श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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लगि लगि प्रीति बहु प्रीति लगाई लगि साधू संगि सवारे ॥ गुर के बचन सति सति करि माने मेरे ठाकुर बहुतु पिआरे ॥६॥ पूरबि जनमि परचून कमाए हरि हरि हरि नामि पिआरे ॥ गुर प्रसादि अम्रित रसु पाइआ रसु गावै रसु वीचारे ॥७॥ हरि हरि रूप रंग सभि तेरे मेरे लालन लाल गुलारे ॥ जैसा रंगु देहि सो होवै किआ नानक जंत विचारे ॥८॥३॥ {पन्ना 982}

पद्अर्थ: लगि = (गुरू के चरणों में) लग के। लगि लगि = बार बार लग के। प्रीति लगाई = (अपने हृदय में) प्रीति पैदा की। साधू संगि = गुरू की संगति में। सवारे = अपना जीवन अच्छा बना ले। सति करि = सच्चे जान के। माने = मान ले।6।

पूरबि जनमि = पहले जनम में। परचून = थोड़े थोड़े (शुभ कर्म)। नामि = नाम में। पिआरे = प्यार करता है। गुर प्रसादि = गुरू की कृपा से। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला।7।

हरि = हे हरी! सभि = सारे। लालन = हे लाल! लाल गुलारे = हे सुंदर लाल! देहि = तू देता है। सो = वही रंग। किआ = क्या बिसात है? क्या समर्था है? क्या पायां है?।8।

अर्थ: (हे भाई! जिन मनुष्यों ने) बार-बार गुरू के चरणों में ( लग के) (अपने हृदय में प्रभू-चरणों की) बहुत प्रीति पैदा कर ली, गुरू की संगति में रह के अपने जीवन अच्छे बना लिए, गुरू के वचनों पर पूरी श्रद्धा बना ली, वे मनुष्य परमात्मा को बहुत प्यारे लगते हैं।6।

हे भाई! पूर्बले जनम में जिस मनुष्य ने थोड़े-थोड़े शुभ-कर्म कमाए, (उनकी बरकति से अब भी) प्रभू के नाम में प्यार बनाया, गुरू की कृपा से उसने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पा लिया। वह मनुष्य (सदा) नाम-रस को सलाहता है, नाम-रस को हृदय में बसाता है।7।

हे नानक! (कह-) हे हरी! हे लाल! हे सोहणे लाल! (सब जीव-जंतु) सारे तेरे ही रूप हैं तेरे ही रंग हैं। जैसा रंग तू (किसी जीव को) देता है (उस पर) वैसा ही रंग चढ़ता है। इन बिचारे जीवों की अपनी कोई बिसात नहीं है।8।3।

नट महला ४ ॥ राम गुर सरनि प्रभू रखवारे ॥ जिउ कुंचरु तदूऐ पकरि चलाइओ करि ऊपरु कढि निसतारे ॥१॥ रहाउ ॥ प्रभ के सेवक बहुतु अति नीके मनि सरधा करि हरि धारे ॥ मेरे प्रभि सरधा भगति मनि भावै जन की पैज सवारे ॥१॥ हरि हरि सेवकु सेवा लागै सभु देखै ब्रहम पसारे ॥ एकु पुरखु इकु नदरी आवै सभ एका नदरि निहारे ॥२॥ हरि प्रभु ठाकुरु रविआ सभ ठाई सभु चेरी जगतु समारे ॥ आपि दइआलु दइआ दानु देवै विचि पाथर कीरे कारे ॥३॥ अंतरि वासु बहुतु मुसकाई भ्रमि भूला मिरगु सिंङ्हारे ॥ बनु बनु ढूढि ढूढि फिरि थाकी गुरि पूरै घरि निसतारे ॥४॥ {पन्ना 982}

पद्अर्थ: राम = हे राम! प्रभू = हे प्रभू! रखवारे = तू रखवाला बनता है। कुंचरु = गज, हाथी (श्राप से गंधर्व से बना हुआ हाथी)। तदूअै = तेंदूए ने। पकरि = पकड़ कर। ऊपरु = ऊँचा (विशेषण)। कढि = निकाल के। निसतारे = बचा लिया।1। रहाउ।

अति नीके = बहुत सुंदर। मनि = मन में। करि = पैदा करके। धारे = सहारा देता है। प्रभि = प्रभू ने। मनि = मन में। भावै = भाता है। पैज = इज्जत।1।

सभु = हर जगह। पसारे = पसारा, खिलारा। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभू। निहारे = देखता है।2।

रविआ = व्यापक है। ठाई = जगहों में। सभु जगतु = सारा संसार। चेरी = दासी (की तरह)। समारे = संभालता है। दानु देवै = दान देता है। कीरे कारे = कीरे करे, कीड़े पैदा किए।3।

वासु = सुगंधि। मुसकाई = कस्तूरी की। भ्रमि = भुलेखे में। भूला = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ। मिरगु = हिरन। सिंङ्हारे = (सिंग+हारे) सींग मारता फिरता है, सूँघता फिरता है। बनु बनु = हरेक जंगल। फिरि = फिर के, भटक के। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। घरि = घर में।4।

अर्थ: हे मेरे राम! हे मेरे प्रभू! (जिस पर भी तू मेहर करता है उसको) गुरू की शरण में डाल कर (विकारों से उसका) रक्षक बनता है, जैसे जब तेंदूए ने हाथी को पकड़ कर खींच लिया था, तब तूने ही उसे ऊँचा कर के निकाल के (तेंदूए की पकड़ से) बचा लिया था।1। रहाउ।

हे भाई! प्रभू के भगत बहुत ही सुंदर जीवन वाले होते हैं, प्रभू (उनके मन में) श्रद्धा पैदा करके उनको (अपने नाम का) सहारा देता है। हे भाई! प्रभू ने स्वयं ही (अपने सेवक के अंदर) श्रद्धा-भक्ति पैदा की होती है, सेवक उसको प्यारा लगता है, प्रभू स्वयं ही सेवक की इज्जत बचाता है।1।

हे भाई! प्रभू का जो सेवक प्रभू की सेवा-भक्ति में लगता है, वह हर जगह प्रभू का ही पसारा देखता है, उसको वही सर्व-व्यापक हर जगह दिखाई देता है (उसको दिखता है कि) प्रभू स्वयं ही सब जीवों पर मेहर की निगाह से देख रहा है।2।

हे भाई! मालिक हरी प्रभू सब जगहों में भरपूर है, दासी की तरह सारे जगत को संभालता है। दया का श्रोत प्रभू खुद ही सब जीवों पर दया करता है, सबको दान देता है, पत्थरों में भी वह स्वयं ही कीड़े पैदा करता है (और उनको रिज़क पहुँचाता है)।3।

हे भाई! (हिरन के अंदर ही) कस्तूरी की खूब सारी सुगंधि मौजूद होती है, पर भुलेखे में भूल के हिरन (उस सुगंधि को झाड़ियों में) तलाशता फिरता है (यही हाल स्त्री-जीव का होता है। प्रभू तो इसके अंदर ही बसता है, पर ये बेचारी जीव-स्त्री) जंगल-जंगल ढूँढ-ढूँढ के भटक-भटक के थक जाती है। (आखिर) पूरे गुरू ने इसको घर में (ही बसता प्रभू दिखाया और संसार-समुंद्र से) पार लंघाया।4।

बाणी गुरू गुरू है बाणी विचि बाणी अम्रितु सारे ॥ गुरु बाणी कहै सेवकु जनु मानै परतखि गुरू निसतारे ॥५॥ सभु है ब्रहमु ब्रहमु है पसरिआ मनि बीजिआ खावारे ॥ जिउ जन चंद्रहांसु दुखिआ ध्रिसटबुधी अपुना घरु लूकी जारे ॥६॥ प्रभ कउ जनु अंतरि रिद लोचै प्रभ जन के सास निहारे ॥ क्रिपा क्रिपा करि भगति द्रिड़ाए जन पीछै जगु निसतारे ॥७॥ आपन आपि आपि प्रभु ठाकुरु प्रभु आपे स्रिसटि सवारे ॥ जन नानक आपे आपि सभु वरतै करि क्रिपा आपि निसतारे ॥८॥४॥ {पन्ना 982}

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सारे = संभालता है, पाता है। गुरु कहै = गुरू उचारता है। मानै = मानता है, श्रद्धा बनाता है। परतखि = प्रकट तौर पर, यकीनी तौर पर।5।

सभु = हर जगह। पसरिआ = व्यापक। मनि = मन में। खावारे = खाता है। दुखिआ = दुखाया। चंद्रहांसु = एक राजे का लड़का जिसको धृष्टबुद्धि ने मरवाने का यतन किया, पर भुलेखे में अपने ही पुत्र का कत्ल कर बैठा। लूकी = लूती, चिंगारी से, आग से। जारे = जलाता है।6।

कउ = को। अंतरि रिद = हृदय में। लोचै = तांघता है। सास = श्वास (बहुवचन)। निहारे = ताकता है। द्रिढ़ाऐ = दृढ़ करता है, पक्के तौर पर टिकाता है। जन पीछै = अपने मन के पीछे चलने वाले को। निसतारे = पार लंघाता है।7।

ठाकुरु = मालिक। आपे = आप ही। स्रिसटि = जगत, दुनिया। सभु = हर जगह। वरतै = मौजूद है।8।

अर्थ: (हे भाई! गुरू की) बाणी (सिख की) गुरू है, गुरू बाणी मे मौजूद है। (गुरू की) बाणी में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (है, जिसको सिख हर वक्त अपने हृदय में) संभाल के रखता है। गुरू बाणी उचारता है, (गुरू का) सेवक उस बाणी पर श्रद्धा धरता है। गुरू उस सिख को यकीनी तौर पर संसार-समुंद्र से पार लंघा देता है।5।

हे भाई! हर जगह परमात्मा भरपूर है मौजूद है (पर जीव को ये समझ नहीं आती, जीव अपने) मन में बीजे कर्मों के फल खाता है (और दुखी होता है,) जैसे ध्रिष्टबुद्धि भले चंद्रहांस का बुरा लोचते-लोचते अपने ही घर को आग से जला बैठा।6।

हे भाई! प्रभू का भगत प्रभू को अपने हृदय में देखने के लिए उत्सुक रहता है, प्रभू (भी अपने) सेवक-भक्त की हर वक्त रक्षा करता रहता है, अपने भक्त के पद्-चिन्हों पर चलने वाले जगत को भी पार लंघाता है।7।

हे भाई! मालिक-प्रभू अपने आप को आप ही जगत के रूप में प्रकट करता है, आप ही अपनी रची सृष्टि को सुंदर बनाता है। हे दास नानक! (कह-) प्रभू स्वयं ही हर जगह मौजूद है, कृपा करके स्वयं ही (जीवों को संसार-समुंद्र से) पार लंघाता है।8।4।

नट महला ४ ॥ राम करि किरपा लेहु उबारे ॥ जिउ पकरि द्रोपती दुसटां आनी हरि हरि लाज निवारे ॥१॥ रहाउ ॥ करि किरपा जाचिक जन तेरे इकु मागउ दानु पिआरे ॥ सतिगुर की नित सरधा लागी मो कउ हरि गुरु मेलि सवारे ॥१॥ साकत करम पाणी जिउ मथीऐ नित पाणी झोल झुलारे ॥ मिलि सतसंगति परम पदु पाइआ कढि माखन के गटकारे ॥२॥ {पन्ना 982}

पद्अर्थ: राम = हे मेरे राम! लेहु उबारे = उबार लो, मुझे बचा लो। पकरि = पकड़ के। आनी = ले के आए। लाज = शर्म। लाज निवारे = नग्न होने की शर्म से बचाया।1। रहाउ।

जाचक = मंगते। मागउ = मैं माँगता हॅूँ। पिआरे = हे प्यारे! नित = सदा। सरधा = तांघ। सतिगुरू की सरधा = गुरू को मिलने की तमन्ना। मो कउ = मुझे। हरि = हे हरी! गुरु मेलि = गुरू मिला। सवारे = (मेरा जीवन) सवार।1।

साकत करम = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य के कर्म। मथीअै = मथते हैं। झोल झुलारे = बार बार मथते हैं। मिलि = मिल के। परम पदु = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। कढि = (दूध में से) निकाल के। गटकारे = गटकता है, सांस ले ले के खाता है।2।

अर्थ: हे मेरे राम! मेहर कर, (मुझे विकारों के हमलों से) बचा ले (उसी तरह बचा ले) जैसे (जब) दुष्ट द्रोपदी को पकड़ कर लाए थे (तब) हे हरी! तूने उसको नग्न होने की शर्म से बचाया था।1। रहाउ।

हे प्यारे हरी! मेहर कर, हम (तेरे दर के) मंगते हैं, मैं (तेरे दर से) एक दान माँगता हूं। (मेरे मन में) सदा गुरू को मिलने की तमन्ना बनी रहती है, हे हरी! मुझे गुरू मिला (और मेरा जीवन) सवार।1।

हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य के काम (इस तरह व्यर्थ) हैं जैसे पानी को मथना। साकत मनुष्य (जैसे) सदा पानी ही मथता रहता है। पर जिस मनुष्य ने साध-संगति में मिल के सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया, वह (मानो, दूध में से) मक्खन निकाल के मक्खन का स्वाद चखता है।2।

नित नित काइआ मजनु कीआ नित मलि मलि देह सवारे ॥ मेरे सतिगुर के मनि बचन न भाए सभ फोकट चार सीगारे ॥३॥ मटकि मटकि चलु सखी सहेली मेरे ठाकुर के गुन सारे ॥ गुरमुखि सेवा मेरे प्रभ भाई मै सतिगुर अलखु लखारे ॥४॥ {पन्ना 982-983}

पद्अर्थ: नित = सदा। काइआ = शरीर। मजनु = स्नान। मलि = मल के। देह = शरीर। सवारे = सवारता है, साफ सुथरा बनाता है। मनि = मन में। भाऐ = अच्छे लगे। चार = सुंदर। फोकट = व्यर्थ।3।

मटकि = मटक के, मौज से, आत्मिक अडोलता में। चलु = चल, जीवन यात्रा में चल। सखी = हे सखी! सरे = सारि, संभाल, हृदय में बसाए रख। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। सेवा = भगती। प्रभ भाई = प्रभू को अच्छी लगती है। मै = मुझे (भी)। सतिगुर = हे गुरू! लखारे = दिखा के, सूझ दे के। अलखु = जिस प्रभू का सही स्वरूप बयान ना हो सके।4।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा शरीर का स्नान करता रहा, जो मनुष्य सदा शरीर को ही मल-मल के साफ-सुथरा बनाता रहता है, पर उसको अपने मन में गुरू के बचन प्यारे नहीं लगते, उसके ये सारे (शारीरिक) सुंदर श्रृंगार फोके ही रह जाते हैं।3।

हे सखी! हे सहेली! मालिक प्रभू के गुण हृदय में बसाए रख, (और इस तरह) आत्मिक अडोलता से जीवन-यात्रा में चल। हे सहेलिए! गुरू की शरण पड़ कर की हुई सेवा-भक्ति प्रभू को प्यारी लगती है। हे सतिगुरू! मुझे (भी) अलख प्रभू की सूझ बख्श।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh