श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै ॥ जा कै पाइ जगतु सभु लागै सो किउ पंडितु हरि न कहै ॥१॥ काहे मेरे बाम्हन हरि न कहहि ॥ रामु न बोलहि पाडे दोजकु भरहि ॥१॥ रहाउ ॥ आपन ऊच नीच घरि भोजनु हठे करम करि उदरु भरहि ॥ चउदस अमावस रचि रचि मांगहि कर दीपकु लै कूपि परहि ॥२॥ तूं ब्रहमनु मै कासीक जुलहा मुहि तोहि बराबरी कैसे कै बनहि ॥ हमरे राम नाम कहि उबरे बेद भरोसे पांडे डूबि मरहि ॥३॥५॥ {पन्ना 970}

पद्अर्थ: जिह मुख = जिस परमात्मा के मुँह में से। निकसै = निकलता है। बिसरु करै = बिसारता है। जा कै जाइ = जा कै जाय, जिसके पैर पर, जिसके पैरों के सदके।1।

बाम्न = हे ब्राहमण! रहाउ।

(नोट: पहली तुक में शब्द 'ब्रहमन' कर्ताकारक, एक वचन है, 'रहाउ' में शब्द 'बाम्न अथवा बाह्मन' संबोधन एक वचन है)।

उदरु = पेट। रचि रचि = (बनावटी) बना बना के। कर दीपकु = हाथों पर दीया। कूपि = कूँए में।2।

कासीक = काशी का। उबरे = (संसार समुंद्र से) बच गए।3।

अर्थ: हे मेरे ब्राह्मण! तू परमात्मा का नाम क्यों नहीं सिमरता? हे पंडित! तू राम नहीं बोलता, और दोज़क (नर्क का दुख) सह रहा है।1। रहाउ।

ब्राह्मण उस प्रभू को क्यों बिसारता है, जिसके मुँह में से वेद और गयात्री (आदि) निकले (ऐसा तू मानता) है? पण्डित उस परमात्मा को क्यों नहीं सिमरता, जिसके चरणों पर सारा संसार पड़ता है?।1।

हे ब्राह्मण! तू अपने आप को ऊँची कुल का (समझता है), पर भोजन पाता है (अपने से) नीची कुल वाले घरों में से। तू हठ वाले कर्म करके (और लोगों को दिखा-दिखा के) अपना पेट पालता है। चौदवीं और अमावस्या (आदि तिथियाँ बनावटी) बना-बना के तू (जजमानों से) माँगता है; तू (अपने आप को विद्वान समझता है पर यह विद्या-रूप) दीया हाथों पर रख कर (भी) कूँएं में गिर रहा है।2।

तू (अपने आप को ऊँची कुल का) ब्राहमण (समझता है), मैं (तेरी नजरों में) काशी का (गरीब) जुलाहा हूँ। सो, मेरी तेरी बराबरी कैसे हो सकती है? (भाव, तू मेरी बात अपने गुमान के कारण सुनने को तैयार नहीं हो सकता)। पर हम (जुलाहे तो) परमात्मा का नाम सिमर के (संसार-समुंद्र से) बच रहे हैं, और तुम, हे पांडे! वेदों के (बताए हुए कर्म-काण्ड के) भरोसे रह के ही डूब के मर रहे हो।3।5।

नोट: कबीर जी के विचार के अनुसार अमावस-संग्रांद आदि बनावटी तिथियाँ बनाने वालों अपनी उदर पूर्ति की खातिर ही बनाई हुई हैं। और, ये शबद गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज है।

तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ ॥ इह अम्रित की बाड़ी है रे तिनि हरि पूरै करीआ ॥१॥ जानी जानी रे राजा राम की कहानी ॥ अंतरि जोति राम परगासा गुरमुखि बिरलै जानी ॥१॥ रहाउ ॥ भवरु एकु पुहप रस बीधा बारह ले उर धरिआ ॥ सोरह मधे पवनु झकोरिआ आकासे फरु फरिआ ॥२॥ सहज सुंनि इकु बिरवा उपजिआ धरती जलहरु सोखिआ ॥ कहि कबीर हउ ता का सेवकु जिनि इहु बिरवा देखिआ ॥३॥६॥ {पन्ना 970}

पद्अर्थ: तरवरु = वृक्ष। डार = डाली। साखा = शाखाएं, टहनियाँ। पुहप = पुष्प, फूल। भरीआ = भरी हुई, लदी हुई। बाड़ी = बगीचे। रे = हे भाई! तिनि हरि = उस प्रभू ने। करीआ = बनाई।1।

हे = हे भाई! जानी = ('विरले गुरमुखि' ने) जानी है। कहानी = किसी बीत चुकी या घटित हो रही घटना का हाल। राजा राम की कहानी = उस घटना का हाल जो प्रकाश रूप प्रभू का सिमरन करने से किसी मनुष्य के मन में घटित होती है, प्रभू मिलाप का हाल। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो जाता है, जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर पूर्ण तौर पर चल पड़ता है।1। रहाउ।

भवरु = भौरा। पुहप = फूल। बीधा = भेदा हुआ, मस्त। बारह = फूल की बारह खिली हुई पंखुड़ियाँ, खिला हुआ फूल, पूर्ण खिलाव। सोरह = सोलह (पक्तोकं वाला विशद्धि चक्र, जो गले में जोगी बाँधते हैं)। सोरह मधे = जाप में लग के। सोरह....झकोरिआ = श्वास श्वास नाम जपता है। आकासे = आकाश में, ऊँची अवस्था में, दसम द्वार में। फरु फरिआ = फड़ फड़ाया, उड़ान भरी।2।

सुंनि = शून्य में, अफुर अवस्था में। बिरवा = कोमल पौधा। धरती = शरीर रूप धरती का। जलहर = जलधर, बादल (तृष्णा)। सोखिआ = सुखा दिया, चूस लिया। जिनि = जिस (गुरमुखि) ने।3।

नोट: 'रहाउ' वाली तुक सारे शबद का बीज-रूप है। यहाँ बताया गया है कि जो मनुष्य अपने आप को गुरू के हवाले करके नाम सिमरता है; प्रभू मिलाप वाली अवस्था से उसकी जान-पहचान हो जाती है। शबद के तीन बंदों में उस मेल-अवस्था के लक्षण दिए गए हैं- 1. ये जगत उसको प्रभू की बनाई हुई एक बगीची सी प्रतीत होती है, जिसमें ये जीव-जंतु, शाखाएं, फूल, पत्ते आदि हैं; 2. जैसे भौरा फूल के रस में मस्त हो के फूल की पंखुड़ियों में ही अपने आप को कैद करा लेता है, जैसे पक्षी अपने पंखों से हवा को झकोला दे के आकाश में उड़ता है, वैसे ही सिमरन करने वाला नाम-रस में मस्त होता है और प्रभू-चरणों में ऊँची उड़ानें लगाता है; और 3. उसके हृदय में एक ऐसी कोमलता पैदा होती है, जिसकी बरकति से उसकी तृष्णा मिट जाती है।

अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य अपने आप को गुरू के हवाले करता है, वह प्रकाश-रूप परमात्मा के मेल की अवस्था को समझ लेता है, उसके अंदर ज्योति जग उठती है, उसके अंदर राम का प्रकाश हो जाता है। पर इस अवस्था से जान-पहचान करने वाला होता कोई विरला ही है।1। रहाउ।

(गुरू के सन्मुख हुए ऐसे मनुष्य को ये समझ आ जाती है कि) संसार एक वृक्ष (के समान) है, (जगत के जीव-जंतु, मानो, उस वृक्ष की) बेअंत डालियाँ और टहनियाँ हैं, जो फूलों, पक्तों और रस भरे फलों से लदी हुई हैं। ये संसार अमृत की एक बागीची है, जो उस पूर्ण परमात्मा ने बनाई है।1।

(जैसे) एक भौरा फूल के रस में मस्त हो के फूल की खिली हुई पंखुड़ियों में अपने आप को जा बँधाता है, (जैसे कोई पक्षी अपने पंखों से) हवा को हिलौरे दे के आकाश में उड़ता है, वैसे ही वह गुरमुखि नाम-रस में मस्त हो के पूर्ण-खिलाव को हृदय में टिकाता है, और सोच-मण्डल में हिलौरे दे के प्रभू-चरणों में उड़ानें भरता है।2।

उस गुरमुखि की उस अडोल और अफुर अवस्था में उसके अंदर (कोमलता-रूप) मानो, एक कोमल पौधा उगता है, जो उसके शरीर की तृष्णा को सुखा देता है। कबीर कहता है- मैं उस गुरमुख का दास हूँ, जिसने (अपने अंदर उगा हुआ) ये कोमल पौधा देखा है।3।6।

मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे ॥ खिंथा इहु तनु सीअउ अपना नामु करउ आधारु रे ॥१॥ ऐसा जोगु कमावहु जोगी ॥ जप तप संजमु गुरमुखि भोगी ॥१॥ रहाउ ॥ बुधि बिभूति चढावउ अपुनी सिंगी सुरति मिलाई ॥ करि बैरागु फिरउ तनि नगरी मन की किंगुरी बजाई ॥२॥ पंच ततु लै हिरदै राखहु रहै निरालम ताड़ी ॥ कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु धरमु दइआ करि बाड़ी ॥३॥७॥ {पन्ना 970}

पद्अर्थ: मोनि = चुप, मन की चुप, मन की शांति। झोली = जिसमें जोगी आटा माँग के डालता है। पत्रका = (पात्र-खप्पर) सुंदर खप्पर। रे = हे जोगी! खिंथा = गोदड़ी। इहु तनु सीअउ = इस शरीर को सीता हूँ, विकारों से बचाए रखता हूँ।1।

गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। भोगी = गृहस्ती।1। रहाउ।

बिभूति = राख। सिंगी = छोटा सा सींग जो जोगी बजाते हैं। किंगुरी = छोटी किंग।2।

पंच ततु = पाँचों का तत्व, पाँचों का मूल, पाँच तत्वों का मूल कारण प्रभू। निरालम = निरालम्ब, बिना किसी (बाहरी) आसरे के, एक टक। ताड़ी = समाधि। बाड़ी = बगीची।3।

अर्थ: हे जोगी! गृहस्त में रहते हुए ही सतिगुरू के सन्मुख रहो, गुरू के बताए हुए मार्ग पर चलना ही जप है, यही तप है, और यही संजम है। बस! यही योगाभ्यास करो।1। रहाउ।

हे जोगी! (मन को विकारों की ओर से) शांति (देनी, ये कानों की) मुंद्रा बना, और (प्रभू के गुणों की) विचार को खप्पर बना। (मैं भी तेरी ही तरह एक जोगी हूँ, पर) मैं अपने शरीर को विकारों से बचाता हूँ, ये मैंने गोदड़ी सिली हुई है, जोगी! मैंने प्रभू के नाम को (अपनी जिंद का) आसरा बनाया हुआ है (ये मेरा राख विभूति का बटूआ है)।1।

(हे जोगी!) अपनी बुद्धि को मैं (ऊँचे ठिकाने प्रभू चरणों में) चढ़ाए रखता हूँ, ये मैंने (शरीर पर) राख मली हुई है; मैंने अपने मन की सुरति को (प्रभू चरणों में) जोड़ा है, ये मेरी सिंज्ञी है। माया की ओर से वैराग करके मैं भी (साधू बन के) फिरता हूँ, पर मैं अपने ही शरीर रूप नगर में फिरता हूँ (भाव, खोज करता हूँ); मैं अपने मन की ही किंगरी बजाता हूँ (भाव, मन में प्रभू की लगन लगाए रखता हूँ)।2।

(हे जोगी!) प्रभू को अपने हृदय में परोए रखो, इस तरह की समाधि एक-टक बनी रहती है। कबीर कहता है- हे संत जनो! सुनो, (प्रभू-चरणों में जुड़ के) धर्म और दया की (अपने) मन में सुंदर सी बगीची बनाओ।3।7।

कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ ॥ भव निधि तरन तारन चिंतामनि इक निमख न इहु मनु लाइआ ॥१॥ गोबिंद हम ऐसे अपराधी ॥ जिनि प्रभि जीउ पिंडु था दीआ तिस की भाउ भगति नही साधी ॥१॥ रहाउ ॥ पर धन पर तन पर ती निंदा पर अपबादु न छूटै ॥ आवा गवनु होतु है फुनि फुनि इहु परसंगु न तूटै ॥२॥ जिह घरि कथा होत हरि संतन इक निमख न कीन्हो मै फेरा ॥ ल्मपट चोर दूत मतवारे तिन संगि सदा बसेरा ॥३॥ काम क्रोध माइआ मद मतसर ए स्मपै मो माही ॥ दइआ धरमु अरु गुर की सेवा ए सुपनंतरि नाही ॥४॥ दीन दइआल क्रिपाल दमोदर भगति बछल भै हारी ॥ कहत कबीर भीर जन राखहु हरि सेवा करउ तुम्हारी ॥५॥८॥ {पन्ना 970-971}

पद्अर्थ: काज = काम। सिरजे = पैदा हुए। जनमि = पैदा हो के। भवनिधि = संसार समुंद्र। तरन = बेड़ी, जहाज। चिंतामनि = मन इच्छित फल देने वाली मणि।1।

हम = हम जीव। जिनि प्रभि = जिस प्रभू ने। जीउ = जिंद, जीवात्मा। पिंडु = शरीर।1। रहाउ।

पर तन = पराया शरीर, पराई स्त्री। परती = पराई ।

(नोट: इसे 'पर ती' पढ़ना और अर्थ 'पर+त्रिया' करना गलत है क्योंकि पहले ही 'पराई स्त्री' का जिक्र शब्द 'पर तन' द्वारा आ चुका है। चार चीजों का यहाँ वर्णन है- धन, तन, निंदा और अपबाद; हरेक के साथ शब्द 'पर' बरता गया है। यदि शब्द 'ती' अलग किया जाए, तो शब्द 'निंदा' के साथ बाकी शब्द धन, तन ती और अपबाद की तरह शब्द 'पर' नहीं रह जाता। सो, 'परती' एक ही शब्द है। बाणी में और प्रमाण भी ऐसे मिलते हैं, जो साबित करते हैं कि शब्द 'तन' स्त्री के लिए है; जैसे:

पर धन, पर तन, पर की निंदा, इन सिउ प्रीति न लागै॥२॥१४॥ (धनासरी म: ५)

नोट: कबीर जी ने 'परती निंदा' लिखा है, सतिगुरू अरजन साहिब ने 'पर की निंदा' कहा है

पर धन, पर तन परती निंदा, अखाधि ताहि हरकाइआ॥३।३।१२४॥ आसा म: ५)

नोट: यहाँ तो हू-ब-हू कबीर जी वाले ही शब्द हैं।

पर धन, पर अपवाद, नारि, निंदा, यह मीठी जीअ माहि हितानी॥१॥ (सवैये श्री मुख बाक् महला ५)

नोट: यहॉ। चार विचारों का वर्णन है- पराया धन, दूसरों से विरोध, पराई स्त्री और पराई निंदा। इन ही चारों का जिक्र कबीर जी ने किया हुआ है।

सो, शब्द 'परती' एक ही शब्द है, इसका अर्थ है 'पराई'।

अपबादु = विरोध, झगड़ा। फुनि फुनि = बार बार। परसंगु = झेड़ा, सिलसिला, प्रसंग।2।

लंपट = विषियों में लिबड़े हुए। दूत = बुरे लोग। मतवारे = शराबी।3।

मद = अहंकार। मतसर = ईष्या। संपै = धन, संपक्ति। मो माही = मेरे अंदर। सुपनंतरि = सपने में भी।4।

भै हारी = डर का नाश करने वाले प्रभू! भीर = मुसीबत, बिपता। करउ = करूँ।5।

अर्थ: हे गोबिंद! हम जीव ऐसे विकारी हैं कि जिस तू प्रभू ने ये जीवात्मा और शरीर दिया उसकी बँदगी नहीं की, उससे प्यार नहीं किया।1। रहाउ।

कौन से कामों के लिए हम जगत में पैदा हुए? जनम ले के हमने क्या कमाया? हमने एक पल भर के लिए भी (उस प्रभू के चरणों में) चिक्त नहीं जोड़ा जो संसार-समुंद्र से तैराने के लिए जहाज़ है, जो, मानो, मन-इच्छित फल देने वाला हीरा है।1।

(हे गोबिंद!) पराए धन (की लालसा), पराई स्त्री (की कामना), पराई चुग़ली, दूसरों से विरोध- ये विकार दूर नहीं होते, बार-बार जनम-मरण का चक्कर (हमें) मिल रहा है- फिर भी पर मन, पर तन आदि का ये लंबा सिलसिला खत्म नहीं होता।2।

जिन जगहों में प्रभू के भगत मिल के प्रभू की सिफत-सालाह करते हैं, वहाँ मैं एक पलक के लिए भी फेरा नहीं मारता। पर विषयी, चोर, बदमाश, शराबी- इनके साथ मेरा साथ रहता है।3।

काम, क्रोध, माया का मोह, अहंकार, ईष्या- मेरे पल्ले, बस! यही धन है। दया, धर्म, सतिगुरू की सेवा- मुझे इनका विचार कभी सपने में भी नहीं आया।4।

कबीर कहता है- हे दीनों पर दया करने वाले! हे कृपालु! हे दामोदर! हे भगती से प्यार करने वाले! हे भय हरण! मुझ दास को (विकारों की) बिपता में से बचा ले, मैं (नित्य) तेरी ही बँदगी करूँ।5।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh