श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु मारू महला १ घरु ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अहिनिसि जागै नीद न सोवै ॥ सो जाणै जिसु वेदन होवै ॥ प्रेम के कान लगे तन भीतरि वैदु कि जाणै कारी जीउ ॥१॥ जिस नो साचा सिफती लाए ॥ गुरमुखि विरले किसै बुझाए ॥ अम्रित की सार सोई जाणै जि अम्रित का वापारी जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ पिर सेती धन प्रेमु रचाए ॥ गुर कै सबदि तथा चितु लाए ॥ सहज सेती धन खरी सुहेली त्रिसना तिखा निवारी जीउ ॥२॥ सहसा तोड़े भरमु चुकाए ॥ सहजे सिफती धणखु चड़ाए ॥ गुर कै सबदि मरै मनु मारे सुंदरि जोगाधारी जीउ ॥३॥ हउमै जलिआ मनहु विसारे ॥ जम पुरि वजहि खड़ग करारे ॥ अब कै कहिऐ नामु न मिलई तू सहु जीअड़े भारी जीउ ॥४॥ माइआ ममता पवहि खिआली ॥ जम पुरि फासहिगा जम जाली ॥ हेत के बंधन तोड़ि न साकहि ता जमु करे खुआरी जीउ ॥५॥ ना हउ करता ना मै कीआ ॥ अम्रितु नामु सतिगुरि दीआ ॥ जिसु तू देहि तिसै किआ चारा नानक सरणि तुमारी जीउ ॥६॥१॥१२॥ {पन्ना 993}

पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। नीद = माया के मोह की नींद। सो जाणै = 'अंम्रित की सार' वही जाने। वेदन = वेदना, पीड़ा, विरह की पीड़, विछोड़े के अहिसास की तड़प। कान = तीर। वैदु = वैद्य, शारीरिक रोगों का इलाज करने वाला। कारी = इलाज। जीउ = हे सज्जन!।1।

सिफती = सिफत सालाह के काम में। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरू के सन्मुख है, जो गुरू के बताए हुए राह पर चले। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। सार = कद्र, कीमत। वापारी = विहाजने वाला।1। रहाउ।

पिर = पति। सेती = साथ। धन = स्त्री। सबदि = शबद में। तथा = उसी तरह। सहज = अडोल अवस्था, शांति। धन = जीव स्त्री। खरी = बहुत। सुहेली = आसान, सखी। तिखा = तृखा, प्यास।2।

सहसा = सहम, तौखला। चुकाऐ = दूर करे। सहजे = सहज, सहज में, अडोलता में (टिक के)। सिफती धणखु = सिफत सालाह का धनुष। सुंदरि = सुंदर धन, सुंदर जीव स्त्री ।

(नोट: शब्द 'सुंदरि' की 'ि' मात्रा इसे 'स्त्रीलिंग' में बदलने के लिए है)।

जोगाधारी = जोग आधारी। जोग = परमात्मा से मिलाप। आधार = आसरा। जोगाधारी = हरी मिलाप के आसरे वाली।3।

मनहु = मन से। जमपुरि = जम के शहर में। करारे = करड़े, सख्त। अब कै कहिअै = अब इस समय के कहने से। सहु = सह। जीअड़े = हे जीव!।4।

पवहि = तू पड़ता है। खिआली = ख्यालों में। जम जाली = जम के जाल में। हेत = मोह। खुआरी = निरादरी।5।

हउ = मैं। करता = (अब) करने वाला। कीआ = किया (बीते हुए समय में)। सतिगुरि = सतिगुरू ने। देहि = देता है। चारा = तदबीर। तिसै किआ चारा = उसको और किस तदबीर की आवश्यक्ता?।6।

अर्थ: जिस किसी विरले व्यक्ति को गुरू के माध्यम से सदा कायम रहने वाला परमात्मा अपनी सिफत सालाह में जोड़ता है और सिफत सालाह की कद्र समझाता है, आत्मिक जीवन देने वाली सिफत सालाह की कद्र वही व्यक्ति समझता है क्योंकि वह इस नाम-अमृत का व्यापारी बन जाता है।1। रहाउ।

नाम-अमृत का व्यापारी जीव दिन-रात सचेत रहता है, वह माया के मोह की नींद में सोता नहीं। नाम-अमृत की कद्र जानता भी वही मनुष्य है जिसके अंदर परमात्मा से विछोड़े के अहिसास की तड़प हो, जिस के शरीर में प्रभू-प्रेम के तीर लगे हों। शारीरिक रोगों का इलाज करने वाला व्यक्ति बिरह-रोग का इलाज नहीं जानता।1।

जैसे स्त्री (अपना आपा अर्थात स्वै वार के) अपने पति से प्यार करती है, वैसे ही जो जीव-स्त्री गुरू के शबद में चिक्त जोड़ती है, वह जीव-स्त्री आत्मिक अडोलता में टिक के बहुत सुखी हो जाती है, वह (अपने अंदर से) माया की तृष्णा माया की प्यास दूर कर लेती है।2।

जो जीव-स्त्री अडोलता में टिक के परमात्मा की सिफत-सालाह का धनुष (बाण) कसती है (उसकी सहायता से अपने अंदर से) सहम-डर समाप्त कर लेती है माया वाली भटकना खत्म करती है, वह गुरू शबद में जुड़ के (स्वैभाव को) मारती है अपने मन को वश में रखती है वह जीव-स्त्री प्रभू-मिलाप के आसरे वाली हो जाती है (भाव, प्रभू-चरणों का मिलाप उसके जीवन का आसरा बन जाता है)।3।

जो जीव अहंकार में जला रह के (आत्मिक जीवन के अंकुर को जला के) परमात्मा को अपने मन से भुला देता है उसको जम के शहर में करारे खड़ग बजते हैं (भाव, इतने आत्मिक कलेश होते हैं, मानो, तलवारों की जोरदार चोटें बज रही हों), उस वक्त (जब मार पड़ रही होती है) तरले लेने से नाम (सिमरन का मौका) नहीं मिलता। (हे जीव! अगर तू सारी उम्र इतना गाफिल रहा है तो) वह बड़ा दुख (अब) सहता रह (उस बहुत बड़े कष्ट से तुझे कोई निकाल नहीं सकता)।4।

हे जीव! अगर तू अब माया की ममता के ख्यालों में ही पड़ा रहेगा (अगर तू सारी उम्र माया जोड़ने के आहरों में ही रहेगा, तो आखिर) जम की नगरी में जम के जाल में फंसेगा, (उस वक्त) तू मोह के बँधन नहीं तोड़ पाएगा, (तभी तो) तब ही जमराज तेरी बेइज्जती करेगा।5।

(पर, हे प्रभू! तेरी माया के मुकाबले में मैं बेचारा क्या चीज हूँ? माया के बँधनों से बचने के लिए) ना ही मैं अब कुछ कर रहा हॅूँ, ना ही इससे पहले कुछ कर पाया हूँ। मुझे तो सतिगुरू ने (मेहर करके) तेरा आत्मिक जीवन देने वाला नाम बख्शा है। जिसको तू (गुरू के द्वारा अपना अमृत-नाम) देता है उसको कोई और तदबीर करने की आवश्यक्ता ही नहीं रह जाती।

हे नानक! (प्रभू दर पर अरदास कर और कह- हे प्रभू!) मैं तेरी शरण आया हॅूँ।6।1।12।

नोट: 'घरु ५' का ये एक शबद है।

मारू महला ३ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जह बैसालहि तह बैसा सुआमी जह भेजहि तह जावा ॥ सभ नगरी महि एको राजा सभे पवितु हहि थावा ॥१॥ बाबा देहि वसा सच गावा ॥ जा ते सहजे सहजि समावा ॥१॥ रहाउ ॥ बुरा भला किछु आपस ते जानिआ एई सगल विकारा ॥ इहु फुरमाइआ खसम का होआ वरतै इहु संसारा ॥२॥ इंद्री धातु सबल कहीअत है इंद्री किस ते होई ॥ आपे खेल करै सभि करता ऐसा बूझै कोई ॥३॥ गुर परसादी एक लिव लागी दुबिधा तदे बिनासी ॥ जो तिसु भाणा सो सति करि मानिआ काटी जम की फासी ॥४॥ भणति नानकु लेखा मागै कवना जा चूका मनि अभिमाना ॥ तासु तासु धरम राइ जपतु है पए सचे की सरना ॥५॥१॥ {पन्ना 993}

पद्अर्थ: जह = जहाँ। बैसालहि = तू बैठाता है। तह = वहाँ। बैसा = बैठूँ, मैं बैठता हूँ। सुआमी = हे स्वामी! जावा = जाऊँ, मैं जाता हूँ। सभ नगरी महि = सारी सृष्टि में। सभे = सारे। हहि = (बहुवचन) हैं।1।

बाबा = हे प्रभू! देहि = (तू ये दाति) दे। वसा = बसूँ, मैं बसूँ। सच गावा = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू को गाँव (पिंड) में, साध-संगति में। जा ते = जिस की बरकति से। सहजे = सहज ही, आत्मिक अडोलता में ही। समावा = समाऊँ, मैं समाया रहूँ।1। रहाउ।

आपस ते = अपने आप से, अहंकार के कारण। ऐई = ये (अहंकार) ही। सगल = सारे। इहु = ये हुकम। वरतै = वरत रहा है, काम कर रहा है। संसारा = संसार में।2।

इंद्री धातु = इन्द्रियों की दौड़ भाग। सबल = स+बल, बल वाली। किस ते = (परमात्मा के बिना और) किससे? ('किसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'ते' के कारण हटा दी गई है)। खेल सभि = सारे खेल। कोई = कोई (विरला) मनुष्य (जो साध-संगति में टिकता है)।3।

गुर परसादी = गुर प्रसादि, गुरू की कृपा से। लिव = लगन, प्रीत। दुबिधा = मेर तेर। तिस भाणा = उस प्रभू को अच्छा लगा। सति = ठीक, सही। जम = मौत, आत्मिक मौत। फासी = फाही।4।

भणति = कहता है। मागै कवना = कौन माँग सकता है? कोई नहीं माँग सकता। जा = जब। चूका = समाप्त हो गया। मनि = मन में (बसता)। तासु तासु = त्राहि त्राहि, बचा ले बचा ले (त्रायस्व)। पऐ = पड़ गए।5।

अर्थ: हे प्रभू! तू (मुझे ये दान) दे कि मैं तेरी साध-संगति में टिका रहॅूँ, जिसकी बरकति से मैं सदा आत्मिक अडोलता में लीन रहूँ।1। रहाउ।

हे प्रभू! (जब मैं आत्मिक अडोलता में लीन रहूँगा, तब) जहाँ तू मुझे बैठाएगा मैं वहीं बैठा रहूँगा, जहाँ तू मुझे भेजेगा मैं वहीं जाऊँगा (भाव, मैं हर वक्त तेरी रजा में रहूँगा)। हे स्वामी! सारी सृष्टि में मुझे तू ही एक पातशाह (दिखेगा, तेरी व्यापकता के कारण धरती के) सारी ही जगहें मुझे पवित्र लगेंगी।1।

हे भाई! अहंकार के कारण मनुष्य किसी को बुरा और किसी को अच्छा समझता है, ये अहंकार ही सारे विकारों का मूल बनती है। (साध-संगति की बरकति से आत्मिक अडोलता में रहने वाले को दिखता है कि) ये भी पति-प्रभू का हुकम ही हो रहा है, ये हुकम ही सारे जगत में बरत रहा है।2।

(हे भाई! सारी सृष्टि में) ये बात कही जा रही है कि इन्द्रियों की दौड़-भाग बहुत बलवान है; पर (साध-संगति की बरकति से सहज अवस्था में टिका हुआ) कोई विरला मनुष्य ऐसे समझता है कि (काम-वासना आदि वाली) इंद्री भी (परमात्मा के बिना) किसी और से नहीं बनी, (वह यह समझता है कि) सारे करिश्मे करतार स्वयं ही कर रहा है।3।

(हे भाई! साध-संगति में रह के जब) गुरू की कृपा से एक परमात्मा का प्यार (हृदय में) बन जाता है, तब (मनुष्य के अंदर से) मेर-तेर दूर हो जाती है। जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है वह मनुष्य उसको ठीक मानता है, और, उसकी आत्मिक मौत वाली फाही काटी जाती है।4।

नानक कहता है- (साध-संगति की बरकति से) जब मनुष्य के मन में (बसता) अहंकार समाप्त हो जाता है तब कोई भी (उससे उसके बुरे कर्मों का) लेखा नहीं माँग सकता (क्योंकि उसके अंदर कोई बुराई रह ही नहीं जाती)। (साध-संगति में रहने वाले व्यक्ति) उस सदा-स्थिर प्रभू की शरण पड़े रहते हैं जिसकी हजूरी में धर्मराज भी कहता रहता है- मैं तेरी शरण हूँ, मैं तेरी शरण हूँ।5।1।

नोट: सत्संग में टिकने से 'सहजि अवस्था' प्राप्त होती है जिसका नक्शा इस सारे शबद में है।

मारू महला ३ ॥ आवण जाणा ना थीऐ निज घरि वासा होइ ॥ सचु खजाना बखसिआ आपे जाणै सोइ ॥१॥ ए मन हरि जीउ चेति तू मनहु तजि विकार ॥ गुर कै सबदि धिआइ तू सचि लगी पिआरु ॥१॥ रहाउ ॥ ऐथै नावहु भुलिआ फिरि हथु किथाऊ न पाइ ॥ जोनी सभि भवाईअनि बिसटा माहि समाइ ॥२॥ वडभागी गुरु पाइआ पूरबि लिखिआ माइ ॥ अनदिनु सची भगति करि सचा लए मिलाइ ॥३॥ आपे स्रिसटि सभ साजीअनु आपे नदरि करेइ ॥ नानक नामि वडिआईआ जै भावै तै देइ ॥४॥२॥ {पन्ना 993-994}

पद्अर्थ: आवण जाणा = पैदा होना मरना। थीअै = होता। निज घरि = अपने (असल) घर में। सचु = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू का नाम। आपे = (प्रभू) आप ही।1।

चेति = चेते करता रह, सिमर। मनहु = मन से। तजि = छोड़ दे। सबदि = शबद में (जुड़ के)। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। लगी = बन जाएगा।1। रहाउ।

अैथे = इस लोक में, इस जनम में। नावहु = नाम से। किथाऊ = कहीं भी। जोनी सभि = सारी जूनियां। भवाइअनि = भटकती जाती हैं। बिसटा = विकारों का गंद।2।

पूरबि = पहले जनम में। माइ = हे माँ! अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सची भगति = सदा स्थिर प्रभू की भक्ति। करि = कर के, के कारण। सचा = सदा स्थिर प्रभू।3।

आपे = आप ही। साजीअनु = साजी है उसने। नदरि = निगाह। नामि = नाम में (जोड़ के)। जै = जो उसको। भावै = अच्छा लगता है। तै = तिसु, उसको। देइ = देता है।4।

अर्थ: हे मन! परमात्मा को याद करता रह। हे भाई! तू अपने मन में विचारों को त्याग दे। गुरू के शबद में जुड़ के प्रभू का सिमरन किया कर। (सिमरन की बरकति से) सदा-स्थिर प्रभू में प्यार बनेगा।1। रहाउ।

(हे सिमरन का सदका) जनम-मरण (चक्कर) नहीं रहता, अपने असल घर में (प्रभू की हजूरी में) सुरति टिकी रहती है। पर सदा-स्थिर प्रभू का यह नाम-खजाना (उसने स्वयं ही) बख्शा है, वह प्रभू खुद ही जानता है (कि कौन इस दाति के योग्य है)।1।

हे भाई! इस जनम में प्रभू के नाम से टूटे रहने पर (ये मनुष्य जनम पाने के लिए) दोबारा कहीं भी हाथ नहीं पड़ सकता (मौका नहीं मिलता), (नाम से टूटा हुआ व्यक्ति) सारी ही जूनियों में पाया जाता है, वह सदा विकारों के गंद में पड़ा रहता है।2।

हे माँ! जिस मनुष्य के माथे पर धुर से लेख लिखे होते हैं, उसको बड़े भाग्यों से गुरू मिलता है। हर वक्त सदा-स्थिर प्रभू की भक्ति के कारण सदा-स्थिर प्रभू उसको (अपने चरणों में) जोड़े रखता है।3।

हे नानक! परमात्मा ने स्वयं ही सारी सृष्टि पैदा की है, वह स्वयं ही (इस पर) मेहर की निगाह करता है; जो जीव उसको अच्छा लगता है उसको (अपने) नाम में (जोड़ के लोक-परलोक की) महानता देता है।4।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh