श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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चंदु सूरजु दुइ जोति सरूपु ॥ जोती अंतरि ब्रहमु अनूपु ॥१॥ करु रे गिआनी ब्रहम बीचारु ॥ जोती अंतरि धरिआ पसारु ॥१॥ रहाउ ॥ हीरा देखि हीरे करउ आदेसु ॥ कहै कबीरु निरंजन अलेखु ॥२॥२॥११॥ {पन्ना 972}

पद्अर्थ: दुइ = दोनों। जोति सरूपु = (प्रभू के) नूर के स्वरूप। जोती अंतरि = हरेक प्रकाश देने वाली चीज़ के अंदर। अनूपु = (अन+ऊप) जिस जैसा और कोई नहीं, बेमिसाल।1।

रे गिआनी = हे ज्ञानवान मूर्ख! ब्रहम बीचारु = परमात्मा (की कुदरत) की विचार। धरिआ = बनाया। पसारु = जगत रचना।1। रहाउ।

देखि = देख के। हीरा = चमकता कीमती पत्थर। करउ = मैं करता हूँ। आदेसु = नमस्कार। अलेखु = जिसके गुण बयान ना किए जा सकें।2।

अर्थ: हे विचारवान मनुष्य! (तू तो चाँद-सूरज आदि रौशनी वाली चीजें देख के सिर्फ इन्हें ही सलाह रहा है, इनको नूर देने वाले, रौशन करने वाले) परमात्मा (की महिमा) की विचार कर, उसने यह सारा संसार अपने नूर में से पैदा किया है।1। रहाउ।

ये चाँद और सूरज दोनों ही उस परमात्मा की ज्योति का (बाहरी दिखाई देता) स्वरूप हैं, हरेक की रौशनी में सुंदर प्रभू स्वयं बस रहा है।1।

कबीर कहता है- मैं हीरे (आदि सुंदर कीमती चमकते पदार्थों) को देख के (उस) हीरे को सिर झुकाता हूँ (जिसने इनको ये गुण बख्शा है, और जो इनमें बसता हुआ भी) माया के प्रभाव से रहित है, और जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते।2।2।11।

नोट: चाँद-सूरज को माथे टेकने से मना किया गया है।

दुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाई ॥ निगम हुसीआर पहरूआ देखत जमु ले जाई ॥१॥ रहाउ ॥ नींबु भइओ आंबु आंबु भइओ नींबा केला पाका झारि ॥ नालीएर फलु सेबरि पाका मूरख मुगध गवार ॥१॥ हरि भइओ खांडु रेतु महि बिखरिओ हसतीं चुनिओ न जाई ॥ कहि कमीर कुल जाति पांति तजि चीटी होइ चुनि खाई ॥२॥३॥१२॥ {पन्ना 972}

पद्अर्थ: दुनीआ = हे जगत (के लोगो!)। हुसीआर = सचेत (रहो)। बेदार = जागते (रहो)। मुसीअत हउ = लूटे जा रहे हो। रे भाई = हे भाई! निगम = वेद शास्त्र। हुसीआर पहरूआ = सचेत पहरेदार। देखत = देखते हुए। लै जाई = ले जा रहा है।1। रहाउ।

नींबु = नीम का वृक्ष। केला पाका = पका हुआ केला। झारि = (काँटों वाली) झाड़ी। सेबरि = सिंबल। मुगध = मूर्ख। गवार = अंजान।1।

रेतु महि- (नोट: संबंधक 'मोह' के होते हुए शब्द 'रेतु' की (ु) मात्रा कायम है, ऐसे कुछ शब्द ऐसे हैं जिनके अंत में 'ु' की मात्रा टिकी रहती है) रेत में।

हसतीं = हाथियों से। पांति = खानदान।2।

अर्थ: हे भाई! हे जगत के लोगो! सचेत रहो, जागते रहो, तुम तो (अपनी ओर से) जागते हुए लूटे जा रहे हो; वेद शास्त्र रूपी सचेत पहरेदारों के देखते हुए भी तुम्हें जम-राज लिए जा रहा है (भाव, शास्त्रों की रक्षा पहरेदारी में भी तुम ऐसे काम किए जा रहे हो, जिनके कारण जनम-मरण का चक्कर बना हुआ है)।1। रहाउ।

(शास्त्रों के बताए कर्मकाण्ड में फंसे) मूर्ख मति-हीन अंजान लोगों को नीम का वृक्ष आम दिखाई देता है, आम का पौधा नीम लगता है; पका हुआ केला इन्हें झाड़ियाँ नजर आती हैं, और सिंबल इन्हें नारियल का पका फल दिखाई देता है।1।

कबीर कहता है-परमात्मा को ऐसे समझो जैसे खाण्ड रेत में मिली हुई हो। वह खांड हाथियों द्वारा नहीं चुनी जा सकती। (हाँ, अगर) चींटी हो तो वह (इस खाण्ड को) चुन के खा सकती है। इसी तरह मनुष्य कुल-जाति-खानदान (का गुमान) छोड़ के प्रभू को मिल सकता है।2।3।12।

शबद का भाव: हमारे आत्मिक जीवन के रखवाले वेद-शास्त्र ने ऊँची-नीच जाति का भेद-भाव पैदा करके ऊँची जाति वालों को अहंकार में डाल दिया है। ये रास्ता परमात्मा के राह से दूर ले जाता है।

बाणी नामदेउ जीउ की रामकली घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आनीले कागदु काटीले गूडी आकास मधे भरमीअले ॥ पंच जना सिउ बात बतऊआ चीतु सु डोरी राखीअले ॥१॥ मनु राम नामा बेधीअले ॥ जैसे कनिक कला चितु मांडीअले ॥१॥ रहाउ ॥ आनीले कु्मभु भराईले ऊदक राज कुआरि पुरंदरीए ॥ हसत बिनोद बीचार करती है चीतु सु गागरि राखीअले ॥२॥ मंदरु एकु दुआर दस जा के गऊ चरावन छाडीअले ॥ पांच कोस पर गऊ चरावत चीतु सु बछरा राखीअले ॥३॥ कहत नामदेउ सुनहु तिलोचन बालकु पालन पउढीअले ॥ अंतरि बाहरि काज बिरूधी चीतु सु बारिक राखीअले ॥४॥१॥ {पन्ना 972}

पद्अर्थ: आनीले = ले आए। काटीले = काट के बनाई। मधे = बीच में। भरमीअले = उड़ाई। बात बतऊआ = बात चीत, गप्पें।1।

बेधीअले = भेद गया है। कनिक = सोना। कला = हुनर। कनिक कला = सोने का कारीगर, सोनियारा। मांडीअले = (सोने में) मढ़ा रहता है।1। रहाउ।

कुंभु = घड़ा। ऊदक = पानी। कुआरि = कँवारी। राज कुआरि = जवान कवारियाँ। पुरंदरीऐ = (पुर+अंदर से) शहर में से। हसत = हसते हुए। बिनोद = हसीं की बातें।2।

अर्थ: (हे त्रिलोचन!) जैसे सोनियारे का मन (औरों से बात-चीत करते हुए भी, कुठाली में पड़े हुए सोने में) जुड़ा रहता है, वैसे ही मेरा मन परमात्मा के नाम में बेधा हुआ है।1। रहाउ।

(हे त्रिलोचन! देख, लड़का) कागज लाता है, उसकी गॅुडी काटता है उस गॅुडी व पतंग को आसमान में उड़ाता है, साथियों के साथ गप्पें भी मारता जाता है, पर उसका मन (पतंग की) डोर में टिका रहता है।1।

(हे त्रिलोचन!) जवान लड़कियाँ शहर से (बाहर जाती हैं) अपना-अपना घड़ा उठा लेती हैं, पानी से भरती हैं, (आपस में) हसती हैं, हसीं की बातें व और कई विचारें करती हैं, पर अपना चिक्त अपने-अपने घड़े में रखती हैं।2।

(हे त्रिलोचन!) एक घर है जिसके दस दरवाजे हैं, इस घर में से मनुष्य गऊएं चराने के लिए छोड़ता है; ये गाएँ पाँच कोस पर जा के चरती हैं, पर अपना चिक्त अपने बछड़े में रखती हैं (वैसे ही दस-इन्द्रियों वाले इस शरीर में से मेरी ज्ञान-इन्द्रियां शरीर के निर्वाह के लिए काम-काज करती हैं, पर मेरी सुरति अपने प्रभू-चरणों में ही है)।3।

हे त्रिलोचन! सुन, नामदेव (एक और दृष्टांत) कहता है- माँ अपने बच्चे को पालने में डालती है, अंदर-बाहर घर के कामों में व्यस्त रहती है, पर अपनी सुरति अपने बच्चे में रखती है।4।1।

भाव: प्रीति का स्वरूप- काम काज करते हुए सुरति हर वक्त प्रभू की याद में बनी रहे।

बेद पुरान सासत्र आनंता गीत कबित न गावउगो ॥ अखंड मंडल निरंकार महि अनहद बेनु बजावउगो ॥१॥ बैरागी रामहि गावउगो ॥ सबदि अतीत अनाहदि राता आकुल कै घरि जाउगो ॥१॥ रहाउ ॥ इड़ा पिंगुला अउरु सुखमना पउनै बंधि रहाउगो ॥ चंदु सूरजु दुइ सम करि राखउ ब्रहम जोति मिलि जाउगो ॥२॥ तीरथ देखि न जल महि पैसउ जीअ जंत न सतावउगो ॥ अठसठि तीरथ गुरू दिखाए घट ही भीतरि न्हाउगो ॥३॥ पंच सहाई जन की सोभा भलो भलो न कहावउगो ॥ नामा कहै चितु हरि सिउ राता सुंन समाधि समाउगो ॥४॥२॥ {पन्ना 972-973}

नोट: शब्द 'गावउगो, बजावउगो' आदि में अक्षर 'गो' सिर्फ पद-पूर्ती के लिए ही है, भविष्यत काल के लिए नहीं। अर्थ करने के वक्त इनको 'गावउ, बजावउ' आदि ही समझना है।

शबद का भाव: जिस मनुष्य का मन सिफत सालाह की बरकति से सदा परमात्मा में टिका रहे, उसको शास्त्रों के कर्मकाण्ड, जोगियों के प्राणायाम, तीर्थों के स्नान और लोक-शोभा की परवाह नहीं रहती।

पद्अर्थ: आनंता = बेअंत। न गावउगो = ना गाऊँ, मैं नहीं गाता। अखंड = अविनाशी। अखंड मंडल = अविनाशी ठिकाने वाला (प्रभू)। अनहद बेनु = एक रस बजती रहने वाली बाँसुरी। बजावउगो = बजाऊँ, मैं बजा रहा हूँ।1।

बैरागी = वैरागवान हो के, माया से उपराम हो के, माया से मोह तोड़ के। सबदि = (गुरू के) शबद द्वारा। अतीत = विरक्त, उदास। अनाहदि = अनाहद में, एक रस टिके रहने वाले हरी में, अविनाशी प्रभू में। आकुल कै घरि = सर्व व्यापक प्रभू के चरणों में। जाउगो = जाऊँ, मैं जाता हूँ, मैं टिका रहता हूँ।1। रहाउ।

पउनै बंधि = पवन को बाँध के, पवन जैसे चंचल मन को काबू में रख के।

नोट: सारे बंद ध्यान से पढ़ें; सिफत सालाह के मुकाबले में कर्मकाण्ड और तीर्थ स्नान आदि का विरोध कर रहे हैं; इस बंद में भी प्राणायाम को गैर-जरूरी कह रहे हैं)। सुखमना- (सं: सुषुमणा- a particular Artery of the human body said to lie between eerhaa and Pinglaa two of the vessels of the body) नाक के ऊपर माथे के बीच की वह नाड़ी जिसमें प्राणायाम के वक्त जोगी लोग बाई सुर (ईड़ा) के रास्ते प्राण चढ़ा के टिकाते हैं और दाई नासिका की नाड़ी पिंगला के रास्ते उतार देते हैं।

चंदु = बाई सुर ईड़ा। सूरज = दाहिनी सुर पिंगला। सम = बराबर, एक समान।2।

न पैसउ = नहीं पड़ता। भीतरि = अंदर।3।

पंच सहाई = सज्जन मित्र। राता = रंगा हुआ। सुंन समाधि = मन की वह एकाग्रता जिसमें कोई मायावी फुरना नहीं उठता, जिसमें माया के फुरनों की तरफ से शून्य ही शून्य है।4।

अर्थ: (सतिगुरू के) शबद की बरकति से मैं वैरागवान हो के, विरक्त हो के प्रभू के गुण गा रहा हूँ, अविनाशी प्रभू (के प्यार) में रंगा गया हूँ, और सर्व-कुल-व्यापक प्रभू के चरणों में पहुँच गया हूँ।1। रहाउ।

मुझे वेद-शास्त्र, पुराण आदि के गीत काव्य आदि गाने की आवश्यक्ता नहीं, क्योंकि मैं अविनाशी ठिकाने वाले निरंकार में जुड़ के (उसके प्यार की) एक-रस बाँसुरी बजा रहा हूँ।1।

(प्रभू की सिफत सालाह की बरकति से) चंचल मन को रोक के (मैं प्रभू-चरणों में) टिका हुआ हूँ- यही मेरा ईड़ा, पिंगला, सुखमना (का साधन) है; मेरे लिए बाई और दाई सारी सुर एक जैसी हैं (भाव, प्राण चढ़ाने उतारने मेरे लिए एक जैसे ही हैं, अनावश्यक हैं), क्योंकि मैं परमात्मा की ज्योति में टिका बैठा हूँ।2।

न मैं तीर्थों के दर्शन करता हॅूँ, ना उनके पानी में चुभ्भी लगाता हूँ, और ना ही मैं उस पानी में रहने वाले जीवों को डराता हूँ। मुझे तो मेरे गुरू ने (मेरे अंदर ही) अढ़सठ तीर्थ दिखा दिए हैं। सो, मैं अपने अंदर ही (आत्म-तीर्थ पर) स्नान करता हॅू।3।

नामदेव कहता है- (कर्म-काण्ड, तीर्थ आदिक से लोग जगत में शोभा की कामना करते हैं, पर) मुझे (इन कर्मों के आधार पर) सज्जनों-मित्रों व लोगों की प्रसंशा की आवश्यक्ता नहीं है, मुझे ये गर्ज नहीं कि कोई मुझे भला कहे; मेरा चिक्त प्रभू (-प्यार) में रंगा गया है, मैं उस ठहराव में ठहरा हुआ हूँ जहाँ माया का कोई विचार नहीं चलता।4।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh