श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 965 सलोक मः ५ ॥ जां पिरु अंदरि तां धन बाहरि ॥ जां पिरु बाहरि तां धन माहरि ॥ बिनु नावै बहु फेर फिराहरि ॥ सतिगुरि संगि दिखाइआ जाहरि ॥ जन नानक सचे सचि समाहरि ॥१॥ {पन्ना 965} पद्अर्थ: पिरु = पति परमात्मा। अंदरि = हृदय में (प्रत्यक्ष)। धन = जीव स्त्री। बाहरि = निर्लिप (धंधों से)। जां पिरु बाहरि = जब पति प्रभू जीव स्त्री की याद से परे हो जाता है। माहरि = चौधराणी, धंधों में खचित। फेर = जन्मों के चक्कर, भटकना। सतिगुरि = गुरू ने। संगि = अंदर साथ ही। सचे सचि = निरोल सदा स्थिर हरी में। समाहरि = समाया रहता है, टिका रहता है। जाहरि = प्रत्यक्ष। अर्थ: जब पति-प्रभू जीव-स्त्री के हृदय में प्रत्यक्ष मौजूद हो, तो जीव-स्त्री मायावी धंधों झमेलों से निर्लिप रहती है। जब पति-प्रभू याद से दूर हो जाए, तो जीव-स्त्री मायावी-धंधों में खचित होने लग जाती है। प्रभू की याद के बिना जीव अनेकों भटकनों में भटकता है। हे दास नानक! जिस मनुष्य को गुरू ने हृदय में प्रत्यक्ष प्रभू दिखा दिया, वह सदा स्थिर प्रभू में ही टिका रहता है।1। मः ५ ॥ आहर सभि करदा फिरै आहरु इकु न होइ ॥ नानक जितु आहरि जगु उधरै विरला बूझै कोइ ॥२॥ {पन्ना 965} पद्अर्थ: सभि = सारे। इकु आहरु = एक प्रभू की याद करने का उद्यम। जितु आहरि = जिस प्रयास से, जिस उद्यम से। उधरै = (विकारों से) बचता है (उद्धार होता है)। (नोट: शब्द 'आहरु, आहर,आहरि; व्याकरण के अनुसार तीन विभिन्न रूप हैं)। अर्थ: हे नानक! मनुष्य अन्य सारे उद्यम करता फिरता है, पर एक प्रभू के सिमरन का प्रयास नहीं करता। जिस उद्यम से जगत विकारों से बच सकता है (उस उद्यम को) कोई विरला मनुष्य ही समझता है। पउड़ी ॥ वडी हू वडा अपारु तेरा मरतबा ॥ रंग परंग अनेक न जापन्हि करतबा ॥ जीआ अंदरि जीउ सभु किछु जाणला ॥ सभु किछु तेरै वसि तेरा घरु भला ॥ तेरै घरि आनंदु वधाई तुधु घरि ॥ माणु महता तेजु आपणा आपि जरि ॥ सरब कला भरपूरु दिसै जत कता ॥ नानक दासनि दासु तुधु आगै बिनवता ॥१८॥ {पन्ना 965} पद्अर्थ: अपारु = अ+पारु, जिसका परला छोर ना मिल सके। मरतबा = रुतबा। रंग परंग = रंग बिरंगे। न जापनि = समझे नहीं जा सकते। जीउ = जिंद, सहारा। जाणला = जानने वाला। वसि = वश में। भला = सोहना। घरि = घर में। तुधु घरि = तेरे घर में। वधाई = खुशियाँ, शादियाने। महता = महत्वता, वडिआई। तेजु = प्रताप। जरि = जरता है। कला = ताकत, सक्ता। जत कता = हर जगह। दासनि दासु = दासों का दास। अर्थ: हे प्रभू! तेरा बेअंत ही बड़ा रुतबा है, (संसार में) तेरे अनेकों ही किस्मों के करिश्मे हो रहे हैं जो समझे नहीं जा सकते। सब जीवों के अंदर तू ही जिंद-रूप है, तू (जीवों की) हरेक बात जानता है। सुंदर है तेरा ठिकाना, सारी सृष्टि तेरे ही वश में है। (इतनी सृष्टि का मालिक होते हुए भी) तेरे हृदय में सदा आनंद और खुशियाँ हैं, तू अपने इतने बड़े मान-सम्मान के प्रताप को खुद ही जरता है (सहता है)। (हे भाई!) सारी ताकतों का मालिक प्रभू हर जगह दिख रहा है। हे प्रभू! नानक तेरे दासों का दास तेरे आगे (ही) अरदास विनती करता है।18। सलोक मः ५ ॥ छतड़े बाजार सोहनि विचि वपारीए ॥ वखरु हिकु अपारु नानक खटे सो धणी ॥१॥ {पन्ना 965} पद्अर्थ: छतड़े = (आकाश छत से) छते हुए। बाजार = सारा जगत मण्डल (मानो, बाजार है)। विचि = इन जगत मण्डलों में। वपारीऐ = प्रभू नाम का व्यापार करने वाले। वखरु = प्रभू नाम का सौदा। हिकु = एक। धणी = धनाढ, धनवंत। अपारु = कभी ना खत्म होने वाला। अर्थ: (इसके ऊपर दिखते आकाश छत के नीचे) छता हुआ (बेअंत जगत-मण्डल, जैसे) बाजार हैं, इनमें (प्रभू के नाम का व्यापार करने वाले जीव-) व्यापारी ही खूबसूरत लगते हैं। हे नानक! (इस जगत-मण्डल में) वह मनुष्य धनवान हैं जो एक अखुट हरी-नाम का सौदा ही कमाता है।1। महला ५ ॥ कबीरा हमरा को नही हम किस हू के नाहि ॥ जिनि इहु रचनु रचाइआ तिस ही माहि समाहि ॥२॥ {पन्ना 965} नोट: ये शलोक गुरू अरजन देव जी का है। देखें शलोक नं: 214 'सलोक कबीर जी के'। कबीर जी के निम्नलिखित सलोक नंबर 212, 213 के प्रथाय है: नामा माइआ मोहिआ, कहै तिलोचनु मीतु॥ जो उक्तर नामदेव जी ने त्रिलोचन जी को दिया था, उसका हवाला दे कर कबीर जी इन शलोकों में कहते हैं कि दुनिया की किरत-कार नहीं छोड़नी, ये करते हुए ही हमने अपना चिक्त इससे अलग रखना है। सलोक नं:214 में गुरू अरजन साहिब ने ये बताया है कि साक-संबंधियों में रहते हुए और माया में विचरते हुए हर वक्त ये याद रखना है कि ये सब कुछ यहाँ सिर्फ चार दिन के साथी हैं, असल साथी परमात्मा का नाम है और किरत-कार करते हुए उसको भी हर वक्त याद रखना है। नोट: ये शलोक सतिगुरू जी ने कबीर जी के शलोक नं:212 और 213 के प्रथाय लिखा है, इस वास्ते इसमें नाम 'नानक' की जगह 'कबीर' बरता है। अर्थ: हे कबीर! जिस परमात्मा ने ये रचना रची है, हम तो उसी की याद में टिके रहते हैं, क्योंकि ना कोई हमारा ही सदा का साथी है, और ना ही हम ही सदा के लिए साथी बन सकते हैं (बेड़ी की यात्रा का मेला है)।2। देखें मेरा 'सटीक शलोक भगत कबीर जी'। पउड़ी ॥ सफलिउ बिरखु सुहावड़ा हरि सफल अम्रिता ॥ मनु लोचै उन्ह मिलण कउ किउ वंञै घिता ॥ वरना चिहना बाहरा ओहु अगमु अजिता ॥ ओहु पिआरा जीअ का जो खोल्है भिता ॥ सेवा करी तुसाड़ीआ मै दसिहु मिता ॥ कुरबाणी वंञा वारणै बले बलि किता ॥ दसनि संत पिआरिआ सुणहु लाइ चिता ॥ जिसु लिखिआ नानक दास तिसु नाउ अम्रितु सतिगुरि दिता ॥१९॥ {पन्ना 965} पद्अर्थ: सफलिउ = फल वाला, जो हरेक के मेहनत को फल लगाए। सुहावड़ा = सोहाना। घिता वंञै = लिया जा सके। वरन = रंग। चिहन = निशान। अगम = अपहुँच। जीअ का = जिंद का। भिता = भेद। करी = मैं करूँ। मै = मुझे। मिता = हे मित्र! बले बलि = बलिहार। किता = किया। दसनि = बताते हैं। सतिगुरि = सतिगुरू ने। अंमित = आत्मिक जीवन देने वाले। अर्थ: परमात्मा (जैसे) एक खूबसूरत फलदार वृक्ष है जिस पर आत्मिक जीवन देने वाले फल लगे हुए हैं। मेरा मन उस प्रभू को मिलने के लिए तड़पता है (पर पता नहीं लगता कि) कैसे मिला जाए क्योंकि ना उसका कोई रंग है ना निशान, उस तक पहॅु। चा नहीं जा सकता, उसको जीता नहीं जा सकता। जो सज्जन, (मुझे) ये भेद समझा दे, वह मेरी जिंद-जान को प्यारा लगेगा। हे मित्र! मुझे (यह भेद) बताओ, मैं तुम्हारी सेवा करूँगा, मैं तुमसे सदके कुर्बान वारने जाऊँगा। प्यारे संत (गुरसिख वह भेद) बताते हैं (और कहते हैं कि) ध्यान से सुन- हे दास नानक! जिसके माथे पर लेख लिखा (उघड़ता) है उसको सतिगुरू ने प्रभू का आत्मिक जीवन देने वाला नाम बख्शा है।19। सलोक महला ५ ॥ कबीर धरती साध की तसकर बैसहि गाहि ॥ धरती भारि न बिआपई उन कउ लाहू लाहि ॥१॥ महला ५ ॥ कबीर चावल कारणे तुख कउ मुहली लाइ ॥ संगि कुसंगी बैसते तब पूछे धरम राइ ॥२॥ {पन्ना 965} नोट: ये दोनों शलोक 'कबीर जी के सलोक संग्रह' में नं: 210 और 211 में दर्ज हैं। कबीर जी के शलोक नं: 208 के प्रथाय गुरू अरजन साहिब के 3 सलोक हैं- 208, 210 और 211। कबीर जी का शलोक इस प्रकार है; कबीर टालै टोलै दिनु गइआ, विआजु बढंतउ जाइ॥ इस शलोक के साथ गुरू अरजन देव जी का शलोक नं:208 इस प्रकार है; कबीर कूकरु भउकना, करंग पिछै उठि धाइ॥ शलोक नं: 207 में कबीर जी ने कहा था कि जिनको गुरू मिल जाता है उनको वह विकारों और आशाओं के चक्कर से निकाल लेता है। नं: 208 में कहते हैं कि जिनको गुरू नहीं मिलता, वे हरी का सिमरन नहीं कर सकते, और ना ही विकारों और आशाओं से उनकी मुक्ति हो सकती है। कबीर जी के इसी विचार को गुरू अरजन साहिब और खुलासा करते हैं कि गुरू के बिना ये जीव टाल-मटोल करने पर मजबूर है क्योंकि इसका स्वभाव कुत्ते जैसा है, इसकी फितरत ही ऐसे है कि हर वक्त मुर्दे के पीछे दौड़ता फिरे। सलोक नं: 209 वाले ही विचार को जारी रख के 210 में कहते हैं कि विकारी लोगों का जोर गुरू और गुरू-संगति पर नहीं पड़ सकता, क्योंकि गुरू महान ऊँचा है। पर हाँ, गुरू और उसकी संगति की बरकति से विकारियों को अवश्य लाभ पहुँचता है। 'साध की धरती' और 'तस्कर' का उदाहरण दे के कहते हैं कि 'तस्करों' का असर 'धरती' पर नहीं पड़ सकता। क्यों? क्योंकि 'धरती' का भार 'तस्करों' के भार से बहुत ज्यादा है। अगर भलाई वाला पासा तगड़ा हो, तो वहाँ विकारीलोग भी आ के भलाई की तरफ पलट पड़ते हैं। नं: 211 में 'चावल' और 'तुख' (छिलका) की मिसाल है। वनज में 'चावल' भारा है। 'तुख' हल्का है। कमजोर होने के कारण 'तुख' मार खाता है। इसी तरह विकारियों के तगड़े समूह में यदि कोई साधारण सा मनुष्य (चाहे वह भला ही हो, पर उनके मुकाबले में कमजोर दिल हो) बैठना शुरू कर दे; तो वह भी उसी स्वभाव का बन के विकारों की मार खाता है। पद्अर्थ: धरती साध की = सतिगुरू की धरती, सतिगुरू की संगति। तसकर = चोर, विकारी लोग। बैसहि = आ बैठते हैं, अगर आ के बैठें। गाहि = गहि, पकड़ के, सिदक से, और विचार त्याग के। भारि = भार से, भार तले, तस्करों के भार के नीचे। न बिआपई = दबती नहीं, असर तले नहीं आती। उन कउ = उन (तस्करों) को। लाहू = लाहा ही, लाभ ही (मिलता है)। लाहि = लहहिं, लेते हैं, वे विकारी बल्कि लाभ ही उठाते हैं।1। तुख = तोह, चावलों के छिलके। लाइ = लाय, लगती है, बजती है।2। अर्थ: हे कबीर! अगर विकारी मनुष्य (सौभाग्यवश) और ताक छोड़ के सतिगुरू की संगति में आ के बैठें, तो विकारियों का असर उस संगत पर नहीं पड़ता। हाँ, विकारी लोगों को अवश्य लाभ पहुँचता है, वे विकारी व्यक्ति जरूर लाभ उठाते हैं।1। हे कबीर! (तोख से) चावल (अलग करने) के लिए (छाँटने वक्त) तोखों को मोहली (की चोट) बजती है। इसी तरह जो मनुष्य विकारियों की सोहबत में बैठता है (वह भी विकारों की मार खाता है, विकार करने लग जाता है) उससे धर्मराज लेखा माँगता है।2। पउड़ी ॥ आपे ही वड परवारु आपि इकातीआ ॥ आपणी कीमति आपि आपे ही जातीआ ॥ सभु किछु आपे आपि आपि उपंनिआ ॥ आपणा कीता आपि आपि वरंनिआ ॥ धंनु सु तेरा थानु जिथै तू वुठा ॥ धंनु सु तेरे भगत जिन्ही सचु तूं डिठा ॥ जिस नो तेरी दइआ सलाहे सोइ तुधु ॥ जिसु गुर भेटे नानक निरमल सोई सुधु ॥२०॥ {पन्ना 965} पद्अर्थ: वड परवारु = (जगत रूप) बड़े परिवार वाला। इकातीआ = एकांत में रहने वाला, अकेला रहने वाला। जातीआ = जाणी। उपंनीआ = पैदा हुआ, दिखते रूप में आया। वरंनिआ = वर्णन किया। वुठा = बसा। तूं डिठा = तुझे देखा। भेटै = मिले। सुधु = पवित्र। जिस नो: शब्द 'जिसु' का 'ु' संबंधक 'नो' के कारण उड़ गया है। अर्थ: हे प्रभू! तू खुद ही (जगत रूप) बड़े परिवार वाला है, और (इससे निर्लिप) अकेला रहने वाला भी है। अपनी बुजुर्गी की कद्र बनाने वाला भी तू स्वयं ही है, और कद्र जानने वाला भी तू खुद ही है। ये सारा जगत तेरा अपना ही (सरगुण) रूप है, और ये तुझसे ही इस दिखाई देते रूप में आया है, इस सारे पैदा किए हुए जगत को रंग-रूप देने वाला भी तू खुद ही है। वह स्थान भाग्यशाली है जहाँ, हे प्रभू! तू बसता है, तेरे वह भक्त भाग्यशाली हैं जिन्होंने तेरा दीदार किया है। वही सख्श तेरी सिफत सालाह कर सकता है जिस पर तेरी मेहर होती है। हे नानक! (प्रभू की मेहर से) जिसको गुरू मिल जाए, वह शुद्ध पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है।20। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |