श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ५ ॥ अम्रित बाणी अमिउ रसु अम्रितु हरि का नाउ ॥ मनि तनि हिरदै सिमरि हरि आठ पहर गुण गाउ ॥ उपदेसु सुणहु तुम गुरसिखहु सचा इहै सुआउ ॥ जनमु पदारथु सफलु होइ मन महि लाइहु भाउ ॥ सूख सहज आनदु घणा प्रभ जपतिआ दुखु जाइ ॥ नानक नामु जपत सुखु ऊपजै दरगह पाईऐ थाउ ॥१॥ {पन्ना 963}

पद्अर्थ: अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी के द्वारा। अमिउ रसु = अमृत का स्वाद। गुण गाउ = सिफत सालाह करो। सुआउ = स्वार्थ, मनोरथ। पदारथु = कीमती चीज। जनमु = मानस जीवन। भाउ = प्रेम, प्यार। सहज = आत्मिक अडोलता।

अर्थ: प्रभू का नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है, अमृत का स्वाद देने वाला है; (हे भाई!) सतिगुरू की अमृत बरसाने वाली बाणी के द्वारा इस प्रभू नाम को मन में, शरीर में, हृदय में सिमरो और आठों पहर प्रभू की सिफत सालाह करो।

हे गुर-सिखो! (सिफतसालाह वाला यह) उपदेश सुनो, जिंदगी का असल मनोरथ यही है। मन में (प्रभू का) प्यार टिकाओ, ये मानस-जीवन रूपी बहुमूल्य निधि सफल हो जाएगी।

प्रभू का सिमरन करने से दुख दूर हो जाता है, सुख, आत्मिक अडोलता और बेअंत खुशी प्राप्त होती है। हे नानक! प्रभू का नाम जपने से (इस लोक में) सुख पैदा होता है और प्रभू की हजूरी में जगह मिलती है।1।

मः ५ ॥ नानक नामु धिआईऐ गुरु पूरा मति देइ ॥ भाणै जप तप संजमो भाणै ही कढि लेइ ॥ भाणै जोनि भवाईऐ भाणै बखस करेइ ॥ भाणै दुखु सुखु भोगीऐ भाणै करम करेइ ॥ भाणै मिटी साजि कै भाणै जोति धरेइ ॥ भाणै भोग भोगाइदा भाणै मनहि करेइ ॥ भाणै नरकि सुरगि अउतारे भाणै धरणि परेइ ॥ भाणै ही जिसु भगती लाए नानक विरले हे ॥२॥ {पन्ना 963}

पद्अर्थ: धिआईअै = सिमरना चाहिए। भाणै = अपनी रजा में। संजम = इन्द्रियों को वश में लाने की क्रिया। बख्स = बख्शिश। करम = मेहर। मिटी = शरीर। जोति = जिंद। मनहि करेइ = रोक देता है। अउतारे = उतरता है, पाता है। धारणि = धरती। धरणि परेइ = धरती से गिरता है, नाश होता है। नरकि = नर्क में। सुरगि = स्वर्ग में।

अर्थ: हे नानक! पूरा गुरू (तो यह) मति देता है कि प्रभू का नाम सिमरना चाहिए; (पर वैसे) जप तप संजम (आदिक कर्म-काण्ड) प्रभू की रजा में ही हो रहे हैं, रजा अनुसार ही प्रभू (इस कर्म-काण्ड में से जीवों को) निकाल लेता है।

प्रभू की रजा अनुसार ही जीव जूनियों में भटकता है, रजा में ही प्रभू (जीव पर) बख्शिश करता है। उसकी रजा में ही (जीव को) दुख-सुख भोगना पड़ता है, अपनी रजा अनुसार ही प्रभू (जीवों पर) मेहर करता है।

प्रभू अपनी रजा में ही शरीर बना के (उस में) जीवन डाल देता है, रजा में ही भोगों की ओर प्रेरता है और रजा के अनुसार ही भोगों से रोकता है।

अपनी रजा अनुसार ही प्रभू (किसी को) नर्क में (किसी को) स्वर्ग में डालता है, प्रभू की रजा में ही जीव का नाश हो जाता है। अपनी रजा अनुसार ही जिस मनुष्य को बँदगी में जोड़ता है (वह मनुष्य बँदगी करता है, पर) हे नानक! बँदगी करने वाले बँदे बहुत ही विरले विरले हैं।2।

पउड़ी ॥ वडिआई सचे नाम की हउ जीवा सुणि सुणे ॥ पसू परेत अगिआन उधारे इक खणे ॥ दिनसु रैणि तेरा नाउ सदा सद जापीऐ ॥ त्रिसना भुख विकराल नाइ तेरै ध्रापीऐ ॥ रोगु सोगु दुखु वंञै जिसु नाउ मनि वसै ॥ तिसहि परापति लालु जो गुर सबदी रसै ॥ खंड ब्रहमंड बेअंत उधारणहारिआ ॥ तेरी सोभा तुधु सचे मेरे पिआरिआ ॥१२॥ {पन्ना 963}

पद्अर्थ: सुणि सुणे = सुन सुन के। हउ जीवा = मैं जीता हूँ। खणे = खिन में, छिन में। रैणि = रात। विकराल = डरावनी, भयानक। नाइ तेरै = तेरे नाम से। ध्रापीअै = तृप्त हो जाती है। वंञै = दूर हो जाता है। जिसु मनि = जिस के मन में। रसै = रसता है, रस सहित होता है। तुधु = तुझे (ही फबती है)। सचा = सदा कायम रहने वाला। सद = सदा। उधारणहारिआ = हे तारणहार!

अर्थ: प्रभू के सच्चे नाम की सिफतें (करके और) सुन-सुन के मेरे अंदर जान पड़ जाती है (मुझे आत्मिक जीवन हासिल होता है), (प्रभू का नाम) पशु-स्वभाव, प्रेत-स्वभाव और ज्ञान-हीनों का एक छिन में उद्धार कर देता है।

हे प्रभू! दिन-रात सदा ही तेरा नाम जपना चाहिए, तेरे नाम के द्वारा (माया की) डरावनी भूख-प्यास मिट जाती है।

जिस मनुष्य के मन में प्रभू का नाम बस जाता है उसके मन में से (विकार-) रोग संशय और दुख दूर हो जाते हैं। पर ये नाम हीरा उस मनुष्य को ही हासिल होता है जो गुरू के शबद में रच-मिच जाता है।

हे खंडों-ब्रहमण्डों के बेअंत जीवों का उद्धार करने वाले प्रभू! हे सदा स्थिर रहने वाले मेरे प्यारे! तेरी शोभा तुझे ही फबती है (अपनी महानता को तू स्वयं ही जानता है)।12।

सलोक मः ५ ॥ मित्रु पिआरा नानक जी मै छडि गवाइआ रंगि कसु्मभै भुली ॥ तउ सजण की मै कीम न पउदी हउ तुधु बिनु अढु न लहदी ॥१॥ {पन्ना 963}

पद्अर्थ: रंगि कसुंभै = कसुंभ के रंग में (कुसंभ के फूल का रंग खासा गाढ़ा व शौख़ होता है, पर दो-चार दिन में ही खराब हो जाता है; इसी तरह माया के भोग भी बड़े मन-मोहक होते हैं, पर रहते चार दिन ही हैं)। अढु = आधी दमड़ी। न लहदी = मैं नहीं लेती। तउ की = तेरी। कीम = कीमत, कद्र।

अर्थ: हे नानक जी! मैं कुसंभ (जैसी माया) के रंग में गलती कर बैठी और प्यारा मित्र प्रभू बिसार के गवा बैठी।

हे सज्जन प्रभू! (इस गलती के कारण) मुझसे तेरी कद्र ना हो सकी, पर तेरे बगैर मैं आधी कौड़ी की भी नहीं हूँ।1।

मः ५ ॥ ससु विराइणि नानक जीउ ससुरा वादी जेठो पउ पउ लूहै ॥ हभे भसु पुणेदे वतनु जा मै सजणु तूहै ॥२॥ {पन्ना 963}

पद्अर्थ: ससु = अविद्या। विराइणि = वैरनि। ससुरा = ससुर, देह अध्यास, शरीर से प्यार। वादी = झगड़ालू, शरीर के पालने के लिए बार बार माँगने वाला। जेठ = जमराज, मौत का डर। पउ पउ = बार बार (आसा कबीर जी: 'सासु की दुखी ससुर की पिआरी जेठि के नामि डरउ रे' भाव, माया के हाथों दुखी हूँ, फिर भी शरीर से प्यार होने के कारण मरने को चिक्त नहीं करता, जम से डर लगता है)। हभे = सारे ही। भसु = राख। पुणेदे वतनु = छानते फिरें, बेशक जोर लगा लें। (वतनु = हुकमी भविष्यत काल, imperative mood, अन्न पुरख, Third person, बहुवचन, Plural; देखें 'गुरबाणी व्याकरण')। लूहै = जलाता है, दुखी करता है। मै = मेरा।

अर्थ: हे नानक जी! अविद्या (जीव-स्त्री की) वैरनि है, शरीर का मोह (शरीर की पालना के लिए नित्य) झगड़ा करता है (भाव, खाने को माँगता है), मौत का डर बार-बार दुखी करता है। पर, (हे प्रभू!) अगर तू मेरा मित्र बने, तो ये सारे बेशक ख़ाक छानते फिरें (भाव मेरे पर ये सारे कोई प्रभाव नहीं डाल सकते)।2।

पउड़ी ॥ जिसु तू वुठा चिति तिसु दरदु निवारणो ॥ जिसु तू वुठा चिति तिसु कदे न हारणो ॥ जिसु मिलिआ पूरा गुरू सु सरपर तारणो ॥ जिस नो लाए सचि तिसु सचु सम्हालणो ॥ जिसु आइआ हथि निधानु सु रहिआ भालणो ॥ जिस नो इको रंगु भगतु सो जानणो ॥ ओहु सभना की रेणु बिरही चारणो ॥ सभि तेरे चोज विडाण सभु तेरा कारणो ॥१३॥ {पन्ना 963}

पद्अर्थ: वुठा = आ बसा। चिति = चिक्त में। जिसु चिति = जिस (मनुष्य) के चिक्त में। निवारणो = (तू) दूर कर देता है। सरपर = अवश्य। सचि = सच में, सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में। जिसु हथि = जिसके हाथ में। निधानु = नाम खजाना। रहिआ = हट जाता है। रेणु = चरणों की धूड़। बिरही = प्रेमी। चारणो = (प्रभू के) चरणों का। सभि = सारे। विडाण = आश्चर्य। कारणो = खेल। चोज = तमाशे।

अर्थ: हे प्रभू! जिस मनुष्य के मन में तू बस जाता है उसके मन का दुख दर्द तू दूर कर देता है, वह मानस जन्म की बाजी कभी हारता नहीं।

(हे भाई!) जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल जाए, (गुरू) उसको जरूर (संसार समुंद्र से) बचा लेता है (क्योंकि गुरू) जिस मनुष्य को सच्चे हरी में जोड़ता है, वह सदा हरी को (अपने मन में) संभाल के रखता है।

(हे भाई!) जिस मनुष्य के हाथ में नाम-खजाना आ जाता है, वह माया की भटकना से हट जाता है। उसी मनुष्य को भगत समझो जिसके मन में (माया की जगह) एक प्रभू का ही प्यार है, प्रभू के चरणों का वह प्रेमी सबके चरणों की धूल (बना रहता) है।

(पर) हे प्रभू! ये सारे तेरे ही आश्चर्य तमाशे हैं, ये सारा तेरा ही खेल है।13।

सलोक मः ५ ॥ उसतति निंदा नानक जी मै हभ वञाई छोड़िआ हभु किझु तिआगी ॥ हभे साक कूड़ावे डिठे तउ पलै तैडै लागी ॥१॥ {पन्ना 963}

पद्अर्थ: उसतति = वडिआई। हभु = सब कुछ। वञाई = (वंजाई) छोड़ दी है। कूड़ावे = झूठे। तेडै पलै = तेरे पल्ले। तउ = इस लिए।

अर्थ: हे नानक! (कह- हे प्रभू) जी! किसी को अच्छा और किसी को बुरा कहना -ये सब कुछ मैंने छोड़ दिया है, त्याग दिया है; मैंने देख लिया है कि (दुनिया के) सारे संबंध झूठे हैं (भाव, कोई सिरे तक निभने वाला नहीं), इसलिए (हे प्रभू!) मैं तेरे पल्ले आ लगी हूँ।1।

मः ५ ॥ फिरदी फिरदी नानक जीउ हउ फावी थीई बहुतु दिसावर पंधा ॥ ता हउ सुखि सुखाली सुती जा गुर मिलि सजणु मै लधा ॥२॥ {पन्ना 963}

पद्अर्थ: हउ = मैं। फावी = व्याकुल। थीई = हे गई। दिसावर = (देश+अवर) और और देश। दिसावर पंधा = और और देशों के रास्ते। सुखि = सुख से। ता = तब। गुर मिलि = गुरू को मिल के। जा = जब। सुखाली = आसान।

अर्थ: हे नानक जी! मैं भटकती-भटकती व और और देशों में दर-ब-दर फिरती व्याकुल हो गई थी, पर जब सतिगुरू को मिल के मुझे सज्जन-प्रभू मिल गया तो मैं बड़े सुख से सो गई (भाव, मेरे अंदर पूर्ण आत्मिक आनंद बन गया)।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh