श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 971 जिह सिमरनि होइ मुकति दुआरु ॥ जाहि बैकुंठि नही संसारि ॥ निरभउ कै घरि बजावहि तूर ॥ अनहद बजहि सदा भरपूर ॥१॥ ऐसा सिमरनु करि मन माहि ॥ बिनु सिमरन मुकति कत नाहि ॥१॥ रहाउ ॥ जिह सिमरनि नाही ननकारु ॥ मुकति करै उतरै बहु भारु ॥ नमसकारु करि हिरदै माहि ॥ फिरि फिरि तेरा आवनु नाहि ॥२॥ जिह सिमरनि करहि तू केल ॥ दीपकु बांधि धरिओ बिनु तेल ॥ सो दीपकु अमरकु संसारि ॥ काम क्रोध बिखु काढीले मारि ॥३॥ जिह सिमरनि तेरी गति होइ ॥ सो सिमरनु रखु कंठि परोइ ॥ सो सिमरनु करि नही राखु उतारि ॥ गुर परसादी उतरहि पारि ॥४॥ जिह सिमरनि नाही तुहि कानि ॥ मंदरि सोवहि पट्मबर तानि ॥ सेज सुखाली बिगसै जीउ ॥ सो सिमरनु तू अनदिनु पीउ ॥५॥ जिह सिमरनि तेरी जाइ बलाइ ॥ जिह सिमरनि तुझु पोहै न माइ ॥ सिमरि सिमरि हरि हरि मनि गाईऐ ॥ इहु सिमरनु सतिगुर ते पाईऐ ॥६॥ सदा सदा सिमरि दिनु राति ॥ ऊठत बैठत सासि गिरासि ॥ जागु सोइ सिमरन रस भोग ॥ हरि सिमरनु पाईऐ संजोग ॥७॥ जिह सिमरनि नाही तुझु भार ॥ सो सिमरनु राम नाम अधारु ॥ कहि कबीर जा का नही अंतु ॥ तिस के आगे तंतु न मंतु ॥८॥९॥ {पन्ना 971} पद्अर्थ: सिमरनि = सिमरन करने वाला। दुआरु = द्वार, दरवाजा। होइ = होय, होता है, दिख जाता है। जाहि = तू जाएगा। संसारि = संसार में, संसार समुंद्र में। घरि = घर में। तूर = बाजे। अनहद = एक रस। वजहि = (तूर) बजें, बाजे बजते हैं। भरपूर = नाको नाक, किसी कमी के बिना।1। कत = कहीं भी, किसी भी और तरीके से।1। रहाउ। ननकारु = इन्कार, रोक टोक, विकारों से रुकावट। भारु = विकारों का बोझ।2। केल = खुशियाँ, आनंद। बांधि धरिओ = (जलता दीपक) टिका रखा है। अमरकु = अमर करने वाला। संसारि = संसार में। बिखु = जहर।3। गति = मुक्ति, उच्च आत्मिक अवस्था। नही राखु उतारि = (गले से) उतार के ना रख।4। कानि = काण, मुथाजी। मंदरि = घर में, हृदय घर में, स्वै स्वरूप में। पटंबर = पट अंबर, पॅट के कपड़े। पटंबर तानि = पॅट के कपड़े तान के, बेफिक्र हो के। सेज = हृदय। बिगसै = खिल उठता है। अनदिनु = हर रोज।5। बलाइ = रोग। माइ = माया। मनि = मन में।6। सासि = सांस के साथ। गिरासि = ग्रास के साथ। सोइ = सो के। संजोग = भाग्यों से।7। अधारु = आसरा। तंतु = टूणा, तंत्र।8। अर्थ: हे भाई! प्रभू का सिमरन किए बिना किसी भी अन्य तरीके से (माया के बँधनों) से निजात नहीं मिलती तू अपने मन में ऐसा (बल रखने वाला) सिमरन कर।1। रहाउ। जिस सिमरन की बरकति से मुक्ति का दर दिखाई दे जाता है, (उस रास्ते) तू प्रभू के चरणों में जा पहुँचेगा, संसार (-समुंद्र) में नहीं (भटकेगा); जिस अवस्था में कोई डर नहीं छूता, उसमें पहुँच के तू (आत्मिक आनंद के, मानो) बाजे बजाएगा, वह बाजे (तेरे अंदर) सदा एक-रस बजेंगे, (उस आनंद में) कोई कमी नहीं आएगी।1। जिस सिमरन से (विकार तेरे राह में) रुकावट नहीं डाल सकेगे, वह सिमरन (माया के बँधनों से) आजाद कर देता है, (विकारों का) बोझ (मन से) उतर जाता है। प्रभू को सदा सिर झुका, ता कि बार-बार तुझे (जगत में) आना ना पड़े।2। (हे भाई!) जिस सिमरन से तू आनंद ले रहा है (भाव, चिंता आदि से बचा रहता है), तेरे अंदर सदा (ज्ञान का) दीपक जलता रहता है, (विकारों के) तेल (वाला दीया) नहीं रहता, वह दीया (जिस मनुष्य के अंदर जग जाए उसको) संसार में अमर कर देता है, काम-क्रोध आदि के जहर को (अंदर से) मार के निकाल देता है।3। जिस सिमरन की बरकति से तेरी उच्च आत्मिक अवस्था बनती है, तू उस सिमरन (रूपी माला) को परो के सदा गले में डाले रख, (कभी भी गले से) उतार के ना रखना, सदा सिमरन कर, गुरू की मेहर से (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाएगा।4। (हे भाई!) जिस सिमरन से तुझे किसी की मुथाजी नहीं रहती, अपने घर में बे-फिक्र हो के सोता है, हृदय में सुख है, जीवात्मा खिली रहती है, ऐसा सिमरन-रूपी अमृत हर वक्त पीता रह।5। जिस सिमरन के कारण तेरा आत्मिक रोग काटा जाता है, तुझे माया नहीं सताती, हे भाई! सदा ये सिमरन कर, अपने मन में हरी की सिफत-सालाह कर (पर, गुरू की शरण पड़), ये सिमरन गुरू से ही मिलता है।6। हे भाई! सदा दिन-रात, उठते-बैठते, खाते हुए, साँस लेते हुए, सोते हुए हर वक्त सिमरन का रस ले। (हे भाई!) प्रभू का सिमरन सौभाग्य से मिलता है।7। जिस सिमरन से तेरे ऊपर से (विकारों का) बोझ उतर जाएगा, प्रभू के नाम के उस सिमरन को (अपनी जीवात्मा का) आसरा बना। कबीर कहता है- उस प्रभू के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, (उसकी याद के बिना) कोई और मंत्र, कोई और टूणा-टटका उसके सामने नहीं चल सकता (किसी और ढंग-तरीके से उसको मिला नहीं जा सकता)।8।9। रामकली घरु २ बाणी कबीर जी की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ बंधचि बंधनु पाइआ ॥ मुकतै गुरि अनलु बुझाइआ ॥ जब नख सिख इहु मनु चीन्हा ॥ तब अंतरि मजनु कीन्हा ॥१॥ पवनपति उनमनि रहनु खरा ॥ नही मिरतु न जनमु जरा ॥१॥ रहाउ ॥ उलटी ले सकति सहारं ॥ पैसीले गगन मझारं ॥ बेधीअले चक्र भुअंगा ॥ भेटीअले राइ निसंगा ॥२॥ चूकीअले मोह मइआसा ॥ ससि कीनो सूर गिरासा ॥ जब कु्मभकु भरिपुरि लीणा ॥ तह बाजे अनहद बीणा ॥३॥ बकतै बकि सबदु सुनाइआ ॥ सुनतै सुनि मंनि बसाइआ ॥ करि करता उतरसि पारं ॥ कहै कबीरा सारं ॥४॥१॥१०॥ {पन्ना 971-972} पद्अर्थ: बंधचि = बँधन डालने वाली माया को। मुकतै गुरि = मुक्त गुरू ने। अनलु = आग। नख सिख = (पैरों के) नाखूनों से लेकर सिर की चोटी तक, सारे को अच्छी तरह। अंतरि = अपने अंदर ही। मजनु = चुभ्भी, स्नान।1। पवन = हवा (जैसा चंचल मन)। पवन पति = मन की मालिक जीवात्मा। उन्मनि = उन्मन में, पूर्ण खिलाव की अवस्था में। खरा = सबसे अच्छी दशा। मिरतु = मौत। जरा = बुढ़ापा।1। रहाउ। उलटीले = उलट जाता है। सकति सहारं = माया का सहारा। पैसीले = पड़ जाते हैं। गगन मझारं = गगन में, आकाश में, ऊँची उड़ान में, दसम द्वार में। बेधीअले = भेदे जाते हैं। चक्र भुअंगा = भुयंगम नाड़ी के चक्र, टेढ़े चक्रों वाला मन, टेढ़ी चालों वाला मन। भेटीअले = मिल जाता है। राइ = राय, राजा प्रभू।2। मोह मइ = मोह मय, मोह की भरी हुई। ससि = चंद्रमा, ठंड, आत्मिक शांति। सूर = सूरज, तपस, मन की विकारों की गर्मी। गिरासा कीनो = ग्रास बना लिया, हड़प् कर लेती है। भरिपुरि = भरपूर में, उस प्रभू रूप समुंद्र में जो सब जगह भरपूर है। कुंभकु = प्राणों को रोकना। वासना के मूल = मन की बिरती। अनहद = एक रस।3। बकतै = उपदेश करने वाले (गुरू) ने। बकि = बोल के। सुनतै = सुनने वाले ने। सुनि = सुन के। मंनि = मन में। करि करता = 'करता करता' करके, 'प्रभू प्रभू' कह के, प्रभू का सिमरन करके। सारं = श्रेष्ठ बात, असल भेद की बात।4। नोट: शबद का मुख्य भाव 'रहाउ' की तुक में है, इस केन्द्रिय भाव को सारे शबद में विस्तार से बयान किया गया है। 'रहाउ' में बताया गया है कि जीवात्मा की सबसे उच्च अवस्था वह है जब यह 'उनमन' में पहुँचती है; इस अवस्था को जनम-मरण और बुढ़ापा छू नहीं सकते। इस अवस्था की और सारी हालत सारे शबद में बताई गई है, और ये सारी हालत उस केन्द्रिय तब्दीली का नतीजा है। गगन, भुअंग, ससि, सूर, कुंभक आदि शब्दों के द्वारा जो हालात बयान किए गए हैं वे सारे 'उनमन' में पहुँचे हुए के नतीजे हैं। पहले आत्मा 'उनमन' में पहुँची है और देखने में जो बाहरी चक्र-चिन्ह बने हैं, उनका वर्णन सारे शबद में है। साफ शब्दों में ऐसा कह लें कि यहाँ ये वर्णन नहीं कि गगन, भुअंग, ससि, सूर आदि वाले साधन करने का नतीजा निकला 'उनमन'; बल्कि 'उनमन' के असल प्रयोग का हाल है। और, यह 'उनमन' कैसे बनी? सिमरन की बरकति से। कबीर जी कहते हैं कि यही असल भेद की बात है। अर्थ: जीवात्मा का पूर्ण खिड़ाव में बने रहना ही आत्मा की सबसे श्रेष्ठ अवस्था है, इस अवस्था को जनम-मरन और बुढ़ापा छू नहीं सकते।1। रहाउ। (माया से) मुक्त गुरू ने माया को रोक लगा दी है, मेरी तृष्णा की आग बुझा दी है। अब जब अपने इस मन को अच्छी तरह देखता हूँ, तो अपने अंदर ही स्नान करता हूँ।1। माया वाला सहारा अब उलट गया है, (माया की जगह मेरा मन अब) प्रभू-चरणों में डुबकी लगा रहा है। टेढ़ी चालें चलने वाला ये मन अब भेदा जा चुका है क्योंकि निसंग हो के अब ये प्रभू को मिल गया है।2। मेरी मोह भरी आशाएं अब खत्म हो गई हैं; (मेरे अंदर की) शांति ने मेरे अंदर की तपश बुझा दी है। अब जबकि मन की बिरती सर्व-व्यापक प्रभू में जुड़ गई है, इस अवस्था में (मेरे अंदर, मानो) एक-रस वीणा बज रही है।3। कबीर कहता है (कि इस सारी तब्दीली में) असल राज की बात (ये है) - उपदेश करने वालें सतिगुरू ने जिसको अपना शबद सुनाया, अगर उसको ध्यान से सुन के अपने मन में बसा लिया, तब प्रभू का सिमरन करके वह पार लांघ गया।4।1।10। नोट: इस राज की बात को, जो कबीर जी ने आखिरी बंद में बताई है, कहीं सिख समझने में चूक ना कर जाएं - शायद इस ख्याल से ही सतिगुरू नानक देव जी ने इस आखिरी बंद की और भी खुली व्याख्या अपने शबद में कर दी है। वह शबद भी राग रामकली में ही है और छंद की चाल भी इसी शबद की चाल जैसी ही है। रामकली महला १॥ जा हरि प्रभि किरपा धारी॥ ता हउमै विचहु मारी॥ सो सेवकि राम पिआरी॥ जो गुर सबदी बीचारी॥१॥ सो हरि जनु हरि प्रभ भावै॥ अहिनिसि भगति करे दिनु राती लाज छोडि हरि के गुण गावै॥१॥ रहाउ॥ धुनि वाजे अनहद घोरा॥ मनु मानिआ हरि रसि मोरा॥ गुर पूरै सचु समाइआ॥ गुरु आदि पुरखु हरि पाइआ॥२॥ सभि नाद बेद गुरबाणी॥ मनु राता सारिगपाणी॥ तह तीरथ वरत तप सारे॥ गुर मिलिआ हरि निसतारे॥३॥ जह आपु गइआ भउ भागा॥ गुर चरणी सेवकु लागा॥ गुरि सतिगुरि भरमु चुकाइआ॥ कहु नानक सबदि मिलाइआ॥४॥१०॥ (पन्ना ८७९) |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |