श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 989

रागु मारू महला १ घरु १ चउपदे

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

सलोकु ॥ साजन तेरे चरन की होइ रहा सद धूरि ॥ नानक सरणि तुहारीआ पेखउ सदा हजूरि ॥१॥ सबद ॥ पिछहु राती सदड़ा नामु खसम का लेहि ॥ खेमे छत्र सराइचे दिसनि रथ पीड़े ॥ जिनी तेरा नामु धिआइआ तिन कउ सदि मिले ॥१॥ बाबा मै करमहीण कूड़िआर ॥ नामु न पाइआ तेरा अंधा भरमि भूला मनु मेरा ॥१॥ रहाउ ॥ साद कीते दुख परफुड़े पूरबि लिखे माइ ॥ सुख थोड़े दुख अगले दूखे दूखि विहाइ ॥२॥ विछुड़िआ का किआ वीछुड़ै मिलिआ का किआ मेलु ॥ साहिबु सो सालाहीऐ जिनि करि देखिआ खेलु ॥३॥ संजोगी मेलावड़ा इनि तनि कीते भोग ॥ विजोगी मिलि विछुड़े नानक भी संजोग ॥४॥१॥ {पन्ना 989}

नोट: श्री गुरूग्रंथ साहिब में शबद, अष्टपदियां, सलोक, पौड़ियां आदिक काव्य के पक्ष से अलग-अलग किस्म की बाणी दर्ज है। इस मारू राग के आरम्भ मेंपहले एक 'सलोकु'है। 'सलोक' से शबद शुरू होते हैं। सारे रागों में बाणी की तरतीब यूँ है-पहला 'शबद', फिर 'अष्टपदियां', फिर 'छंत' आदि। गुरू व्यक्तियों की भी तरतीब यूँ ही है कि पहले गुरू नानक देव जी, फिर गुरू अमरदास जी, फिर गुरू रामदास जी, फिर गुरू अरजन साहिब और अंत में गुरू तेग बहादर साहिब।

इस मारू राग की विलक्षण बात यह है कि यहाँ शबदों से पहले एक शलोक दिया गया है। ये शलोक हू-ब-हू इसी रूप में गूजरी की वार म: ५ की चौथी पौड़ी का सलोक है, और वहाँ ये 'सलोकु महला ५' है।

इसी मारू राग में भगत-बाणी में कबीर जी के शबद नं: 9 के आगे दो शलोक दर्ज हैं, पर उनका शीर्षक साफ 'सलोक कबीर जी' है।

मौजूदा शलोक के साथ 'महला' का जिक्र नहीं। पर, 'गुजरी की वार म: ५' में से प्रत्यक्ष है कि ये शलोक गुरू अरजन साहिब का है। इस शलोक का केन्द्रिय भाव यही है जो इसके आगे दर्ज हुए गुरू नानक देव जी का है।

पद्अर्थ: साजन = हे सज्जन! हे मित्र प्रभू! होइ रहा = मैं बना रहूँ। सद = सदा। नानक = हे नानक! (कह-)। तुहारीआ = तेरी। पेखउ = मैं देखूँ। हजूरि = अपने साथ, अपने अंग संग।1।

अर्थ: हे नानक! (परमात्मा के आगे अरदास कर और कह-) हे मित्र प्रभू! मैं तेरी शरण आया हॅूँ। (मेहर कर, समर्था बख्श कि) मैं सदा तेरे चरणों की धूड़ बना रहूँ, मैं सदा तुझे अपने अंग-संग देखता रहूँ।1।

पद्अर्थ: पिछहु राती = पिछली रात, अमृत बेला। सदड़ा = प्यारा आमंत्रण। लेहि = (वे मनुष्य) ले हैं। खेमे = तंबू। सराइचे = कन्नातें। दिसनि = दिखते हैं। रथ पीड़े = तैयार रथ। सदि = बुला के, आवाज मार के, अपने आप। मिले = मिल जाते हैं।1।

बाबा = हे प्रभू! करमहीण = भाग्यहीन, दुर्भागी। कूड़िआर = झूठे पदार्थों का ही व्यापार करने वाला। अंधा = अंधा। भरमि = भटकना में।1। रहाउ।

साद = (अनेकों पदार्थों के) स्वाद। परफुड़े = प्रफुल्लित हुए, बढ़ते गए। पूरबि = अब से पहले सारे जन्मों जन्मांतरों के जीवनकाल में। लिखे = किए कर्मों के संस्कार मन में उकरे गए। माइ = हे माँ! अगले = बहुत। दूखे दूखि = दुख ही दुख, दुख ही दुख में।2।

विछुड़िआ का = उन लोगों का जो परमात्मा से विछुड़े हुए हैं। किआ वीछुड़े = और किस प्यारे पदार्थ से विछोड़ा होना है? मिलिआ का = उन जीवों का जो प्रभू-चरणों में जुड़े हुए हैं। किआ मेलु = और किस श्रेष्ठ पदार्थ से मेल बाकी रह गया? जिनि = जिनि (साहिब) ने। करि = कर के, रच के। खेलु = तमाशा, जगत रचना।3।

संजोगी = संयोगों से, परमात्मा की बख्शिश के संजोग से। मेलावड़ा = सुंदर मिलाप, मनुष्य शरीर से सुंदर मिलाप। इनि = इससे। तनि = तन से। इनि तनि = इस तन से, इस मनुष्य शरीर में आ के। भोग = मायावी पदार्थों के रसों के आनंद। मिलि = मिल के, मानस शरीर को मिल के। विजोगी = वियोग के कारण, परमात्मा की वियोग सक्ता के कारण, मौत के कारण। भी = बार बार। संजोग = अनेकों संयोग, अनेकों जन्मों के संयोग, अनेकों जन्मों के चक्कर।4।

अर्थ: जिन (भाग्यशाली) लोगों को अमृत बेला में परमात्मा स्वयं स्नेह भरा निमंत्रण भेजता है (प्रेरित करता है) वह उस वक्त उठ के पति-प्रभू का नाम लेते हैं। तंबू, छत्र, कन्नातें, रथ (उनके दर पर हर वक्त) तैयार दिखाई देते हैं। ये सारे (दुनियावी आदर-सम्मान वाले पदार्थ) उन्हें खुद-ब-खुद आ मिलते हैं, जिन्होंने (हे प्रभू!) तेरा नाम सिमरा है।1।

(पर) हे प्रभू! मैं अभागा (ही रहा), मैं झूठे पदार्थों का व्यापार ही करता रहा। (माया के मोह में) अंधा हो चुका मेरा मन (माया की खातिर) भटकना में ही गलत रास्ते पर पड़ा रहा, और मैं तेरा नाम प्राप्त ना कर सका।1। रहाउ।

हे माँ! मैं दुनिया के अनेकों पदार्थों के स्वाद भोगता रहा, अब से पहले सारे बेअंत लंबे जीवन-सफर में किए कर्मों के संस्कार मेरे मन में उकरते गए (और उन भोगों के बदले में मेरे वास्ते) दुख बढ़ते गए। सुख तो थोड़े ही भोगे, पर दुख बेअंत उग आए, अब मेरी उम्र दुख में ही गुजर रही है।2।

उन लोगों का जो परमात्मा से विछड़े हुए हैं और किस प्यारे पदार्थ से विछोड़ा है? (सबसे कीमती पदार्थ तो हरी-नाम ही था जिससे वे विछुड़ गए)। उन जीवों का जो प्रभू-चरणों में जुड़े हुए हैं और किस श्रेष्ठ पदार्थ के साथ मेल बाकी रह गया? (उन्हें किसी और पदार्थ की आवश्यक्ता नहीं रह गई)। (हे भाई!) सदा उस मालिक की सिफत-सालाह करनी चाहिए जिसने ये जगत-तमाशा रचा है और रच के इसकी संभाल कर रहा है।3।

परमात्मा की बख्शिश के संयोग से इस मानस शरीर के साथ सुंदर मिलाप हुआ था, पर इस शरीर में आ के मायावी पदार्थों के रस ही भोगते रहे। जब उसकी रजा में मौत आई, मनुष्य-शरीर से विछोड़ा हो गया, (पर मायावी पदार्थों के ही भोगों के कारण) बार-बार अनेकों जन्मों के चक्करों में से गुजरना पड़ा।4।1।

मारू महला १ ॥ मिलि मात पिता पिंडु कमाइआ ॥ तिनि करतै लेखु लिखाइआ ॥ लिखु दाति जोति वडिआई ॥ मिलि माइआ सुरति गवाई ॥१॥ मूरख मन काहे करसहि माणा ॥ उठि चलणा खसमै भाणा ॥१॥ रहाउ ॥ तजि साद सहज सुखु होई ॥ घर छडणे रहै न कोई ॥ किछु खाजै किछु धरि जाईऐ ॥ जे बाहुड़ि दुनीआ आईऐ ॥२॥ सजु काइआ पटु हढाए ॥ फुरमाइसि बहुतु चलाए ॥ करि सेज सुखाली सोवै ॥ हथी पउदी काहे रोवै ॥३॥ घर घुमणवाणी भाई ॥ पाप पथर तरणु न जाई ॥ भउ बेड़ा जीउ चड़ाऊ ॥ कहु नानक देवै काहू ॥४॥२॥ {पन्ना 989}

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। पिंडु = शरीर। कमाइआ = बनाया। तिनि = उस ने। करतै = करतार ने। तिनि करतै = उस करतार ने। लेखु = (तेरे करने योग्य काम का) लेखा जोखा। लिखु = (हे जीव!) तू लिख। दाति = (परमात्मा की) बख्शिशें। वडिआई = सिफत सालाह। सुरति = अकल, चेता, याद। गवाई = तूने गवा ली।1।

मन = हे मन? काहे = क्यों? करसहि = तू करेगा, तू करता है। भाणा = रजा, हुकम।1। रहाउ।

तजि = त्याग के। साद = (माया के) स्वाद। सहज सुखु = अडोलता का आनंद। खाजै = खा लें। धरि = संभाल के। बाहुड़ि = दोबारा।2।

सजु = (सर्जु) हार। काइआ = शरीर। पटु = रेशमी कपड़ा। फुरमाइसि = हकूमत। करि = बना के, त्याग कर के। हथी पउदी = जब (जमों के) हाथ पड़ते हैं। काहे रोवै = क्यों रोता है? रोने का कोई लाभ नहीं होता।3।

घर = घरों का मोह। घुंमण वाणी = घुमण घेर। भाई = हे भाई! तरणु न जाई = पार नहीं लांघा जा सकता। भउ = परमात्मा का डर अदब। चढ़ाऊ = सवार, बेड़ी का मुसाफिर। काहू = किसी विरले को।4।

अर्थ: हे (मेरे) मूर्ख मन! तू (इन दुनियावी मल्कियतों का) मान क्यूँ करता है? (जब) पति-प्रभू का हुकम हुआ तब (इनको छोड़ के जगत को) चले जाना पड़ेगा।1। रहाउ।

(जिस करतार की रजा के अनुसार) तेरे माता-पिता ने मिल के तेरा शरीर बनाया, उसी करतार ने (तेरे माथे पर ये) लेख (भी) लिख दिए कि तू (जगत में जा के) जोति-रूप प्रभू की बख्शिशें याद करना और उसकी सिफत-सालाह भी करना (सिफत-सालाह के लेख अपने अंदर लिखते रहना)। पर तूने माया (के मोह) में फस के ये चेता ही भुला दिया।1।

(हे मन! तू घरों की मल्कियतों में से सुख-शांति तलाशता है) माया के स्वाद छोड़ के आत्मिक अडोलता का आनंद पैदा हो सकता है (जिन घरों की मल्कियत को तू सुख का मूल समझ रहा है, यह) घर तो छोड़ जाने हैं, कोई भी जीव (यहाँ सदा) टिका नहीं रह सकता। (हे मूर्ख मन! तू सदा ये सोचता है कि) कुछ धन-पदार्थ खा-खर्च लें और कुछ संभाल के रखते जाएं (पर संभाल के रखते जाने का लाभ तो तब ही हो सकता है) अगर दोबारा (इस धन को बरतने के लिए) जगत में आ सकना हो।2।

मनुष्य अपने शरीर पर हार रेशमी कपड़ा आदि पहनता है, हुकम भी खूब चलाता है, सुखदाई सेज का सुख भी भोगता है (पर जिस करतार ने ये सब कुछ दिया उसको बिसारे रखता है, आखिर) जब जमों के हाथ पड़ता है, तब रोने पछताने का कोई लाभ नहीं हो सकता।3।

हे भाई! घरों के मोह दरिया के (पानी की लहरों के) घुम्मन-घेरियों (चक्रों की तरह) हैं, पापों के पत्थर लाद के जिंदगी की बेड़ी इन बवण्डरों में से पार नहीं लांघ सकती।

अगर परमात्मा के डर-अदब की बेड़ी तैयार की जाए, और उस बेड़ी में जीव सवार हो, तब ही (संसार-समुंद्र के विकारों के बवण्डरों में से) पार लांघा जा सकता है। पर हे नानक! कह-ऐसी बेड़ी किसी विरले को ही परमात्मा देता है।4।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh