श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ५ ॥ फरीदा भूमि रंगावली मंझि विसूला बागु ॥ जो नर पीरि निवाजिआ तिन्हा अंच न लाग ॥१॥ मः ५ ॥ फरीदा उमर सुहावड़ी संगि सुवंनड़ी देह ॥ विरले केई पाईअन्हि जिन्हा पिआरे नेह ॥२॥ {पन्ना 966}

नोट: ये दोनों शलोक गुरू अरजन देव जी के हैं। फरीद जी के शलोक संग्रह में नं: 825 और 83 हैं। ये दोनों शलोक फरीद जी के शलोक नं:81 के प्रथाय हैं, जो इस प्रकार हैं;

फरीदा मै जानिआ दुखु मुझ कू, दुखु सबाइअै जगि॥
ऊचै चढ़ि कै देखिआ, तां घरि घरि ऐहा अगि॥८१॥

फरीद जी शलोक नं: 74 में मन के 'टोऐ टिबे' बता के शलोक नं:81 में उन 'टोऐ टिबों' का असर बयान करते हैं कि इनके कारण सारे जगत में दुख ही दुख फैला हुआ है। पर इस बात की समझ उसको पड़ती है जो खुद मन के 'टोए टिब्बों' से ऊँचा होता है।

गुरू अरजन देव जी अपने दो शलोकों में लिखते हैं कि वही विरले लोग दुखों की मार से बचे हुए हैं जो गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा को याद करते हैं।

पद्अर्थ: भूमि = धरती। रंगावली = रंग+आवली। आवली = कतार, सिलसिला। रंगा = आनंद। रंगावली = सुंदर। मंझि = (इस) में। विसूला = विष भरा, विहुला।1।

सुहावड़ी = सुहावनी, सुख भरी। संगि = (उम्र के) साथ। सुवंन = सुंदर रंग। सुवंनड़ी = सुंदर रंग वाली। देह = शरीर। पाईअनि् = पाए जाते हैं, मिलते हैं। नेह = प्यार।

अर्थ: हे फरीद! (ये) धरती (तो) सुहावनी है (पर मनुष्य के मन के टोए-टिब्बों के कारण इस) में विषौला बाग़ (लगा हुआ) है (जिसमें दुखों की आग जल रही है)। जिस जिस मनुष्य को सतिगुरू ने महान बना दिया है (ऊँचा किया है), उनको (दुख-अग्नि का) सेक नहीं लग सकता।1।

हे फरीद! (उन लोगों की) जिंदगी आसान है और शरीर भी सुंदर रंग वाला (भाव, रोग-रहित) है जिनका प्यार प्यारे परमात्मा के साथ है ('विसूला बाग' और 'दुख-अगनी' उनको नहीं छूते, पर ऐसे लोग) कोई विरले ही मिलते हैं।2।

पउड़ी ॥ जपु तपु संजमु दइआ धरमु जिसु देहि सु पाए ॥ जिसु बुझाइहि अगनि आपि सो नामु धिआए ॥ अंतरजामी अगम पुरखु इक द्रिसटि दिखाए ॥ साधसंगति कै आसरै प्रभ सिउ रंगु लाए ॥ अउगण कटि मुखु उजला हरि नामि तराए ॥ जनम मरण भउ कटिओनु फिरि जोनि न पाए ॥ अंध कूप ते काढिअनु लड़ु आपि फड़ाए ॥ नानक बखसि मिलाइअनु रखे गलि लाए ॥२१॥ {पन्ना 966}

पद्अर्थ: देहि = तू देवे। बुझाइहि = तू मिटा देवे। जिसु अगनि = जिस (मनुष्य) की तृष्णा आग। रंगु = प्यार। सिउ = साथ। कटि = काट के। नामि = नाम से। कटिओनु = उस (प्रभू) ने काट दिया। अंध कूप = अंधा कूँआ, वह कूआँ जिसमें अज्ञानता का अंधेरा ही अंधेरा है। काढिअनु = उस (प्रभू) ने निकाल लिए। लड़ु = पल्ला। बखसि = बख्श के, मेहर करके। मिलाइअनु = उसने मिला लिए। गलि = गले से।

अर्थ: हे प्रभू! जिस मनुष्य को तू (नाम की दाति) देता है वह (मानो) जप तप संजम दया और धर्म प्राप्त कर लेता है (पर) तेरा नाम वही सिमरता है जिसकी तृष्णा की अग्नि को तू खुद बुझाता है।

घट-घट की जानने वाला अपहुँच व्यापक प्रभू जिस मनुष्य की ओर मेहर की एक निगाह करता है, वह सत्संग के आसरे रह के परमात्मा के साथ प्यार डाल लेता है। परमात्मा उसके सारे अवगुण काट के उसको सुर्खरू करता है और अपने नाम के द्वारा (संसार-समुंद्र से) पार लंघा देता है। उस (परमात्मा) ने उस मनुष्य का जनम-मरण का डर दूर कर दिया है, और उसको फिर जनम-मरण के चक्कर में नहीं डालता।

प्रभू ने जिनको अपना पल्ला पकड़ाया है, उनको (माया के मोह के) घोर अंधेरे भरे कूएँ से (बाहर) निकाल लिया है। हे नानक! प्रभू ने उन पर मेहर करके अपने साथ मिला लिया है, अपने गले से लगा लिया है।21।

सलोक मः ५ ॥ मुहबति जिसु खुदाइ दी रता रंगि चलूलि ॥ नानक विरले पाईअहि तिसु जन कीम न मूलि ॥१॥ {पन्ना 966}

पद्अर्थ: मुहबति = प्यार। रंगि = रंग में। चलुलि = गाढ़े लाल रंग में। चलूल = गाढ़ा लाल। पाईअहि = मिलते हैं। कीम = कीमत। न मूलि = बिल्कुल नहीं।

अर्थ: जिस मनुष्य को रॅब का प्यार (प्राप्त हो जाता है), और वह (उसके प्यार के) गाढ़े रंग में रंगा जाता है, उस मनुष्य की कीमत नहीं आँकी जा सकती। पर, हे नानक! ऐसे व्यक्ति विरले ही मिलते हैं।1।

मः ५ ॥ अंदरु विधा सचि नाइ बाहरि भी सचु डिठोमि ॥ नानक रविआ हभ थाइ वणि त्रिणि त्रिभवणि रोमि ॥२॥ {पन्ना 966}

पद्अर्थ: अंदरु = अंदरूनी, हृदय। सचि = सच में। नाइ = नाय, नाम में। डिठोमि = मैंने देखा। रविआ = व्यापक। हभ थाइ = हरेक जगह में। वणि = वन में। त्रिणि = तृण में। त्रिभवणि = त्रिभवन में। रोमि = रोम रोम में।

अर्थ: जब मेरा अंदरला (भाव, मन) सच्चे नाम में भेदा गया, तब मैंने बाहर भी उस सदा स्थिर प्रभू को देख लिया। हे नानक! (अब मुझे ऐसे दिखता है कि) परमात्मा हरेक जगह मौजूद है, हरेक वन में, हरेक तीले में, सारे ही त्रिभवन, संसार में, रोम-रोम में।2।

पउड़ी ॥ आपे कीतो रचनु आपे ही रतिआ ॥ आपे होइओ इकु आपे बहु भतिआ ॥ आपे सभना मंझि आपे बाहरा ॥ आपे जाणहि दूरि आपे ही जाहरा ॥ आपे होवहि गुपतु आपे परगटीऐ ॥ कीमति किसै न पाइ तेरी थटीऐ ॥ गहिर ग्मभीरु अथाहु अपारु अगणतु तूं ॥ नानक वरतै इकु इको इकु तूं ॥२२॥१॥२॥ सुधु ॥ {पन्ना 966}

पद्अर्थ: कीतो रचनु = जगत रचना रची। रतिआ = (रचना में) मिला हुआ है। इकु = निराकार रूप स्वयं ही स्वयं। बहु भतिआ = सरगुण रूप में अनेकों रंगों रूपों वाला। मंझि = में। जाणहि = तू जानता है। दूरि = रची हुई रचना से अलग। तेरी थटीअै = तेरी कुदरति की। अगणतु = जिसके गुण गिने ना जा सकें।

अर्थ: ये जगत-रचना प्रभू ने स्वयं ही रची है, और स्वयं ही इसमें मिला हुआ है। (कभी रचना को समेट के) एक स्वयं ही स्वयं हो जाता है, कभी अनेकों रंगों-रूपों वाला बन जाता है। प्रभू स्वयं ही सारे जीवों में मौजूद है, और निर्लिप भी स्वयं ही है।

हे प्रभू! तू खुद ही अपने आप को रचना से अलग जानता है, और खुद ही हर जगह हाजर-नाजर है। तू स्वयं ही छुपा हुआ है, और प्रकट भी स्वयं ही है। तेरी इस रचना का मूल्य किसी ने नहीं पाया। तू गंभीर है, तेरी थाह नहीं पड़ सकती, तू बेअंत है, तेरे गुण गिने नहीं जा सकते।

हे नानक! हर जगह एक प्रभू ही मौजूद है। हे प्रभू! एक तू ही तू है।22। सुधु।


रामकली की वार राइ (राय) बलवंड तथा सतै डूमि आखी
सॅते बलवंड की वार

'वार' किस को कहते हैं?

अन्य अनेकों पंजाबी शब्दों की तरह शब्द 'वार' भी संस्कृत बोली में से अपने असली रूप में ही पंजाबी बोली में शामिल चला आ रहा है। संस्कृत में इस शब्द के कई अर्थ हैं, पंजाबी में भी कई अर्थों में इसका प्रयोग होता है।

पंजाबी साहित्य में 'वार' उस कविता को कहते हैं जिसमें किसी शूरवीर की रणभूमि में दिखाई गई वीरता के किसी कर्तव्य का वर्णन किया गया हो। 'वार' में किसी व्यक्ति का सारा जीवन चित्रण नहीं किया जाता, जीवन में से एक विशेष झाकी दिखाई जाती है।

योद्धाओं की 'वारें' गाने का रिवाज:

गाँवों में 'जागरे' व 'जगराते' की बहुत पुरानी रीति चली आ रही है। ये 'जागरा' आम तौर पर देवी के वार पर किया जाता है। 'वारों' के गवईए ज्यादातर झिऊर बिरादरी में ही मिलते हैं। सारी रात जागने के कारण इसका नाम 'जागर' है। 'जागरा' आरम्भ करने के वक्त पहले देवी की उपमा में भजन गाए जाते हैं, फिर आम तौर पर कौरवों-पाँडवों के युद्ध की वार अथवा श्री रामचंद्र जी और रावण के युद्ध की वार गाते हैं। इन वारों के माध्यम से गाँवों के अनपढ़ स्त्री-मर्दों में भी हिन्दू धर्म का प्रभाव जीवित टिका रहता है, बच्चों को भी अपने उन बुर्जुगों के नाम और कारनामे याद रहते हैं। गाँवों के वाशिंदे जानते हैं कि 'जागरे' वाली रात कैसे बच्चे से लेकर बुर्जुग तक हरेक ग्रामवासी के अंदर उत्साह रहता है। लाखों रुपए खर्च के भी गाँवों में उतना धर्म प्रचार नहीं किया जा सकता, जितना ये गरीब झिउर ढाढी पैंच थोड़े से खर्च से करते रहते हैं।

गुरू नानक देव जी की 'वारें':

सतिगुरू नानक देव जी ने युद्धों में होती इन्सानी काट-मार सुनने की लोगों की इस रुची को परमात्मा और ख़लकत के प्यार की ओर पलटने के लिए तीन 'वारें' लिखीं, जो अब गुरू ग्रंथ साहिब के राग मल्हार, माझ और आसा में दर्ज हैं।

सन् 1521 में बाबर ने हिन्दुस्तान पर हमला किया, ऐमनाबाद पहुँच के इस शहर को आग लगवा दी, शहर में खूब अत्याचार के अलावा कत्लेआम भी करवाया। गुरू नानक देव जी इस दुर्घटना के समय ऐमनाबाद में ही थे। हजूर तीसरी 'उदासी' के संबंध में मक्के मदीने बग़दाद से काबुल के रास्ते हसन-अब्दाल भेरे डिंगे होते हुए ऐमनाबाद आए थे। ऐमनाबाद में सतिगुरू जी ने 'वार' का नक्शा लोगों की आप-बीती घटित होता स्वयं देखा। अन्य कवि तो ऐसे मौके पर अपने किसी साथी शूरवीर मनुष्य के किसी खास जंगी कारनामे को कविता में लिखते हैं; पर गुरू नानक देव जी को एक ऐसा महान योद्धा नजर आ रहा था, जिसके इशारे पर जगत के सारे ही जीव कामादिक वैरियों के साथ एक महान जंग में लगे हुए थे। ऐमनाबाद की जंग देख के गुरू नानक साहिब जी ने भी एक जंगी कारनामे पर ही 'वार' लिखी, पर उनका शिरोमणी पात्र अकाल-पुरख स्वयं था। ऐमनाबाद की जंग से प्रेरित होकर गुरू नानक देव जी ने जो 'वार' लिखी थी, वह अब गुरू ग्रंथ साहिब में 'मलार' राग में दर्ज है। इसमें रणभूमि का और लड़ने वालों का जिक्र है; देखें उस 'वार'; की पउड़ी नं: 4:

आपे छिंझ पवाइ, मलाखड़ा रचिआ॥ लथे भड़थू पाइ, गुरमुखि मचिआ॥

मनमुख मारे पछाड़ि, मूरख कचिआ॥ आपि भिड़ै मारे आपि, आपि कारजु रचिआ॥

ऐमनाबाद का युद्ध देख के सतिगुरू जी ने महाबली योद्धे अकाल-पुरख के उस जंग का हाल लिखा है जो सारी जगत-रूपी रण-भूमि में हो रहा है। ऐमनाबाद के कत्लेआम की दुर्घटना सन्1521 में हुई थी। सो, 'मलार की वार' संन् 1521 में करतारपुर में लिखी गई। इस सारी 'वार' का विषयवस्तु (मज़मून) एक ही है- तृष्णा की आग जो परमात्मा के हुकम में जीवों को जला रही है। पउड़ी नं: 26 में हजूर लिखते हैं;

सिरि सिरि होइ निबेड़ु, हुकमि चलाइआ॥ तेरै हथि निबेड़ु, तू है मनि भाइआ॥

कालु चलाऐ बंनि्, कोइ न रखसी॥ जरु जरवाणा, कंनि् चढ़िआ नचसी॥

सतिगुरु बोहिथु बेड़ु, सचा रखसी॥ अगनि भखै भड़हाड़ु, अनदिनु भखसी॥

फाथा चुगै चोग, हुकमी छुटसी॥ करता करे सु होगु, कूड़ु निखुटसी॥२६॥

इसी ही 'भखदी अगनि' (धधकती आग) का जिक्र हजूर ने पउड़ी नं: 9 में इस तरह किया है;

नाथ जती सिध पीर किनै अंतु न पाइआ॥ गुरमुखि नामु धिआइ, तुझै समाइआ॥

जगु छतीह गुबारु, तिस ही बुझाइआ॥ जला बिंबु असराल, तिनै वरताइआ॥

नीलु अलीलु अगंमु, सरजीत सबाइआ॥ अगनि उपाई वादु, भुख तिहाइआ॥

दुनीआ कै सिरि कालु, दूजा भाइआ॥ रखै रखणहार, जिनि सबदु बुझाइआ॥९॥

हजूर लिखते हैं कि इस धधकती तृष्णा-अग्नि से जंगल में बसेरा, सरेवड़ों वाली कुचीलता, अन्न का त्याग, विद्धता, भगवा वेश आदिक बचा नहीं सकते:

इकि रणखंडि बैसहि जाइ, सद न देवही॥ ...

इकि अगनि जलावहि अंगु, आपु विगोवही॥१५॥ ...

इकि जैनी उझड़ि पाइ, धुरहु खुआइआ॥१६॥ ...

इकि अंनु न खाहि मूरख, तिना किआ कीजई॥ त्रिसना होई बहुतु, किवै न धीजई॥१७॥

पढ़िआ लेखेदारु, लेखा मंगीअै॥ विणु नावै कूड़िआर, अउखा तंगीअै॥२३॥

इकि भगवा वेस करि भरमदे, विणु सतिगुर किनै न पाइआ॥

देस दिसंतरि भवि थके, तुधु अंदरि आपु लुकाइआ॥२५॥

इस 'वार' की कुल 28 पउड़ियाँ हैं, पर पौड़ी नंबर 27 गुरू अरजन देव जी की है, गुरू नानक साहिब की लिखी हुई सिर्फ 27 पउड़ियाँ हैं, और हरेक पौड़ी में आठ-आठ तुकें हैं।

अब इस 'वार' की तुलना करते हैं 'माझ की वार' के साथ। उसमें भी 27 पउड़ियाँ हैं और हरेक पौड़ी में आठ-आठ तुकें हैं। दोनों वारों की विषयवस्तु भी एक जैसी ही है- तृष्णा की आग। '-माझ की वार' की पौड़ी नंबर 2 में इस 'तृष्णा-अग्नि' का वर्णन इस तरह है;

तुधु आपेू जगत उपाइ कै, तुधु आपे धंधै लाइआ॥

मोह ठगउली पाइ कै, तुधु आपहु जगतु खुआइआ॥

तिसना अंदरि अगनि है, नह तिपतै भुखा तिहाइआ॥

सहसा इहु संसारु है, मरि जंमै आइआ जाइआ॥

बिनु सतिगुर मोहु न तुटई, सभि थके करम कमाइआ॥

गुरमती नामु धिआईअै, सुख रजा जा तुधु भाइआ॥

कुल उधारे आपणा, धंनु जणेदी माइआ॥

सभा सुरति सुहावणी, जिनि हरि सेती चितु लाइआ॥२॥

'मलार की वार' की तरह इस वार में भी सतिगुरू जी कहते हैं कि इस तृष्णा की आग से जंगल-वास, अन्न का त्याग, भगवा वेश, विद्या आदि बचा नहीं सकते;

इकि कंद मूलु चिणि खाहि, वण खंडि वासा॥

इकि भगवा वेसु करि फिरहि, जोगी संनिआसा॥

अंदरि त्रिसना बहुतु, छादन भोजन की आसा॥ पउड़ी नं: 5।

तूं गणतै किनै न पाइओ, सचे अलख अपारा॥

पढ़िआ मूरखु आखीअै, जिसु लबु लोभु अहंकारा॥ पउड़ी नं:6।

इन दोनों 'वारों' की इस तुलना से ये साफ तौर पर सिद्ध होता है कि 'मलार की वार' लिखने के थोड़े ही वक्त के बाद सतिगुरू जी ने ये दूसरी 'माझ की वार' लिखी सन् 1521 में करतार पुर में। तीनों 'उदासियाँ' समाप्त करके अभी करतारपुर आ के टिके ही थे। 'उदासियों' के समय कई जोगियों, सन्यासियों, सरेवड़ों और विद्वान पंडितों आदि से मिले थे, वे ख्याल अभी ताजा थे, जो इन दोनों 'वारों' में प्रकट किए हैं, जैसे कि ऊपर बताया गया है।

पर 'आसा दी वार' इनसे अलग किस्म की है। इस वार में 24 पउड़ियाँ हैं। कहीं भी इन जोगियों, सन्यासियों, सरेवड़ों व विद्वान पंडितों की तरफ इशारा नहीं है, जिनको 'उदासियों' के वक्त मिले थे। इस 'वार' में एक ऐसे जीवन की तस्वीर खींची गई है, जिसकी हरेक मनुष्य-मात्र को आवश्यक्ता है, जिसको याद रखना हरेक इन्सान के लिए हर रोज आवश्यक सा प्रतीत होता है। शायद इसी वास्ते इस 'वार' का कीर्तन नित्य करना सिख-मर्यादा में बताया गया है। 'आसा दी वार' क्या है? जीवन-उद्देश्य की व्याख्या, एक उच्च दर्जे का जीवन-दर्शन। ऐमनाबाद का कत्लेआम, सरेवड़ों की कुचीलता, पण्डितों का विद्या अहंकार इससे दूर काफी पीछे रह गए हैं। सो, ये 'वार' गुरू नानक साहिब की जीवन-यात्रा के आखिरी हिस्से की है, रावी दरिया के किनारे, किसी निरोल रॅबी ऐकांत में बैठे हुए।

गुरू ग्रंथ साहिब जी की और वारें:

गुरू नानक देव जी के पद्चिन्हों पर चल के गुरू अमरदास जी गुरू रामदास जी और गुरू अरजन साहिब जी ने भी 'वारें' लिखीं जो गुरू ग्रंथ साहिब जी में दर्ज हैं। इनका वेरवा इस प्रकार है;

गुरू अमरदास जी- 4 'वारे', जो निम्नलिखित रागों में दर्ज हैं;

गूजरी, सूही, रामकली, मारू।

गुरू रामदास जी- 8 'वारें', जो निम्नलिखित रागों में दर्ज हैं;

सिरी राग, गउड़ी, बिहागड़ा, वडहंस, सोरठि, बिलावल, सारंग, कानड़ा।

गुरू अरजन साहिब- 6 'वारें', जो निम्नलिखित रागों में दर्ज हैं;

गउड़ी, गूजरी, जैतसरी, रामकली, मारू, बसंत।

एक वार सत्ते बलवंड की है जो रामकली राग में दर्ज है। सारी 'वारों' का जोड़ 22 है;

गुरू नानक देव जी --------------3
गुरू अमरदास जी ---------------4
गुरू रामदास जी ----------------8
गुरू अरजन देव जी ------------6
सक्ता बलवंड -------------------1
कुल जोड़ ----------------------22

आरम्भ में 'वारों' में सिर्फ पउड़ियों का ही संग्रह था:

गुरू ग्रंथ साहिब की 22 'वारों' में से सिर्फ 2 ऐसी 'वारें' हैं जिनके साथ कोई शलोक नहीं है- बसंत की वार महला ५ और सॅते बलवंड की वार। बाकी सारी 'वारों' के साथ शलोक हैं, हरेक पउड़ी के साथ कमि से कम 2 शलोक। ये सारे श्लोक गुरू साहिबानों के शलोकों में चुन-चुन के प्रसंग के अनुसार हरेक पौड़ी के साथ गुरू अरजन देव जी ने दर्ज किए थे। उन संग्रहों में से जो श्लोक फिर भी बढ़ गए, वह सतिगुरू जी ने गुरू ग्रंथ साहिब जी के आखिर में दर्ज कर दिए। ये बात उन श्लोकों के शीर्षकों से साफ प्रकट होती है। शीर्षक है 'सलोक वारां ते वधीक'।

यदि हम हरेक 'वार' की अंदरूनी संरचना को ध्यान से देखें, तो भी इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि वधीक 'वार' (अतिरिक्त 'वारें') पहले सिर्फ पोड़ियों का ही संग्रह था। पाठकों की जानकारी और तसल्ली के लिए हम यहाँ कुछ 'वारों' की संराचना के संबंध में विचार पेश कर रहे हैं;

सिरी राग की वार महला ४:

इस 'वार' में 21 पउड़ियां हैं। हरेक पौड़ी के साथ दो-दो शलोक हैं, पर पौड़ी नं: 14 के साथ तीन श्लोक हैं। शलोकों की कुल गिनती 43 है। हरेक पौड़ी की पाँच-पाँच तुकें हैं। शलोकों का वेरवा इस तरह है;

सलोक महला १ --------------- 07
सलोक महला २ --------------- 02
सलोक महला ३ --------------- 33
सलोक महला ५ --------------- 01
कुल ---------------------------- 43

'वार' गुरू रामदास जी की उचारी हुई है, पर उनका अपना एक शलोक भी नहीं है। इससे ये सिद्ध होता है कि गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज होने से पहले ये 'वार' सिर्फ पौड़ियों में ही थी। इसके साथ दर्ज हुए शलोक गुरू अरजन साहिब ने शामिल किए।

एक और अंदाजा भी लगाया जा सकता है कि 42 शलोक उन गुरू व्यक्तियों के हैं जो गुरू रामदास जी से पहले शारीरिक जामे में हो चुके थे। क्या ये नहीं हो सकता कि गुरू रामदास जी ने स्वयं ही गुरू नानक देव जी, गुरू अंगद देव जी और गुरू अमरदास जी के शलोक दर्ज कर लिए हों? इस एतराज को मान लेने पर, वैसे यहाँ से एक और बड़ा नतीजा निकल सकता है कि गुरू रामदास जी के पास पहले गुरू साहिबानों की बाणी मौजूद थी। पर, जहाँ तक इस 'वार' का संबंध है, ये शलोक गुरू रामदास जी ने खुद दर्ज नहीं किए। हरेक पौड़ी में एक जितनी ही तुकें देख के ये मानना पड़ेगा कि कविता के दृष्टिकोण से गुरू रामदास जी जैसे पौड़ियों की तुकों की गिनती एक समान रखने का ख्याल रखते रहे, पौड़ी नं: 15 के साथ सिर्फ एक ही शलोक दर्ज ना करते। इस पउड़ी के साथ एक शलोक गुरू अरजन साहिब का है। सो, ये सारे शलोक गुरू अरजन साहिब ने दर्ज किए हैं। पहले ये 'वार' सिर्फ पौड़ियों का संग्रह था।

माझ की वार महला १:

इस 'वार' की संरचना में निम्नलिखित बातें ध्यान-योग्य है-

कुल 27 पउड़ियाँ हैं, और हरेक पउड़ी की आठ-आठ तुकें हैं।

27 पौड़ियों में से सिर्फ 14 ऐसी हैं जिनके साथ शलोक सिर्फ गुरू नानक देव जी के हैं जिनकी ये 'वार' है।

पर इन शलोकों की गिनती हरेक पौड़ी के साथ एक समान नहीं है। 10 पउड़ियों के साथ दो-दो शलोक हैं, और नीचे लिखी 4 पौड़ियों के शलोक इस प्रकार है:

पउड़ी नं: 2 के साथ 3 सलोक

पउड़ी नं: 7 के साथ 3 सलोक

पउड़ी नं: 9 के साथ 4 सलोक

पउड़ी नं: 13 के साथ 7 सलोक

पउड़ी 3, 18, 22 और 24 के साथ कोई भी शलोक गुरू नानक देव जी का नहीं है।

बाकी रह गई 9 पउड़ियाँ। इनके साथ एक-एक सलोक गुरू नानक देव जी का है और एक-'एक अन्य गुरू साहिबान का।

हरेक पउड़ी में तुकों की गिनती एक जैसी होने के कारण ये बात स्पष्ट प्रतीत होती है कि सतिगुरू नानक देव जी ने ये 'वार' लिखने के वक्त 'कविता' के सुहज की ओर भी ध्यान रखा है। पर जिस कवि-गुरू ने पौड़ियों की बनतर पर इतना ध्यान दिया है, उस संबंधी ये नहीं माना जा सकता कि सलोक लिखने के वक्त वे कहीं दो-दो लिखते कहीं तीन-तीन, कहीं चार, कहीं सात लिखते और कई पौड़ियॉ। खाली ही रहने देते। दरअसल, बात यही है कि पहले ये 'वार' सिर्फ 'पउड़ियों' का ही संग्रह थी।

आसा की वार महला १:

इस 'वार' की 24 पउड़ियाँ हैं, और इनके साथ 59 सलोक हैं। वेरवा इस तरह है:

सलोक महला १ - 44

सलोक महला २ - 15

पउड़ी नंबर 1, 2,11, 12, 15, 18 और 22- इन 7 पौड़ियों को छोड़ के बाकी की 17 पउड़ियों के साथ दो-दो सलोक हैं, जोड़- 34।

पउड़ी नं: 1, 2, 11 और 18 के साथ तीन-तीन सलोक हैं; जोड़-12।

पउड़ी नं: 12 और 15 के साथ चार-चार सलोक हैं; जोड़-8।

पउड़ी नं: 22 के साथ 5 सलोक हैं।

...कुल जोड़- 34+12+8+ 5 =59।

पउड़ी नं: 21, 22 और 23 के साथ गुरू नानक देव जी का कोई भी सलोक नहीं है। पउड़ी नं: 7 और 24 के साथ सतिगुरू नानक देव जी का एक-एक सलोक है। पउड़ी नं: 11 और 18 के साथ तीन-तीन और पौड़ी नं: 15 के साथ गुरू नानक साहिब के चार सलोक हैं।

कविता की दृष्टि-कोण से पउड़ियों की बनावट की तरफ देखें। पउड़ी नं: 18, 22 और 23 को छोड़ के बाकी सब की बनावट एक जैसी है, तुकों की गिनती एक समान है। अगर गुरू नानक देव जी ने 'वार' उचारने के वक्त सलोक भी साथ-साथ उचारे होते, तो खुद इन पौड़ियों के साथ दर्ज किए होते, तो ऐसा नहीं हो सकता था कि कुछ पौड़ियों सलोकों के बिल्कुल बगैर ही रहने देते। फिर, सलोकों के विषयवस्तु की तरफ देखें, साफ दिखाई देता है कि ये सब अलग-अलग समय की हैं; जनेऊ, सूतक, मुर्दे दबने जलाने, चौके की सुच, रासें आदिक। सो, ये विचार चर्चा स्पष्ट करती हैं कि ये 'वार' पहले पउड़ियाँ ही थीं। गुरू नानक देव जी के समय से ले के गुरू रामदास जी के समय तक ये इसी ही रूप में रहीं। सलोक गुरू अरजन देव जी ने दर्ज किए थे।

इस विषय को और लंबा नहीं किया जा सकता। विचार के इस उपरोक्त आधार पर अन्य 'वारों' की संरचना को पाठक सज्जन स्वयं ही विचार के देख लें। इसी ही नतीजे पर पहुँचेंगे कि आरम्भ में 'वार' सिर्फ पौड़ियों का ही संग्रह थीं।

'वार' का केन्द्रिय विषय-वस्तु:

योद्धाऔं की 'वारों' में भी किसी योद्धा का सारा जीवन नहीं दिखाया जाता। उसके जीवन में से एक विषोश कारनामा चुन लिया जाता है, और दिलकश कविता में श्रोताओं के सामने गाया जाता है, ताकि आम जनता भी उसी जीवन-तरंग की लहरों का आनंद ले सके।

दुनिया के कवियों ने किसी शूरवीर की वह बहादरी लोगों के सामने पेश की है जो उसने रण-भूमि में तलवार पकड़ के दिखाई। गुरू-व्यक्त्यिों ने इस सारे जगत को एक रण-भूमि के रूप में देखा, सब जीव सिपाही कामादिक बेअंत वैरियों से लड़ रहे हैं। आम दुनिया तो मात खा रही है, पर विरले-विरले गुरमुख-योद्धे वैरियों को करारे हाथ दिखाते हैं। तलवार वाली रण-भूमि में तलवार चलाने के लिए कई दाँव-पेंच होते हैं, और कवि प्रसिद्ध योद्धाओं के वह विशेष दाँव-पेंच कविता में बयान करते हैं। आत्म-संग्राम में भी कामादिक वैरियों का मुकाबला करने के लिए कई सदाचार भरे दाँव-पेंच हैं जो गुरमुख-योद्धे प्रयोग करते हैं। सिमरन, सेवा, कीर्तन, सत्संग, प्रेम आदि इस अखाड़े के दाँव-पेंच हैं। गुरू व्यक्तियों ने आत्म-संग्राम के कारनामों पर जो 'वारें' लिखीं हैं, इनमें भी कोई एक कारनामा चुना होता है, किसी एक-एक आत्म दाँव-पेंच की व्याख्या की होती है। मिसाल के तौर पर-

सिरी राग की वार महला ४ में 'मनुष्य जीवन का उद्देश्य'।

माझ की वार महला १ में 'बहु रंगी जगत की ममता'।

गउड़ी की वार महला ४ में 'सतिगुर की शरण'।

गउड़ी की वार महला ५ में 'साध-संगति'।

आसा की वार महला १ में 'मनुष्य जीवन का मनोरथ'।

गूजरी की वार महला ३ में 'माया का प्रभाव'।

गूजरी की वार महला ५ में 'जगत के विकार'।

हरेक वार का केन्द्रिया विषय-वस्तु एक ही हुआ करता है।

पंजाबी की और 'वारें':

पंजाब प्रांत हिन्दोस्तान के उक्तर-पश्चिमी सिरे की सीमा पर होने के कारण काबुल की तरफ से हमले नित्य ही होते रहते थे और युद्धों-जंगों की संभावनाएं हमेशा बनी रहती थीं। देश की इज्जत-स्वाभिमान बचाने के लिए इस धरती पर योद्धाओं-शूरवीरों का पैदा होना भी स्वाभाविक बात थी, और कवि लोग इन योद्धाओं का कोई ना कोई कारनामा लिख के आम जनता के अंदर दलेरी पैदा करने की कोशिश करते थे। सो, पंजाब में कई 'वारें' लोगों को याद थीं, और 'जागरे' आदि में गाई जाती थीं।

उसी दौर की प्रसिद्ध 'वारों' में से निम्नलिखित नौ 'वारों' का वर्णन गुरू ग्रंथ साहिब की 'वारों' के शीर्षक में मिलता है;

मलिक मुरीद तथा चंद्रहड़ा सोहिया की वार।

राय कमाल की मौजदी की वार।

लला बहिलीमा की वार।

टुंडे अस राजे की वार।

सिकंदर इब्राहिम की वार।

हसने महमे की वार।

मूसे की वार।

जोधे वीरे की वार।

राणा कैलाश देव मालदे की वार।

पंजाब में और भी बहुत सारी 'वारें प्रचलित थीं। लोगों के कम होते शौक के कारण कई वारें तो ढाढियों के साथ ही खत्म हो गई। कुछ प्रसिद्ध 'वारों' के नाम नीचे दिए जा रहे हैं:

जैमल फत्ते की वार।

दहूद की वार।

बंदा साहिब की वार -हाकम राय।

नादिर शाह की वार- नज़ाबत कवि।

सिंघा दी वार- भाई गुरदास जी दूसरे।

गाजा सिंघ दी वार।

सरदार महा सिंघ की वार- हाशम कवि।

चॅठियों की वार- मीयाँ पीर मुहम्मद कवि।

हकीकत राय की वार- अगरा कवि।

सरदार हरी सिंघ की वार- कादर यार कवि।

भाई गुरदास जी की वारें।

श्री भगवती जी की वार।

सत्ते बलंवंड की बाणी 'वार' कैसे कहला सकती है?

हम पीछे विचार कर आए हैं कि 'वार' में किसी योद्धे के किसी विशेष कारनामे को दिल-कश कविता के माध्यम से बयान किया जाता है। गुरू-व्यक्तियों ने जो 'वारें' लिखीं, उनमें भी संसार व आत्म-संग्राम की कोई झाकी दिखाई गई है।

क्या सॅते बलवंड की बाणी में भी कोई एक ही विषया-वस्तु है, जिसके आधार पर इसको 'वार' लिखा गया है?

इस बाणी की कुल 8 पौड़ियाँ हैं। इसकी चौथी पौड़ी पढ़ कर देखें, सतिगुरू नानक देव जी के चलाए नए रास्ते को विचार के सॅता (बाणी का रचयता) बहुत हैरान होता है और लिखता है कि दुनिया के लोग आश्चर्यचकित हो के कहते हैं 'गुरू नानक जगत के नाथ ने हद से ऊँचा वचन बोला है, उसने और तरफ़ से ही गंगा चला दी है, ये उसने क्या कर दिया?'

होरिओं गंगु वहाईअै, दुनिआई आखै कि किओनु॥

नानक ईसरि जगनाथि, उचहदी वैणु विरिकिओनु॥

वह हैरानी वाली बात ये है कि गुरू नानक साहिब ने बाबा लहणा जी के सिर पर गुरयाई का छत्र धर के उनकी शोभा आसमान तक पहुँचा दी है। गुरू नानक साहिब जी की आत्मा बाबा लहिणा जी की आत्मा में इस तरह मिल गई है कि गुरू नानक ने अपने आप को अपने 'आपे' बाबा लहिणा जी के साथ मिला लिया है:

लहणे धरिओनु छत्रु सिरि, असमानि किआड़ा छिकिओनु॥

जोति समाणी जोति माहि, आपु आपै सेती मिकिओनु॥

दुनिया ने सिख धर्म की ये नई चाल देखी कि गुरू नानक देव जी ने अपने सेवक को अपने जैसा बना लिया, और उसके आगे अपना सिर झुकाया।

बलवंड ने भी पहली पौड़ी में इसी नई मर्यादा को हैरानी से देखा और लिखा कि गुरू नानक साहिब ने धर्म का एक नया राज चलाया है, अपने सेवक बाबा लहणा जी को अपने जैसा बना के गुरू होते हुए अपने चेले के आगे माथा टेका है।

नानकि राजु चलाइआ सचु कोटु सताणी नीव दै॥ ...

गुरि चेले रहिरासि कीई, नानकि सलामति थीवदै॥१॥

दूसरी पौड़ी में भी बलवंड (जी) इसी आश्चर्य भरी नई मर्यादा का वर्णन करते हैं कि जब गुरू नानक देव जी ने गुरयाई का तिलक बाबा लहणा जी को दे दिया तो गुरू नानक साहिब की महानता की बरकति से बाबा लहिणा जी की महानता की धुंमें पड़ गई, क्योंकि बाबा लहिणा जी के अंदर वही गुरू नानक देव जी वाली ज्योति थी, जीवन का ढंग भी वही गुरू नानक देव जी वाला था, गुरू नानक ने केवल शरीर में से (ज्योति) बदली थी:

लहणे दी फेराईअै, नानका दोही खटीअै॥

जोति ओहा, जुगति साइ, सहि काइआ फेरि पलटीअै॥

तीसरी पौड़ी में बलवंड जी फिर वही बातें कहते हैं कि सैकड़ों सेवकों वाला गुरू नानक शरीर बदल के (भाव, गुरू अंगद देव जी के स्वरूप में) गद्दीह संभाल के बैठा हुआ है। गुरू अंगद देव जी के अंदर गुरू नानक साहिब वाली ही ज्योति है, केवल शरीर ही पलटा है:

गुर अंगद दी दोही फिरी, सचु करतै बंधि बहाली॥

नानक काइआ पलटु करि, मलि तखतु बैठा सै डाली॥

ये पहली तीन पौड़ियां बलवंड जी की हैं। चौथी पौड़ी में सक्ता जी शुरू करते हुए कहते हैं कि इस नए करिश्मे को देख के सारी दुनिया हैरान हो रही है। छेवीं पउड़ी में सॅता जी गुरू अमरदास जी का जिक्र करते हैं, और दोबारा उसी आश्चर्य भरी मर्यादा के बारे में कहते हैं कि पौत्र-गुरू (भाव, गुरू अमरदास जी भी) जाना-माना गुरू है, क्योंकि वह भी गुरू नानक और गुरू अंगद जैसा ही है, इसके माथे पर भी वही नूर है, इसका भी वही तख़्त है वही दरबार है जो गुरू नानक और गुरू अंगद का था;

सो टिका सो बैहणा, सोई दीबाणु॥ पियू दादे जेविहा, पोता परवाणु॥

अगली पौड़ी में गुरू अमरदास जी को संबोधन करके भी सॅता जी वही विचार प्रकट करते हैं;

नानक तू, लहिणा तू है, गुरु अमरु तू वीचारिआ॥

और आखिरी पउड़ी में भी सॅता जी कहते हैं कि गुरू नानक देव जी के ही;

तखति बैठा अरजन गुरू, सतिगुर का खिवै चंदोआ॥

हमने देख लिया है कि इस सारी ही रचना में एक ही केन्द्रिय विचार है- "गुरू दी अपणे चेले अगे रहिरासि"॥ इसलिए इस बाणी को 'वार' की श्रेणी में रखा गया है।

'वार' के आखिर में मिलते शब्द 'सुधु' के बारे में निर्णय:

गुरू ग्रंथ साहिब जी में कुल 22 'वारें' हैं। इनमें से निम्नलिखित 16 'वारों' के समाप्त होने पर अंत में शब्द 'सुधु' लिखा मिलता है: ⃟सिरी राग की वार म: ४ ⃟माझ की वार महला १ ⃟गउड़ी की वार म: ४ ⃟आसा की वार म: १ ⃟गूजरी की वार म: ३ ⃟गूजरी की वार म: ५ ⃟बिहागड़े की वार म: ४ ⃟वडहंस की वार म: ४ ⃟सोरठि की वार म: ४ ⃟बिलावल की वार म: ४ ⃟रामकली की वार म: ३ ⃟रामकली की वार म: ५ ⃟मारू की वार म: ३ ⃟सारंगकी वार म: ४ ⃟मलार की वार म: १ ⃟कानड़े की वार म: ४

नीचे लिखी एक 'वार' के आखिर में शब्द 'सुध कीचे' है:

गउड़ी की वार महला ५।

निम्नलिखित 5 'वारों' के आखिर में 'सुधु' व 'सुधु कीचे' कोई शब्द नहीं है;

जैतसरी की वार महला ५

सूही की वार महला ३

सॅते बलवंड की वार (राग रामकली)

मारू की वार महला ५

बसंत की वार महलु ५।

भाई गुरदास जी के हाथों की लिखी हुई जो 'बीड़' (संस्करण) करतारपुर साहिब है, उसमें 'वारों' के सम्बंध में अनोखी बातें मिलती हैं:

अ- जहाँ वार समाप्त होती है, वहाँ बाकी का पेज खाली रहने दिया गया है। (नोट: खाली सफे और भी कई जगहों पर हैं)। फिर भी ये शब्द 'सुधु' अथवा 'सुधु कीचे' पृष्ठ के हाशिए के बाहरी ओर लिखा है। जैसे छपी हुई 'बीड़ों' में 'वार' के साथ ही आखिर में दर्ज है, वहाँ ऐसे नहीं है।

आ- पउड़ियों के साथ जो शब्द 'सलोक महला १' आदि बरते हैं, वह बारीक कलम से लिखे हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे सलोक लिखने के वक्त 'शीर्षक' के लिए जगह खाली रखी गई और फिर वह बारीक कलम से भरी गई ।

नोट: शब्द 'सुधु' व 'सुधु कीचे' सिर्फ 'वारों' के आखिर में ही लिखे हुए हैं (हां, टोडी महला ५ 'हरि हरि चरन रिदै उरधारै' के आखिर पर ही शब्द 'सुधु' सामने की ओर हाशिए में ही है)।

नोट: ये बात याद रखने वाली है कि जिस 'वा' के आखिर में शब्द 'सुधु कीचे' है वह 'वार' गुरू अरजन साहिब जी की अपनी उचारी हुई है और उसमें सारे ही शलोक गुरू अरजन साहिब के ही हैं।

ध्यान से विचार करने पर शब्द 'सुधु' व 'सुधु कीचे' के बारे में हम निम्नलिखित नतीजों पर पहुँचते हैं:

हाशिए से बाहर ये शब्द लिखे जाने के कारण ये सिर्फ भाई गुरदास जी को हिदायत की गई थी। 'बीड़' में के शीर्षकों और गिनती के हिन्दसों की तरह शब्द 'सुधु' व 'सुधु कीचे' का संबंध मूल-बाणी के साथ नहीं।

'वारों' के शब्दों के 'जोड़ों, लगों-मात्राओं' के साथ ही शब्द 'सुधु' का कोई संबंध नहीं है। ये 'शोध' (सुधाई) सिर्फ ये देखने के लिए की गई थी कि पौड़ियों के साथ जो सलोक दर्ज किए गए हैं, उनके रचयता-गुरू का अंक (महला १,२,३,४,५) लिखने में कहीं कोई कमी ना रह गई हो।

जिस 'वार' (गउड़ी की वार महला ५) के आखिर में हिदायत है 'सुधु कीचे', उस 'वार' में गुरू अरजन साहिब के अपने ही सलोक और पउड़ियाँ हैं। यहाँ ज्यादा एहतियात की आवश्यक्ता नहीं थी।

खाली 'वारों' (जैतसरी, मारू) दोनों ही गुरू अरजन साहिब की हैं, सलोक समेत ही। शलोकों के कर्ता-गुरू के बारे में यहाँ भी किसी भुलेखे की संभावना नहीं थी।

'वार' बसंत महला ५ और सॅते बलवंड की वार के साथ कोई भी शलोक नहीं है। इस वास्ते यहाँ पर तो सलोकों के रचयता-गुरू के बारे में किसी 'सुधाई' का सवाल ही नहीं उठता। इनके साथ भी शब्द 'सुधु' नहीं बरता गया।

बाकी रह गई 'सूही की वार महला ३'। 'वारों' की परस्पर तुलना से हम जिस नतीजे पर पहुँचे हैं, उसके अनुसार इस 'वार' के आखिर के शब्द 'सुधु' का प्रयोग जच सकता है पर यहाँ पर ये लिखा नहीं मिलता।

सॅते बलवंड की वार और गुरबाणी में गहरी व्याकर्णिक सांझ

शब्दों की बनावट की तरफ थोड़ा सा भी ध्यान देने पर पाठकों को ये यकीन दिला देगा कि श्री मुख वाक बाणी और इस 'वार' में बरते गए व्याकरण के नियम एक समान हैं। सहूलत के लिए कुछ प्रमाण यहाँ दिए जा रहे हैं;

'गुरि चेले रहिरासि कीई' -पउड़ी नं: 1 सॅते बलवंड की वार।

गुरि-गुरू ने।

'गुरि खोलिआ पडदा देखि भई निहालु'।४।१। बिलावल म: ५।

गुरि-गुरू ने।

'नानकि राजु चलाइआ' - पउड़ी नं:1

नानकि-नानक ने।

'साध संगि नानकि रंगु माणिआ।

घरि आइआ पूरै गुरि आणिआ'।4।27।27। बिलावल म: ५।

ननकि- नानक ने।

गुरि-गुरू ने।

'लहणे धरिओनु छतु सिरि' -पउड़ी नं:1।

सिरि-सिर पर।

'जिनि ऐहि लिखे तिसु सिरि नाहि' -19। जपु म: १।

सिरि-सिर पर।

'लहणे धरिआनु छतु सिरि' -पउड़ी नं:1।

'आपु आपै सेती मिकिओनु' -पउड़ी नं:4।

'लहणा टिकिओनु' -पउड़ी नं:4।

'असमानि किआडा छिकिओनु'- पउड़ी नं:4।

धरिओनु- धरा उसने।

मिकिओनु-मेचा उसने (मेचना- नापना)

टिकिओनु-वह टिका।

छिकिओनु-उसने खींचा।

'जेहा धुरि लिखि पाइओनु'- सूही की वार म: ४।

पाइओनु-पाया उसने।

'सचा अमरु चलाइओनु'।11। सूही की वार म: ४।

चलाइओनु-चलाया उसने।

'इकना नो नाउ बखसिओनु'।3। रामकली की वार म: ३।

बखसिओनु-बख्शा उसने।

'घट अंतरि अंम्रितु रखिओनु'।9। रामकली की वार म: ३।

रखिओनु-रक्षा की उसने।

'कुदरति अहि वेखालीअनु'- पउड़ी नं: ४।

वेखालीअनु-दिखाई उसने।

'हुकमी स्रिसटि साजीअनु'।2। सूही की वार म: ४।

साजीअनु-साजी उसने। (साजना-सृजना, उत्पक्ति)

'चउदह रतन निकालिअनु' -पउड़ी नं: 5।

निकालीअनु-निकाले उसने।

'राति दिनसु उपाइअनु'।5। रामकली की वार म: ३।

उपाइअनु-उपाऐ उसने (उपाए-पैदा किए, सृजन)

अगर पाठक सज्जन व्याकरण की दृष्टिकोण से इस 'वार' को ध्यान से पढ़ेंगे, तो पाएंगे कि एक-एक शब्द का व्याकर्णिक-रूप श्री मुख वाक बाणी के साथ पूरी तौर पर मेल खाता है। यहाँ ज्यादा प्रमाण देने पर लेख का आकार अनावश्यक रूप से बढ़ने का डर है।

वार का शीर्षक:

पाठकों का ध्यान इस 'वार' के शीर्षक की तरफ दिलाना भी आवश्यक प्रतीत होता है। शीर्षक है- रामकली की वार राय बलवंड तथा सतै डूमि आखी। इसका शब्द 'आखी' बहुत अनोखा लग रहा है। गुरू ग्रंथ साहिब की 22 'वारों' में से किसी के भी शीर्षक में ये शब्द नहीं आया। 'आखी' का अर्थ है 'सुनाई'। पहले पहले बलवंड और सॅते ने मिल के ये 'वार' सतिगुरू जी की हजूरी में सिर्फ 'सुनाई' थी। इसको लिखती रूप उन्होंने नही दिया।

गुरू ग्रंथ साहिब की बाणी का व्याकरण आजकल की पंजाबी को अनोखा सा चाहे लगे, पर जब यह बाणी उचारी लिखी गई थी, तब के पंजाबियों को इसको समझने-पढ़ने-लिखने में कोई मुश्किल नहीं थी, क्योंकि उस वक्त की पंजाबी बोली का व्याकरण ही यही था। सॅते बलवंड की 'वार' के व्याकरण की श्री मुख वाक बाणी की व्याकरण से समानता होना स्वाभाविक बात थी। ये तो थे ही गुरू घर के कीर्तनिए, हर रोज बाणी गाने-सुनने वाले। इन्हें साधारण सिखों से ज्यादा बाणी के सही व्यकार्णिक स्वरूप की जानकारी होगी ही।

एक ही अक्षर के साथ दो मात्राएं:

पुरानी पंजाबी को पढ़ के देखें। शब्दों के बहुत सारे व्याकर्णिक स्वरूप संस्कृत आदि बोलियों में से कुछ बदले हुए से मिल रहे हैं। पर गुरू ग्रंथ साहिब की बाणी में एक व्याकर्णिक रीति ऐसी मिलती है जो संस्कृत आदि किसी बोली में नहीं। ये रीति गुरू अरजन साहिब जी की ही चलाई हुई है। कई अक्षरों के साथ दो मात्राएं प्रयोग की गई हैं।

कविता में कई बार छंद की चाल को ठीक रखने के लिए शब्दों की मात्राओं को कम-ज्यादा करना पड़ जाता है। 'गुरू' मात्रा को 'लघु' कर देना, अथवा 'लघु' मात्रा को 'गुरू' कर देना- ये रीति पंजाबी काव्य में पुरानी चली आ रही है। गुरबाणी के वर्णिक रूप को खोज से पढ़ने के अभिलाशियों के लिए ये रीति परखनी बहुत ही मजेदार होगी।

(ु) - अंत अक्षर एक मात्रा वाला है। जब इसे दो मात्रिक करने की आवश्यक्ता पड़ी है, तो (ु) की जगह (ो) लगाया गया है।

(ो) - अंत अक्षर दो मात्रा वाला है। जब इसे एक-मात्रिक करने की जरूरत पड़ी तो (ु) बरता गया है।

पर कई जगह शब्द का असल रूप भी कायम रखने की आवश्यक्ता थी, वहाँ एक ही अक्षर के साथ दोनों मात्राएं ( ो और ु ) प्रयोग की गई हैं। इस बात को समझने के लिए कुछ प्रमाण देख लें;

गुरमुखि मेलि मिलाऐ 'सुोजाणै'।

...नानक गुरमुखि सबदि पछाणै॥17। (सिध गोसटि म:१)

यहाँ पढ़ना 'सोजाणै' है, असल शब्द है 'सुजाणै'।

प्रभ किरपाल दइआल 'गुोबिंद'।

....जीअ जंत सगले बखसिंद।1।13।15। (गोंड म: ५)

यहाँ पढ़ना 'गुबिंद' है, असली शब्द है- 'गोबिंद'।

गुरमुखि गावै गुरमुखि बोलै।

... गुरमुखि तोलि 'तुोलावै' तोलै।22। (ओअंकारु)

यहाँ पढ़ना 'तुलावै' है, असल शब्द है 'तोलावै'।

ऐसे ही और प्रमाण पाठक खुद भी ढूँढ सकते हैं। हमने यहाँ इस अनोखी बनावट की तरफ निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान दिलाना है:

(अ) उच्चारण के वक्त केवल एक ही मात्रा उचारी जा सकती है, चाहे (ो) उचारें अथवा (ु)। दोनों का एक साथ उच्चारण असंभव है।

(आ) शब्दों के बहुत सारे व्याकर्णिक रूप तो संस्कृत आदि बोलियों में से बदले हुए रूप में मिल रहे हैं, पर ये दोहरी 'मात्रा' उन बोलियों में नहीं मिलती। ये रीति श्री गुरू अरजन साहिब जी की अपनी चलाई हुई है।

(इ) इस वार में से निम्नलिखित तुक में ये दोनों मात्राएं एक साथ बरती हुई की परख करने वाले सज्जन को पूर्ण विश्वास दिलाती हैं कि इस 'वार' को श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज करने वाले श्री गुरू अरजन देव जी थे।

'जिनी गुरू न सेविओ मनमुखा पइआ मुोआ॥8।1।

यहाँ पढ़ना 'मोआ' है, जबकि असल शब्द 'मुआ' है।

आदि बीड़ और सॅते बलवंड की वार:

भगत बाणी के विरोधी सज्जनों ने बड़ी मेहनत करके ये साबित करने के यत्न किए हैं कि भगत बाणी गुरू ग्रंथ साहिब जी में गुरू अरजन देव जी की शहीदी के बाद बाबा प्रिथी चंद और चंदू की साजिश से शामिल की गई थी। इस प्रयास में उन्होंने एक नई कहानी भी घड़ी है कि जहांगीर ने पंचम पातशाह को शहीद करके 'पोथी साहिब' (गुरू ग्रंथ साहिब) को ज़ब्त (कानून विरुद्ध) करार दे दिया था।

इस बारे में इस 'दर्पण' की तीसरे संस्करण में विस्तार सहित चर्चा पेश कर दी गई है। उस में मैंने उस कहानी की कमियां बता कर उस कहानी के हरेक पहलू पर विचार करके ये साबित कर दिया है कि भगत-बाणी गुरू अरजन साहिब ने खुद ही गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज करवाई थी।

उपरोक्त लेखक जी गुरू ग्रंथ साहिब जी की के ज़ब्त होने की कहानी के आखिर में भट्टों के सवैयों और सॅते बलवंड की वार के बारे में यूँ लिखते हैं:"उक्त पैक्ट जहाँगीर और प्रीथिए की पार्टी के साथ हुआ। ये समय खालसे की जिंदगी मौत का था। जब निरोल बाणी के अंदर हिन्दू, मुसलमान भक्तों, भट्टों और डूमों की रचना मिला के 'सतिगुरू बिना होर कची है बाणी' की उलंघना करके हमेशा के लिए बाणी को मिल-गोभा बाणी बना दिया है"।

पुस्तक की सिफारिश करने वाले अपील करते हैं कि 'पूर्ण निश्चय है कि गुरमति खोजी सज्जन शांत-चिक्त हो के विचार करेंगे।' पर पुस्तक के लेखक जी ने खुद रूखेपन का प्रयोग किया है। सॅते बलवंड का वर्णन करते हुए पुस्तक के पंना नं: 149 में गुरू घर के इन कीर्तनियों के बारे में इस प्रकार लिखा है- "ये ठीक हो सकता है कि लालची डूम (रबाबियों) को गुरू-निंदा का फल कुष्ट का हो जाना भुगतना पड़ा हो।...साबित होता है कि उक्त दोनों मरासियों ने गुरू जी की शरण केवल लालच के ख्याल से ली थी।...टका करमं टका धरमं' इनका विचार था।"

इस मजमून के आखिर में लेखक सज्जन 'सॅते बलवंड दी वार' में अपनी राय इस प्रकार से देते हैं: "इस वार की आठों पौड़ियाँ उनकी तरफ से माफीनामा है। उन्होंने ये माफीनामा दे के अपना अपराध बख्शाया था। सो ये रचना बाणी की तुल्यता नहीं रखती। यह एक फैसला है जो खालसा दरबार की फाईलों में बतौर रिकार्ड के रखा जाना चाहिए था। हाँ, इतिहास का अंग अवश्य है। पर इसको गुरबाणी का दर्जा देना अथवा गुरबाणी कहना गुरमति के विरुद्ध है।"

हमने अपने इस लेख में ये देखना है कि 'सॅते बलवंड दी वार' गुरू अरजन साहिब जी के समय गुरू ग्रंथ साहिब जी में दर्ज थी या नहीं। यदि दर्ज थी, तो इसका आदर-सत्कार करने अथवा ना करने का सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि हम गुरू ग्रंथ साहिब को समूचे तौर पर ही गुरू मान के इसके आगे सिर झुकाते हैं।

प्राचीन बीड़ें (अर्थात गुरू ग्रंथ साहिब के पुरातन संस्करण):

'प्राचीन बीड़ों' के लेखक सरदार जी.बी. सिंह जी ने पुरानी लिखी हुई बीड़ों के अध्ययन में बहुत मेहनत से काम किया है। उनकी लिखत में से भी साफ दिखता है कि सिख धर्म के हमदर्द नहीं थे, गुरू साहिबान में उनकी श्रद्धा नहीं थी, क्योंकि कई जगहों पर उन्होंने गुरू साहिब की शान में रूखे-बोल बरते हुए हैं। भाई बंनो वाली बीड़ को असल पुरातन बीड़ और करतारपुर वाली 'आदि बीड़' को भाई बंनो वाली बीड़ का उतारा (कापी) साबित करने के लिए सरदार जी. बी. सिंह ने खासा जोर लगाया है। पर इसका मतलब ये नहीं कि हम उनकी नीयत पर शक करें। पुरानी बीड़ों की खोज का उन्हें शौक था। जहाँ-जहाँ उन्हें मौका मिला, उन्होंने इस लगन में समय दिया। हाँ, हमारी ये राय अवश्य है कि वे अपनी इतनी बड़ी मेहनत के बावजूद सही नतीजे निकालने में चूक करते रहे।

जी. बी. सिंह ने अपनी पुस्तक में कई पुरातन हस्त-लिखित बीड़ों के हवाले दिए हैं, उनके उतारों (नकल) की तारीखें भी दी हैं। भाई बंन्नो वाली बीड़ और गाँव बोहड़ (जिला गुजरात) वाली बीड़ ये दोनों गुरू अरजन साहिब जी की जिंदगी के दौरान ही लिखी गई थीं। गाँव बोहड़ वाली बीड़ के आखिरी 26 पृष्ठों के अतिरिक्त बाकी सारी की सारी एक ही हाथ से लिखी हुई है। जी. बी. सिंह ने अपनी आँखों से देख कर ये तथ्य दिए हैं। जो फालतू बाणियां दर्ज हुई हैं, उनके बारे में जी. बी. सिंह ने जोर-शोर से लिखा है, कोई तथ्य छुपा के नहीं रखा। अगर भक्तों की सारी बाणी, भट्टों के सवैये, और सॅते बलवंड दी वार, बोहड़ वाली बीड़ में किसी और के हाथों लिखे हुए होते, तो सरदार जी. बी. सिंह इस बात को बिल्कुल छुपाते नहीं, अवश्य जिक्र करते। खोजी क्या और छुपाना क्या? खोजी भी वह जो साथ-साथ सिख धर्म और इसके इतिहास का कुछ मजाक भी उड़ा रहा है।

माँगट के रास्ते पर नहीं:

सिख इतिहासकारों ने तो ये लिखा था कि भाई बन्नो वाली बीड़ माँगट (जिला गुजरात) के ढॅर्रे पर लिखी गई थी, पर हम ये साबित कर चुके हैं (नोट: ये लेख पुस्तक 'गुरू ग्रंथ प्रकाश' में पेश किया जाएगा) कि ये बीड़ अमृतसर में ही लिखी गई, और भाई गुरदास जी के सामने लिखी गई थी। भाई गुरदास जी की निगरानी होते हुए इस बीड़ में किसी तरह की मिलावट की गुँजाइश नहीं हो सकती थी। भाई बन्नो की बीड़ से बोहड़ वाली बीड़ लिखी गई, एक साल के अंदर-अंदर ही, संवत् 1662 में, गुरू अरजन देव जी जीवित थे। बोहड़ वाली बीड़ लिखी हुई भी एक ही हाथ की है। सो, सिर्फ यही गवाही ये साबित करने लिए काफी है कि बाबा प्रिथी चंद और चंदू, जहाँगीर के साथ साजिश करके 'आदि बीड़' में कोई मिलावट नहीं कर सके। सारी भगत बाणी, भट्टों के सवैये, और सॅते बलवंड दी वार - ये सारी बाणियाँ भाई गुरदास जी के हाथों द्वारा ही गुरू साहिब की आज्ञा अनुसार गुरू ग्रंथ साहिब जी में दर्ज हुई थीं।

आदर-सत्कार:

बाकी रहा सवाल 'सॅते बलवंड दी वार' के आदर-सत्कार का। हमें गुरू अरजन साहिब जी के वक्त का ही एक और साक्ष्य मिल रहा है, जो ये साबित करता है कि ये बाणी उसी तरह ही पढ़ी, सुनी और बरती जा रही थी, जैसे गुरू ग्रंथ साहिब में लिखीं अन्य बाणियाँ।

भाई गुरदास जी और गुरबाणी:

भाई गुरदास जी का नाम सिख पंथ में सूर्य की तरह रौशन है। ये गुरू अमरदास जी के भतीजे थे। गुरू रामदास जी के वक्त से ही इन्हें उक्तर प्रदेश में सिख धर्म का प्रचार करने के लिए भेजा जाता रहा। प्रचार आखिर गुरबाणी के द्वारा ही हो सकता था, और भाई गुरदास जी बाणी के प्रसिद्ध विद्वान व रसिए थे। इन्होंने स्वयं भी गुरमति पर दो पुस्तके लिखीं- 'वारें' और 'कबित'। 'वारें' ठेठ पंजाबी में, 'कबिक्त' बृज-भाषा में। भाई गुरदास जी की बाणी गुरू ग्रंथ साहिब जी की कूँजी कही जाती है। इसका ये भाव लिया जा सकता है कि इन्होंने गुरमति के सिद्धांत अपनी रचना में स्पष्ट तौर पर समझाए हैं, और इस काम के लिए इन्होंने अपनी बाणी (रचना) लिखने में गुरबाणी का बहुत आसरा लिया है। इस विचार को खोल के बताने के लिए हम भाई गुरदास जी की 26वीं वार पाठकों के सामने पेश करते हैं। आप इसमें देखेंगे कि जगह-जगह पर भाई गुरदास जी की तुकें गुरबाणी के साथ मिलती हैं:

1. पउड़ी नं: 2-

आदि पुरखु आदेसु है, ओहु वेखै ओन्हा नदरि न आइआ।

जपु जी में देखें;

'ओहु वेखै ओना नदरि न आवै बहुता ऐहु विडाणु॥ पउड़ी नं30।

2. पउड़ी नं: 3

अंबरु धरति विछोड़िअनु, कुदरति करि करतार कहाइआ॥ धरती अंदरि पाणीअै, विणु थंमां आगासु रहाइआ॥ इधंण अंदरि अगि धरि, अहिनिसि सूरजु चंदु उपाइआ।

मलार की वार म: १ पउड़ी १:

आपीनै आपु साजि, आपु पछाणिआ॥ अंबरु धरति विछोड़ि, चंदोआ ताणिआ॥ विणु थंमा गगनु रहाइ, सबदु नीसाणिआ॥ सूरजु चंदु उपाइ, जोति समाणिआ॥ कीऐ राति दिनंतु, चोज विडाणिआ॥

3. पउड़ी नं: 5

ओअंकारि आकारु करि, लख दरिआउ न कीमति पाई।... केवडु वडा आखीअै, कवणु थाउ किसु पुछां जाई। अपड़ि कोइ न हंघई, सुणि सुणि आखण आखि सुणाई।

सिरी राग म: १:

भी तेरी कीमति ना पवै, हउ केवडु आखा नाउ॥1॥ साचा निरंकारु निज थाइ॥ सुणि सुणि आखण आखणा, जे भावै करे तमाइ॥ रहाउ॥

4. पउड़ी नं: 7

कलिजुगि बीजै सो लुणै, वरतै धरम निआउ सुखाला।

बारह माहा मांझ म: ५:

जेहा बीजै सो लुणै करमा संदड़ा खेतु॥

5. पउड़ी नं: 8:

सतिजुगि सति त्रेते जगी, दुआपरि पूजा बहली घाला।

कलिजुगि गुरमुखि नाउ लै, पारि पवै भवजल भरनाला।

गउड़ी बैरागणि, भगत रविदास जी:

सतजुगि सतु, त्रेता जगी, दुआपरि पूजाचार॥ तीनौ जुग तीनौ दिढ़े, कलि केवल नाम आधार॥1॥

नोट: यहाँ ये भी देख लें कि गुरू ग्रंथ साहिब में भाई गुरदास जी के सामने भगत रविदास जी की बाणी भी मौजूद है।

6. (अ) पउड़ी नं: 9:

जिनां भउ तिन नाहि भउ, मुचु भउ अगै निभविआहा॥

सलोक म: २:

जिना भउ तिना नाहि भउ, मुचु भउ निभविआह॥

(आ) धरि ताराजू तोलीअै, हउला भारा तोलु तुलाहा।

म: १, आसा दी वार:

धरि ताराजू तोलीअै, निवै सु गउरा होइ॥

पउड़ी नं: 10:

कारणु करतै वसि है, विरलै दा ओहु करै कराइआ।

म: २।

कारणु करतै वसि है, जिनि कलि रखी धारि॥

पउड़ी नं: 13:

गुरु दरीआउ अमाउ है, लख दरीआउ समाउ करंदा।....

साइरु सणु रतनावली, चारि पदारथु मीन तरंदा।

प्रभाती म: १:

गुर उपदेसि जवाहर माणक, सेवे सिखु सुो खोजि लहै॥ ...

गुरु दरीआउ सदा जलु निरमलु, मिलिआ दुरमति मैलु हरै॥

हमने उदारण के तौर पर ये वार नं: 26 पेश की है। ज्यों ज्यों आप भाई गुरदास जी की वारें ध्यान से पढ़ेंगे आपको ये बात साफ दिखती जाएगी कि भाई गुरदास जी को गुरबाणी की गहरी जानकारी थी, और वह अपनी सारी बाणी में गुरबाणी में से बहुत प्रमाण लेते थे।

अब देखें वार नं: 24:

हू-ब-हू इसी तरह ही भाई साहिब 'सॅते बलवंड दी वार' का प्रयोग करते हैं। पढ़ें उनकी वार नं: 24। इस वार की 25 पौड़ियाँ हैं। गुरू अरजन साहिब की शहादत के बाद ये लिखी गई थी, क्यों इसमें पंचम गुरू की शहीदी का वर्णन है, और गुरू हरि गोबिंद साहिब की उस्तति भी दर्ज है। हरेक गुरू व्यक्ति की महिमा में निम्नलिखित अनुसार पौड़ियां दर्ज हैं:

1 से 4 तक गुरू नानक देव जी

5 से 8 तक गुरू अंगद देव जी

9 से 13 तक गुरू अमरदास साहिब जी

14 से 17 तक गुरू रामदास साहिब जी

18 से 20तक गुरू अरजन साहिब जी

21 से 22 तक गुरू हरि गोबिंद साहिब जी

23 गुरू अरजन देव जी की शहीदी

24 गुरू हरि गोबिंद साहिब जी

25 'गुर-मूरति गुरू-शबदु है'।

अब हम पाठकों की दिलचस्पी के लिए इस 'वार' में से वह प्रमाण पेश करते हैं जो सॅते बलवंड दी वार' के साथ गहरी समानता रखते हैं:

पउड़ी नं: 2, भाई गुरदास जी:

निहचल नीव धराईओनु, साध-संगति सच खंड समेउ।

पउड़ी नं: 1, बलवंड:

नानकि राजु चलाइआ, सचु कोटु सताणी नीव दै॥

पउड़ी नं: 3, भाई गुरदास जी:

इकु छति राजु कमांवदा, दुसमणु दूतु न सोर शराबा।

नं:1, बलवंड:

नानकि राजु चलाइआ.....॥

पउड़ी नं: 2, 3, भाई गुरदास जी;

जगतु गुरू गुरु नानकु देउ। -2

जाहर पीरु जगतु गुरु बाबा। -3

बलवंड पउड़ी नं: 1 में कहते हैं कि गुरू नानक देव जी की प्रसिद्धि को बयान नहीं किया जा सकता:

नाउ करता कादरु करे, किउ बोलु होवै जोखीवदै॥ -1

पउड़ी नं: 6 - भाई गुरदास जी

जोति समाणी जोति विचि, गुरमति सुखु, दुरमति दुख दहणा।

पउड़ी नं: 4 सॅता:

जोति समाणी जोति माहि, आपु आपै सेती मिकिओनु॥

पउड़ी नं: 7- भाई गुरदास जी

'पुतु सपुतु बबाणे लहिणा।' इसके मुकाबले पर

बलवंड, पउड़ी नं: 2:

पुत्री कउलु न पालिओ, करि पीरहु कंन् मुरटीअै॥

पउड़ी नं: 10, भाई गुरदास जी:

पोता परवाणीक नवेला।

नं: 6, सॅता:

पियू दादे जेविहा, पोता परवाणु॥

गुरू अमरदास जी की बाबत

पउड़ी नं: 12, भाई गुरदास जी:

सो टिका सो बैहणा, सोई सचा हुकम चलाइआ।

पउड़ी नं: 6, सॅता:

सो टिका सो बैहणा, सोई दीबाणु॥

पउड़ी नं: 15, भाई गुरदास जी:

पीऊ दादे जेविहा, पड़दादे परवाणु पड़ोता।

पउड़ी नं:6, सॅता:

पियू दादे जेविहा, पोता परवाणु॥

पउड़ी नं: 19, भाई गुरदास जी:

तखतु बखतु लै मॅलिआ, सबद सुरति वापारि सपॅता।

पउड़ी नं: 8, सॅता:

तखति बैठा अरजन गुरू....॥

पउड़ी नं: 20, भाई गुरदास जी:

लंगरु चलै गुर सबदि, पूरे पूरी बणी बणॅता।

पउड़ी नं: 2, बलवंड:

लंगरु चलै गुर सबदि, हरि तोटि न आवी खटीअै॥

पउड़ी नं:20, भाई गुरदास जी:

गुरमुखि छत्रु निरंजनी, पूरन ब्रहम परमपद मॅता।

पउड़ी नं: 2, बलवंड:

झुलै सु छत्रु निरंजनी, मलि तखतु बैठा गुर हटीअै॥

उपरोक्त पुस्तक में सॅते बलवंड के ऊपर ये दूषण लगाया गया है कि उन्होंने गुरू अंगद साहिब का नाम 'लहिणा' लिख के मन मति की है। देखें पन्ना 151। (नोट: गुरू अंगद साहिब को लहिणा शब्द बरत के अति गलती की है। गुरू नानक साहिब ने बाबे लहणे को गुरता दे के गुरू अंगद में तब्दील कर दिया था, क्यों मरासी गुरमति फिलासफी से नावाकिफ़ थे, इस वास्ते उन्होंने ऐसा किया होगा। पर सिखी के नुक्ता-निगाह के मुताबिक अपराध है।)

इस संबंध में हम इसके लेखक के विचार के लिए भाई गुरदास जी की उसी 'वार' नं: 24 में से प्रमाण पेश करते हैं।

भाई गुरदास जी गुरू अंगद साहिब की महिमा करते हुए इस तरह लिखते हैं;

(अ) बाबाणै घरि चानणु लहणा। - पउड़ी नं: 6

(आ) पुतु सपुतु बबाणै लहणा। - पउड़ी नं: 7

भाई गुरदास जी की इस 'वार' नं: 24 और सॅते बलवंड दी वार में और भी कई समानताएं हैं। हमने यहाँ पाठकों को सिर्फ झलक ही दिखलाई है। पाठक स्वयं निर्णय कर लेंगें कि 'सॅते बलवंड दी वार' गुरू अरजन साहिब की जिंदगी के दौरान ही गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज थी।

ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि॥

सॅते बलवंड ने यह 'वार' कब और क्यों उचारी?

कवि संतोख सिंह जी ने "गुर प्रताप सूरज प्रकाश" में इनकी जो साखियां लिखीं हैं वह बड़ी सुंदर व दिलकश हैं। कवि जी ने ये घटना गुरू अरजन देव जी के समय की बताई है। साखी इस प्रकार है कि बलवंड और सॅता गुरू अरजन साहिब के दरबार में कीर्तन करते थे। लड़की की शादी के लिए धन माँगा। जितना उन्होंने आशा की थी उतना धन ना मिला, तो कीर्तन करने से रूठ गए, गुरू अरजन साहिब जी खुद बुलाने गए तो भी वे ना माने; बल्कि गुरू नानक देव जी की शान मे कुबोल कहे। सतिगुरू जी ने संगति को खुद कीर्तन करने का हुकम किया और कहा बलवंड सॅते से कोई कीर्तन ना सुने। ये जब भूखे मरने लगे, घमण्ड टूट गया, तब लाहौर निवासी भाई लद्धा जी को सिफारिश के लिए साथ लाए। माफी मिली और गुर-उस्तति में 'वार' उचारी।

कुछ लिखारी इस 'वार' का संबंध गुरू अंगद देव जी से जोड़ते हैं।

मिस्टर मैकालिफ़ ने अपने सिख सलाहकारों की बताई हुई विचार के मुताबिक ये साखी गुरू अंगद देव जी के वक्त की लिखी है। इसकी प्रोढ़ता में वह लिखते हैं कि हमने ज्ञानी सरदूल सिंह और ज्ञानी ध्यान सिंह से ये ख्याल लिया है। ज्ञानी बिशन सिंह ने श्री गुरू ग्रंथ साहिब के टीके में दोनों विचारों को मिलगोभा कर दिया है। आरम्भ में लिखते हैं कि ये घटना गुरू अरजन साहिब जी के समय हुई, पर अंत में लिखते हैं कि ये 'वार' गुरू अंगद देव जी की गुरू-गद्दी नशीनी के वक्त पढ़ी गई। 'शब्दार्थ' के लिखारी लिखते हैं कि मर्दाना जी की औलाद में सॅता और बलवंड दो भाई गुरू अंगद देव जी के दरबार में कीर्तन करते थे; लड़की की शादी पर वैसाखी का चढ़ावा मिला, जो बहुत कम था, रूठ गए। भाई लद्धा जी की सिफारिश से फिॅटकार दूर हुई और उन्होंने गुरू साहिबान की उस्तति में ये 'वार' उचारी। 'शब्दार्थ' के अनुसार ये डूम गुरू हरिगोबिंद साहिब के समय तक जीवित रहे, हरेक गुरू की 'गद्दी-नशीनी' के वक्त उस्तति की पउड़ी रचते रहे; जो पउड़ी उन्होंने गुरू हरिगोबिंद साहिब की 'गद्दी-नशीनी' के समय उचारी, वह शहर रावलपिंडी धर्मशाला 'भाई बूटा सिंह जी' में रखी एक पुरातन बीड़ में दर्ज है। मिस्टर मैकालिफ लिखता है यह 'वार' बलवंड ने गुरू अंगद साहिब से माफी मिलने पर लिखी थी, झगड़ा है ही बलवंड का था। सॅते ने आखिरी तीन पौड़ियां गुरू अरजन साहिब के समय लिखीं, मात्र इसलिए कि 'पांचों गुरूओं की उस्तति मुकम्मल हो जाए और 'वार' को बीड़ में चढ़ाया जा सके। इस 'वार' की पाँचवीं पौड़ी का अर्थ करते समय तुक 'लबु विणाहे माणसा जिउ पाणी बूरु" पर मैकालिफ नोट लिखता है कि यहाँ 'बलवंड' अपने आप को धिक्कारता है। सो, मैकालिफ़ के विचार के अनुसार पहली पाँच पौड़ियां बलवंड द्वारा उचारी गई, और झगड़ा भी इसी से हुआ था। 'शब्दार्थ' वालों ने ये निर्णय नहीं किया कि किस-किस ने कौन-कौन सी पौड़ी उचारी। आखिर दोनों एक साथ एक ही चीज़ के रचयता नहीं थे हो सकते।

इस उपरोक्त चर्चा में आए हुए सज्जनों की सारी विचार का नतीजा:

बलवंड और सॅता, मर्दाने जी की औलाद में से थे। -शब्दार्थ

गुरू अंगद साहिब जी से ये नाराज हुए थे।- मैकालिफ और शब्दार्थ

भाई लद्धा जी के माध्यम से गुरू अंगद देव जी से माफी मिली थी।

पहली 5 पौड़ियां गुरू अंगद साहिब के सामने दोनों ने उचारीं।

पिछली 3 पौड़ियाँ गुरू अमरदास, गुरू रामदास और गुरू अरजन साहिब जी की गुरू-गद्दी नशीनी के वक्त इन दोनों ने उचारीं।

गुरू हरि गोबिंद साहिब की उस्तति वाली पौड़ी दर्ज होने से रह गई है।

पहली पाँच पौड़ियां बलवंड ने उचारीं, झगड़ा इन्हीं के साथ था; सॅते ने तो गुरू अरजन साहिब के वक्त इस 'वार' को सम्पूर्ण करने के लिए 3 पौड़ियां उचारीं।- मैकालिफ़

ये 'वार' गुरू अंगद साहिब की गुरू अंगद साहिब की गुरू-गद्दी नशीनी के वक्त पढ़ी गई

बलवंड और सॅते की लड़की की शादी पर ये नाराजगी हुई। पर दोनों में से लड़की किसकी थी? ये किसी ने नहीं लिखा। हाँ, मैकालिफ़ द्वारा ये लिखे जाने पर कि झगड़ा बलवंड के साथ था ये अंदाजा लग सकता है कि मैकालिफ़ अनुसार लड़की 'बलवंड' की थी।

अब उक्त तथ्यों को एक-एक करके विचारते हैं:

क्या बलवंड और सॅता गुरू अंगद देव जी से नाराज़ हुए थे?

साखी के अनुसार, बलवंड या सॅते की लड़की की शादी के मौके पर नाराजगी हुई थी। इनमें से जिसकी भी लड़की थी, विवाह के योग्य लड़की उम्र यदि 16 साल मान ली जाए और अगर ये बड़ी बेटी भी थी तब अगर लड़की के पिता की उम्र लड़की के पैदा होने के कम से कम 20 साल मिथ ली जाए तो लड़की की शादी के वक्त उसकी उम्र 36 साल होनी चाहिए।

रूठने का कारण ये था कि विवाह के लिए जितना धन इन्हें चाहिए था, उतना इन्हें गुरू-घर से नहीं मिल सका। साखी के अनुसार, वैसाखी के पर्व के समय का सारा चढ़ावा भी इनके लिए काफी नहीं हो सका। ये रूठ के चले गए; सतिगुरू जी मनाने गए पर वे ना आए। इनको घमण्ड था कि जहाँ भी जा के कीर्तन करेंगे, रोजी कमा लेंगे। रूठने का कारण विवाह के लिए आवश्यक धन ना मिलना ही था, अगर उन्हें धन मिल जाता तो रूठने की जरूरत नहीं पड़ती। सो, अगर इस साखी पर गहराई से विचार करें तो निम्नलिखित शंके खड़े होते हैं;

क्या सचमुच गुरू अंगद देव जी के दरबार में इतनी भेटा भी नहीं थी आती कि वह गुरू-दर के कीर्तनियों की एक मामूली सी आवश्यक्ता भी पूरी ना कर सके?

बलवंड और सॅते का रोजगार सतिगुरू जी के दर पर कीर्तन करना था; उनकी आर्थिक आवश्यक्ताएं उसी दर से पूरी होनी थीं। ये बात अनहोनी सी लगती है कि सतिगुरू जी ने किसी एक विशेष दिन की ही भेटा देने से इन्कार किया हो। उनकी कमी पूरी ना करके किसी जबानी ढारस के आसरे उन्हें मनाने जाना भी व्यर्थ ही प्रतीत होता है।

कई इतिहासकार लिखते हैं कि जब बलवंड और सॅते ने लड़की के विवाह के लिए धन माँगा तो सतिगुरू जी ने कहा कि दो महीनों में वैसाखी के मेले पर प्रबंध कर देंगे, पर रबाबी इस बात से रूठ गए कि अभी ही क्यों नहीं प्रबंध किया जाता। ये विचार बहुत ही कच्चा सा है। हरेक मनुष्य जिसको अपने हाथों से नौकरी व मजदूरी आदि से रोजी कमानी पड़ती है अपने अंदर ध्यान मार के देख ले कि क्या एक साधारण सी बात के पीछे वह अपने रोजगार के जरीए से इस तरह तोड़-विछोड़ कर सकता है। हाँ, सॅता और बलवंड तब ही कर सकते थे, यदि;

उन्हें दो महीने में भी आवश्यक धन मिलने की आस नहीं थी, और

किसी और ने उन्हें भड़काया हुआ था अथवा उम्मीद थी कि इस गुरू को छोड़ के इन जैसे किसी और के पास चल के कीर्तन करेंगे।

ये 'उकसावा' व 'उम्मीद' भी तब ही संभव हो सकती थी कि अगर सतिगुरू जी का कोई विरोधी हो जो गुरुता गद्दी का शरीक हो, और

जिस गुरू से वे रूठे थे वे अभी नए-नए ही गद्दी पर बैठे हों, और

उनका अपना जीवन अभी इतना मशहूर ना हुआ हो जिसका गहरा प्रभाव सॅते-बलवंड के मन पर इतना पड़ सकता कि वे धन की कमी में भी तोड़-तड़ाग ना करते।

उम्र का भी बहुत असर पड़ता है। बड़ी उम्र के आगे स्वाभाविक तौर पर सिर झुक जाता है, और जिनका रोजी का सवाल हो वे तो मामूली सी बात पर बागी हो ही नहीं सकते। क्या गुरू अंगद साहिब की उम्र इस घटना के वक्त लड़की के पिता-रबाबी की उम्र से ज्यादा कम थी कि वह इस बिल्कुल ही छोटी सी बात पर आगे से बोल पड़ा?

एक बात और भी है हैरानी भरी। सॅता और बलवंड भाई मर्दाने की औलाद में से थे, तो इतने रूखे हो के सतिगुरू जी से तोड़ने के वक्त उन्हें ये भी ख्याल नहीं आया कि उनके बुर्जुगों ने अपनी सारी उम्र गुरू नानक साहिब के साथ गुजारी थी। अभी कोई ज्यादा समय नहीं बीता था, गुरू की अभी ये दूसरी ही पीढ़ी थी। तोड़ी भी तो किस बात पर? भला घरों में केई कारणों से मिथे हुए विवाह भी कई बार साल-साल छे-छे महीने पीछे टालने नहीं पड़ते?

फिर, जिस दर पर हिन्दोस्तान का मुगल बादशाह भी आ के झुके, उसके आगे गरीब मरासियों का कुबोल बोलने की हिम्मत कर लेना एक बड़ी आश्चर्य वाली बात है। सो, अगर ये घटना सचमुच गुरू अंगद साहिब के ही समय हुई थी, तो हिमायूँ बादशाह के आने से पहले ही हुई होगी। हिमायूँ की शेरशाह से संन 1540 में हार हुई थी और वह गुरू अंगद साहिब जी के पास खडूर साहिब आया था।

आईऐ, इन सभी आशंकाओं की निर्विक्ति के लिए गुरू अंगद देव जी के जीवन में ध्यान से झाँकें।

गुरू-गद्दी को लेकर गुरू अंगद देव जी का कोई शरीका व विरोधी नहीं था, जिससे बलवंड को शह मिलती:

सतिगुरू नानक देव जी ने बाबा लहिणा जी को कम से कम 7 साल अच्छी तरह इस नए जीवन और जिंमेवारी के लिए तैयार किया, कई बार परखा, जब कसवटी पर हर बार खरे साबित होते रहे, तब जा कर सितंबर 1539 में गुरुता बख्शी। बाबा लहिणा जी का जीवन इतना ऊँचा बना कि गुरू नानक देव जी स्वयं उनके आगे झुके। उस वक्त बाबा लहिणा जी की उम्र 35 साल से ज्यादा थी, क्योंकि इनका जन्म अप्रैल संन 1504 में हुआ था। ये ठीक है कि गुरू नानक जी की परख-कसवटी पर उनके साहिबजादे पूरे ना उतर सके, पर इसका ये भाव नहीं कि बाबा श्री चंद कोई साधारण से लोग थे। बाबा जी ने अपनी सारी उम्र बंदगी में गुजारी और गुरू अंगद साहिब जी की कभी भी कोई विरोधता नहीं की। इतिहास में कहीं ये वर्णन नहीं आता कि गुरू अंगद साहिब जी के लंगर में कभी किसी प्रकार की कमी आई हो; बल्कि गुरता के अगले ही साल हिन्दोस्तान के बादशाह हिमायूँ का उनके पास सवाली बन के आना बताता है कि गुरू अंगद देव जी का तेज-प्रताप भी गुरू नानक साहिब जैसा ही था।

सो, इस विचार में ये बातें देख चुके हैं:

गुरू पद के मामले में गुरू अंगद देव जी का कोई शरीक नहीं था, जहाँ सॅता और बलवंड इनसे मुँह फेर के जा सकते। गुरू पद का कोई शरीक ना होने के कारण सॅते-बलवंड को किसी की उकसाहट भी नहीं थी। गुरू अंगद साहिब जी की गुरू नानक देव जी के समय की 7 साल की हुई मेहनत इनको गुरू नानक साहिब के समय में ही इतना ऊँचा बना गई थी कि किसी को भी इस बारे में कोई शक नहीं पड़ सकता। सो, सॅते और बलवंड को ये आशा कभी भी नहीं हो सकती थी कि गुरू घर से मुँह मोड़ के सिख-संगतों में कहीं भी आदर-मान पा सकते अथवा रोजी कमा सकते।

बड़ी छोटी उम्र का सवाल:

इतने ऊँचे आत्मिक जीवन के होते हुए, छोटी-बड़ी उम्र का सवाल उठता ही नहीं, पर उम्र से भी गुरू अंगद देव जी छोटे नहीं थे, हिमायूँ के आने के वक्त सतिगुरू जी की उम्र 36 साल से ज्यादा थी।

सो, कहीं भी कोई ऐसी गुँजाइश नहीं दिखती जिसका आसरा ले के ये माना जा सके कि बलवंड और सॅता गुरू अंगद देव जी के समय में रूठे थे।

पर, जब हम पढ़ते-सुनते हैं कि मर्दाना जी की औलाद में हुए सॅते बलवंड ने गुरू अंगद देव जी से छोटी सी बात को लेकर मुँह मोड़ा, तो ये बात बिल्कुल ही र्निमूल सी लगती है। ऐतिहासिक तौर पर इसे परख कर देख लें। हम ये बता चुके हैं कि इस तरह का व्यवहार गुरता से पहले हो सकता है, जब सतिगुरू जी का तेज-प्रताप अभी चमका ना हो। भाई मर्दाना जी संन् 1521 में अभी जीवित थे, क्यों इस समय आप गुरू नानक साहिब के साथ ऐमनाबाद में मौजूद थे जब बाबर ने हमला किया। इससे कुछ साल बाद मर्दाना जी का निधन हुआ। गुरू नानक देव जी 1539 में जोती-जोति समाए। इस तरह उम्र के लिहाज से गुरू नानक साहिब और भाई मर्दाना तकरीब हम-उम्र थे। गुरू नानक साहिब के ज्योति-ज्योति समाने के वक्त बड़े साहिबजादे बाबा श्री चंद जी की उम्र 42 साल के करीब थी। सो, गुरू अंगद देव जी के गद्दी पर बैठने के थोड़े ही समय बाद ये घटना होने की हालत में भाई मर्दाना जी के पुत्रों की उम्र भी बाबा श्री चंद जी के बराबर की ही कही जा सकती है। अगर बहुत खींच-घसीट भी करें, तो भी मुश्किल से ये मान सकेंगे कि सॅता और बलवंड भाई मर्दाना जी के (यदि वे उसी खानदान में से हुए तो) पौत्र हुए हैं। पर अगर ये बात ठीक होती तो हरेक इतिहासकार बड़ी आसानी से लिख जाता कि सॅता और बलवंड भाई मर्दाना के पौत्र थे। 1539 तक गुरू नानक साहिब के पास भाई मर्दाना जी के उपरांत उनका पुत्र कीर्तन करता रहा; यदि पौत्र अगले ही साल अथवा अगले 12 सालों के भीतर (गुरू अंगद साहिब के ज्योति-ज्योति समाने के समय तक) वर-योग कन्या के पिता हो सकते हैं तो ये भी मानना पड़ेगा कि ये पौत्र भी गुरू नानक साहिब के पास कीर्तन करते रहे। सो, इतनी जल्दी ये पौत्र गुरू नानक साहिब के दर से मुँह नहीं मोड़ सकते।

दरअसल बात ये है कि भाई बलवंड और सॅता भाई मर्दाना की संतान में से नहीं थे। भाई मर्दाना चोंहबड़ जाति का मरासी था, और सॅता और बलवंड मोखड़ जाति के मरासी।

माफी दिलाने वाले भाई लद्धा जी कब हुए हैं?

इतिहास में ये बात जानी मानी है कि सॅते और बलवंड को भाई लद्धा जी की परोपकारी बिरती द्वारा ही माफी मिली थी। भाई लद्धा जी की सिफारिश तब ही कारगर सिद्ध हो सकती थी जब वह अपने जीवन-स्तर को ऊँचा उठा के गुरू नजरों में कबूल हो चुका हो। यदि भाई लद्धा जी का जीवन गुरू अंगद देव जी के जीवन-काल में महान हो चुका होता तो भाई गुरदास जी इनका नाम गुरू अंगद देव जी के सिखों की फरिश्त में लिखते। भाई बूड़ा जी (बाबा बुड्ढा जी) गुरू नानक साहिब के वक्त ही प्रसिद्ध हो गए, उनका नाम भाई गुरदास जी ने गुरू नानक साहिब के सिखों में लिखा है। फिर और किसी जगह जिक्र नहीं आया। पर बाबा जी ने गुरू हरिगोबिंद साहिब जी को भी गुरू-तिलक दिया था। सो, भाई लद्धा जी गुरू अरजन साहिब के समय में ही प्रसिद्ध हुए। गुरू अंगद देव के समय में इतिहास इनसे वाकिफ नहीं है।

सॅते बलवंड की घटना गुरू अरजन साहिब के समय हुई थी:

गुरू-व्यक्तियों में सबसे पहले गुरू रामदास जी ही थे, जिनकी संतान को जन्म से ही लेकर गुरू-मति के संस्कारों के असर तले पलने का मौका मिला। इसका नतीजा ये निकला कि गुरू रामदास जी के बाद गुरू-पद की जिमेवारी के लिए किसी ऐसी तैयारी व मेहनत की आवश्यक्ता नहीं पड़ी जो बाबा लहिणा जी, गुरू अमरदास जी और भाई जेठा जी के बाबत करनी पड़ी थी। सतिगुरू जी खुद अपने बच्चों में से उनके रोजाना के जीवन के स्वभाव आदि को देख के फैसला कर लेते रहे कि कौन इस जिंमवारी को ठीक से निभाने में समर्थ है। पर, इसका एक और भी नतीजा निकला। गुरू-पद के लिए बड़े शरीक खड़े होने शुरू हो गए। सतिगुरू तो कसवॅटी वही बरतते थे, जो गुरू नानक, गुरू अंगद और गुरू अमरदास जी ने बरती थी, पर कुछ अपनी जद्दी हक समझ के चुने गए भ्राता-गुरू से ईष्या करने लग जाते थे। सिख-गुरू-इतिहास में शरीक और ईष्या वाली दास्तान सबसे पहले गुरू अरजन साहिब के हिस्से आई। इनके बड़े भाई बाबा प्रिथी चंद जी ने हर तरह का जोर लगा के विरोधता की, इनकी कामयाबी के राह में कई तरह की रुकावटें डालीं। गुरू-गद्दी के वक्त पिता गुरू रामदास जी को कुबोल बोले, गुरू रामदास जी के ज्योति-ज्योति समाने पर गोविंदवाल दस्तारबंदी के वक्त भी शोर मचाया, अमृतसर आ के नगर के पँचों को उकसाया। जब दूर से सिख-संगत दर्शनों के लिए आती तो बाबा प्रिथी चंद ने अपने धड़े वाले कुछ लोगों के माध्यम से आए सिखों को बहला-फुसला के उनसे चढ़ावा ले लिया करते थे, और आम तौर पर लंगर के वक्त उनको गुरू के लंगर में (जो गुरू अरजन साहिब की निगरानी में सबके लिए सांझा चलता था) भेज दिया करते थे। आमदनी तो बाबा प्रिथी चंद की तरफ जाती थी पर खर्च गुरू अरजन साहिब को करना पड़ता था। इतिहासकार लिखते हैं कि नतीजा ये निकला कि कई बार लंगर एक ही वक्त पकता था और चने की रोटी भी मिलने लग गई थी। जब भाई गुरदास जी आगरे से वापस आए, ये हालत देखी, तब बाबा बुड्ढा जी जैसे समझदार सिखों के साथ सलाह करके इन्होंने मिल के सिख-संगतों को इस बहलाने-फुसलाने वाली चाल से बचाना शुरू किया। गुरू रामदास जी सन् 1581 में ज्योति-ज्योति समाए थे, बाबा पृथ्वी चंद ने तब से ही ये विरोधता आरम्भ कर दी थी। सॅते-बलवंड की लड़की की शादी वैसाखी से दो महीने पहले या वैसाखी के आस-पास थी। सो, सॅते-बलवंड के बाग़ी होने की घटना वैसाखी सन् 1582 की ही हो सकती है, क्योंकि इन ही महीनों में इतिहास के अनुसार निम्नलिखित घटनाएं घटित हुई थीं;

गुरू-गद्दी की खातिर शरीका और विरोधता।

विरोधी शरीक भाई बाबा पृथ्वी चंद जी वहाँ बसते थे जहाँ गुरू अरजन साहिब रहते थे।

चढ़ावे की भेटा बाबा पृथ्वी चंद जी को जाती थी और खर्च गुरू अरजन साहिब जी के लंगर पर पड़ता था।

गुरू के खजाने में आमदनी बहुत कम थी।

किन हालातों में सॅता-बलवंड रूठे?

बलवंड और सॅता रोजी की खातिर कीर्तन करते थे, जैसे अब श्री हरिमंदर साहिब अमृतसर में रबाबी कीर्तन करते आए हैं। कोई सिख भी हो तो भी जिसका रोजी का वसीला कीर्तन ही बन जाए तब तक ही यह काम करेगा जब तक उसकी रोजी रोटी कायम है। बलवंड और सॅते ने लड़की की शादी के लिए भी धन वहीं से लेना था जहाँ वे काम करते थे। पर बाबा पृथ्वी चंद जी गुरू अरजन साहिब जी के रास्ते में रुकावटें खड़ी करने पर तुले हुए थे। अमृतसर में बसते कई लोगों को लालच दे के उकसाते होंगे; संगतों को भुलेखा डालने के लिए भी तो आखिर कुछ साथी साथ मिलाए ही थे। ये हो सकता है कि सॅते बलवंड को भी प्रेरित किया गया हो; पर वे ना माने हों। ये भी हो सकता है कि लड़की की शादी के समय गुरू अरजन साहिब जी से ज्यादा माया (धन) माँगने की प्रेरणा बाबा पृथ्वी चंद के आदमियों द्वारा कराई गई हो। अगर ये उकसावा अथवा प्रेरणा ना भी हो तो भी ये हो सकता है कि गुरू अरजन साहिब के दर पर अपनी जरूरत पूरी ना होती देख के सॅता और बलवंड ये आस बनाए बैठे हों कि अगर बाबा पृथ्वी चंद जा का असर रसूख बढ़ गया और गुरू अरजन साहिब का पासा ढीला पड़ गया तो दूसरी तरफ जा के कीर्तन करेंगे। सो, ये रूठ गए। गुरू अरजन साहिब इनको मनाने गए। धन होता तो ये रूठते ही क्यों? गुरू अरजन साहिब की उम्र भी अभी अठारह-उन्नीस साल की ही थी, अभी तक इन लोगों ने सतिगुरू जी के जीवन में से कोई ऐसे ऊँचे चमत्कार भी नहीं देखे थे, जो बाबा लहणा जी गुरू अमरदास जी और गुरू रामदास जी गुरू बनने से पहले दिखा चुके थे। सो, गुरू अरजन साहिब जी का खुद चलके जाना भी सॅते-बलवंड को प्रेरित ना कर सका। बल्कि ये और भटक गए, समझ बैठे, पृथ्वी चंद की विरोधता के कारण गुरू अरजन साहिब की गुरू-पदवी भी हमारे ही आसरे है। अहंकार में आ गए और गुरू नानक साहिब की शान में भी कुबोल बोल दिए। बस! स्ंबंध टूट गया। सतिगुरू जी ने आ के संगतों को सॅते-बलवंड से कीर्तन सुनने से मना कर दिया। रबाबियों ने संगतों को मोहने के लिए अपने हुनर का बहुत जोर लगाया होगा, पर सिख भवरे असल फूल को पहचान चुके थे, किसी ने धोखा नहीं खाया। उधर भाई गुरदास जी और बाबा बुड्ढा जी के उद्यम से भेटा और लंगर के बारे में पृथ्वी चंद की चाल भी नाकामयाब रह गई। सो, सॅता बलवंड किसी जगह के लायक नहीं रहे। जब भूख से बहुत दुखी हुए तो लाहौर से सतिगुरू अरजन साहिब के महान सिख भाई लद्धा जी को साथ ला के माफी ली।

इस 'वार' का किसी गुरू-व्यक्ति की गद्दी-नशीनी से कोई संबंध नहीं पड़ता:

रावलपिंडी की किसी धर्मशाला वाली एक पुरानी 'बीड़' की तरफ ध्यान दिलाने से कोई खासा लाभ नहीं हो सकता। लिखती 'बीड़ों' में लोगों ने कई जगहों पर और ही ज्यादा तथा-कथित 'शबद' दर्ज किए हुए हैं, सिख गलती करके इनका कीर्तन भी किया करते हैं। क्या इन बाहरी 'शबदों' का रिवाज़ डालना 'गुरू ग्रंथ साहिब' के बारे में सिखों के दिल में शक नहीं पैदा करेगा? इस तरह तो कौम को कई भुलेखे डाले जा सकते हैं।

इस 'वार' की किसी भी पउड़ी के साथ ये जिक्र नहीं कि आखिरी 3 पउड़ियाँ तीसरे, चौथे और पाँचवें गुरू की 'गद्दी-नशीनी' के वक्त सॅता और बलवंड उचारते रहे। रूठने और गद्दी नशीनी के दो अलग-अलग मामले एक लड़ी में नहीं परोए जा सकते। इस 'वार' का आखिरी अंक '1' भी प्रकट करता है कि ये सारी बाणी समूचे तौर पर एक चीज़ है, किसी एक घटना के बारे है। 'वार' में हमेशा किसी एक ही जीवन-झाकी का वर्णन हुआ करता है।

इस 'वार' में सॅते बलवंड का अलग-अलग हिस्सा:

पहली 3 पउड़ियाँ बलवंड की;

मैकालिफ ने नोट में लिखा है जब इस 'वार' की बाणी को ध्यान से पढ़े ंतो पता लगता है कि पहली पाँच पउड़ियां बलवंड ने उचारी थीं। झगड़ा भी इसी का ही था; सो, मैकालिफ़ के विचार के अनुसार लड़की भी इसी की ही होगी क्योंकि सॅते ने तो गुरू अरजन साहिब के वक्त 'वार' को केवल 'मुकम्मल' करने के लिए बाकी की 3 पउड़ियाँ उचारीं।

अब हम 'बाणी' को ध्यान से विचार के ये देखेंगे कि बलवंड की 'आखी' हुई कितनी है, सॅते बलवंड की कितनी और इनमें से लड़की किसकी थी, भाव, असल झगड़ा किसने उठाया था।

पहली पउड़ी:

पहली पउड़ी में गुरू नानक साहिब की महिमा की गई है और कहा गया है कि गुरू नानक देव जी का 'नाम' कादर करतार ने स्वयं बड़ा किया और ये धर्म का राज गुरू नानक देव जी ने चलाया। गुरू नानक देव जी ने अपने सेवक बाबा लहणा जी के आगे माथा टेका और अपनी हयाती (जिंदगी) में ही उनको अपनी जगह पर चुन लिया। इस पौड़ी में पौड़ी के उचारने वाले का नाम नहीं है।

दूसरी पउड़ी:

दूसरी पौड़ी में बाबा लहणा जी की महिमा है। कहा है कि गुरू नानक देव जी की महानता की बरकति से लहिणा जी की धूम पड़ गई; इन्होंने आज्ञा मानने की अलूणी सिल (बग़ैर नमक वाली शिला) चाटी थी, पर गुरू गुरू नानक देव जी के पुत्र इस बात से चूक गए थे।

इस पउड़ी में भी लेखक का नाम नहीं है।

तीसरी पउड़ी:

तीसरी पौड़ी में फिर गुरू अंगद साहिब का वर्णन है; विचार भी पिछली पौड़ी वाले ही दोहराए हुए हैं।

पउड़ी नं:2 में लिखा है:

'सहि काइआ फेरि पलटीअै'।

यहाँ नं: 3 में कहा है:

'नानक काइआ पलटु करि'।

पउड़ी नं:2 में कहा है:

'लहणे दी फेराईअै नानका दोही खटीअै'।

नं: 3 में कहा है:

'गुर अंगद दी दोही फिरी सचु करतै बंधि बहाली'।

पउड़ी नं:2 में बाबा लहणा जी के 'हुकम मानने' का जिक्र है:

'करहि जि गुर फरमाइआ'।

नं: 3 में भी:

'जिनि कीती जो मंनणा'।

फिर, पउड़ी नं 2:

'लंगरु चलै गुर सबदि... खरचे दिति खसंम दी...'।

पउड़ी नं:3:

'लंगरि दउलति वंडीअै...'।

पउड़ी नं: 2:

'मलि तखतु बैठा गुर हटीअै'।

पउड़ी नं:3

'मलि तखतु बैठा सै डाली'।

इस पौड़ी नं: 3 में उचारने वाले का नाम 'बलवंड' दर्ज है। सो, ये तीनों पौड़ियाँ बलवंड की हैं; पहली गुरू नानक देव जी की उस्तति में, और दूसरी व तीसरी गुरू अंगद साहिब की सिफत में।

चौथी पउड़ी:

चौथी पौड़ी में फिर नए सिरे से गुरू नानक देव जी की उस्तति शुरू हो गई है। सिखों को, पुत्रों को परखना, और, शोध करके बाबा लहणा जी को चुनना। अगर ये पउड़ी बलवंड जी ने उचारी होती तो बाबा लहणा जी की उस्तति तक पहुँच के पीछे जाने की आवश्यक्ता नहीं थी; इस पौड़ी को भी पौड़ी नं: 1 के साथ रखा होता। पर ये नहीं हुआ। बलवंड 'वार' का हिस्सा खत्म कर चुका है, दूसरा साथी आरम्भ करता है, वह भी गुरू नानक साहिब से आारम्भ करता है।

इस पौड़ी में किसी का नाम दर्ज नहीं है।

पाँचवीं पौड़ी बलवंड की नहीं है:

पउड़ी नं:5 में गुरू अंगद साहिब जी की महिमा दर्ज है। इसमें दो तुकें ऐसी हैं जिनसे जाहिर होता है कि इस पउड़ी को उचारने वाला अपनी भूल पर पशेमान (प्रायश्चित करना) हो रहा है;

'लबु विणाहे माणसा जिउ पाणी बूरु'....

'निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु'

बलवंड गुरू अंगद साहिब जी की उपमा पौड़ी नं 2, 3 में कर चुका है, नं: 3 में उसका नाम भी आ गया है। ये बात मानने योग्य नहीं प्रतीत होती कि उसने फिर दोबारा से शुरू कर लिया हो। यहाँ एक और मजेदार बात भी है। तीसरी पौड़ी में बलवंड गुरू अंगद साहिब के लंगर की तारीफ करता रहा है, कहा;

'लंगरि दउलति वंडीअै रसु अंम्रितु खीरि घिआली'

लंगर का जिक्र करके और गुरू के महल माता खीवी जी का भी जिक्र करके, फिर नए सिरे से गुरू नानक साहिब की उस्तति करके बलवंड का पाँचवीं पउड़ी में ये कहना कि 'टिका ले के (तिलक ले के) 'लै के' 'फेरुआणि' सतिगुर ने खडूर को जा के भाग लगाए, बड़ी आश्चर्य भरी संरचना लगती है। अगर बलवंड जी ये बात कह रहे होते तो क्रमवार वे गुरु-गद्दी के बाद उनका खडूर जाने का जिक्र करके उनके द्वारा चलाए जाने वाले लंगर आदि की महिमा बयान करते। इस तरह, ये पउड़ी बलवंड की नहीं है।

चौथी और छेवीं पौड़ी को उचारने वाला भी एक ही है:

और वह है सॅता:

छेवीं पौड़ी में शब्द 'पोता' बताता है कि ये पउड़ी गुरू अमरदास जी की उस्तति में उचारी गई है। कहा है कि गुरू अमरदास जी ने 'बासकु' को 'नेत्रे' डाल के 'मेरु' को 'मधाणु' बना के 'समुंदु' मथा और 'चौदह रत्न' निकाले, जिनसे जगत में प्रकाश कर दिया। चौथी पौड़ी में भी जहाँ कि गुरू नानक साहिब की उस्तति है यही ख्याल दिया गया है, सिर्फ ख्याल ही नहीं, शब्द भी दोनों में सांझे हैं।

चौथी पौड़ी में:

माधाणा परबतु करि नेत्रि बासकु सबदि रिड़किओनु॥

चउदह रतन निकालिअनु करि आवागउणु चिलकिओनु॥

छेवीं पौड़ी में:

जिनि बासकु नेत्रे घतिआ करि नेही ताणु॥

जिनि समुंदु विरोलिआ करि मेरु मधाणु॥

चउदह रतन निकालिअनु कीतोनु चानाणु॥

(इसमें कोई शक नहीं कि चौथी पउड़ी की तुक 'लहणे धरिओनु छतु सिरि' पहली पौड़ी में भी मिलती है, पर हम बता चुके हैं कि अगर चौथी पउड़ी बलवंड की उचारी हुई होती तो इसकी उचित जगह पहली पौड़ी के साथ थी)।

चौथी पउड़ी में कहा है:

'आवागउणु चिलकिओनु'

छेवीं में:

'आवा गउणु निवारिओ'

इस छेवीं पउड़ी को उचारने वाला 'सॅता' है। निम्नलिखित तुक में ये नाम मिलता है;

'दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु॥'

चौथी और छेवीं पउड़ी के ख्याल और शब्दों की समानता के कारण ये बात मानने में कोई शक नहीं रह जाता कि 'चौथी' पौड़ी भी 'सॅते' ने 'आखी' थी। पाँचवीं पउड़ी के बारे में हम पहले ही बता आए हैं कि वह बलवंड की नहीं हो सकती। सो, ये बात नि:संदेह प्रत्यक्ष हो गई कि चौथी, पाँचवीं और छेवीं- तीनों ही पउड़ियां "सॅते" ने 'कही' थीं।

लड़की सॅते की थी:

थोड़ा सा ध्यान से ये देखें कि छेवीं पउड़ी में सॅता कहते क्या हैं?

'दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु॥'

इन दोनों भाईयों ने लड़की के विवाह का खर्च पूरा करने के लिए 'दानु' मांगा था, पर जितनी बख्शिश गुरू अरजन साहिब ने की, उस पर वे रूठ गए थे। अब 'सॅता' पछताया और कहने लगा- 'हजूर! मुझ 'सॅते' को बख्शिश वही ठीक है जो सतिगुरू को अच्छी लगे।

और फिर दोनों में से लड़की किस की थी? 'सॅते' की। कुबोल ज्यादा किसने बोले थे? सॅते ने, क्योंकि चौथी पौड़ी में 'सॅता' ही पछताता है और कहता है;

'लबु विहाणे माणसा जिउ पाणी बूरु

... ... ... ... ... ... ...

निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु॥'

ये 'वार' गुरू अरजन साहिब की हजूरी में उचारी गई थी:

एक बात और देखने वाली है कि 'सॅता' जब 'बख्शीश' के बारे में पछताता है तब गुरू अमरदास जी को संबोधन कर रहा है, कहता है;

'किआ सालाही सचे पातिसाह, जां तू सुघड़ु सुजाणु॥

दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु॥'

गुरू अंगद साहिब की उपमा करते हुए भी सॅता गुरू अंगद साहिब को संबोधन करते हुए कहता है:

जितु सु हाथ न लभई तूं ओहु ठरूरु॥

... ... ... ... ... ...

निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु॥'

ये 'वार' ना गुरू अमरदास जी की हजूरी में और ना ही गुरू अंगद साहिब की हजूरी में उचारी गई। फिर इस 'संबोधन' करने का भाव क्या है? भट्टों की तरह ये भी गुरू नानक साहिब से ले के गुरू अरजन साहिब तक सारे 'गुर महलों' को एक रूप जान के गुरू अरजन साहिब की हजूरी में केवल 'गुरू' के आगे ये उस्तति कह रहे हैं।

इस विचार को और भी ज्यादा दृढ़ता मिल जाती है जब हम अगली पउड़ी में देखते हैं कि पाँचवीं और छेवीं पौड़ी में गुरू अंगद और गुरू अमरदास को संबोधन करने वाला 'सॅता' गुरू रामदास जी को भी संबोधन करके कहता है;

'नानकु तू लहणा तू है गुरु अमरु तू वीचारिआ॥'

छेवीं पउड़ी गुरू अमरदास जी की गुर-गद्दी के समय की नहीं है:

अब तक हम ये देख आए हैं कि बलवंड ने पहली 3 और सॅते ने अगली 3 पौड़ियां उचारीं माफी मिलने के वक्त। लालच और निंदा वाले अपराध 'सॅता' ही मानता है, गुरू-दर से 'दानु' मिलने और उसमें संतोख ना करने की भूल भी 'सॅता' ही मानता है, और मानता उस पउड़ी में है जो उसने गुरू अमरदास जी की उस्तति में उचारी थी। यहाँ 'गद्दी नशीनी' के वक्त पौड़ियां उचारे जाने वाला भुलेखा भी काटा गया, क्योंकि असल भूल का जिक्र तो है ही इस छेवीं पौड़ी में, जो अमरदास जी की उस्तति में है।

सातवीं आठवीं पौड़ी का भी किसी गुरु-गद्दी से संबंध नहीं:

छेंवीं पौड़ी के संबंध में तो साबित हो गया है कि ये गद्दी-नशीनी के वक्त की नहीं है, ये सॅते को माफी मिलने के वक्त ही उचारी थी अगर ये माफी गुरू अंगद साहिब से मांगी गई होती, तो माफी माँगने वाला 'सॅता' गुरू अंगद साहिब की हजूरी में खड़े हो के गुरू अमरदास जी के बारे में ये पौड़ी उचार नहीं सकता था, क्योंकि अभी तो पहरा गुरू अंगद साहिब का था। गुरू अमरदास जी के वक्त भी ये घटना नहीं हुई, किसी इतिहासकार ने नहीं लिखा। ना ही गुरुता बारे में कोई शरीका अथवा कोई विरोधता थी, जिसके कारण सॅते-बलवंड को कोई शहि मिल सकती। बाबा दातू जी ने थोड़ा सा झगड़ा खड़ा किया था, वह भी सिर्फ एक दिन में ही खत्म हो गया था कि अगले दिन बाबा जी खडूर साहिब वापस मुड़ आए थे। इसी ही विचार अनुसार गुरू रामदास जी के समय भी सॅते-बलवंड के रूठने की कोई संभावना नहीं थी हो सकती। जब छेवीं पौड़ी की बाबत ये पक्का निर्णय हो गया कि वह तो 'सॅते' ने (जिसकी लड़की की शादी थी) माफी लिखने के वक्त ही उचारी थी, तो 'गद्दी-नशीनी' के वक्त बाकी की दो पौड़ियाँ उचारने वाला ख्याल भी साथ में ही गलत साबत हो जाता है।

सॅता बलवंड गुरू अरजन साहिब के समय ही हुए:

बाकी रहा ये ख्याल कि सॅता और बलवंड खडूर साहिब के रहने वाले थे। शायद इसी ख्याल ने ही साखी को गलत ऐतिहासिक जगह पर रख देने में सहायता की हो। खडूर साहिब के बाशिंदे होते हुए भी ये आवश्यक नहीं कि वे गुरू अंगद देव जी के समय के हुए हों। जब अमृतसर शहर बसा तो गुरू अरजन साहिब ने भिन्न-भिन्न काम-काज वालों विभिन्न शहरों से लोगों को ला के यहाँ बसाया था। सॅता और बलवंड भी खडूर साहिब से यहाँ आ के बसे होंगे; इनका तो काम भी 'कीर्तन' था जिसकी ज्यादा माँग गुरू के दरबार में ही हो सकती थी।

शायद कई सज्जन ये ख्याल बना लें कि सॅते और बलवंड ने भूल तो गुरू अंगद साहिब के वक्त की थी, पर माफी उनको गुरू अरजन जी के समय मिली थी। ये भी अनहोनी है। रूठना धन के कारण था। अगर सॅता और बलवंड पैसे वाले होते तो झगड़ा उठता ही क्यों? और अगर वे गुरू अंगद साहिब के दरबार में से हटाए जाने के बाद 30 साल तक निर्वाह कर सके तो उन्हें माफी किस लिए माँगनी थी? (गुरू अंगद देव जी के ज्योति-ज्योति समाने के 30 साल बाद गुरू अरजन साहिब जी गुरू गद्दी पर बिराजमान हुए थे)

इस तरह, उपरोक्त सारी विचार का सारांश:

सॅता और बलवंड भाई मर्दाना जी के वंश में से नहीं थे, भाई मर्दाना 'चौंहबड़' थे और ये 'मोखड़' थे।

ये दोनों गुरू अरजन साहिब जी के पास कीर्तन करते थे।

सॅते की लड़की की शादी थी; और इन्होंने सतिगुरू जी से विवाह के लिए धन मांगा, जो इनकी उम्मीद के मुताबिक इन्हें नहीं मिल सकी क्योंकि बाबा पृथ्वी चंद जी की विरोधता के कारण भेटा गुरू-घर में पहुँचती ही बहुत कम थी।

ये घटना मार्च-अप्रैल 1582 की है।

कुछ महीनों के बाद भाई लद्धा जी लाहौर निवासी ने इन्हें माफी ले दी। माफी मिलने और गुरू-उस्तति में बलवंड ने पहली 3 पउड़ियाँ और सॅता ने अगली 5 पउड़ियाँ गुरू अरजन साहिब जी के सामने संगति में उचारीं।

जैसे भट्टों की 'गुर-महिमा' की बाणी, जो उन्होंने सितंबर 1581 में उचारी थी, सतिगुरू जी ने 'बीड़' में दर्ज की, वैसे ही ये 'वार' भी 'बीड़' तैयार करने के वक्त दर्ज की।

ये दोनों 'बाणियाँ' सिख इतिहास संबंधी बहुत ही आवश्यक 'यादगारें' हैं। दस्तारबंदी के समय बाबा पृथ्वी चंद जी ने जोर-जबरदस्ती 'दस्तार' छीननी चाही; इस तरह गुरू नानक साहिब के पवित्र अमृत के प्रवाह को दुनियावी धड़े की नाली में से गुजारना चाहते थे। उस समय दूर से आए निष्पक्ष परदेसी भट्टों ने भरे दरबार में इस बाणी 'सवैयों' के माध्यम से सच्चाई का हौका दिया। ये घटना गोविंदवाल में हुई थी। यहाँ से आ के बाबा जी ने अपने साथियों की मदद से उस अमृत के श्रोत को सुखाने के लिए कई महीने गुरू घर की एक किस्म की नाका-बंदी किए रखी, जिस नाका-बंदी के टूटने की यादगार ये 'रॅबी कलाम' रूप 'वार' है।

रामकली की वार राइ बलवंडि तथा सतै डूमि आखी {पन्ना 966}

पद्अर्थ: राइ बलवंडि = राय बलवंड ने। तथा = और। सतै = सॅते ने। डूमि = डूम ने,मिरासी ने, रबाबी ने। सतै डूमि = सॅते रबाबी ने। आखी = उचारण की, सुनाई।

अर्थ: रामकली रागिनी की यह 'वार' जो राय बलवंड और सॅते डूम ने सुनाई थी।

नोट: किसी काव्य रचना को कोई एक लिखारी ही लिख सकता है, एक रचना के एक से ज्यादा लेखक नहीं हो सकते। इस उपरोक्त शीर्षक में दो नाम हैं- बलवंड और सॅता। इसका भाव ये है कि इन्होंने एक साथ मिल के गुरू अरजन साहिब के दरबार में यह 'वार' 'आखी' थी, सुनाई थी। इस 'वार' की आठ पौड़ियाँ हैं। पहली 3 पौड़ियों का कर्ता बलवंड है और अखिरी 5 पौड़ियों का कर्ता सॅता है।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नाउ करता कादरु करे किउ बोलु होवै जोखीवदै ॥ दे गुना सति भैण भराव है पारंगति दानु पड़ीवदै ॥ नानकि राजु चलाइआ सचु कोटु सताणी नीव दै ॥ {पन्ना 966}

पद्अर्थ: नाउ = नाम, मशहूरी, प्रसिद्धि, इज्जत, महिमा, वडिआई। बोलु = वचन, बात। जोखीवदै = जोखने के लिए, तोले जाने के लिए, (उस प्रसिद्धि को) मापने के लिए। किउ होवै = कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। दे गुना सति = सति आदि दैवी गुण। पारंगति = पार लंघा सकने वाली आत्मिक अवस्था। दानु = बख्शिश। पड़ीवदै = प्राप्त करने के लिए। नानकि = नानक ने। कोटु = किला। सताणी = ताण वाली, बल वाली। नीव = नींव। दै = दे के।

अर्थ: (किसी पुरुख की) प्रसिद्धि जो कादर-कर्ता स्वयं (ऊँचा) करे, उसको तौलने के लिए (किसी तरफ) कोई बात नहीं हो सकती (भाव, मैं बलवंड बेचारा कौन हूँ जो गुरू के ऊँचे मरतबे को बयान कर सकूँ?) संसार-समुंद्र से पार लंघा सकने वाली आत्म-अवस्था की बख्शिश हासिल करने के लिए जो सत्य आदि ईश्वरीय गुण (लोग बड़े बड़े प्रयत्नों से अपने अंदर पैदा करते हैं, वह गुण सतिगुरू जी के तो) बहिन-भाई हैं (भाव,) उनके अंदर तो स्वभाविक (रूप से ही सतिवादी गुण) मौजूद हैं। (इस महान नामवर गुरू) नानक देव जी ने सॅच-रूप किला बना के और पक्की नींव रख के (धर्म का) राज चलाया है।

लहणे धरिओनु छतु सिरि करि सिफती अम्रितु पीवदै ॥ मति गुर आतम देव दी खड़गि जोरि पराकुइ जीअ दै ॥ {पन्ना 966}

पद्अर्थ: धरिओनु = धरा उनि (गुरू नानक ने)। लहणे धरिओनु छतु सिरि = लहणे सिरि छतु धरिओनु, लहणे के सिर पर उन्होंने (गुरू नानक देव जी ने) छत्र रखा। करि सिफती = सिफतें करके, सराहना करके। अंम्रितु पीवदै = नाम अमृत पीते (लहणे जी के सिर पर)। मति गुर आतम देव दी = आतमदेव गुरू की मति के द्वारा। आतमदेव = अकाल पुरख। खड़गि = खड़ग से। जोरि = जोर से। पराकुइ = पराक्रम द्वारा, ताकत से।

(नोट: शब्द 'पराकुइ', शब्द 'पराकउ' से कर्ण कारक एक वचन है। 'पराकउ' संस्कृत शब्द 'प्राक्रम' का प्राकृत रूप है)। जीअ-जीव दान, आत्म दान, आत्मिक जीवन। दै-दे कर। अंम्रितु-आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।

अर्थ: गुरू अकाल-पुरख की (बख्शी हुई) मति-रूपी तलवार से, जोर से बल से (अंदर से पहले जीवन निकाल के) आत्मिक जिंदगी बख्श के, (बाबा) लहिणा जी के सिर पर, जो सिफत-सालाह करके आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी रहे थे, गुरू नानक देव जी ने (गुरुता का) छत्र धरा।

गुरि चेले रहरासि कीई नानकि सलामति थीवदै ॥ सहि टिका दितोसु जीवदै ॥१॥ {पन्ना 966}

पद्अर्थ: गुरि = गुरू ने, गुरू नानक देव जी ने। चेले रहिरासि = चेले (बाबा लहिणा जी) की रहरासि। रहरासि = अरदास, प्रणाम, नमस्कार। कीई = की। गुरि नानकि = गुरू नानक ने। सलामति थीवदै = सलामत होते ही, अपनी सलामती में ही, शारीरिक तौर पर जीवित होते ही। सहि = सहु ने, मालिक ने, गुरू ने। दितोसु = दिया उसको। जीवदै = जीवित रहते हुए ही।

अर्थ: (अब) अपनी सलामती में ही गुरू नानक देव जी ने अपने सिख (बाबा लहिणा जी के) आगे माथा टेका, और सतिगुरू जी ने जीवित रहते हुए ही (अपने जीते जी गुरू गद्दी का) तिलक (बाबा लहिणा जी को) दे दिया।1।

लहणे दी फेराईऐ नानका दोही खटीऐ ॥ जोति ओहा जुगति साइ सहि काइआ फेरि पलटीऐ ॥ {पन्ना 966}

पद्अर्थ: लहणे दी = लहणे की (दोही), बाबा लहणा जी की महिमा की धूम। फेराईअै = फिर गई, मच गई, पसर गई, बिखर गई। नानका दोही खटीअै = (गुरू) नानक की दोहाई की बरकति से। दोही = शोभा की धूम। खटीअै = कमाई के कारण, बरकति से। साइ = वही। जुगति = जीवन का ढंग। सहि = सहु (गुरू) ने। काइआ = काया, शरीर।

अर्थ: (जब गुरू नानक देव जी ने गुरूता का तिलक बाबा लहणा जी को दे दिया, तब) गुरू नानक साहिब की महिमा की धूम की बरकति से, बाबा लहिणा जी की महिमा की धूम पड़ गई; क्योंकि (बाबा लहिणा जी के अंदर) वही (गुरू नानक साहिब वाली) ज्योति थी, जीवन का ढंग भी वही (गुरू नानक साहिब वाला) था, गुरू (नानक देव जी) ने (केवल शरीर ही) दोबारा बदला था।

झुलै सु छतु निरंजनी मलि तखतु बैठा गुर हटीऐ ॥ करहि जि गुर फुरमाइआ सिल जोगु अलूणी चटीऐ ॥ {पन्ना 966}

पद्अर्थ: सु छत्रु निरंजनी = सुंदर रॅबी छत्र। मलि = मल के, संभाल के। गुर हटीअै = गुरू (नानक) की दुकान में, गुरू नानक के घर में। करहि = (बाबा लहिणा जी) करते हैं। गुर फुरमाइआ = गुरू का फरमाया हुआ हुकम। जोगु = 'गुर फरमाइआ' रूप जोग। सिल अलूणी चटीअै = (गुरू का हुकम कमाले-रूपी जोग, जो) अलूणी शिला चाटने के समान (बहुत ही मुश्किल काम) है।

अर्थ: (बाबा लहणा जी के सिर पर) सुंदर रॅबी छत्र झूल रहा है। गुरू नानक देव जी की दुकान में (बाबा लहणा) (गुरू नानक देव जी से 'नाम' पदार्थ ले के बाँटने के लिए) गद्दी संभाल के बैठा है। (बाबा लहिणा जी) गुरू नानक साहिब के फरमाए हुए हुकम को पाल रहे हैं- यह 'हुकम पालण'-रूप जोग की कमाई अलूणी सिल चाटने (जैसा बड़ा ही करड़ा काम) है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh