श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 968 सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु ॥ पियू दादे जेविहा पोता परवाणु ॥ जिनि बासकु नेत्रै घतिआ करि नेही ताणु ॥ जिनि समुंदु विरोलिआ करि मेरु मधाणु ॥ चउदह रतन निकालिअनु कीतोनु चानाणु ॥ {पन्ना 968} पद्अर्थ: टिका = टीका, माथे का नूर। बैहणा = तख्त। दीबाणु = दीवान, दरबार। पियू जेविहा = पिता (गुरू अंगद देव जी) जैसा। दादे जेविहा = दादे (गुरू नानक) जैसा। परवाणु = कबूल, मानने योग्य। जिनि = जिस (पौत्र गुरू) ने। नेही = नेहणा। बासकु = टेढ़ा मन रूपी नाग। ताणु = आत्मिक बल। विरोलिआ = मथा, बिलौना। मेरु = सुमेर पर्वत, ऊँची सुरति। कीतोनु = किया उसने। अर्थ: पौत्र-गुरू (गुरू अमरदास भी) जाना-माना हुआ (गुरू) है (क्योंकि वह भी) गुरू नानक और गुरू अंगद जैसा ही है; (इसके माथे पर भी) वही नूर है, (इसका भी) वही तख़्त है, वही दरबार है (जो गुरू नानक और गुरू अंगद साहिब का था)। इस गुरू अमरदास जी ने भी आत्मिक बल को नेहणी बना के (मन-रूप) नाग को नेत्रे डाला है, (ऊँची सुरति रूप) सुमेर पर्वत को मथानी बना के (गुरू-शबद रूप) समुंद्र में बिलोया है (मथा है), (उस 'शबद-समुंद्र' में से ईश्वरीय-गुण रूप) चौदह रतन निकाले (जिनसे) उसने (जग्रत में आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश पैदा किया। घोड़ा कीतो सहज दा जतु कीओ पलाणु ॥ धणखु चड़ाइओ सत दा जस हंदा बाणु ॥ कलि विचि धू अंधारु सा चड़िआ रै भाणु ॥ सतहु खेतु जमाइओ सतहु छावाणु ॥ {पन्ना 968} पद्अर्थ: सहज = अडोल अवस्था। जतु = इन्द्रियों को विकारों की तरफ से रोकने की ताकत। पलाणु = काठी। धणखु = धनुष, कमान। सत = सत्य आचरण, सदाचार। जस हंदा = (परमात्मा की) सिफत सालाह का। कलि = कलेशों भरा संसार। धू अंधारु = घुप अंधेरा। रै = (रय) किरणें। भाणु = भानु, सूरज। सतहु = 'सत्य' से, सच्चे आचरण के बल से। छावाणु = छाया, रक्षा। सा = था। बाणु = तीर। अर्थ: (गुरू अमरदास ने) सहज-अवस्था को घोड़ा बनाया, विकारों से इन्द्रियों को रोक के रखने की ताकत को काठी बनाया; सच्चे आचरण की कमान कसी और परमात्मा की सिफत सालाह का तीर (पकड़ा, चलाया)। संसार में (विकारों का) घोर अंधकार था। (गुरू अमरदास, जैसे) किरणों से भरा हुआ सूरज चढ़ आया, जिसने 'सत' के बल से ही (उजड़ी हुई) खेती जमाई (हरी भरी कर दी) और 'सत' से ही उसकी रक्षा की। नित रसोई तेरीऐ घिउ मैदा खाणु ॥ चारे कुंडां सुझीओसु मन महि सबदु परवाणु ॥ आवा गउणु निवारिओ करि नदरि नीसाणु ॥ {पन्ना 968} पद्अर्थ: खाणु = खण्ड, शक्कर। सुझीओसु = उसे सूझीं। नीसाणु = निशान, परवाना, राहदारी। अर्थ: ( हे गुरू अमरदास!) तेरे लंगर में (भी) नित्य घी, मैदा और खण्ड (आदि उक्तम पदार्थ) प्रयोग हो रहे हैं जिस मनुष्य ने अपने मन में तेरा शबद टिका लिया है उसको चहु कुंटों (चारों कोनों) की सूझ आ गई है। (हे गुरू!) जिसको तूने मेहर की नजर करके (शबद रूप) राह-दारी बख्शी है उसके पैदा होने-मरने के चक्कर तूने समाप्त कर दिए हैं। अउतरिआ अउतारु लै सो पुरखु सुजाणु ॥ झखड़ि वाउ न डोलई परबतु मेराणु ॥ जाणै बिरथा जीअ की जाणी हू जाणु ॥ {पन्ना 968} पद्अर्थ: अउतरिआ = पैदा हुआ है। पुरखु सुजाणु = सुजान अकाल पुसख। झखड़ि = झॅखड़ में, धूल भरी आंधी तूफान। मेराणु = सुमेर। बिरथा जीअ की = दिल की पीड़ा। अर्थ: वह अकाल पुरख (स्वयं गुरू अमरदास के रूप में) अवतार ले के जगत में आया है। (गुरू अमरदास विकारों के) झॅखड़ में नहीं डोलता, (विकारों की) अंधेरी भी झूल जाए तब भी नहीं डोलता, वह तो (जैसे) सुमेर पर्वत है; जीवों के दिल की पीड़ा जानता है, (दिलों की जानने वाला) जानी-जान है। किआ सालाही सचे पातिसाह जां तू सुघड़ु सुजाणु ॥ दानु जि सतिगुर भावसी सो सते दाणु ॥ {पन्ना 968} पद्अर्थ: सुघड़ु = सुंदर घाड़त वाला। सुजाणु = सुजान, सयाना। दानु = बख्शिश। सतिगुर भावसी = गुरू को अच्छी लगे। सो सते दाणु = (मुझे) सॅते को तेरी वह बख्शिश (अच्छी) है। अर्थ: हे सदा-स्थिर राज वाले पातशाह! मैं तेरी क्या सिफत करूँ? तू सुंदर आत्मा वाला समझदार है। मुझ सॅते को तेरी वही बख्शिश अच्छी है जो (तुझे) सतिगुरू को अच्छी लगती है। नानक हंदा छत्रु सिरि उमति हैराणु ॥ सो टिका सो बैहणा सोई दीबाणु ॥ पियू दादे जेविहा पोत्रा परवाणु ॥६॥ {पन्ना 968} पद्अर्थ: हंदा = संदा, का। सिरि = सिर पर। उमति = संगीत। अर्थ: (गुरू अमरदास जी के) सिर पर गुरू नानक देव जी वाला छत्र संगति (देख के) आश्चर्य-चकित हो रही है। पौत्र-गुरू (गुरू अमरदास भी) जाने-माने गुरू हैं (क्योंकि वह भी) गुरू नानक और गुरू अंगद साहिब जैसे ही हैं, (इनके माथे पर भी) वही नूर है, (इनका भी) वही तख्त है, वही दरबार है (जो गुरू नानक और गुरू अंगद साहिब का था)।6। धंनु धंनु रामदास गुरु जिनि सिरिआ तिनै सवारिआ ॥ पूरी होई करामाति आपि सिरजणहारै धारिआ ॥ सिखी अतै संगती पारब्रहमु करि नमसकारिआ ॥ {पन्ना 968} पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभू) ने। सिरिआ = पैदा किया। सिखी = सिखीं, सिखों ने। अतै = और। अर्थ: गुरू रामदास जी धन्य हैं धन्य हैं! जिस अकाल-पुरख ने (गुरू रामदास को) पैदा किया उसने उन्हें सुंदर भी बनाया। ये एक मुकम्मल करामात हुई है कि सृजनहार ने स्वयं (अपने आप को उसमें) टिकाया है। सब सिखों ने और संगतों ने उनको अकाल-पुरख का रूप जान के (उनकी) बँदना की है। अटलु अथाहु अतोलु तू तेरा अंतु न पारावारिआ ॥ जिन्ही तूं सेविआ भाउ करि से तुधु पारि उतारिआ ॥ लबु लोभु कामु क्रोधु मोहु मारि कढे तुधु सपरवारिआ ॥ धंनु सु तेरा थानु है सचु तेरा पैसकारिआ ॥ {पन्ना 968} पद्अर्थ: अथाहु = जिसकी थाह ना पाई जा सके, बड़ा गंभीर। पारावारिआ = पार+अवार, इस पार उस पार। तू = तूने। भाउ = प्रेम। तुधु = तू। सपरवारिआ = (बाकी विकारों = रूप) परिवार समेत। पैसकारिआ = पेशकारी किसी बड़े आदमी के आने पर जो रौनक उसके स्वागत के लिए की जाती है, संगति रूप पसारा। अर्थ: (हे गुरू रामदास!) तू सदा कायम रहने वाला है, तू तोला नहीं जा सकता (भाव, तेरे गुण गिने नहीं जा सकते; तू एक ऐसा समुंद्र है जिसकी) थाह नहीं पाई जा सकती, इस पार उस पार का अंत नहीं पाया जा सकता। जिन लोगों ने प्यार से तेरा हुकम माना है तूने उनको (संसार-समुंद्र से) पार लंघा दिया है। उनके अंदर से तूने लालच, लोभ, काम, क्रोध, मोह व अन्य सारे विकार मार के निकाल दिए हैं। (हे गुरू रामदास!) मैं सदके हॅूँ उस जगह पर से, जहाँ तू बसा। तेरी संगति सदा अटल है। नानकु तू लहणा तूहै गुरु अमरु तू वीचारिआ ॥ गुरु डिठा तां मनु साधारिआ ॥७॥ {पन्ना 968} पद्अर्थ: वीचारिआ = मैंने समझा है। साधारिआ = टिकाने आया, ठहराव, सहज में आ गया। तू = तुझे। अर्थ: (हे गुरू रामदास जी!) तू ही गुरू नानक है, तू ही बाबा लहणा है, मैंने तुझे ही गुरू अमरदास समझा है। (जिस किसी ने) गुरू (रामदास) का दीदार किया है उसी का मन तब से ठहराव में आ गया है।7। चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ॥ आपीन्है आपु साजिओनु आपे ही थम्हि खलोआ ॥ आपे पटी कलम आपि आपि लिखणहारा होआ ॥ सभ उमति आवण जावणी आपे ही नवा निरोआ ॥ {पन्ना 968} पद्अर्थ: चारे = चारे (पहले गुरू)। चहु जुगी = अपने चारों जामों में। जागे = प्रकट हुए, रौशन हुए। पंचाइणु = (पंच अयन, पाँचों का घर, पाँच तत्वों का श्रोत) अकाल पुरख; जैसे: माणकु मनु महि मनु मारसी, सचि न लागै कतु॥ राजा तखति टिकै गुणी, भै पंचाइण रतु॥१॥ मारू महला १ (पन्ना 992) भै पंचाइण = पंचायण के डर से, परमात्मा के डर में। और तसकर मारि वसी पंचाइणि, अदलु करे वीचारे॥ नानक राम नामि निसतारा गुरमति मिलहि पिआरे॥२॥१॥३॥ सूही छंतु म: १ घरु ३ पंचाइणि = पंचाइण में, परमात्मा में। आपीनै = आप ही ने, प्रभू ने स्वयं ही। आपु = अपने आप को। साजिओनु = उसने प्रकट किया (सृष्टि के रूप में)। थंमि् = थंम के, सहारा दे के। लिखणहारा = लिखने वाला, पद्चिन्ह डालने वाला, मार्गदर्शक। उमति = सृष्टि। निरोआ = निर+रोग, रोग रहित। अर्थ: चारों गुरू (साहिबान) अपने अपने समय में रौशन हुए हैं, अकाल-पुरख स्वयं ही (उनमें) प्रकट हुआ। अकाल-पुरख ने अपने आप ही अपने आप को (सृष्टि के रूप में) जाहिर किया और खुद ही (गुरू रूप हो के) सृष्टि को सहारा दे रहा है। (जीवों की अगुवाई के लिए, मार्ग दर्शन के लिए) प्रभू स्वयं ही तख्ती (स्लेट) है और खुद ही कलम है और (गुरू रूप हो के) खुद ही मार्ग दशर्न लिखने वाला है। सारी सृष्टि तो जनम-मरण के चक्कर में है, पर प्रभू स्वयं (सच्चा) नया है और निरोया (निरोग) है (भाव, हर नए रंग में है और निर्लिप भी है)। तखति बैठा अरजन गुरू सतिगुर का खिवै चंदोआ ॥ उगवणहु तै आथवणहु चहु चकी कीअनु लोआ ॥ {पन्ना 968} पद्अर्थ: तखति = तख्त पर। खिवै = चमकता है (संस्कृत: क्षिभ् चमकता)। तै = और। उगवणहु = सूरज उगने से। आथवणहु = सूरज डूबने से। चहु चकी = चहुँ कुंटों में। कीअनु = किया है उसने। लोआ = लौअ, प्रकाश। अर्थ: (उस नए-निरोए सतिगुरू के बख्शे) तख्त के ऊपर (जिस पर चारों गुरू अपने-अपने समय में रौशन हुए हैं, अब) गुरू अरजन बैठे हुए हैं, सतिगुरू का चंदोआ चमक रहा है (भाव, सतिगुरू अरजन साहिब का तेज-प्रताप हर तरफ पसर रहा है)। सूरज के उगने से (डूबने तक) और डूबने से (चढ़ने तक) चहुँ कुंटों में इस (गुरू अरजन देव जी) ने रौशनी कर दी है। जिन्ही गुरू न सेविओ मनमुखा पइआ मोआ ॥ दूणी चउणी करामाति सचे का सचा ढोआ ॥ चारे जागे चहु जुगी पंचाइणु आपे होआ ॥८॥१॥ {पन्ना 968} पद्अर्थ: मुोआ = मरी (यहाँ पढ़ना है = 'मोआ', असल शब्द है 'मुआ')। करामाति = करामात, वडिआई, बुजुर्गी। ढोआ = सौगात, तोहफा। चउणी = चार गुनी। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले जिन लोगों ने गुरू का हुकम ना माना वे मर गए (भाव, वे आत्मिक मौत मर गए)। गुरू अरजन की (दिन-) दुगनी और रात चौगुनी बुजुर्गी बढ़ रही है; (सृष्टि को) गुरू, सच्चे प्रभू की सच्ची सौगात है। चारों गुरू अपने-अपने समय में प्रकाशमान हुए, अकाल-पुरख (उनमें) प्रकट हुआ।8।1। रामकली बाणी भगता की ॥ कबीर जीउ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे ॥ त्रिसना कामु क्रोधु मद मतसर काटि काटि कसु दीनु रे ॥१॥ कोई है रे संतु सहज सुख अंतरि जा कउ जपु तपु देउ दलाली रे ॥ एक बूंद भरि तनु मनु देवउ जो मदु देइ कलाली रे ॥१॥ रहाउ ॥ भवन चतुर दस भाठी कीन्ही ब्रहम अगनि तनि जारी रे ॥ मुद्रा मदक सहज धुनि लागी सुखमन पोचनहारी रे ॥२॥ तीरथ बरत नेम सुचि संजम रवि ससि गहनै देउ रे ॥ सुरति पिआल सुधा रसु अम्रितु एहु महा रसु पेउ रे ॥३॥ निझर धार चुऐ अति निरमल इह रस मनूआ रातो रे ॥ कहि कबीर सगले मद छूछे इहै महा रसु साचो रे ॥४॥१॥ {पन्ना 968-969} पद्अर्थ: कलालनि = वह मटकी जिसमें गुड़, सक आदि डाल के शराब निकालने केू लिए खमीर तैयार करते हैं। लाहनि = ख़मीर के लिए सामग्री। रे = हे भाई! कीनु = किया है, (मैंने) बनाया है। मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। कसु = सक्के। रे = हे भाई! सहज अंतरि = अडोल अवस्था में टिका हुआ। दलाल = वह मनुष्य जो दो धिरों में किसी चीज का समझौता करवाता है और उसके बदले दोनों तरफ से अथवा एक तरफ नीयत रकम लेता है, उस रकम को 'दलाली' कहते हैं। भरि = के बराबर। जो कलाली = जो साकी, जो शराब पिलाने वाला।1। रहाउ। भवन चतुर दस = चौदह भवनों (का मोह), जगत का मोह। तनि = शरीर में। मुद्रा = ढक्कन, डाट। मदक = शराब व अर्क निकालने वाली नाल। मुद्रा मदक = मदक की मुद्रा, नाल का ढक्कन। धुनि = लिव। सुखमन = मन की सुख वाली अवस्था। पोचनहारी = नाल पर पोचा देने वाली (नाल पर पोचा देते हैं ता कि भाप ठंडी हो हो के अर्क व शराब बन = बन के बर्तन में टपकती रहे)।2। रवि = सूरज, दाहिनी नासिका की नाड़ी, पिंगला सुर। ससि = चंद्रमा, बाँई नासिका की नाड़ी, ईड़ा सुर। गहनै = गिरवी। पिआल = प्याला। सुधा = अमृत। महा रसु = सबसे श्रेष्ठ अमृत। पेउ = मैं पीता हूँ।3। निझर = (संस्कृत: निर्झर) चश्मा। मनूआ = सुंदर मन। छूछे = थोथे, फोके। साचो = सदा टिके रहने वाला।4। अर्थ: हे भाई! क्या मुझे कोई ऐसा संत मिल जाएगा (भाव, मेरा मन चाहता है कि मुझे कोई ऐसा संत मिल जाए) जो खुद अडोल अवस्था में टिका हुआ हो, सुख में टिका हो? यदि कोई ऐसा साकी (-संत) मुझे (नाम-अमृत-रूपी) नशा पिलाए, तो मैं उस अमृत की एक बूँद के बदले अपना तन-मन उसके हवाले कर दूँ, मैं (जोगियों और पंडितों के बताए हुए) जप और तप उस संत को बतौर दलाली दे दूँ।1। रहाउ। हे भाई! मैंने बढ़िया शरीर को मटकी बनाया है, और इसमें (नाम-अमृत-रूप शराब तैयार करने के लिए) खमीर (fermentation) की सामग्री एकत्र कर रहा हूँ- सतिगुरू के शबद को मैंने गुड़ बनाया है, तृष्णा-काम-क्रोध-अहंकार और ईष्या को काट-काट के सक्क (उस गुण में) मिला दिया है।1। चौदह भवनों को मैंने भट्ठी बनाया है, अपने शरीर में ईश्वरीय-ज्योति रूपी आग जलाई है (भाव, सारे जगत के मोह को मैंने शरीर के अंदर की ब्रहमाग्नि से जला डाला है)। हे भाई! मेरी सुरति (मेरी लिव) अडोल अवस्था में लग गई है, ये मैंने उस नाल का डाट बनाया है (जिसमें से शराब निकलती है)। मेरे मन की सुख अवस्था उस नाल पर पोचा दे रही है (ज्यों-ज्यों मेरा मन अडोल होता है, सुख अवस्था में पहुँचता है, त्यों-त्यों मेरे अंदरनाम-अमृत का प्रवाह चलता है)।2। हे भाई! प्रभू-चरणों में जुड़ी हुई अपनी सुरति को मैंने प्याला बना लिया है और (नाम-) अमृत पी रहा हूँ। ये नाम-अमृत सब रसों से श्रेष्ठ रस है। इस नाम-अमृत के बदले मैंने (पंडितों और जोगियों के बताए हुए) तीर्थ-स्नान, व्रत, नेम, सुच, संजम, प्राणायाम में श्वासों के चढ़ाने व उतारने- ये सब कुछ गिरवी रख दिए हैं।3। (अब मेरे अंदर नाम-अमृत के) चश्मे की बहुत साफ धारा पड़ रही है। मेरा मन, हे भाई! इसके स्वाद में रंगा हुआ है। कबीर कहता है- अन्य सारे नशे फोके हैं, एक यही सबसे श्रेष्ठ रस सदा कायम रहने वाला है।4।1। नोट: जोगी लोग शराब पीया करते थे, उनका ख्याल था कि शराब पी के समाधि लगाने से सुरति बढ़िया जुड़ती है। शराब तैयार करने के लिए गुड़ और सक्क एक मटकी में काफी समय तक डाल के सड़ाया जाता है, और फिर उस सड़े हुए खमीर का अर्क निकाल लेते हैं। एक भट्ठी में आग जला के उस पर मटकी रख देते हैं, मटकी के मुँह पर 'नाल' रख के बर्तन के मुँह को आटे आदि से अच्छी तरह बँद कर देते हैं। आग के सेक से मटकी का पानी उबल के भाप बन के 'नाल' में आना शुरू हो जाता है। उस 'नाल' पर ठँडे पानी का पोचा फेरते जाते हैं, और इस ठ। डक से वही भाप अर्क बन-बन के 'नाल' के दूसरे मुँह के आगे रखे हुए बर्तन में पड़ता जाता है। शबद का भाव: समाधियों से श्रेष्ठ है परमात्मा की याद और सिमरन, जो सतिगुरू के शबद के द्वारा ही हो सकता है। सुरति-शबद की बरकति से तृष्णा, काम आदि विकार काटे जाते हैं, मन में सुख अवस्था बनती जाती है और सुरति और ज्यादा 'नाम' में जुड़ती है। इस नाम-रस के मुकाबले में जप, समाधियाँ, तीर्थ-स्नान, सुच और प्राणायाम आदि का कौड़ी भी मूल्य नहीं है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |