श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 978 रागु नट नाराइन महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ राम हउ किआ जाना किआ भावै ॥ मनि पिआस बहुतु दरसावै ॥१॥ रहाउ ॥ सोई गिआनी सोई जनु तेरा जिसु ऊपरि रुच आवै ॥ क्रिपा करहु जिसु पुरख बिधाते सो सदा सदा तुधु धिआवै ॥१॥ कवन जोग कवन गिआन धिआना कवन गुनी रीझावै ॥ सोई जनु सोई निज भगता जिसु ऊपरि रंगु लावै ॥२॥ साई मति साई बुधि सिआनप जितु निमख न प्रभु बिसरावै ॥ संतसंगि लगि एहु सुखु पाइओ हरि गुन सद ही गावै ॥३॥ देखिओ अचरजु महा मंगल रूप किछु आन नही दिसटावै ॥ कहु नानक मोरचा गुरि लाहिओ तह गरभ जोनि कह आवै ॥४॥१॥ {पन्ना 978} पद्अर्थ: हउ = मैं। जाना = जानूँ, (मैं) जानता। किआ भावै = (तुझे) क्या अच्छा लगता है। मनि = मन में। पिआस = प्यास, तमन्ना। दरसावै = (तेरे) दर्शनों की।1। रहाउ। सोई = वही मनुष्य। गिआनी = ज्ञानवान, आत्मिक जीवन की सूझ वाला। रुच = (तेरी) खुशी। करहु = तुम करते हो। पुरख = हे सर्व व्यापक! बिधाते = हे सृजनहार!।1। जोग = योग साधन। गिआन = ज्ञान की बातें। धिआना = समाधियां। गुनी = गुणों से। रीझावै = (प्रभू को जीव) खुश कर सकता है। कवन = कौन से? निज = अपना प्यारा। रंगु = प्यार का रंग। लावै = लाता है, चढ़ाता है।2। साई = वही (शब्द 'सोई' पुलिंग है, जबकि 'साई' स्त्रीलिंग)। जितु = जिससे। निमख = आँख झपकने जितना समय। बिसरावै = भुलाता। संत संगि = गुरू (के चरणों के) साथ। लगि = लगके। सद = सदा।3। मंगला रूप = आनंद स्वरूप प्रभू। आन = (अन्य) और। दिसटावै = नजर आता, दिखाई देता। मोरचा = जंग, मन पर चढ़ा हुआ विकारों का जंग। गुरि = गुरू ने। तह = वह। कह = कहाँ?।4। अर्थ: हे परमात्मा! मैं ये तो नहीं जानता कि तुझे क्या अच्छा लगता है (भाव, तुझे मेरी चाहत पसंद है अथवा नहीं, पर) मेरे मन में तेरे दर्शनों की बहुत अभिलाशा है।1। रहाउ। हे सर्व-व्यापक! हे सृजनहार! वही मनुष्य उच्च आत्मिक सूझवाला है, वही मनुष्य तेरा सेवक है, जिस पर तेरी खुशी होती है। हे प्रभू! जिस पर तू मेहर करता है, वह तुझे सदा ही सिमरता रहता है।1। हे भाई! वह कौन से योग-साधन हैं? कौन सी ज्ञान की बातें हैं? कौन सी समाधियाँ हैं? कौन से गुण हैं जिनसे कोई मनुष्य परमात्मा को पसंद कर सकता है? (मनुष्य के अपने इस तरह के कोई प्रयत्न कामयाब नहीं होते)। वही मनुष्य प्रभू का सेवक है, वही मनुष्य प्रभू का प्यारा भक्त है, जिस पर वह स्वयं अपने प्यार का रंग चढ़ाता है।2। हे भाई! वही समझ (अच्छी है), वही बुद्धि और समझदारी (ठीक है), जिसके द्वारा मनुष्य परमात्मा को आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं भुलाता। (हे भाई! जिस मनुष्य ने) गुरू के चरणों में बैठ के ये (हरी-नाम-सिमरन का) सुख हासिल कर लिया, वह सदा ही परमात्मा के गुण गाता रहता है।3। हे भाई! जिस मनुष्य ने आश्चर्य-रूप महा आनंदरूप परमात्मा के दर्शन कर लिए, उसको (उस जैसी) कोई और चीज नहीं दिखती। हे नानक! कह- गुरू ने (जिस मनुष्य के मन से विकारों का) जंग उतार दिया वहाँ पैदा होने-मरने का चक्कर कभी नजदीक नहीं फटक सकता।4।1। नट नाराइन महला ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ उलाहनो मै काहू न दीओ ॥ मन मीठ तुहारो कीओ ॥१॥ रहाउ ॥ आगिआ मानि जानि सुखु पाइआ सुनि सुनि नामु तुहारो जीओ ॥ ईहां ऊहा हरि तुम ही तुम ही इहु गुर ते मंत्रु द्रिड़ीओ ॥१॥ जब ते जानि पाई एह बाता तब कुसल खेम सभ थीओ ॥ साधसंगि नानक परगासिओ आन नाही रे बीओ ॥२॥१॥२॥ {पन्ना 978} पद्अर्थ: उलाहनो = गिला। काहू = किसी को भी। तुहारो कीओ = तेरा किया (हरेक काम)। मन मीठ = मन को मीठा (लगा)।1। रहाउ। मानि = मान के। आगिआ = आज्ञा, (तेरी) रज़ा। जानि = जान के, समझ के। सुनि = सुन के। जीओ = मैंने आत्मिक जीवन पा लिया है। ईहां = इस लोक में। ऊहां = परलोक में। ते = से। मंत्रु = उपदेश। द्रिढ़ीओ = (हृदय में) पक्का कर लिया है, दृढ़ कर लिया। जब ते = जब से। जानि पाई = समझ लिया है। कुसल = सुख। खेम = आनंद। सभ = हरेक किस्म का। साध संगि = गुरू की संगति में। परगासिओ = (उच्च आत्मिक जीवन का) ये प्रकाश किया है। आन = अन्य, और। रे = हे भाई! बीओ = कोई दूसरा।2। अर्थ: (हे प्रभू! गुरू की किरपा से तब से) तेरा किया हुआ (हरेक काम) मेरे मन को मीठा लगने लगा है, (जब से किसी की तरफ से किसी प्रकार के जोर-जब्र का) उलाहमा मैंने किसी को कभी नहीं दिया।1। रहाउ। हे प्रभू! तेरी रज़ा को (मीठी) मान के, तेरी रज़ा को समझ के मैंने सुख हासिल कर लिया है, तेरा नाम सुन-सुन के मैंने ऊँचा आत्मिक जीवन हासिल कर लिया है। मैंने गुरू से ये उपदेश (ले के अपने मन में ये बात) दृढ़ कर ली है कि इस लोक में और परलोक में तू ही सिर्फ तू ही (मेरा सहायक है)।1। हे भाई! जब से (गुरू से) मैंने ये बात समझ ली है, तब से (मेरे अंदर) हरेक किस्म का सुख-आनंद बना रहता है। हे नानक! (कह- हे भाई!) साध-संगति में (गुरू ने मेरे अंदर आत्मिक जीवन का यह) प्रकाश कर दिया है कि (परमात्मा के बिना) कोई और दूसरा (कुछ भी करने के योग्य) नहीं है।2।1।2। नट महला ५ ॥ जा कउ भई तुमारी धीर ॥ जम की त्रास मिटी सुखु पाइआ निकसी हउमै पीर ॥१॥ रहाउ ॥ तपति बुझानी अम्रित बानी त्रिपते जिउ बारिक खीर ॥ मात पिता साजन संत मेरे संत सहाई बीर ॥१॥ खुले भ्रम भीति मिले गोपाला हीरै बेधे हीर ॥ बिसम भए नानक जसु गावत ठाकुर गुनी गहीर ॥२॥२॥३॥ {पन्ना 978-979} पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। धीर = धीरज, हौसला। त्रास = सहम, डर। निकसी = निकल गई। पीर = पीड़ा, चुभन।1। रहाउ। तपति = (तृष्णा की) तपश। अंम्रित बानी = आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी ने। त्रिपते = तृप्त हो गए। बारिक = बालक। खीर = दूध। सहाई = मददगार। बीर = भाई।1। भ्रम = भरम, भटकना। भीति = भिक्ति, पर्दे, किवाड़। बेधे = भेद लिए। बिसम = आनंद भरपूर। जसु = यश, सिफत सालाह के गीत। गुनी गहीर = गुणों के खजाने प्रभू का।2। अर्थ: हे प्रभू! जिस मनुष्य को तेरा दिया हुआ धैर्य मिल गया, उसके अंदर से मौत का डर हर वक्त का सहम मिट गया, उसने आत्मिक आनन्द हासिल कर लिया, उसके मन में से अहंकार की चुभन भी निकल गई।1। रहाउ। (हे भाई! जिन मनुष्यों के अंदर से) सतिगुरू की आत्मिक जीवन देने वाली बाणी ने माया की तृष्णा की तपश बुझा दी, वह (माया से) इस प्रकार तृप्त हो गए, जैसे बालक दूध से संतुष्ट होते हैं। हे भाई! मेरे वास्ते भी संत जन ही माता-पिता हैं, संत जन ही सज्जन-मित्र-भाई मददगार हैं।1। हे नानक! गुणों के खजाने मालिक-प्रभू के गुण गाते-गाते (गुण गाने वाले मनुष्य) आनंद-मगन ही हो जाते हैं, (उनके अंदर से माया के पीछे) भटकते फिरने की भिक्ति खुल जाती है, उनको सृष्टि का पालनहार प्रभू मिल जाता है, (प्रभू उनकी जिंद को अपने चरणों में ऐसे जोड़ लेता है जैसे) हीरे को हीरा भेद लेता है।2।2।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |