श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु माली गउड़ा महला ४

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

अनिक जतन करि रहे हरि अंतु नाही पाइआ ॥ हरि अगम अगम अगाधि बोधि आदेसु हरि प्रभ राइआ ॥१॥ रहाउ ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु नित झगरते झगराइआ ॥ हम राखु राखु दीन तेरे हरि सरनि हरि प्रभ आइआ ॥१॥ सरणागती प्रभ पालते हरि भगति वछलु नाइआ ॥ प्रहिलादु जनु हरनाखि पकरिआ हरि राखि लीओ तराइआ ॥२॥ हरि चेति रे मन महलु पावण सभ दूख भंजनु राइआ ॥ भउ जनम मरन निवारि ठाकुर हरि गुरमती प्रभु पाइआ ॥३॥ हरि पतित पावन नामु सुआमी भउ भगत भंजनु गाइआ ॥ हरि हारु हरि उरि धारिओ जन नानक नामि समाइआ ॥४॥१॥ {पन्ना 984}

पद्अर्थ: करि रहे = करके थक गए। अगम = अपहुँच। अगाधि बोध = वह जिसकी हस्ती के बारे में बोध करना अथाह है। आदेसु = नमस्कार। प्रभ राइआ = हे प्रभू पातिशाह!।1। रहाउ।

झगरते = (जीव) झगड़ते रहते हैं। झगराइआ = कामादिक विकारों के झगड़ाए हुए, झगड़ों में डाले हुए। हम = हम जीवों को। दीन = मंगते।1।

सरणागती = शरण आए हुओं को। प्रभ = हे प्रभू! भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। नाइआ = (तेरा) नाम। जनु = (तेरा) सेवक। हरनाखि = हरनाखश ने। हरि = हे हरी! ।2।

चेति = सिमर। महलु = (प्रभू के चरणों में) ठिकाना। पावण = प्राप्त करने के लिए। निवारि = दूर कर। ठाकुर = हे ठाकुर! गुरमती = गुरू की मति पर चलने से।3।

पवित पावन = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। भउ भंजनु = हरेक डर नाश करने वाला। उरि = हृदय में। धारिओ = बसाया। नामि = नाम में।4।

अर्थ: हे प्रभू पातशाह! (तेरे गुणों का अंत पाने के लिए बेअंत जीव) अनेकों यतन कर कर के थक गए हैं, किसी ने तेरा अंत नहीं पाया। हे हरी! तू अपहुँच है, तू अपहुँच है, तू अथाह है, तुझे कोई नहीं समझ सकता, मेरी तुझे ही नमस्कार है।1। रहाउ।

हे प्रभू! काम-क्रोध-लोभ-मोह (आदि विकार इतने बली हैं कि जीव इनके) उकसाए हुए सदा दुनिया के झगड़ों में पड़े रहते हैं। हे प्रभू! हम जीव तेरे दर पर मंगते हैं, हमें इनसे बचा ले, बचा ले, हम तेरी शरण आए हैं।1।

हे प्रभू! तू शरण पड़ों की रक्षा करने वाला है, हे हरी! 'भक्ति से प्यार करने वाला' - ये तेरा (प्रसिद्ध) नाम है। तेरे सेवक प्रहलाद को हरणाक्षस ने पकड़ लिया, हे हरी! तूने उसकी रक्षा की, तूने उसको संकट से बचाया।2।

हे मन! उस प्रभू के चरणों में ठिकाना प्राप्त करने के लिए सदा उसको याद किया कर, वह पातशाह सारे दुखों का नाश करने वाला है। हे ठाकुर! हे हरी! (हम जीवों का) जनम-मरन का चक्कर दूर कर। हे भाई! गुरू की मति पर चलने से वह प्रभू मिलता है।3।

हे भाई! हे स्वामी! तेरा नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है, तू (अपने भगतों का) हरेक डर दूर करने वाला है। हे दास नानक! (कह-) जिन भक्तों ने उसकी सिफत-सालाह की है, जिन्होंने उसके नाम का हार अपने हृदय में संभाला है, वे उसके नाम में ही सदा लीन रहते हैं।4।1।

माली गउड़ा महला ४ ॥ जपि मन राम नामु सुखदाता ॥ सतसंगति मिलि हरि सादु आइआ गुरमुखि ब्रहमु पछाता ॥१॥ रहाउ ॥ वडभागी गुर दरसनु पाइआ गुरि मिलिऐ हरि प्रभु जाता ॥ दुरमति मैलु गई सभ नीकरि हरि अम्रिति हरि सरि नाता ॥१॥ धनु धनु साध जिन्ही हरि प्रभु पाइआ तिन्ह पूछउ हरि की बाता ॥ पाइ लगउ नित करउ जुदरीआ हरि मेलहु करमि बिधाता ॥२॥ लिलाट लिखे पाइआ गुरु साधू गुर बचनी मनु तनु राता ॥ हरि प्रभ आइ मिले सुखु पाइआ सभ किलविख पाप गवाता ॥३॥ राम रसाइणु जिन्ह गुरमति पाइआ तिन्ह की ऊतम बाता ॥ तिन की पंक पाईऐ वडभागी जन नानकु चरनि पराता ॥४॥२॥ {पन्ना 984}

पद्अर्थ: मन = हे मन! मिलि = मिल के। सादु = स्वाद, आनंद। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। ब्रहमु पछाता = परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली।1। रहाउ।

वडभागी = बड़े भाग्यों वाले मनुष्य ने। गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। प्रभु जाता = प्रभू के साथ गहरी सांझ बन जाती है। दुरमति = खोटी मति। गई नीकरि = निकल गई। अंम्रिति = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल में। हरि सरि = हरी के सर में, साध-संगति में।1।

साध = (बहुवचन) गुरमुख संत जन। जिनी = जिन्होंने। पाइआ = पा लिया। पूछउ = मैं पूछूँ, पूछता हूँ। पाइ लगउ = पाय लगउं, मैं चरणों में लगता हूँ। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। जुदरीआ = जोदड़ी, अरजोई। करमि = मेहर से, किरपा से। बिधाता = सृजनहार।2।

लिलाट = माथा। लिलाट लिखे = माथे के लिखे लेखों के अनुसार। गुर बचनी = गुरू के बचनों में। राता = रंगा गया। किलबिख = पाप। गवाता = दूर हो गए।3।

रसाइणु = (रस+आयन) रसों का घर, सबसे श्रेष्ठ रस। ऊतम बाता = श्रेष्ठ शोभा। पंक = चरण धूल। चरनि = चरणों में। पराता = पड़ता है।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपा कर, परमात्मा सारे सुख देने वाला है। साध-संगति में मिल के जिस मनुष्य ने प्रभू के नाम का आनंद हासिल किया, उसने गुरू के द्वारा परमात्मा के साथ गहरी सांझ पा ली।1। रहाउ।

हे मन! किसी बड़े भाग्यशाली ने ही गुरू दर्शन प्राप्त किया है, (क्योंकि) अगर गुरू मिल जाए तो परमात्मा के साथ सांझ बन जाती है। जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल के सरोवर में (साध-संगति में आत्मिक) स्नान करता है, उसके अंदर से दुमर्ति की सारी मैल निकल जाती है।1।

हे मेरे मन! भाग्यशाली हैं वे संतजन, जिन्होंने परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया है। मैं भी (अगर प्रभू की मेहर हो तो) उनसे परमात्मा की सिफत-सालाह की बातें पूछूँ। मैं उनके चरणों में लगूँ, मैं नित्य उनके आगे अरजोई करूँ कि मेहर करके मुझे सृजनहार प्रभू का मिलाप करवा दो।2।

हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने माथे के लिखे लेखों के अनुसार गुरू महापुरुष पा लिया उसका मन उसका तन गुरू के बचनों में रंगा जाता है। (गुरू के द्वारा जिसको) परमात्मा मिल जाता है, उसको आत्मिक आनंद मिल जाता है, उसके सारे पाप विकार दूर हो जाते हैं।3।

हे मन! गुरू की मति ले के जिन मनुष्यों ने सबसे श्रेष्ठ नाम-रस प्राप्त कर लिया, उनकी (लोक-परलोक में) बहुत शोभा होती है; उनके चरणों की धूड़ बड़े भाग्यों से मिलती है। दास नानक (भी उनके) चरणों पर पड़ता है।4।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh