श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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माली गउड़ा महला ५ ॥ प्रभ समरथ देव अपार ॥ कउनु जानै चलित तेरे किछु अंतु नाही पार ॥१॥ रहाउ ॥ इक खिनहि थापि उथापदा घड़ि भंनि करनैहारु ॥ जेत कीन उपारजना प्रभु दानु देइ दातार ॥१॥ हरि सरनि आइओ दासु तेरा प्रभ ऊच अगम मुरार ॥ कढि लेहु भउजल बिखम ते जनु नानकु सद बलिहार ॥२॥२॥७॥ {पन्ना 988}

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! समरथ = हे सब ताकतों के मालिक! देव = हे प्रकाश रूप! अपार = हे बेअंत! जानै = जानता है। चलित = तमाशे, करिश्मे। पार = परला छोर।1। रहाउ।

खिनहि = खिन में। थापि = पैदा करके। उथापदा = नाश करता है। घड़ि = घड़ के। भंनि = तोड़ के। करनैहारु = सब कुछ कर सकने वाला। जेत उपारजना = जितनी भी सृष्टि। कीन = पैदा की है। देइ = देता है। दातार = दातें देने वाला।1।

हरि = हे हरी! प्रभ = हे प्रभू! ऊच = हे सबसे ऊँचे! अगम = हे अपहुँच! मुरार = हे मुरारि! भउजल बिखम ते = मुश्किल संसार समुंद्र से। ते = से, में से। सद = सदा।2।

अर्थ: हे प्रभू! हे सब ताकतों के मालिक! हे प्रकाश रूप! हे बेअंत! तेरे करिश्मों को कोई भी नहीं जान सकता। तेरे करिश्मों का अंत नहीं पाया जा सकता, परला छोर (उस पार को) नहीं पाया जा सकता।1। रहाउ।

हे भाई! सब कुछ कर सकने वाला परमात्मा घड़ के पैदा करके (उसको) एक छिन में तोड़ के नाश कर देता है। हे भाई! जितनी भी सृष्टि उसने पैदा की है, दातें देने वाला वह प्रभू (सारी सृष्टि को) दान देता है।1।

हे हरी! हे प्रभू! हे सबसे ऊँचे! हे अपहुँच! हे मुरारि! तेरा दास (नानक) तेरी शरण आया है। (अपने दास को) मुश्किल संसार-समुंद्र में से बाहर निकाल ले। दास नानक तुझसे सदा सदके जाता है।2।2।7।

माली गउड़ा महला ५ ॥ मनि तनि बसि रहे गोपाल ॥ दीन बांधव भगति वछल सदा सदा क्रिपाल ॥१॥ रहाउ ॥ आदि अंते मधि तूहै प्रभ बिना नाही कोइ ॥ पूरि रहिआ सगल मंडल एकु सुआमी सोइ ॥१॥ करनि हरि जसु नेत्र दरसनु रसनि हरि गुन गाउ ॥ बलिहारि जाए सदा नानकु देहु अपणा नाउ ॥२॥३॥८॥६॥१४॥ {पन्ना 988}

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में। गोपाल = सृष्टि का पालक। दीन बांधव = गरीबों का सहायक। भगति वछल = भक्ति से प्यार करने वाला।1। रहाउ।

आदि = (जगत के) आरम्भ से। अंते = (जगत के) आखिर में। मधि = (जगत के) बीच में, अब भी। सगल मंडल = सारे मण्डलों में। पूरि रहिआ = भरपूर है, व्यापक है।1।

करनि = कान से। नेत्र = आँखों से। रसनि = जीभ से। गाउ = मैं गाता हूँ। बलिहार जाऐ = कुर्बान जाता है।2।

अर्थ: हे सृष्टि के पालक! गरीबों के सहायक! हे भक्ति से प्यार करने वाले! हे सदा ही कृपालु!् तुम ही मेरे मन में बस रहे हो।1। रहाउ।

हे प्रभू! (जगत रचना के) आरम्भ में तू ही था, (जगत के) अंत में भी तू ही होगा, अब भी तू ही है (सदा कायम रहने वाला)। हे भाई! प्रभू के बिना कोई और (सदा कायम रहने वाला) नहीं। हे भाई! एक मालिक प्रभू ही सारे भवनों में व्यापक है।1।

(हे भाई!) मैं कानों से हरी की सिफति-सालाह (सुनता हूँ), आँखों से हरी के दर्शन (करता हूँ) जीभ से हरी के गुण गाता हूँ। (हे भाई! प्रभू का दास) नानक सदा उससे कुर्बान जाता है (और उसके दर पर अरदास करता है- हे प्रभू!) मुझे अपना नाम बख्श।2।3।8।6।14।

अंकों का वेरवा:
महला ४ --------------- 6 शबद
महला ५ --------------- 8 शबद
कुल जोड़ ---------------14

इन 8 शबदों का निर्णय;
चउपदे ------------------ 5
दुपदे -------------------- 3
कुल -------------------- 8


माली गउड़ा बाणी भगत नामदेव जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ धनि धंनि ओ राम बेनु बाजै ॥ मधुर मधुर धुनि अनहत गाजै ॥१॥ रहाउ ॥ धनि धनि मेघा रोमावली ॥ धनि धनि क्रिसन ओढै कांबली ॥१॥ धनि धनि तू माता देवकी ॥ जिह ग्रिह रमईआ कवलापती ॥२॥ धनि धनि बन खंड बिंद्राबना ॥ जह खेलै स्री नाराइना ॥३॥ बेनु बजावै गोधनु चरै ॥ नामे का सुआमी आनद करै ॥४॥१॥ {पन्ना 988}

पद्अर्थ: धंनि = धन्य, बलिहार जाने योग्य। राम बेनु = राम (जी) की बाँसुरी। बाजै = बज रही है। मधुर = मीठी। धुनि = सुर। अनहत = एक रस। गाजै = गरज रही है, गुँजार डाल रही है।1। रहाउ।

मेघा = मेंढा। रोमावली = रोम+आवली, रोमों की कतार, ऊन। ओढै = ओढ़ता है, पहनता है।1।

जिह ग्रिहि = जिसके घर में (पैदा हुए)। रमईआ = सुंदर राम जी। कवलापती = कमला के पति, लक्ष्मी के पति, विष्णु, कृष्ण जी।2।

बनखंड = जंगल का हिस्सा, वन का खण्ड। बिंद्राबन = (सं: वृंदावन) तुलसी का जंगल।3।

बेनु = बँसरी। गोधनु = गाएं (गायों का रूप धन)। चरै = चरता है। आनदु = खुशी, करिश्मा।4।

अर्थ: मैं सदके हूँ राम जी की बाँसुरी से जो बज रही है, बड़ी मीठी सुर से एक रस गुँजार डाल रही है।1। रहाउ।

सदके हूँ उस मेंढे की ऊन से, सदके हूँ उस कंबली से जो कृष्ण जी पहन रहे हैं।1।

हे माँ देवकी! तुझसे (भी) कुर्बान हूँ, जिसके घर में सुंदर राम जी, कृष्ण जी (पैदा हुए)।2।

धन्य है जंगल का वह भाग, वह वृंदावन, जहाँ श्री नारायण जी (कृष्ण रूप में) खेलते हैं।3।

नामदेव का प्रभू (कृष्ण रूप में) बाँसुरी बजा रहा है, गाएं चरा रहा है, और (ऐसे ही और भी) रंग बना रहा है।4।1।

नोट: इन्सानी स्वभाव में ये बात कुदरती तौर पर समाई हुई है कि मनुष्य को अपने किसी अति प्यारे के साथ संबंध रखने वाली चीजें प्यारी लगती हैं। भाई गुरदास जी लिखते हैं;

लैला दी दरगाह दा कुक्ता देखि मजनूँ लोभाणा॥
कुत्ते दी पैरी पवै, हड़ि हड़ि हसै लोक विडाणा॥

गुरू के प्यार में बिके हुए गुरू अमरदास जी भी लिखते हैं;

'धन जननी जिनि जाइआ, धंनु पिता परधानु॥ सतगुरु सेवि सुखु पाइआ, विचहु गइआ गुमानु॥ दरि सेवनि संत जन खड़े, पाइनि गुणी निधानु॥१॥१६॥४९॥ (सिरी रागु म: ३)

इसी तरह;

'जिथै जाइ बहै मेरा सतिगुरू, सो थानु सुहावा...." (आसा महला ४ छंत)

गुरू से सदके हो रहे गुरू रामदास जी गुरू के शरीर और गुरू की जीभ से भी कुर्बान होते हैं;

सो धंनु गुरू साबासि है, हरि देइ सनेहा॥ हउ वेखि वेखि गुरू विगसिआ, गुर सतिगुर देहा॥१७॥ (देहा-शरीर)
गुर रसना अंम्रितु बोलदी, हरि नामि सुहावी॥ जिनि सुणि सिखा गुरु मंनिआ, तिना भुख सभ जावी॥१८॥२॥ (तिलंग म:२)

जिस जीव स्त्री ने पति-प्रभू के साथ लावें लेनी हैं, उसके लिए चार लावों में से ये दूसरी लांव है कि वह प्यारे के साथ संबंध रखने वालों के साथ भी प्यार करे । (पढ़ें मेरी पुस्तक 'बुराई का टाकरा' में लेख 'लावाँ')।

हिन्दू मत में वैसे तो 24 अवतारों का वर्णन आता है, पर असल में दो ही मुख्य अवतार हैं जिनको सुन के देख के मुँह से वाह-वाह निकल सकती है और उनके कादर करतार की याद प्यार से आ सकता है। ये हैं श्री राम चंद्र जी और श्री कृष्ण जी। ये मनुष्यों में आ के मनुष्यों की तरह दुख-सुख सहते रहे और इन्सानी दिल के ताउस की प्यार-तरबें हिलाते रहे। इन दोनों में भी; श्री कृष्ण जी के जीवन में प्यार के करिश्मे ज्यादा मिलते हैं। श्री रामचंद्र जी तो राज-महलों में जन्मे-पले और बाद में भी इन्होंने राज ही किया; पर कृष्ण जी का जन्म ही दुखों से आरम्भ हुआ, गरीब ग्वालाओं में पले, ग्वालों के साथ मिल के इन्होंने गाएं चराई और बाँसुरी बजाई। गरीबों में मिल के रच-मिच के रहने वाला ही गरीब को प्यारा लग सकता है। ये कृष्ण जी ही थे जिन्होंने निर्भय हो के कहा;

विद्या विनय सपन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्निनि॥
शुति चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥

भाव: विद्वान ब्राहमण, गाय, हाथी, कुत्ते आदि सभी में ही एक ज्योति है। गरीबों में पला, गरीबों से प्यार करने वाला कुदरती तौर पर गरीबों को प्यारा लगना ही था। उसकी बँसुरी, उसकी कँबली, उसका वृंदावन, 'प्यार' का चिन्ह बन गए, जैसे, हजरत मुहम्म्द साहिब की काली कंबली; जैसे नीचों को ऊँचा करने वाले बली मर्द पातशाह की कलगी और बाज़।

ब्राहमण ने नीच जाति वालों को बड़ी निर्दयता से पैरों तले लिताड़ा हुआ था, ये कौन सा भारतवासी नहीं जानता? अगर गरीब ग्वाले अन्य शूद्र कभी ईश्वरी-प्यार के हुलारे में आएं, तो उस प्यार को आँखों से दिखाई देते किस स्वरूप में बयान करें? भारत में गुरू नानक साहिब पातशाह से पहले अपने युग में एक ही प्रसिद्ध प्यारा आया था; चाहे उसको भी समय पा के ब्राहमण ने मंदिर में बँद करके गरीबों व शूद्रों से छीन लिया।

सो, 'प्यार' को साकार रूप में बयान करने के लिए कृष्ण जी की बाँसुरी और कमली का जिक्र आना इन्सानी स्वभाव के लिए एक साधारण कुदरती बात है। भाई गुरदास जी तो लैला-मजनूँ, हीर-रांझा, सस्सी-पन्नू को भी इस रंग-भूमि में ले आए हैं।

बस! इस शबद में इसी उच्च कुदरती वलवले का प्रकाश है। पर, कहीं कोई सज्जन इस भुलेखे में ना पड़ जाए कि नामदेव जी किसी कृष्ण-मूर्ति अथवा बीठल-मूर्ति के पुजारी थे, इस भ्रम को दूर करने के लिए भगत जी खुद ही शब्द 'राम' और 'रमईया' भी बरतते हैं और बताते हैं कि हमारा प्रीतम, स्वामी (उसको 'राम' कह लो, 'नारायण' कह लो) कृष्ण-रूप में आया और गरीब ग्वालों के संग बाँसुरी बजाता रहा।

शबद का भाव: प्रीत का स्वरूप-प्यारे से संबंध रखने वाली रह चीज प्यारी लगती है।

मेरो बापु माधउ तू धनु केसौ सांवलीओ बीठुलाइ ॥१॥ रहाउ ॥ कर धरे चक्र बैकुंठ ते आए गज हसती के प्रान उधारीअले ॥ दुहसासन की सभा द्रोपती अ्मबर लेत उबारीअले ॥१॥ गोतम नारि अहलिआ तारी पावन केतक तारीअले ॥ ऐसा अधमु अजाति नामदेउ तउ सरनागति आईअले ॥२॥२॥ {पन्ना 988}

पद्अर्थ: माधउ = हे माधो! हे प्रभू! धनु = धन्य, प्रशंसा योग्य। केसौं = (सं: कैशव केशा: प्रशास्ता: सन्दि अस्य) लंबे केसों वाला प्रभू।1। रहाउ।

कर = हाथों में। धरे = धर के, ले के। ते = से। प्रान = जिंद। हसती = हाथी। अंबर लेत = कपड़े उतारते हुए। उबारीअले = (इज्जत) बचाई।1।

गोतम नारि = गौतम ऋषि की पत्नी। पावन = पवित्र किए। केतक = कई जीव। अधमु = नीच। अजाति = नीच जाति वाला। तउ = तेरी।2।

अर्थ: हे मेरे माधव! हे लंबे केसों वाले प्रभू! हे साँवले रंग वाले प्रभू! हे बीठुल! तू धन्य है, तू मेरा पिता है (भाव, तू ही मुझे पैदा करने वाला और रखवाला है)।1। रहाउ।

हे माधो! हाथों में चक्र पकड़ के बैकुंठ से (ही) आया था और हाथी के प्राण (तेंदूए से) तूने ही बचाए थे। हे साँवले प्रभू! दुस्शासन की सभा में जब द्रोपदी के वस्त्र उतारे जा रहे थे तब उसकी इज्जत भी तूने ही बचाई थी।

हे बीठल! गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या को (जो ऋषि के श्राप से शिला बन गई थी) तूने ही मुक्त किया था; हे माधव! तूने (अनेकों पतितों को) पवित्र किया और उनका उद्धार कियाहै।

मैं नामदेव (भी) एक बहुत ही नीच हूँ और नीच जाति वाला हूँ, मैं तेरी शरण आया हूँ (मेरा भी उद्धार कर)।2।2।

नोट: नामदेव जी इस शबद में जिसको अपना पैदा करने वाला कह रहे हैं, और जिसकी शरण पड़ते हैं उसको कई नामों से संबोधित करते हैं, जैसे माधो, कैशव, साँवला, बीठुल। माधो, सांवला और बीठुल तो कृष्ण जी के नाम कहे जा सकते हैं, पर 'केशव' विष्णु का नाम है। जिन-जिन की रक्षा का जिक्र आया है, उन सभी का सामना कृष्ण जी से नहीं पड़ा। पौराणिक साखियों के अनुसार द्रोपदी की लाज कृष्ण जी ने रखी थी; पर अहिल्या का उद्धार करने वाले तो श्री रामचंद्र जी थे। एक अवतार का भक्त दूसरे अवतार का पुजारी नहीं हो सकता। द्रोपदी और अहिल्या दोनों को अलग-अलग युगों में उद्धार करने वाला नामदेव जी को कोई वह दिख रहा है जो सिर्फ एक युग में नहीं, सदा ही कायम रहने वाला है, वह है नामदेव जी का वह प्रभू, जो उनको नारायण, कृष्ण जी और रामचंद्र जी सब में दिखाई देता है। दूसरे शब्दों में ये कह लो कि नामदेव जी इस शबद में निरोल परमात्मा के आगे विनती कर रहे हैं।2।

भाव: सिमरन की महिमा-जो जो भी प्रभू की शरण आता है, प्रभू उसको आपदा से बचा लेता है।

सभै घट रामु बोलै रामा बोलै ॥ राम बिना को बोलै रे ॥१॥ रहाउ ॥ एकल माटी कुंजर चीटी भाजन हैं बहु नाना रे ॥ असथावर जंगम कीट पतंगम घटि घटि रामु समाना रे ॥१॥ एकल चिंता राखु अनंता अउर तजहु सभ आसा रे ॥ प्रणवै नामा भए निहकामा को ठाकुरु को दासा रे ॥२॥३॥ {पन्ना 988}

पद्अर्थ: सभै घट = सारे घटों में। रामा = राम ही। रे = हे भाई! को = कौन?।1। रहाउ।

ऐकल माटी = एक ही मिट्टी से। कुंजर = कुंचर, हाथी। चीटी = कीड़ी। भाजन = बरतन। नाना = कई किस्मों के। रे = हे भाई! असथावरु = (वृक्ष पर्वत आदि वह पदार्थ) जो एक जगह टिके रहते हैं। जंगम = चलने फिरने हिलने जुलने वाले जीव जंतु। कीट = कीड़े। घटि घटि = हरेक घट में।

ऐकल अनंता = एक प्रभू की। चिंता = ध्यान, सुरति। तजहु = छोड़ दे। निहकाम = वासना रहित। को...दासा = उस दास और उसके ठाकुर में फर्क नहीं रह जाता।2।

अर्थ: हे भाई! सारे घटों (शरीरों) में परमात्मा बोलता है, परमात्मा ही बोलता है, परमात्मा के बिना और कोई नहीं बोलता।1। रहाउ।

हे भाई! जैसे एक ही मिट्टी से कई किस्मों के बर्तन बनाए जाते हैं, वैसे ही हाथी से ले के कीड़ी तक, निर्जीव और सजीव जीव, कीड़े-पतंगे हरेक घट में परमात्मा ही समाया हुआ है।1।

हे भाई! और सबकी आशा छोड़, एक बेअंत प्रभू का ध्यान धर (जो सबमें मौजूद है)। नामदेव विनती करता है- जो मनुष्य (प्रभू का ध्यान धर के) निष्काम हो जाता है उसमें और प्रभू में कोई भिन्न-भेद नहीं रह जाता।2।3।

भाव: परमात्मा घट-घट में मौजूद है। और आशाएं छोड़ के उसी का आसरा लेना चाहिए।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh