श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मारू महला ३ ॥ पिछले गुनह बखसाइ जीउ अब तू मारगि पाइ ॥ हरि की चरणी लागि रहा विचहु आपु गवाइ ॥१॥ मेरे मन गुरमुखि नामु हरि धिआइ ॥ सदा हरि चरणी लागि रहा इक मनि एकै भाइ ॥१॥ रहाउ ॥ ना मै जाति न पति है ना मै थेहु न थाउ ॥ सबदि भेदि भ्रमु कटिआ गुरि नामु दीआ समझाइ ॥२॥ इहु मनु लालच करदा फिरै लालचि लागा जाइ ॥ धंधै कूड़ि विआपिआ जम पुरि चोटा खाइ ॥३॥ नानक सभु किछु आपे आपि है दूजा नाही कोइ ॥ भगति खजाना बखसिओनु गुरमुखा सुखु होइ ॥४॥३॥ {पन्ना 994}

पद्अर्थ: गुनह = गुनाह, पाप। बखसाइ = बख्श। जीउ = हे प्रभू जी! अब = इस जनम में। मारगि = (ठीक) रास्ते पर। लागि रहा = (ता कि) मैं लगा रहूँ। आपु = स्वै भाव, अहंकार। गवाइ = दूर करके।1।

मन = हे मन! गुरमुखि = गुरू की ओर मुँह करके, गुरू की शरण पड़ कर। इक मनि = एकाग्र चिक्त हो के। ऐकै भाइ = एक (परमात्मा) के ही प्यार में।1। रहाउ।

मै = मेरी। पति = इज्जत। थेहु = जमीन की माल्कियत। थाउ = जगह, घर घाट। सबदि = शबद से। भेदि = भेद के। भ्रमु = भटकना। गुरि = गुरू ने। समझाइ = जीवन राह की समझ दे के।2।

लालच = अनेकों लालच (बहुवचन)। लालचि = लालच में। जाइ = भटकता फिरता है। धंधै = धंधे में। कूड़ि = झूठ में। विआपिआ = फसा हुआ। जम पुरि = जम के शहर में, आत्मिक मौत के वश में। चोटा = चोटें, (चिंता फिक्र की) चोटें।3।

नानक = हे नानक! आपे = स्वयं ही। बखसिओनु = उसने बख्शा है। गुरमुखा = गुरू के सन्मुख रहने वालों को।4।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरू की शरण पड़ कर हरी का नाम सिमरा कर (और, अरदास किया कर- हे प्रभू! मेहर कर) मैं सदा, हे हरी! एकाग्र चिक्त हो के एक तेरे ही प्यार में टिक के तेरे चरणों में जुड़ा रहूँ।1। रहाउ।

हे प्रभू जी! मेरे पिछले गुनाह बख्श, अब तू मुझे सही रास्ते पर चला; अपने अंदर से स्वै भाव दूर करके (मैं) हरी के चरणों में टिका रहूँ।1।

हे भाई! ना मेरी (कोई ऊँची) जाति है, ना (मेरी लोगों में कोई) इज्जत है, ना मेरी जमीन की कोई मल्कियत है, ना मेरा कोई घर-घाट है, (मुझ निमाणे को) गुरू ने (अपने) शबद से भेद के मेरी भटकना काट दी है, मुझे आत्मिक जीवन की सूझ बख्श के परमात्मा का नाम दिया है।2।

(हे भाई! हरी-नाम से टूटा हुआ) यह मन अनेकों लालचें करता फिरता है, (माया के) लालच में लग के भटकता है। (माया के) झूठे धंधे में फंसा हुआ आत्मिक मौत में पड़ कर (चिंता-फिक्र की) चोटें खाता रहता है।3।

(पर) हे नानक! (जीवों के भी क्या वश? ये जो कुछ सारा संसार दिखाई दे रहा है ये) सब कुछ परमात्मा स्वयं ही स्वयं है, उसके बिना (किसी पर भी) कोई और नहीं है। गुरू के सन्मुख रहने वालों को (अपनी) भगती का खजाना उसने स्वयं ही बख्शा है (जिसके कारण उनको) आत्मिक आनंद बना रहता है।4।3।

मारू महला ३ ॥ सचि रते से टोलि लहु से विरले संसारि ॥ तिन मिलिआ मुखु उजला जपि नामु मुरारि ॥१॥ बाबा साचा साहिबु रिदै समालि ॥ सतिगुरु अपना पुछि देखु लेहु वखरु भालि ॥१॥ रहाउ ॥ इकु सचा सभ सेवदी धुरि भागि मिलावा होइ ॥ गुरमुखि मिले से न विछुड़हि पावहि सचु सोइ ॥२॥ इकि भगती सार न जाणनी मनमुख भरमि भुलाइ ॥ ओना विचि आपि वरतदा करणा किछू न जाइ ॥३॥ जिसु नालि जोरु न चलई खले कीचै अरदासि ॥ नानक गुरमुखि नामु मनि वसै ता सुणि करे साबासि ॥४॥४॥ {पन्ना 994}

पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में। रते = रंगे हुए। से = वह (बहुवचन)। संसारि = संसार में। जपि = जप के। नामु मुरारि = परमात्मा का नाम।1।

बाबा = हे भाई! साचा = सदा स्थिर। साहिबु = मालिक। रिदै = हृदय में। समालि = याद कर। पुछि = पूछ के। वखरु = नाम का सौदा।1। रहाउ।

सभ = सारी दुनिया। सेवदी = भक्ति करती। धुरि = धुर से। धुरि भागि = धुर से लिखे भाग्य अनुसार। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। पावहि = ढूँढ लेते हैं (बहुवचन)।2।

इकि = ('इक' का बहुवचन) कई जीव। सार = कद्र। जाणनी = जानते। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। भरमि = भटकना में, भटकना के कारण। भुलाइ = गलत रास्ते पर पड़ के। वरतदा = मौजूद है। करणा न जाइ = किया नहीं जा सकता।3।

न चलई = न चलै, नहीं चल सकता। खले = (उसके दर पर) खड़े हो के, अदब से। कीचै = करनी चाहिए। मनि = मन में। ता = तब। सुणि = सुन के।4।

अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभू को (अपने) हृदय में (सदा) याद करता रह (यही है जीवन का असल मनोरथ; बेशक) अपने गुरू को पूछ के देख ले। हे भाई! गुरू से ये नाम का सौदा पा ले।1। रहाउ।

हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर परमात्मा (के नाम) में (सदा) रंगे रहते हैं उनकी तलाश कर (वैसे) वह जगत में कोई विरले-विरले ही होते हैं, उनको मिलने से परमात्मा का नाम जप के (लोक परलोक में) सुर्खरू हो जाया जाता है (इज्जत मिलती है)।1।

हे भाई! सिर्फ एक परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला है, सारी लुकाई उसकी ही सेवा-भक्ति करती है, धुर से लिखी किस्मत से ही (उस परमात्मा के साथ) मिलाप होता है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (उसके चरणों में) जुड़ते हैं, वह (दोबारा) नहीं विछुड़ते, वह उस सदा-स्थिर प्रभू (का मिलाप) प्राप्त कर लेते हैं।2।

हे भाई! कई ऐसे लोग हैं जो अपने मन के पीछे चलते हैं, माया की भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं, वह लोग प्रभू की भक्ति की कद्र नहीं समझते। (पर, हे भाई!) उन (मनमुखों) के अंदर (भी) परमात्मा स्वयं ही बसता है (और उन्हें गलत राह पर डाले रखता है, सो उसके उलट) कुछ भी किया नहीं जा सकता।3।

(तो फिर उन मनमुखों के लिए क्या किया जाए? यही कि) जिस परमात्मा के आगे (जीव की कोई) पेश नहीं चल सकती, उसके दर पर अदब से अरदास करते रहना चाहिए। हे नानक! जब गुरू के द्वारा परमात्मा का नाम मन में बसता है तब वह प्रभू (आरजू) सुन के आदर देता है।4।4।

मारू महला ३ ॥ मारू ते सीतलु करे मनूरहु कंचनु होइ ॥ सो साचा सालाहीऐ तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥१॥ मेरे मन अनदिनु धिआइ हरि नाउ ॥ सतिगुर कै बचनि अराधि तू अनदिनु गुण गाउ ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमुखि एको जाणीऐ जा सतिगुरु देइ बुझाइ ॥ सो सतिगुरु सालाहीऐ जिदू एह सोझी पाइ ॥२॥ सतिगुरु छोडि दूजै लगे किआ करनि अगै जाइ ॥ जम पुरि बधे मारीअहि बहुती मिलै सजाइ ॥३॥ मेरा प्रभु वेपरवाहु है ना तिसु तिलु न तमाइ ॥ नानक तिसु सरणाई भजि पउ आपे बखसि मिलाइ ॥४॥५॥ {पन्ना 994}

पद्अर्थ: मारू = रेता स्थल, तपती रेत, तृष्णा से जल रहा दिल। ते = से। सीतलु = ठंडा। मनूरहु = मनूर से, जले हुए लोहे से। कंचनु = सोना। साचा = सदा स्थिर प्रभू। जेवडु = जितना बड़ा, बराबर का।1।

मन = हे मन! अनदिनु = हर रोज। कै बचनि = बचनों से, के बचन पर चल के। गाउ = गाता रह।1। रहाउ।

गुरमुखि = गुरू के द्वारा। ऐको जाणीअै = सिर्फ एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली जा सकती है। जा = जब। देइ बुझाइ = देय बुझाय, आत्मिक जीवन की सूझ देता है। जिदू = जिस (गुरू) से।2।

छोडि = छोड़ के। दूजै = किसी और में। लगे = (जो लोग) लगे हुए हैं। करनि = करते हैं, करेंगे (बहुवचन)। अगै = परलोक में। जाइ = जा के । जम पुरि = जम राज के दरबार में। मारीअहि = मारे जाते हैं, मार खाते हैं।3।

वेपरवाहु = बेमुहताज। तिलु तमाइ = तिल जितना भी लालच (तमा)। भजि पउ = दौड़ के जा पड़। बखसि = मेहर कर के।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम हर वक्त सिमरता रह। गुरू के वचनों पर चल के तू प्रभू की आराधना करता रह, हर वक्त परमात्मा के गुण गाया कर।1। रहाउ।

हे मन! (परमात्मा का सिमरन) तपते रेगिस्तान (जैसे जलते दिल) को शांत कर देता है, (सिमरन की बरकति से) मनूर (जंग लगे लोहे जैसा मन) सोने (सा शुद्ध) बन जाता है। हे मन! उस सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह करनी चाहिए, उसके बराबर का और कोई नहीं है।1।

हे मन! जब गुरू (आत्मिक जीवन की) सूझ बख्शता है (तब) गुरू के माध्यम से एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन जाती है। हे मन! जिस गुरू से ये समझ प्राप्त होती है उस गुरू की सदा उपमा करनी चाहिए।2।

हे मन! जो लोग गुरू को छोड़ के (माया आदि) और ही (मोह) में लगे रहते हैं वे परलोक में जा के क्या करेंगे? (ऐसे बँदे तो) जमराज की कचहरी में बँधे हुए मार खाते हैं, ऐसों को तो बड़ी सजा मिलती है।3।

हे नानक! (कह- हे भाई!) परमात्मा को किसी की मुथाजी नहीं, परमात्मा को कोई रक्ती जितना भी लालच नहीं (जीव ने अपने भले के वास्ते ही सिमरन करना है; सो) उस परमात्मा की शरण ही जल्दी जा पड़ो, (शरण पड़े को) वह स्वयं ही मेहर करके अपने चरणों में जोड़ता है।4।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh