श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा ॥ सुखमन नारी सहज समानी पीवै पीवनहारा ॥१॥ अउधू मेरा मनु मतवारा ॥ उनमद चढा मदन रसु चाखिआ त्रिभवन भइआ उजिआरा ॥१॥ रहाउ ॥ दुइ पुर जोरि रसाई भाठी पीउ महा रसु भारी ॥ कामु क्रोधु दुइ कीए जलेता छूटि गई संसारी ॥२॥ प्रगट प्रगास गिआन गुर गमित सतिगुर ते सुधि पाई ॥ दासु कबीरु तासु मद माता उचकि न कबहू जाई ॥३॥२॥ {पन्ना 969}

पद्अर्थ: गिआनु = ऊँची समझ, ज्ञान। धिआनु = प्रभू चरणों में जुड़ी हुई सुरति। महूआ = एक वृक्ष जिसके फूल शराब तैयार करने में प्रयोग होते हैं। भाठी = आग वाली भट्ठी। भउ = प्रभू का डर। नारी = नाड़ी। समानी = लीनता। पीवनहार = पीने के लायक हुआ मन।1।

नोट: जोगी गुड़, महूए के फूल आदि मिला के भट्ठी में शराब निकालते हैं, वह शराब पी के प्राणायाम आदि द्वारा सुखमना नाड़ी में प्राण टिकाते हैं। नाम का रसिया इन की जगह ऊँची मति, प्रभू चरणों में जुड़ी सुरति और प्रभू का भय- इनकी सहायता से सहज अवस्था में पहुँचता है। इस तरह नाम-अमृत पीने का अधिकारी हो जाता है।1।

अउधू = हे जोगी! मतवारा = मतवाला, मस्त। उनमद = (तुरीया अवस्था की) मस्ती। मदन = मस्त करने वाला। त्रिभवण = तीन भवनों में।1। रहाउ।

दुइ पुर जोरि = दोनों पुड़ जोड़ के, धरती आकाश को इकट्ठा करके, सारे जगत का मोह काबू करके, माया के मोह को वश में करके। रसाइ = चमकाई, मघाई। पीउ = मैं पीता हूँ। जलेता = ईधन। संसारी = संसार में खचित होने वाली बिरती।2।

गंमति = प्रभू तक पहुँचने वाला। सुधि = सूझ। तासु = उसके। मद = नशा। उचकि न जाई = टूटता नहीं, खत्म नहीं होता।

नोट: मुसलमान अपनी बोली में अपने लिए शब्द 'दास' नहीं प्रयोग करते। यहाँ शब्द 'दास' का प्रयोग जाहिर करता है कि कबीर जी हिन्दू थे।

अर्थ: हे जोगी! मेरा (भी) मन मस्त होया हुआ है, मुझे (ऊँची आत्मिक अवस्था की) मस्ती चढ़ी हुई है। (पर) मैंने मस्त करने वाला (नाम-) रस चखा है, (उसकी बरकति से) सारे ही जगत में मुझे उसी की ही ज्योति जल रही दिखाई देती है।1। रहाउ।

(नाम-रस की शराब निकालने के लिए) मैंने आत्मिक-ज्ञान का गुड़, प्रभू चरणों में जुड़ी सुरति को महूए के फूल, और अपने मन में टिकाए हुए प्रभू के भय को भट्ठी बनाया है। (इस ज्ञान-ध्यान और भय से उपजा नाम-रस पी के, मेरा मन) अडोल अवस्था में लीन हो गया है (जैसे जोगी शराब पी के अपने प्राण) सुखमना नाड़ी में टिकाता है। अब मेरा मन नाम-रस को पीने के लायक हो के पी रहा है।

माया के मोह को वश में करके मैंने (जोगी वाली) भट्ठी तपाई है, अब मैं बड़ा महान नाम-रस पी रहा हूँ। काम और क्रोध दोनों को मैंने ईधन बना दिया है (और, इस भट्ठी में जला डाला है, भाव, मोह को वश में करने से काम-क्रोध भी खत्म हो गए हैं)। इस तरह संसार में फंसने वाली बिरती खत्म हो गई है।2।

(प्रभू तक) पहुँच वाले गुरू के ज्ञान की बरकति से मेरे अंदर (नाम का) प्रकाश हो गया है, गुरू से मुझे (ऊँची) समझ मिली हुई है। प्रभू का दास कबीर उस नशे में मस्त है, उसकी मस्ती कभी समाप्त होने वाली नहीं है।3।2।

तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी ॥ ना तुम डोलहु ना हम गिरते रखि लीनी हरि मेरी ॥१॥ अब तब जब कब तुही तुही ॥ हम तुअ परसादि सुखी सद ही ॥१॥ रहाउ ॥ तोरे भरोसे मगहर बसिओ मेरे तन की तपति बुझाई ॥ पहिले दरसनु मगहर पाइओ फुनि कासी बसे आई ॥२॥ जैसा मगहरु तैसी कासी हम एकै करि जानी ॥ हम निरधन जिउ इहु धनु पाइआ मरते फूटि गुमानी ॥३॥ करै गुमानु चुभहि तिसु सूला को काढन कउ नाही ॥ अजै सु चोभ कउ बिलल बिलाते नरके घोर पचाही ॥४॥ कवनु नरकु किआ सुरगु बिचारा संतन दोऊ रादे ॥ हम काहू की काणि न कढते अपने गुर परसादे ॥५॥ अब तउ जाइ चढे सिंघासनि मिले है सारिंगपानी ॥ राम कबीरा एक भए है कोइ न सकै पछानी ॥६॥३॥ {पन्ना 969}

पद्अर्थ: मेरु परबतु = सबसे ऊँचा पर्वत, सबसे बड़ा आसरा। ओट = आसरा। गही = पकड़ी है। रखि लीनी = (लाज) रख ली है।1।

अब तब = अब और तब। जब कब = जब कभी। तुअ परसाद = तव प्रसादि, तेरी मेहर से।1। रहाउ।

मगहर = गोरखपुर के पास एक शहर जिसके बारे में पुराना ख्याल है कि इस जगह को श्राप मिला हुआ है कि जो मनुष्य यहाँ मरता है वह गधे की जूनि में जा पड़ता है।2।

ऐकै करि = एक समान। मरते फूटि = फूट मरते हैं, अहंकार में दुखी होते हैं।3।

सूला = शूल, काँटें। अजै = अब तक। पचाही = दुखी होते हैं।4।

दोऊ = दोनों ही। रादे = रद्द कर दिए हैं। काणि = मुथाजी।5।

सिंघासनि = तख्त पर, दसम द्वार में, उच्च आत्मिक अवस्था में।6।

अर्थ: हे प्रभू! तू (ही) मेरा सबसे बड़ा आसरा है। मैंने तेरी ही ओट पकड़ी है (किसी तीर्थ पर बसने का तकिया आसरा मैंने नहीं ताका) तू सदा अडोल रहने वाला है (तेरा पल्ला पकड़ के) मैं भी नहीं डोलता, क्योंकि तूने खुद मेरी लाज रख ली है।1।

हे प्रभू! सदा के लिए तू ही तू ही मेरा सहारा है। तेरी मेहर से मैं सदा ही सुखी हूँ।1। रहाउ।

(लोग कहते हैं मगहर श्रापित धरती है, पर) मैं तेरे पर भरोसा करके मगहर जा बसा, (तूने मेहर की और) मेरे शरीर की (विकारों की) तपस (मगहर में ही) बुझा दी। मैंने, हे प्रभू! तेरा दीदार पहले मगहर में ही रहते हुए किया था, और बाद में मैं काशी आ के बसा।2।

नोट: यहाँ ये जाहिर होता है कि कबीर जी दो बार मगहर जा के रहे हैं। दूसरी बार तो शरीर भी वहीं जा के त्यागा।

जैसे किसी कंगाल को धन मिल जाए, (वैसे ही) मुझ कंगाल को तेरा धन मिल गया है, (उसकी बरकति से) मैंने मगहर और काशी दोनों को एक जैसा ही समझा है। पर, (जिन्हें काशी तीर्थ पर बसने का गर्व है वह) वे अहंकारी अहंकार में दुखी होते हैं।3।

जो मनुष्य गुमान करता है (गुमान चाहे किसी भी बात का क्यों ना हो) उसको (ऐसे होता है जैसे) शूलें चुभती हैं। कोई उनकी ये शूलें उखाड़ नहीं सकता। सारी उम्र (वह अहंकारी) उसकी चुभन से बिलखते हैं, मानो, घोर नर्क में जल रहे हैं।4।

(ये लोग कहते हैं कि काशी में रहने वाला स्वर्ग भोगता है, पर) नर्क क्या, और बेचारा स्वर्ग क्या? संतों ने दोनों ही रद्द कर दिए हैं; क्योंकि संत अपने गुरू की कृपा से (ना स्वर्ग और ना ही नर्क) किसी के भी मुथाज नहीं हैं।5।

(अपने गुरू की कृपा से) मैं अब उच्च आत्मिक ठिकाने पर पहुँच गया हूँ, जहाँ मुझे परमात्मा मिल गया है। मैं कबीर और मेरा राम एक-रूप हो गए हैं, कोई भी हमारे बीच में फर्क नहीं बता सकता।6।3।

संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी ॥ दिवस रैनि तेरे पाउ पलोसउ केस चवर करि फेरी ॥१॥ हम कूकर तेरे दरबारि ॥ भउकहि आगै बदनु पसारि ॥१॥ रहाउ ॥ पूरब जनम हम तुम्हरे सेवक अब तउ मिटिआ न जाई ॥ तेरे दुआरै धुनि सहज की माथै मेरे दगाई ॥२॥ दागे होहि सु रन महि जूझहि बिनु दागे भगि जाई ॥ साधू होइ सु भगति पछानै हरि लए खजानै पाई ॥३॥ कोठरे महि कोठरी परम कोठी बीचारि ॥ गुरि दीनी बसतु कबीर कउ लेवहु बसतु सम्हारि ॥४॥ कबीरि दीई संसार कउ लीनी जिसु मसतकि भागु ॥ अम्रित रसु जिनि पाइआ थिरु ता का सोहागु ॥५॥४॥ {पन्ना 969-970}

पद्अर्थ: मानउ = मानूँ, मैं आदर देता हूँ, स्वागत करता हॅूँ। दूत = विकार। डानउ = मैं दण्ड देता हूँ, मार भगाता हूँ। कुटवार = कोतवाल, शहर का रखवाला, (शरीर रूप) शहर का रखवाला। कुटवारी = शरीर रूप शहर की रखवाली का फर्ज। दिवस = दिन। पलोसउ = पलोसना, मैं मलता हूँ, घोटता हूँ। करि = बना के। फेरी = मैं फेरता हूँ।1।

नोट: जिस मनुष्य के अपने सिर पर केस ना हों, वह ये मुहावरा प्रयोग नहीं कर सकता। स्वाभाविक तौर पर मनुष्य की बोली अपने रोजाना जीवन के अनुसार हो जाती है। कबीर जी केसाधारी थे।

दरबारि = दर पर। बचनु = मूँह। पसारि = खोल के, पसार के। हम = हम, मैं।1। रहाउ।

मिटिआ = हटा। धुनि = आवाज, लगन, रौंअ। माथै मेरे दगाई = मेरे माथे पर दागी गई है, मेरे माथे पर उकरी गई है, मेरे भाग्यों में आ गई है, मुझे प्राप्त हो गई है।2।

दागे होहि = जिन पर निशान होता है। रन = रण, लड़ाई का मैदान। जूझहि = लड़ मरते हैं। लऐ खजानै पाई = कबूल कर लेता है, प्रवान कर लेता है।3।

परम = सबसे अच्छी। कोठरा = छोटा सा कोठा। बीचारि = नाम की विचार से। गुरि = गुरू ने। बसतु = नाम पदार्थ। समारि = संभाल के।4।

दीई = दी है। मसतकि = माथे पर। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। थिरु = सदा टिके रहने वाला। सोहागु = (सं: सौभाग्य = good luck) अच्छी किस्मत।5।

अर्थ: हे प्रभू! मैं तेरे दर पर (बैठा हुआ एक) कुक्ता हूँ, और मुँह आगे कर-करके भौंक रहा हूँ (भाव, तेरे दर पे जो तेरी सिफत-सालाह कर रहा हूँ), ये अपने शरीर को विकारी-कुक्तों से बचाने के लिए है, जैसे एक कुक्ता किसी पराई गली के कुक्तों से अपने-आप की रक्षा करने के लिए भौंकतास है। यही बात सतिगुरू नानक देव जी ने इस तरह कही है;

ऐते कूकर हउ बेगाना भउका इसु तन ताई।1। रहाउ। (बिलावल महला १)

अपने इस शरीर-रूप शहर की रक्षा करने के लिए मेरा फर्ज ये है मैं भले गुणों का स्वागत करूँ और विकारों को मार निकालूँ। दिन-रात, हे प्रभू तेरे चरण परसूँ और अपने केसों का चवर तेरे ऊपर झुलाऊँ।1।

हे प्रभू! मैं तो पहले जन्मों में भी तेरा ही सेवक रहा हूँ, अब भी तेरे दर से हटा नहीं जा सकता। तेरे दर पर रहने से (मनुष्य के अंदर) अडोल अवस्था की रौंअ (चल पड़ती है, वह रौंअ) मुझे भी प्राप्त हो गई है।2।

जिनके माथे पर मालिक का (ये भक्ति का) निशान होता है, वे रण-भूमि में लड़ मरते हैं। जो इस निशान से वंचित हैं वह (मुकाबला होने पर) भांझ खा जाते हैं, (भाव,) जो मनुष्य प्रभू का भक्त बनता है, वही भक्ति से सांझ डालता है और प्रभू उसको अपने दर पर प्रवान कर लेता है।3।

(मनुष्य का शरीर, जैसे, एक छोटा सा कोठा है, इस) छोटे से सुंदर कोठे में (दिमाग, बुद्धि एक और) छोटी सी कोठरी है, परमात्मा के नाम के विचार की बरकति सेये छोटी सी कोठरी और भी सुंदर बनती जाती है। मुझ कबीर को मेरे गुरू ने नाम-वस्तु दी (और, कहने लगे) ये वस्तु (एक छोटी सी कोठड़ी में) संभाल के रख ले।4।

मैं कबीर ने ये नाम-वस्तु जगत के लोगों को (भी बाँट) दी, पर किसी भाग्यशाली ने (ही) हासिल की। जिस किसी ने इस नाम-अमृत का स्वाद चखा है, वह सदा के लिए भाग्यशाली हो गया है।5।4।

शबद का भाव: प्रभू की सिफत सालाह की बरकति से दुनिया के विकार मनुष्य के नजदीक नहीं फटकते। पर यह दाति किसी सौभाग्यशाली को ही गुरू से मिलती है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh