श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 967 लंगरु चलै गुर सबदि हरि तोटि न आवी खटीऐ ॥ खरचे दिति खसम दी आप खहदी खैरि दबटीऐ ॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: गुर सबदि = सतिगुरू के शबद से। आवी = आती। हरि तोटि...खटीअै = हरि खटीअै तोटि न आवी, हरी नाम की कमाई में घाटा नहीं पड़ता; भाव, बाबा लहणा जी के दर पर सतिगुरू जी के शबद द्वारा नाम का भण्डारा बॅट रहा है, (इतना बँटने पर भी) बाबा लहणा जी की नाम की कमाई में कोई घाटा नहीं पड़ता। खरचे = खर्च रहा है, बाँट रहा है। दिति खसंम दी = पति (अकाल-पुरख) की (बख्शी हुई) दाति। आप खहदी = (नाम की दाति) आप बरती। खैरि = खैर में, दान में। दबटीअै = दबा दब बाँटी, दिल खोल के बाँटी। अर्थ: (बाबा लहिणा जी) अकाल-पुरख की दी हुई नाम-दाति बाँट रहे हैं, खुद भी इस्तेमाल करते हैं और (औरों को भी) दिल खोल के दान कर रहे हैं, (गुरू नानक की दुकान में) गुरू के शबद के द्वारा (नाम का) लंगर चल रहा है, (पर बाबा लहणा जी की) नाम-कमाई में कोई घाटा नहीं पड़ता। होवै सिफति खसम दी नूरु अरसहु कुरसहु झटीऐ ॥ तुधु डिठे सचे पातिसाह मलु जनम जनम दी कटीऐ ॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: नूरु = प्रकाश। अरस = अर्श, आसमान, आकाश। कुरस = सूरज चाँद की टिक्की। अरसहु कुरसहु = आत्मिक मण्डल से, रुहानी देश से। झटीअै = झटा जा रहा है, झड़ रहा है, दबा दबा सींचा जा रहा है। सचे पातसाह = हे सच्चे सतिगुरू अंगद देव जी! जनम जनम दी = कई जन्मों की। अर्थ: (गुरू अंगद साहिब जी के दरबार में) मालिक अकाल-पुरख की सिफत सालाह हो रही है, रूहानी देशों से (उसके दर पर) नूर झड़ रहा है। हे सच्चे सतिगुरू (अंगद देव जी)! तेरा दीदार करने से कई जन्मों की (विकारों की) मैल काटी जा रही है। सचु जि गुरि फुरमाइआ किउ एदू बोलहु हटीऐ ॥ पुत्री कउलु न पालिओ करि पीरहु कंन्ह मुरटीऐ ॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: गुरि = गुरू (नानक) ने। ऐदू = इससे। ऐदू बोलहु = इस बोल से, सतिगुरू नानक के फरमाऐ हुए बोल से। किउ हटीअै = कैसे हटा जा सके? भाव, हे गुरू अंगद साहिब जी! आपने गुरू नानक के फरमाए हुए हुकम के मानने से ना नहीं की। पुत्री = पुत्रों ने। कउलु = वचन, हुकम। न पालिओ = नहीं माना। कंन् = कंधे। करि कंन् = कंधा करके, मुँह मोड़ के, पीठ करके। पीरहु = पीर से, सतिगुरू द्वारा। मुरटीअै = मोड़ते रहे। अर्थ: (हे गुरू अंगद साहिब जी!) गुरू (नानक साहिब) ने जो भी हुकम किया, आप ने सत्य (करके माना, और आप ने) उसे मानने से ना नहीं की; (सतिगुरू जी के) पुत्रों ने वचन नहीं माना, वे गुरू की ओर पीठ दे के ही (हुकम) मोड़ते रहे। दिलि खोटै आकी फिरन्हि बंन्हि भारु उचाइन्हि छटीऐ ॥ जिनि आखी सोई करे जिनि कीती तिनै थटीऐ ॥ कउणु हारे किनि उवटीऐ ॥२॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: दिलि खोटै = खोटा दिल होने के कारण। आकी फिरनि् = (जो) आकी फिरते हैं। बंनि् = बाँध के। उचाइनि् = उठाते हैं, सहते हैं। भारु छटीअै = छॅट का भार। नोट: शब्द 'फिरनि्', बंनि् और 'उचाइनि्' के अक्षर 'न' के साथ आधा 'ह' है। जिनि = जिस (गुरू नानक) ने। आखी = (हुकम मानने की शिक्षा) बताई। सोई = (वह गुरू) खुद ही। करे = (हुकम में चलने की कार) कर रहा है। जिनि = जिस (गुरू नानक) ने। कीती = (ये रजा में चलने वाली खेल) रचाई। तिनै = उसने खुद ही। थटीअै = (बाबा लहिणा जी को) थापा, स्थापित किया, हुकम मानने के समर्थ बनाया। कउणु हारे = (हुकम में चलने की बाजी) कौन हारा? किनि = किस ने? उवटीअै = वॅटा, कमाया, बाजी जीती, लाभ कमाया। कउणु हारे किनि उवटीअै = कौन (इस हुकम-खेल) में हारा, और किस ने (लाभ) कमाया? भाव, (अपनी समर्थता से, इस हूकम = खेल में) ना कोई हारने वाला है ना ही कोई जीतने योग्य है। अर्थ: जो लोग खोटा दिल होने के कारण (गुरू से) आकी हुए फिरते हैं, वे लोग (दुनिया के धंधों की) छॅट का भार बाँध के उठाए फिरते हैं। (पर, जीवों के क्या वश है? अपनी सार्मथ्य के सहारे, इस हुकम-खेल में) ना कोई हारने वाला है और ना ही कोई जीतने-योग्य है। जिस गुरू नानक ने ये रजा-मानने का हुकम फरमाया, वह खुद ही कार करने वाला था, जिसने यह (हुकम-खेल) रची, उसने खुद ही बाबा लहिणा जी को (हुकम मानने के) समर्थ बनाया।2। जिनि कीती सो मंनणा को सालु जिवाहे साली ॥ धरम राइ है देवता लै गला करे दलाली ॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: जिनि = जिस (गुरू अंगद देव जी) ने। कीती = (गुरू का हुकम मानने की मेहनत) की। मंनणा = मानने योग्य, आदर योग्य। को = कौन, और कौन? सालु = सार, श्रेष्ठ, अच्छा। जिवाहे = जिवाहां (जिवांह बेट के इलाके में वहाँ उगती है जहाँ नदी की बाढ़ से मलबा इकट्ठा हो के जगह ऊँची हो जाती है। बरखा ऋतु में सड़ जाती है। पोहली की तरह जिवांह में काँटे होते हैं)। साली = शाली, मूँजी जो नीची जगह ही उगती है और पल सकती है। लै गला = बातें सुन के, आर्जूएं सुन के। दलाली = विचोला पन। अर्थ: जिस (गुरू अंगद देव जी) ने (विनम्रता में रह के सतिगुरू का हुकम मानने की मेहनत कमाई) की, वह मानने योग्य (पूज्य) हो गया। (दोनों में से) श्रेष्ठ कौन है- जिवांह कि मूंजी? (मूंजी ही अच्छी है, जो नीची जगह पलती है। इसी तरह जो विनम्रता से हुकम मानता है वह आदर पा लेता है)। गुरू अंगद साहिब धरम का राजा हो गया है, धरम का देवता हो गया है, जीवों की आरजूएं सुन के परमात्मा के साथ जोड़ने वाला बिचौला-पन कर रहा है। सतिगुरु आखै सचा करे सा बात होवै दरहाली ॥ गुर अंगद दी दोही फिरी सचु करतै बंधि बहाली ॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: सचा = अकाल पुरख। करे = इस्तेमाल में लाता है। सा = वही। दरहाली = तुरंत, उसी वक्त। दोही फिरी = महिमा की धूम पड़ गई। करतै = करतार ने। बंधि = बाँध के, पक्की करके। बहाली = टिका दिया, कायम कर दी। अर्थ: (अब) सतिगुरू (अंगद देव) जो वचन बोलते हैं अकाल-पुरख वही करता है, वही बात तुरंत हो जाती है। गुरू अंगद देव (जी की) महिमा की धूम पड़ गई है, सच्चे करतार ने पक्की करके कायम कर दी है। नानकु काइआ पलटु करि मलि तखतु बैठा सै डाली ॥ दरु सेवे उमति खड़ी मसकलै होइ जंगाली ॥ दरि दरवेसु खसम दै नाइ सचै बाणी लाली ॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: काइआ = काया, शरीर। पलटु करि = बदल के। मलि तखतु = गद्दी संभाल के। सै डाली = सैकड़ों डालियों वाला, सैकड़ों सिखों वाला। उमति = संगति। खड़ी = खड़ी हुई, सावधान हो के, प्रेम से। दरु सेवे = दरवाजे पर सेवा करती है, दर पर बैठी है। मसकलै = मसकले से। होइ जंगाली = जंग वाली धात (साफ) हो जाती है। दरि = (गुरू नानक के) दर पर। दरवेसु = नाम की दाति का सवाली। खसंम दै नाइ सचै = मालिक के सच्चे नाम के द्वारा, मालिक का सच्चा नाम सिमरन की बरकति से। बाणी = बनी हुई है। अर्थ: सैकड़ों सेवकों वाला गुरू नानक शरीर बदल के (भाव, गुरू अंगद देव जी के स्वरूप में) गद्दी संभाल के बैठा हुआ है (गुरू अंगद देव जी के अंदर गुरू नानक साहिब वाली ही ज्योति है, केवल शरीर बदला है)। संगति (गुरू अंगद देव जी के) दर (पर आ कर) प्रेम से सेवा कर रही है (और अपनी आत्मा को पवित्र कर रही है, जैसे) जंग लगी हुई धातु (लोहा) मसकले से (साफ) हो जाती है। (गुरू नानक के) दर पर (गुरू अंगद) नाम की दाति का सवाली है। अकाल-पुरख का सच्चा नाम सिमरन की बरकति से (गुरू अंगद साहिब के मुँह पर) लाली बनी हुई है। बलवंड खीवी नेक जन जिसु बहुती छाउ पत्राली ॥ लंगरि दउलति वंडीऐ रसु अम्रितु खीरि घिआली ॥ गुरसिखा के मुख उजले मनमुख थीए पराली ॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: बलवंड = हे बलवंड! खीवी = गुरू अंगद जी की पत्नी (माता) खीवी। जिसु = जिस (माता खीवी जी) की। पत्राली = पत्रों वाली, सघन। लंगरि = लंगर में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। घिआली = घी वाली। पराली = मुंजी का अथवा धान का पौधा जिससे दाने झाड़े जा चुके होते हैं, पौधे का रंग पीला हो गया होता है; पीले मुँह वाले, शर्मिंदे। नोट: इस 'वार' के आरम्भ में लिखा है कि ये 'वार' 'राय बलवंड' और 'सॅते डूंम' ने उचारी थी। इस पउड़ी नं: 3 में शब्द 'बलवंड' से ये साबित होता है कि ये पहली 3 पौड़ियाँ 'बलवंड' की उचारी हुई हैं। अर्थ: हे बलवंड! (गुरू अंगद देव जी की पत्नी) (माता) खीवी जी (भी अपने पति की तरह) बड़े भले हैं, माता खीवी जी की छाया बहुत पुत्रों वाली (सघन) है (भाव, माता खीवी जी के पास बैठने से भी हृदय में शांति पैदा होती है)। (जैसे गुरू अंगद देव जी के सत्संग-रूप) लंगर में (नाम की) दौलत बाँटी जा रही है, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस बाँटा जा रहा है (वैसे ही माता खीवी जी की सेवा सदका लंगर में सबको) घी वाली खीर बाँटी जा रही है। (गुरू अंगद देव जी के दर पर आकर) गुरसिखों के माथे खिले हुए हैं, पर गुरू की ओर से बेमुखों के मुँह (ईष्या के कारण) पीले पड़ते हैं। पए कबूलु खसम नालि जां घाल मरदी घाली ॥ माता खीवी सहु सोइ जिनि गोइ उठाली ॥३॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: पऐ कबूलु = (गुरू अंगद देव जी) कबूल हुए। खसंम नालि = अपने सतिगुरू (गुरू नानक देव जी) से। मरदी धाल = मर्दों वाली मेहनत। सहु = पति। सोइ = सोय, वह। जिनि = जिस ने। गोइ = गोय, धरती। अर्थ: माता खीवी जी का वह पति (गुरू अंगद देव ऐसा था) जिस ने (सारी) धरती (का भार) उठाया हुआ था। जब (गुरू अंगद देव जी ने) मर्दों वाली मेहनत कमाई की तो वह अपने सतिगुरू (गुरू नानक) के दर पर कबूल हुए।3। होरिंओ गंग वहाईऐ दुनिआई आखै कि किओनु ॥ नानक ईसरि जगनाथि उचहदी वैणु विरिकिओनु ॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: होरिंओ = होर+पासियों, और तरफ से। वहाईअै = वहाई है, चलाई है। दुनिआई = लोकाई, दुनिया के लोग। कि = क्या? किओनु = कीआ+उनि, किया है उसने। ईसरि = ईश्वर ने, मालिक ने, गुरू ने। जगनाथि = जगन्नाथ ने, जगत के नाथ ने। उचहदी = हद से ऊँचा। वैणु = वयण, बयन, वचन। विरिकिओनु = विरकिआ है उसने, बोला है उसने। अर्थ: दुनिया कहती है जगत के नाथ गुरू नानक ने हद से ऊँचा वचन बोला है उसने और ही तरफ से गंगा चला दी है। ये उसने क्या किया है? माधाणा परबतु करि नेत्रि बासकु सबदि रिड़किओनु ॥ चउदह रतन निकालिअनु करि आवा गउणु चिलकिओनु ॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: परबतु = सुमेर पर्वत (भाव, ऊँची सुरति। पौराणिक कथा अनुसार जैसे देवताओं ने क्षीर समुंद्र को मथने के लिए सुमेर पर्वत को मथानी बनाया, वैसे ही गुरू नानक देव जी ने ऊँची सुरति को मधाणी बनाया)। बासकु = संस्कृत (बासुकि) साँपों का राजा। नेत्रि = नेत्रे में, मथने वाला रस्सा। करि नेत्रि बासकु = बासक नाग को नेत्रे में करके (भाव, मन-रूप साँप का नेत्रा बना के, मन को काबू करके)। निकालिअनु = निकाले उस (गुरू नानक) ने। आवागउणु = संसार। चिलकिओनु = चिलकाया उसने, चमकाया उसने, सुख रूप बना दिया उस (गुरू नानक) ने। अर्थ: उस (गुरू नानक) ने ऊँची सुरति को मधाणी बना के, (मन रूप) बासक नाग को नेत्रे में डाल के (भाव, मन को काबू करके) 'शबद' में मथा (भाव, 'शबद' को विचारा; इस तरह) उस (गुरू नानक) ने (इस 'शबद' समुंद्र में से 'रॅबी-गुण' ईश्वरीय गुणों रूपी) चौदह रतन (जैसे समुंद्र में से देवताओं ने चौदह रतन निकाले थे) निकाले और (ये उद्यम करके) संसार को सुंदर बना दिया। कुदरति अहि वेखालीअनु जिणि ऐवड पिड ठिणकिओनु ॥ लहणे धरिओनु छत्रु सिरि असमानि किआड़ा छिकिओनु ॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: कुदरति = समर्थता, ताकत। अहि = ऐसी। वेखालीअनु = दिखाई उस (नानक) ने। जिणि = जीत के, (बाबा लहिणा जी के मन को जीत के)। अैवड = इतना बड़ा। पिड = पिंड, शरीर। अैवड पिड = इतनी ऊँची आत्मा। ठिणकिओनु = ठणकाया उसने, जैसे नया बर्तन लेने के वक्त ठनका के देखते हैं, परखा उस गुरू नानक ने। लहणे सिरि = लहणे के सिर पर। धरिओनु = धरा उसने। असमानि = आसमान तक। किआड़ा = गर्दन। छिकिओनु = खींचा उसने। अर्थ: उस (गुरू नानक) ने ऐसी समर्थता दिखाई कि (पहले बाबा लहिणा जी का मन) जीत के इतनी उच्च आत्मा को परखा, (फिर) बाबा लहिणा जी के सिर पर (गुरू-गद्दी का) छत्र धरा और (उनकी) शोभा आसमान तक पहुँचाई। जोति समाणी जोति माहि आपु आपै सेती मिकिओनु ॥ सिखां पुत्रां घोखि कै सभ उमति वेखहु जि किओनु ॥ जां सुधोसु तां लहणा टिकिओनु ॥४॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। आपै सेती = अपने 'आपे' से। मिकिओनु = मिका उस (गुरू नानक) ने, बराबर किया उस (गुरू नानक) ने। (नोट: कबड्डी आदि खेल खेलने के वक्त एक समान ताकत और कद वाले मड़के पहले 'मिक के' आते हैं, दो बराबर के लड़के आते हैं जिनको दोनों तरफ की ओर चुना जाता है)। घोखि कै = परख के। (नोट: पुरानी पंजाबी के 'कै' की जगह आजकल हम 'के' का प्रयोग करते हैं)। उमति = संगति। जि = जो कुछ। किओनु = किया उस (गुरू नानक) ने। सुधोसु = शोध किया उसको, सुधारा उसको। टिकिओनु = टिकाया उसने, चुना उस (गुरू नानक) ने। अर्थ: (गुरू नानक साहिब दी) आत्मा (बाबा लहिणा जी की) आत्मा में इस तरह मिल गई कि गुरू नानक ने अपने आप को अपने 'आपे' (बाबा लहिणा जी) के साथ साथ एक-मेक कर लिया। हे सारी संगति! देखो, जो उस (गुरू नानक) ने किया, अपने सिखों और पुत्रों को परख के जब उसने सुधाई की तब उसने (अपनी जगह के वास्ते बाबा) लहणा (जी को) चुना।4। फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ॥ जपु तपु संजमु नालि तुधु होरु मुचु गरूरु ॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: खाडूरु वसाइआ = नगर खडूर में रौनक बढ़ाई। फेरुआणि सतिगुरि = (बाबा) फेरू के पुत्र सतिगुरू ने। होरु = और संसार। मुचु = बहुत। गरूरु = अहंकार। फेरि = इसके बाद। अर्थ: फिर (जब बाबा लहिणा जी को गुरुता मिली तब) बाबा फेरू जी के पुत्र सतिगुरू ने खडूर की रौनक बढ़ाई (भाव, करतारपुर से खडूर आ के टिके)। (हे सतिगुरू!) और जगत तो बहुत अहंकार करता है, पर तेरे पास जप-तप-संजम (आदि की बरकति होने के कारण तू पहले की ही तरह गरीबी स्वभाव में ही) रहा। लबु विणाहे माणसा जिउ पाणी बूरु ॥ वर्हिऐ दरगह गुरू की कुदरती नूरु ॥ जितु सु हाथ न लभई तूं ओहु ठरूरु ॥ नउ निधि नामु निधानु है तुधु विचि भरपूरु ॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: विणाहे = विनाशे, नाश करता है। वरि्अै = बरसने के कारण, बरखा होने के कारण। कुदरती = रॅबी, प्राकृतिक रूप में। जितु = जिस में। हाथ = गहराई का अंत। ठरूरु = ठंडा हुआ जल, शीतल समुंद्र। नउनिधि = नौ खजाने। निधानु = खजाना। भरपूरु = नाको नाक भरा हुआ। अर्थ: जैसे पानी को बूर खराब करता है वैसे ही मनुष्यों को लोभ तबाह करता है, (पर) गुरू (नानक) की दरगाह में ('नाम' की) बरखा होने के कारण (हे गुरू अंगद! तेरे ऊपर) ईश्वरीय नूर (छलकें मार रहा) है। तू वह शीतल समुंद्र है जिसकी थाह नहीं पाई जा सकती। जो (जगत के) नौ ही खजाने-रूप प्रभू का नाम-खजाना है, (हे गुरू!) (वह खजाना) तेरे हृदय में नाको-नाक भरा हुआ है। निंदा तेरी जो करे सो वंञै चूरु ॥ नेड़ै दिसै मात लोक तुधु सुझै दूरु ॥ फेरि वसाइआ फेरुआणि सतिगुरि खाडूरु ॥५॥ {पन्ना 967} पद्अर्थ: वंञै चूरु = चूर हो जाता है। नेड़ै = नजदीक के पदार्थ। अर्थ: (हे गुरू अंगद!) जो मनुष्य तेरी निंदा करे वह (स्वयं ही) तबाह हो जाता है (वह खुद ही अपनी आत्मिक मौत सहेड़ लेता है); सांसारिक जीवों को तो नजदीक के ही पदार्थ दिखाई देते हैं (वे दुनियां की खातिर निंदा का पाप कर बैठते हैं, इसका नतीजा नहीं जानते, पर हे गुरू!) तूझे आगे घटित होने वाले हाल का भी पता होता है। (हे भाई!) फिर बाबा फेरू जी के पुत्र सतिगुरू (अंगद देव जी) ने खडूर को भाग्य लगाए।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |