श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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नारी पुरखु पुरखु सभ नारी सभु एको पुरखु मुरारे ॥ संत जना की रेनु मनि भाई मिलि हरि जन हरि निसतारे ॥५॥ ग्राम ग्राम नगर सभ फिरिआ रिद अंतरि हरि जन भारे ॥ सरधा सरधा उपाइ मिलाए मो कउ हरि गुर गुरि निसतारे ॥६॥ {पन्ना 983}

पद्अर्थ: नारी = स्त्री। पुरख = मर्द। सभ = सबमें। सभु = हर जगह। पुरखु मुरारे = सर्व व्यापक हरी (मुर+अरि)। रेनु = चरण धूड़। मनि = मन में। भाई = अच्छी लगी। मिलि = मिल के। मिलि हरि जन = संत जनों को मिल के, संत जनों को मिलने से ही। निसतारे = पार लंघाता है।5।

ग्राम = गाँव। नगर = शहर। सभ = सब जगह। रिद अंतरि = हृदय के भीतर ही। भारे = भाले, तलाशा, पा लिया। उपाइ = उपाय, पैदा करके। मो कउ = मुझे। मिलाऐ = मिला के, जोड़। गुरि = गुरू के द्वारा। निसतारे = पार लंघा ले।6।

अर्थ: हे सखी! (वैसे तो चाहे) स्त्री है (चाहे) मर्द है, (भले ही) मर्द है (भले ही) स्त्री है, सब में हर जगह एक ही सर्व-व्यापक परमात्मा बस रहा है; पर जिस मनुष्य को संत जनों (के चरणों) की धूड़ (अपने) मन को प्यारी लगती है, उसको ही प्रभू संसार-समुंद्र से पार लंघाता है। हे सखी! संत-जनों को मिलने से ही प्रभू पार लंघाता है।5।

हे सखी! गाँव-गाँव शहर-शहर सब जगह घूम के देख लिया है (परमात्मा ऐसे बाहर ढूँढने पर नहीं मिलता), संतजनों ने परमात्मा को अपने हृदय में पाया है।

हे हरी! (मेरे अंदर भी) श्रद्धा पैदा करके मुझे भी (गुरू के द्वारा) अपने चरणों में जोड़, मुझे भी गुरू के द्वारा संसार-समुंद्र से पार लंघा ले।6।

पवन सूतु सभु नीका करिआ सतिगुरि सबदु वीचारे ॥ निज घरि जाइ अम्रित रसु पीआ बिनु नैना जगतु निहारे ॥७॥ तउ गुन ईस बरनि नही साकउ तुम मंदर हम निक कीरे ॥ नानक क्रिपा करहु गुर मेलहु मै रामु जपत मनु धीरे ॥८॥५॥ {पन्ना 983}

पद्अर्थ: पवन = श्वास। पवन सूतु = श्वासों का धागा, सांसों की डोर, सारे श्वास। नीका = सुंदर, अच्छा। सतिगुरि = गुरू में (जुड़ के)। वीचारे = बिचार के, सुरति में टिका के। निज घरि = अपने घर में, अंतर आत्मे। जाइ = जाय, जा के, टिक के। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। बिनु नैना = आँखों के बिना, मायावी आँखों के बगैर, माया का मोह दूर करके। निहारे = देख के।7।

तउ = तेरे। ईस = हे ईश! हे ईश्वर! साकउ = सकूँ। हम = हम संसारी जीव। निक = छोटे, तुच्छ। कीरे = कीड़े। गुर मेलहु = गुरू (से) मिलाप करो। मै मनु = मेरा मन। धीरे = टिक जाए।8।

अर्थ: हे सखी! जिस मनुष्य ने गुरू (के चरणों) में (जुड़ के) गुरू के शबद को अपनी सुरति में टिका के (नाम सिमरन की बरकति से) अपने श्वासों की लड़ी को सुंदर बना लिया, उसने माया के मोह को दूर करके जगत (की अस्लियत) को देख के, अंतरात्मे टिक के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस लिया।

हे प्रभू! मैं तेरे गुण बयान नहीं कर सकता। तू एक सुंदर मन्दिर है हम जीव उसमें रहने वाले एक छोटे-छोटे कीड़े हैं। हे नानक! (कह- हे प्रभू!् मेरे पर) मेहर कर, मुझे गुरू से मिला दे, ताकि मेरा मन नाम जप-जप के (तेरे चरणों में) सदा टिका रहे।8।5।

नट महला ४ ॥ मेरे मन भजु ठाकुर अगम अपारे ॥ हम पापी बहु निरगुणीआरे करि किरपा गुरि निसतारे ॥१॥ रहाउ ॥ साधू पुरख साध जन पाए इक बिनउ करउ गुर पिआरे ॥ राम नामु धनु पूजी देवहु सभु तिसना भूख निवारे ॥१॥ पचै पतंगु म्रिग भ्रिंग कुंचर मीन इक इंद्री पकरि सघारे ॥ पंच भूत सबल है देही गुरु सतिगुरु पाप निवारे ॥२॥ सासत्र बेद सोधि सोधि देखे मुनि नारद बचन पुकारे ॥ राम नामु पड़हु गति पावहु सतसंगति गुरि निसतारे ॥३॥ प्रीतम प्रीति लगी प्रभ केरी जिव सूरजु कमलु निहारे ॥ मेर सुमेर मोरु बहु नाचै जब उनवै घन घनहारे ॥४॥ {पन्ना 983}

पद्अर्थ: मेरे मन = हे मेरे मन! भजु = सिमर, याद कर। ठाकुर = मालिक प्रभू। अगम = अपहुँच। अपार = बेअंत। हम = हम जीव। निरगुणीआरे = गुणों से वंचित। गुरि = गुरू के द्वारा। निसतारे = पार लंघा ले।1। रहाउ।

साधू पुरखु = भला मनुष्य, संत। साध जन पाऐ = (जो) संत जनों की संगति प्राप्त करता है। बिनउ = (विनय) विनती। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। गुर = हे गुरू! पूजी = पूँजी, सरमाया, राशि। निवारे = दूर कर दे।1।

पचै = जलता है। पतंगु = पतंगा। म्रिग = मृग, हिरन। भ्रिंग = भृंग, भौरा। कुंचर = हाथी। मीन = मछली। इंद्री = (भाव) विकार वासना। पकरि = पकड़ के। सघारे = संघारे, नाश कर दिए, जान से मार दिए। पंच भूत = कामादिक पाँच दैत्य। सबल = स+बल, बलवान, बली। है = हैं। देही = शरीर में।2।

सोधि = सुधार के, परख के, विचार के। पुकारे = ऊँचा ऊँचा पुकार के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। गुरि = गुरू ने (ही)। निसतारे = पार उतारना है।3।

केरी = की। निहारे = देखता है। मेर = मेरु, पहाड़। नाचै = नाचता है। उनवै = (बरसने के लिए) झुकता है। घन = बहुत। घनहारे = बादल।4।

अर्थ: हे मेरे मन! अपहुँच और बेअंत मालिक प्रभू के गुण याद किया कर (और कहा कर- हे प्रभू!) हम जीव पापी हैं, गुणों से बहुत दूर हैं। कृपा करके हमें गुरू के माध्यम से (गुरू की शरण डाल के संसार-समुंद्र से) पार लंघा ले।1। रहाउ।

हे प्यारे गुरू! जो मनुष्य संत जनों की संगति प्राप्त करता है वह भी गुरमुख बन जाता है, मैं भी (तेरे दर पर) विनती करता हूँ (मुझे भी संत जनों की संगति बख्श, और) मुझे परमात्मा का नाम-धन सरमाया दे जो मेरे भीतर से माया की तृष्णा माया की भूख सब दूर कर दे।1।

हे भाई! पतंगा (दीपक की लाट पर) जल जाता है; हिरन, भौरा, हाथी, मछली इनको भी एक-एक विकार-वासना अपने वश में करके मार देते हैं। पर मानस शरीर में तो ये कामादिक पाँचों ही बलवान हैं, (मनुष्य इनका मुकाबला कैसे करे?)। गुरू ही सतिगुरू ही इन विकारों को दूर करता है।2।

हे भाई! वेद-शास्त्र कई बार विचार के देख लिए हैं, नारद आदि ऋषि-मुनि भी (जीवन-जुगति के बारे में) जो वचन जोर दे के कह रहे हैं (वह भी विचार लिए हैं, पर असल बात ये है भाई!) परमात्मा का नाम सिमरना सीखोगे तब ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त करोगे, गुरू ने साध-संगति में ही (अनेकों जीव संसार-समुंद्र से) पार लंघाए हैं।3।

हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में प्रीतम प्रभू का प्यार बना है (वह उसके मिलाप के लिए इस तरह तमन्ना बनाए रखता है) जैसे कमल का फूल सूरज को देखता है (और खिलता है, जैसे) जब बादल (बरसने के लिए) बहुत झुकता है तब ऊँचे पहाड़ों (की ओर से घटाएं आती देख के) मोर बहुत नाचता है।4।

साकत कउ अम्रित बहु सिंचहु सभ डाल फूल बिसुकारे ॥ जिउ जिउ निवहि साकत नर सेती छेड़ि छेड़ि कढै बिखु खारे ॥५॥ संतन संत साध मिलि रहीऐ गुण बोलहि परउपकारे ॥ संतै संतु मिलै मनु बिगसै जिउ जल मिलि कमल सवारे ॥६॥ लोभ लहरि सभु सुआनु हलकु है हलकिओ सभहि बिगारे ॥ मेरे ठाकुर कै दीबानि खबरि हुोई गुरि गिआनु खड़गु लै मारे ॥७॥ राखु राखु राखु प्रभ मेरे मै राखहु किरपा धारे ॥ नानक मै धर अवर न काई मै सतिगुरु गुरु निसतारे ॥८॥६॥ छका १ ॥ {पन्ना 983}

पद्अर्थ: साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। बिसु = विष, जहर। बिसकारे = जहरीले। निवहि = झुकते हैं, विनम्रता वाला व्यवहार करते हैं। सेती = साथ। छेड़ि = छेड़ के। कढै = निकालता है (एक वचन)। बिखु = जहर। खारे = खारा, कड़वा।5।

मिलि = मिल के। मिलि रहीअै = मिले रहना चाहिए। बोलहि = बोलते हैं (बहुवचन)। पर उपकारे = दूसरों की भलाई करने के वचन। संतै = संत को। मिलै = मिलता है (एक वचन)। बिगसै = खिल उठता है। जल मिलि = पानी को मिल के।6।

लोभ लहरि = लोभ की लहर। सभु = सारा, निरोल। सुआनु = कुक्ता। हलकु सुआन = हलका हुआ कुक्ता। सभहि = सबको। कै दीबानि = के दीवान में, की कचहरी में। खबरि = (ये शब्द सदा 'ि' अंत है)। गुरि = गुरू के द्वारा। खड़गु = तलवार। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ।7।

हुोई: अक्षर 'ह' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' लगी हुई हैं। असल शब्द है 'होई', यहाँ पढ़ना है 'हुई' ।

प्रभ = हे प्रभू! मै = मुझे। राखु = बचा ले। राखहु = बचा लो। धारे = धार के, करके। धर = आसरा। काई = (स्त्रीलिंग। पुलिंग = 'कोई')। मै सतिगुरु = मेरा (आसरा) गुरू ही।8।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य (मानो, एक विषौला वृक्ष है) उसको चाहे कितना ही अमृत सें सींचते जाओ, उसकी टहनियाँ उसके फल सब विषौले ही रहेंगे। साकत मनुष्य से ज्यों-ज्यों लोग विनम्रता का प्रयोग करते हैं, त्यों-त्यों वह छेड़-खानियाँ कर करके (अपने अंदर से) कड़वा जहर ही निकालता है।5।

(इस वास्ते, हे भाई! साकत से सांझ डालने की जगह) संत जनों से गुरमुखों से मिल के रहना चाहिए। संत जन दूसरों की भलाई के लिए भले वचन ही बोलते हैं। जैसे पानी को मिल के कमल फूल खिलते हैं, वैसे ही जब कोई संत किसी संत को मिलता है तब उसका मन खिल उठता है।6।

हे भाई! लोभ की लहर निरोल हलकाया हुआ कुक्ता ही है (जिस तरह) हलकाया हुआ कुक्ता सबको (काट-काट के) बिगाड़ता जाता है (वैसे ही लोभी मनुष्य औरों को भी अपनी संगति में लोभी बनाए जाता है)। (इस लोभ से बचने के लिए जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर प्रभू-दर पे पुकार करता है, तब) परमात्मा की हजूरी में उसकी आरजू की खबर पहुँचती है, परमात्मा गुरू के माध्यम से आत्मिक जीवन की सूझ की तलवार ले के उसके अंदर से लोभ के हलकाए हुए कुत्ते को मार देता है।7।

हे मेरे प्रभू! (इस लोभ-कुत्ते से) मुझे भी बचा ले, बचा ले, बचा ले, कृपा करके मुझे भी बचा ले। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) मेरा और कोई आसरा नहीं। गुरू ही मेरा आसरा है, गुरू ही पार लंघाता है। (मुझे गुरू की शरण रख)।8।6।छका1।

छका = छक्का, जोड़ 6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh