श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 964 पउड़ी ॥ सभे दुख संताप जां तुधहु भुलीऐ ॥ जे कीचनि लख उपाव तां कही न घुलीऐ ॥ जिस नो विसरै नाउ सु निरधनु कांढीऐ ॥ जिस नो विसरै नाउ सु जोनी हांढीऐ ॥ जिसु खसमु न आवै चिति तिसु जमु डंडु दे ॥ जिसु खसमु न आवी चिति रोगी से गणे ॥ जिसु खसमु न आवी चिति सु खरो अहंकारीआ ॥ सोई दुहेला जगि जिनि नाउ विसारीआ ॥१४॥ {पन्ना 964} पद्अर्थ: संताप = मन के कलेश। भुलीअै = भटक जाएं। कीचनि = किए जाएं। घुलीअै = छूटते हैं। कही न = किसी भी उपाय से नहीं। कांढीअै = कहा जाता है। हांढीअै = भटकता है। जिसु चिति = जिस (मनुष्य) के चिक्त में। दे = देता है। डंडु = सजा। गणे = गिने जाते हैं। से = वह बँदे। खरो = बहुत। दुहेला = दुखी। जगि = जगत में। जिनि = जिस ने। अर्थ: जब हे प्रभू! तेरी याद से टूट जाएं तो (मन को) सारे दुख-कलेश (आ व्यापते हैं)। (तेरी याद के बिना और) अगर लाखों यतन भी किए जायं, किसी भी उपाय से (उन दुखों-कलेशों से) खलासी नहीं होती। (हे भाई!) जिस मनुष्य को प्रभू का नाम (सिमरना) भूल जाए वह कंगाल कहा जाता है (जैसे कोई कंगाल मंगता दर-दर पर भटकता है, वैसे ही) वह जूनियों में भटकता फिरता है। जिस मनुष्य के चिक्त में पति-प्रभू नहीं आता उसको जमराज सजा देता है (क्योंकि) ऐसे लोग रोगी गिने जाते हैं, ऐसा सख्श बहुत अहंकारी होता है (हर वक्त 'मैं मैं' ही करता है)। जिस मनुष्य ने प्रभू का नाम भुला दिया है वही जगत में दुखी है।14। सलोक मः ५ ॥ तैडी बंदसि मै कोइ न डिठा तू नानक मनि भाणा ॥ घोलि घुमाई तिसु मित्र विचोले जै मिलि कंतु पछाणा ॥१॥ {पन्ना 964} पद्अर्थ: तैडी = तेरी। बंदसि = बंदिश, मन की स्वतंत्रता के रास्ते में रुकावट। तूं = तुझे। मनि भाणा = मन में प्यारा लगने वाला। विचोला = वकील, बीच में पड़ के मिलाने वाला। जै मिलि = जिसको मिल के। कंतु = पति। अर्थ: हे (गुरू) नानक (जी)! तेरी कोई बात मुझे बंदिश नहीं लगती, मैं तो तुझे (बल्कि) मन में प्यारा लगने वाला देखा है। मैं उस प्यारे बिचोलिए (गुरू) से सदके हूँ जिसको मिल के मैंने अपने पति-प्रभू को पहचाना है (पति-प्रभू के साथ सांझ डाल ली है)।1। मः ५ ॥ पाव सुहावे जां तउ धिरि जुलदे सीसु सुहावा चरणी ॥ मुखु सुहावा जां तउ जसु गावै जीउ पइआ तउ सरणी ॥२॥ {पन्ना 964} पद्अर्थ: पाव = पैर। सुहावै = सुंदर लगे। तउ धिरि = तेरी तरफ। जुलदे = चलते। जीउ = जिंद। तउ = तेरा। जसु = यश, सिफतसालाह के गीत। (नोट: इस दूसरे शलोक को जरा ध्यान से समझने पर उपरोक्त शलोक के शब्द 'बंदसि' का भाव स्पष्ट हो जाता है- तेरी ओर आना, तेरे बताए राह पर चलना मुझे कोई बंधन नहीं प्रतीत होता, बल्कि वह पैर सुंदर जो तेरी ओर आते हैं, वह सिर सोहाना जो तेरे चरणों पर गिरता है)। अर्थ: वह पैर सुंदर हैं जो तेरी ओर चलते हैं, वह सिर भाग्यशाली है जो तेरे कदमों पर गिरता है; मुँह मन-मोहक लगता है जो तेरा यश गाता है, जीवात्मा खूबसूरत लगने लगती है जब तेरी शरण पड़ती है।2। पउड़ी ॥ मिलि नारी सतसंगि मंगलु गावीआ ॥ घर का होआ बंधानु बहुड़ि न धावीआ ॥ बिनठी दुरमति दुरतु सोइ कूड़ावीआ ॥ सीलवंति परधानि रिदै सचावीआ ॥ अंतरि बाहरि इकु इक रीतावीआ ॥ मनि दरसन की पिआस चरण दासावीआ ॥ सोभा बणी सीगारु खसमि जां रावीआ ॥ मिलीआ आइ संजोगि जां तिसु भावीआ ॥१५॥ {पन्ना 964} पद्अर्थ: मिलि सतसंग = सत्संग में मिल के। नारी = (जिस) जीव स्त्री ने। मंगलु = सिफत सालाह का गीत। घर का = उस (नारी) के (शरीर-) घर का। बंधानु = बंधन, मर्यादा। बहुड़ि = दोबारा। न धावीआ = भटकती नहीं। बिनठी = नाश हो गई। दुरतु = पाप। सोइ कूड़ावीआ = कूड़ की सोय, नाशवंत पदार्थों की ललक (झाक)। सीलवंति = अच्छे स्वभाव वाली। परधानि = जानी मानी हुई। रिदै = हृदय में। सचावीआ = सच वाली। रीतावीआ = रीत, जीवन जुगति। दासावीआ = दासी। खसमि = पति ने। रावीआ = भोगी, अपने साथ मिलाई। संजोगि = (प्रभू की) संयोग सक्ता से। तिसु = उस (प्रभू) को। अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने सत्संग में मिल के प्रभू की सिफत-सालाह के गीत गाए, उसके शरीर घर का ठुक बन गया (उसकी सारी ज्ञान-इन्द्रियाँ उसके वश में आ गई), वह फिर (माया के पीछे) भटकती नहीं, (उसके अंदर से) बुरी मति पाप व नाशवंत पदार्थों की झाक खत्म हो जाती है। ऐसी जीव-स्त्री अच्छे स्वभाव वाली हो जाती है, (सहेलियों में) आदर-मान पाती है, उसके हृदय में प्रभू के प्रति लगन टिकी रहती है, उसको अपने अंदर व सारी सृष्टि में एक प्रभू ही दिखता है, बस! यही उसकी जीवन-जुगति बन जाती है। उस जीव-स्त्री के मन में प्रभू के दीदार की तमन्ना बनी रहती है, वह प्रभू के चरणों की ही दासी बनी रहती है। जब उस जीव-स्त्री को पति-प्रभू ने अपने साथ मिला लिया, तो ये मिलाप ही उसके लिए शोभा और श्रृंगार होता है! जब उस प्रभू को वह जिंद-वधू प्यारी लग जाती है, तो प्रभू की संयोग-सक्ता की बरकति से वह प्रभू की ज्योति में मिल जाती है।15। सलोक मः ५ ॥ हभि गुण तैडे नानक जीउ मै कू थीए मै निरगुण ते किआ होवै ॥ तउ जेवडु दातारु न कोई जाचकु सदा जाचोवै ॥१॥ {पन्ना 964} पद्अर्थ: हभि = सारे। जीउ = हे प्रभू जी! मै कू = मुझे। थीऐ = मिले हैं। किआ होवै = कुछ नहीं हो सकता। तउ जेवडु = तेरे जितना। जाचकु = मंगता। जाचोवै = माँगता है। अर्थ: हे नानक! (कह- हे प्रभू) जी! सारे गुण तेरे ही हैं, तुझसे ही मुझे मिले हैं, मुझ गुण-हीन से कुछ नहीं हो सकता, तेरे जितना बड़ा कोई दातार नहीं है, मैं मँगते ने सदा तुझसे ही माँगना है।1। मः ५ ॥ देह छिजंदड़ी ऊण मझूणा गुरि सजणि जीउ धराइआ ॥ हभे सुख सुहेलड़ा सुता जिता जगु सबाइआ ॥२॥ {पन्ना 964} पद्अर्थ: देह = शरीर। छिजंदड़ी = छिज गई, जर्जर हो गई। ऊणम = ऊनी, खाली। झूणा = उदास। गुरि = गुरू ने। सजणि = सज्जन ने। जीउ = जिंद। धराइआ = धरवास दिया। सुहेलड़ा = आसान। जिता = जीत लिया। सबाइआ = पूरा, सारा। अर्थ: मेरा शरीर जर्जर होता जा रहा था, चिक्त में खिचाव सा हो रहा था और चिंतातुर हो रहा था; पर जब प्यारे सतिगुरू ने जीवात्मा को धरवास दिया तो (अब) सारे ही सुख मिल गए है, मैं सकून में टिका हुआ हूँ, (ऐसा प्रतीत होता है जैसे मैंने) सारा जहान जीत लिया है।2। पउड़ी ॥ वडा तेरा दरबारु सचा तुधु तखतु ॥ सिरि साहा पातिसाहु निहचलु चउरु छतु ॥ जो भावै पारब्रहम सोई सचु निआउ ॥ जे भावै पारब्रहम निथावे मिलै थाउ ॥ जो कीन्ही करतारि साई भली गल ॥ जिन्ही पछाता खसमु से दरगाह मल ॥ सही तेरा फुरमानु किनै न फेरीऐ ॥ कारण करण करीम कुदरति तेरीऐ ॥१६॥ {पन्ना 964} पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। सिरि = सिर पर। छतु = छत्र। निआउ = न्याय। करतारि = इश्वर ने। साई = वही। मल = पहलवान। दरगाह मल = दरगाह के पहलवान, हजूरी पहलवान। करीम = बख्शिश करने वाला। कारण करण = सृष्टि का कर्ता। अर्थ: हे प्रभू! तेरा दरबार बड़ा है, तेरा तख्त सदा स्थिर रहने वाला है, तेरा चवर और छत्र अटल है, तू (दुनिया के सारे) शाहों के सिर पर पातशाह है। (हे भाई!) वह न्याय अटल है जो परमात्मा को अच्छा लगता है, अगर उसे ठीक लगे तो निआसरों को आसरा मिल जाता है। (जीवों के लिए) वही बात ठीक है जो करतार ने (खुद उनके लिए) की है। जिन लोगों ने पति-प्रभू के साथ सांझ डाल ली, वह हजूरी पहलवान बन जाते हैं (कोई विकार उनको छू नहीं सकता)। हे प्रभू! तेरा हुकम (सदा) ठीक होता है, किसी जीव ने (कभी) वह मोड़ा नहीं। हे सृष्टि के रचयता! हे जीवों पर बख्शिश करने वाले! (ये सारी) तेरी ही (रची हुई) कुदरति है।16। सलोक मः ५ ॥ सोइ सुणंदड़ी मेरा तनु मनु मउला नामु जपंदड़ी लाली ॥ पंधि जुलंदड़ी मेरा अंदरु ठंढा गुर दरसनु देखि निहाली ॥१॥ {पन्ना 964} पद्अर्थ: सोइ = सोय, खबर, शोभा। मउला = हरा हो जाता है। पंधि = (तेरे) राह पर। जुलंदड़ी = चलते हुए। अंदरु = हृदय। देखि = देख के। निहाली = प्रसन्न हुई। अर्थ: (हे प्रभू!) तेरी शोभा सुन के मेरा तन मन हरा हो आता है, तेरा नाम जपते हुए मुझे खुशी की लाली चढ़ जाती है, तेरे राह पर चलते हुए मेरा हृदय ठंडा हो जाता है और सतिगुरू का दीदार करके मेरा मन खिल उठता है।1। मः ५ ॥ हठ मंझाहू मै माणकु लधा ॥ मुलि न घिधा मै कू सतिगुरि दिता ॥ ढूंढ वञाई थीआ थिता ॥ जनमु पदारथु नानक जिता ॥२॥ {पन्ना 964} पद्अर्थ: हठ = हृदय। मंझाहू = में। माणकु = लाल। घिधा = लिया। मैकू = मुझे। सतिगुरि = सतिगुरू ने। ढूँढ = तलाश, भटकना। वञाई = वंजाई, समाप्त कर दी है। थीआ थिता = टिक गया हूँ। पदारथु = कीमती चीज। अर्थ: मैंने अपने हृदय में एक लाल पाया है, (पर वह मैंने कोई) मोल दे के नहीं लिया, (ये लाल) मुझे सतिगुरू ने दिया है, (इसकी बरकति से) मेरी भटकना समाप्त हो गई है, मैं टिक गया हूँ, हे नानक! मैंने मानस जीवन-रूपी कीमती वस्तु (का लाभ) हासिल कर लिया है।2। पउड़ी ॥ जिस कै मसतकि करमु होइ सो सेवा लागा ॥ जिसु गुर मिलि कमलु प्रगासिआ सो अनदिनु जागा ॥ लगा रंगु चरणारबिंद सभु भ्रमु भउ भागा ॥ आतमु जिता गुरमती आगंजत पागा ॥ जिसहि धिआइआ पारब्रहमु सो कलि महि तागा ॥ साधू संगति निरमला अठसठि मजनागा ॥ जिसु प्रभु मिलिआ आपणा सो पुरखु सभागा ॥ नानक तिसु बलिहारणै जिसु एवड भागा ॥१७॥ {पन्ना 964-965} पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। करमु = बख्शिश, प्रभू की बख्शिश का लेखा। जिसु कमलु = जिसका हृदय कमल। अनदिनु = हर रोज, सदा। जागा = (विकारों की घात की ओर से) सचेत। चरणारबिंद = चरण +अरविंद। अरविंद = कमल का फूल। आगंजत = अविनाशी प्रभू। पागा = पा लेता है। जिसहि = जिस ही ने। तागा = मुकाबला करने योग्य। मजनागा = स्नान। अर्थ: जिस मनुष्य के माथे पर प्रभू की कृपा (के लेख) हों वह प्रभू की सेवा-भक्ति में लगता है। गुरू को मिल के जिस मनुष्य का हृदय-कमल खिल उठता है, वह (विकारों के हमलों से) सदा सचेत रहता है। जिस मनुष्य (के मन) में प्रभू के सुंदर चरणों का प्यार होता है, उसकी भटकना उसका डर-भय दूर हो जाता है, क्योंकि गुरू की मति ले के वह अपने मन को जीत लेता है, और उसको अविनाशी प्रभू मिल जाता है। जिस ही मनुष्य ने परमात्मा प्रभू को सिमरा है वह संसार में (विकारों का) मुकाबला करने के योग्य हो जाता है, गुरमुखों की संगति में उसका मन पवित्र हो जाता है, मानो, उसने अढ़सठ तीर्थों का स्नान करि लिया है। भाग्यशाली है वह मनुष्य जिसको प्यारा प्रभू मिल गया। हे नानक! (कह-) मैं सदके हूँ उस पर से जिसके इतने बड़े भाग्य हैं।17। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |