श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 977 नट नाराइन महला ४ पड़ताल ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरे मन सेव सफल हरि घाल ॥ ले गुर पग रेन रवाल ॥ सभि दालिद भंजि दुख दाल ॥ हरि हो हो हो नदरि निहाल ॥१॥ रहाउ ॥ हरि का ग्रिहु हरि आपि सवारिओ हरि रंग रंग महल बेअंत लाल लाल हरि लाल ॥ हरि आपनी क्रिपा करी आपि ग्रिहि आइओ हम हरि की गुर कीई है बसीठी हम हरि देखे भई निहाल निहाल निहाल निहाल ॥१॥ हरि आवते की खबरि गुरि पाई मनि तनि आनदो आनंद भए हरि आवते सुने मेरे लाल हरि लाल ॥ जनु नानकु हरि हरि मिले भए गलतान हाल निहाल निहाल ॥२॥१॥७॥ {पन्ना 977} पद्अर्थ: पड़ताल = (पटहताल। पटह = ढोल)। मन = हे मन! सेव हरि = हरी की सेवा भगती (कर)। घाल = मेहनत। सफल = फल देने वाली है। ले = (अपने माथे पर लगा) ले। गुर पग रेन = गुरू के चरणों की धूल। गुर पग रवाल = गुरू के कदमों की ख़ाक। सभि = सारे। दालिद = दरिद्र। भंजि = नाश कर ले। दाल = दल देने वाली। हो हो हो = हे मन! हे मन! हे मन! नदरि = मेहर की निगाह। निहाल = प्रसन्न।1। रहाउ। ग्रिहु = (शरीर) घर। सवारिओ = सजाया। रंग महल = खुशियां लेने वाला ठिकाना। लाल = प्यारा। करी = की। ग्रिहि = घर में। बसीठी = बिचौलापन। देखि = देख के।1। गुरि = गुरू से। पाई = प्राप्त की। मनि = मन में। तनि = तन में। आनदो आनंद = आनंद ही आनंद। जनु = दास। मिले = मिलि, मिल के। गलतान हाल = मस्त हालत वाला, हर वक्त मस्त।2। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा की सेवा-भक्ति (कर, ये) मेहनत फल देने वाली है। गुरू के चरणों की धूड़ ले के (अपने माथे पर लगा, इस तरह अपने) सारे दरिद्र नाश कर ले, (गुरू के चरणों की धूड़) सारे दुखों को दलने वाली है। हे मन! हे मन! हे मन! परमात्मा की मेहर की निगाह से निहाल हो जाते हैं।1। रहाउ। हे भाई! (ये मनुष्य का शरीर) परमात्मा का घर है, परमात्मा ने स्वयं इसको सजाया है, उस बेअंत और अत्यंत सुंदर प्रभू का (ये मनुष्य शरीर) रंग-महल है। हे भाई! जिस पर परमात्मा ने अपनी कृपा की, (उसके हृदय-) घर में वह स्वयं आ बसता है। हे भाई! मैंने उस परमात्मा के मिलाप के लिए गुरू का बिचौला-पन किया है (गुरू को विचौलिया बनाया है, गुरू की शरण ली है। गुरू की कृपा से) उस हरी को देख के निहाल हो गई हूँ, बहुत ही निहाल हो गई हूँ।1। हे भाई! गुरू के माध्यम से ही (जब) मैंने (अपने हृदय में) परमात्मा के आ बसने की ख़बर सुनी, (जब) मैंने सुंदर लाल प्रभू का आना सुना, मेरे मन में मेरे तन में खुशियां ही खुशियां हो गई। (हे भाई! गुरू की कृपा से) दास नानक उस परमात्मा को मिल के मस्त हाल हो गया, निहाल हो गया, निहाल हो गया।2।1।7। नट महला ४ ॥ मन मिलु संतसंगति सुभवंती ॥ सुनि अकथ कथा सुखवंती ॥ सभ किलबिख पाप लहंती ॥ हरि हो हो हो लिखतु लिखंती ॥१॥ रहाउ ॥ हरि कीरति कलजुग विचि ऊतम मति गुरमति कथा भजंती ॥ जिनि जनि सुणी मनी है जिनि जनि तिसु जन कै हउ कुरबानंती ॥१॥ हरि अकथ कथा का जिनि रसु चाखिआ तिसु जन सभ भूख लहंती ॥ नानक जन हरि कथा सुणि त्रिपते जपि हरि हरि हरि होवंती ॥२॥२॥८॥ {पन्ना 977} पद्अर्थ: मन = हे मन! सुभवंती = (संगति) भले गुण देने वाली है। अकथ = वह प्रभू जिसके गुण बयान ना किए जा सकें। अकथ कथा = अकथ प्रभू की सिफत सालाह। सुखवंती = सुखदाई। किलबिख = पाप। लहंती = दूर कर सकने वाली। हो = हे मन! लिखतु = लेख। लिखंती = लिखने वाली।1। रहाउ। कीरति = सिफत सालाह। कलजुग विचि = कलह भरपूर समय में, जगत में। कथा = सिफत सालाह। भजंती = उचारनी (उक्तम कर्म है)। जिनि = जिस ने। जिनि जनि = जिस जन ने। मनी है = मानी है, मन में बसाई है। हउ = मैं।1। रसु = स्वाद। लहंती = दूर कर देती है। त्रिपते = तृप्त हो गए, अघा गए, संतुष्ट हो गए। जपि = जप के। होवंती = हो जाते हैं।2। अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरू की संगति में जुड़ा रह, (ये संगति) भले गुण पैदा करने वाली है। (हे मेरे मन!) अकथ परमात्मा की सिफतसालाह (गुरू की संगति में) सुना कर, (ये सिफत सालाह) आत्मिक आनंद देने वाली है; हे मन! ये सारे पाप-विकार दूर कर देती है; हे मन! (ये कथा तेरे अंदर) हरी नाम का लेख लिखने के योग्य है।1। रहाउ। हे मन! इस संसार में परमात्मा की सिफतसालाह, गुरू की शिक्षा पर चल के परमात्मा की सिफत-सालाह करनी श्रेष्ठ कर्म है। हे मन! जिस मनुष्य ने ये सिफत-सालाह सुनी है जिस मनुष्य ने ये सिफत-सालाह मन में बसाई है, मैं उस मनुष्य से सदके जाता हूँ।1। हे मन! अकथ परमात्मा की सिफत-सालाह का स्वाद जिस मनुष्य ने चखा है, ये उस मनुष्य की (माया की) सारी भूख दूर कर देती है। हे नानक! परमात्मा की सिफत-सालाह सुन के उसके सेवक (माया की ओर से) तृप्त हो जाते हैं, परमात्मा का नाम जप के वह परमात्मा का रूप हो जाते हैं।2।2।8। नट महला ४ ॥ कोई आनि सुनावै हरि की हरि गाल ॥ तिस कउ हउ बलि बलि बाल ॥ सो हरि जनु है भल भाल ॥ हरि हो हो हो मेलि निहाल ॥१॥ रहाउ ॥ हरि का मारगु गुर संति बताइओ गुरि चाल दिखाई हरि चाल ॥ अंतरि कपटु चुकावहु मेरे गुरसिखहु निहकपट कमावहु हरि की हरि घाल निहाल निहाल निहाल ॥१॥ ते गुर के सिख मेरे हरि प्रभि भाए जिना हरि प्रभु जानिओ मेरा नालि ॥ जन नानक कउ मति हरि प्रभि दीनी हरि देखि निकटि हदूरि निहाल निहाल निहाल निहाल ॥२॥३॥९॥ {पन्ना 977-978} पद्अर्थ: आनि = ला के, संदेशा ला के। गाल = बात। कउ = को, से। हउ = मैं। बाल = बलिहार। भल भाल = भले भाल वाला, भले मस्तक वाला। मेलि = (संगति में) मिला के।1। रहाउ। मारगु = रास्ता। गुर संति = गुरू संत ने। गुरि = गुरू ने। चाल = चलने का तरीका। अंतरि = मन में से। कपटु = छल कपट। चुकावहु = दूर करो। निहकपट = छल कपट छोड़ के। घाल = मेहनत।1। ते = वह (बहुवचन)। हरि प्रभ भाऐ = हरी प्रभू को प्यारे लगे। प्रभि = प्रभू ने। देखि = देख के। निकटि = नजदीक। हदूरि = हाजर नाजर।2। अर्थ: हे भाई! अगर कोई मनुष्य (गुरू से संदेशा) ला के मुझे परमात्मा की बात सुनाए; तो मैं उससे सदके जाऊँ; कुर्बान जाऊँ। वह मनुष्य (मेरे लिए तो) बढ़िया है भाग्यशाली है। (ऐसे मनुष्य की संगति में) मिला के परमात्मा (अनेकों को) निहाल करता है।1। रहाउ। हे भाई! संत-गुरू ने परमात्मा को मिलने का रास्ता बताया है, गुरू ने परमात्मा की राह पर चलने की जाच सिखाई है (और कहा है-) हे गुरसिखो! अपने अंदर से छल-कपट दूर करो, निष्छल हो के परमात्मा के सिमरन की मेहनत करो, (इस तरह) निहाल निहाल होया जाता है।1। हे भाई! मेरे गुरू के वह सिख परमात्मा को प्यारे लगते हैं, जिन्होंने ये जान लिया है कि परमात्मा हमारे नजदीक बस रहा है। हे नानक! जिन सेवकों को परमात्मा ने ये सूझ बख्शी दी, वह सेवक परमात्मा को अपने नजदीक बसता देख के अपने अंग-संग बसता देख के हर वक्त प्रसन्न-चिक्त रहते हैं।2।3।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |