोड़े = प्यार करता है। भागठु = भाग्यों वाला। बारु = दरवाजा। कलाणे = सिफतें करता है। दिनु रैणार = दिन रात, हर वक्त। हारि = हार के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। सचा = सदा कायम रहने वाला।

अर्थ: हे प्रभू! मैं उस ढाढी से सदके जाता हूँ जो तेरी सेवा-भक्ति करता है, मैं उस ढाढी से वारने जाता हूँ जो तेरे बेअंत गुण गाता है।

भाग्यशाली है वह ढाढी, जिसको अकाल-पुरख स्वयं चाहता है, मुबारक है वह ढाढी, जिसको प्रभू का सच्चा दर प्राप्त है।

हे प्रभू! ऐसा (सौभाग्यशाली) ढाढी सदा तुझे ध्याता है, दिन-रात तेरे गुण गाता है, तुझसे तेरा आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल माँगता है। वह ढाढी मानस जन्म की बाजी हार के तेरे पास नहीं आता (जीत के ही आता है)।

हे प्रभू! तेरा सदा-स्थिर नाम ही (उस ढाढी के पास, पर्दा ढकने के लिए) कपड़ा है, और (आत्मिक) खुराक है, वह सदा एक-रस तेरी याद में जुड़ा रहता है।

(दरअसल) गुणवान वही ढाढी है जिसको प्रभू का प्यार हासिल है।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh