श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मारू महला ४ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जपिओ नामु सुक जनक गुर बचनी हरि हरि सरणि परे ॥ दालदु भंजि सुदामे मिलिओ भगती भाइ तरे ॥ भगति वछलु हरि नामु क्रितारथु गुरमुखि क्रिपा करे ॥१॥ मेरे मन नामु जपत उधरे ॥ ध्रू प्रहिलादु बिदरु दासी सुतु गुरमुखि नामि तरे ॥१॥ रहाउ ॥ कलजुगि नामु प्रधानु पदारथु भगत जना उधरे ॥ नामा जैदेउ कबीरु त्रिलोचनु सभि दोख गए चमरे ॥ गुरमुखि नामि लगे से उधरे सभि किलबिख पाप टरे ॥२॥ {पन्ना 995}

पद्अर्थ: सुक = सुकदेव (ऋषि ब्यास का पुत्र)। गुर बचनी = गुरू के बचनों से। दालदु = गरीबी। भंजि = दूर करके। भाई = प्रेम से। भगती भाइ = भक्ति भाव से। तरे = पार लांघ गए। भगति वछलु = भगती से प्यार करने वाला (वत्सल)। क्रितारथु = (क्रित+अर्थ) कामयाब (बनाने वाला)। गुरमुखि = गुरू से।1।

मन = हे मन! उधरे = (संसार समुंद्र से) पार लांघ गए। दासी सुतु = दासी का पुत्र। नामि = नाम से।1। रहाउ।

कलजुगि = कलियुग में। प्रधान = श्रेष्ठ। सभि = सारे। दोख = ऐब। चमरे = (रविदास) चमार के। नामि = नाम में। से = वह (बहुवचन)। किलबिख = पाप। टरे = टल गए।2।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपते हुए (अनेकों प्राणी) विकारों से बच जाते हैं। धुराव भगत, प्रहिलाद भगत, दासी का पुत्र बिदर- (ये सारे) गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम में जुड़ के संसार-समुंद्र से पार लांघ गए।1। रहाउ।

हे मन! राजा जनक ने, शुकदेव ऋषि ने गुरू के वचनों के द्वारा परमात्मा का नाम जपा, ये परमात्मा की शरण आ पड़े; सुदामा भक्त की गरीबी दूर करके प्रभू सुदामे को आ मिला। ये सब भक्ति भावना से संसार-समुंद्र से पार हुए। परमात्मा भगती से प्यार करने वाला है, परमात्मा का नाम (मनुष्य के जीवन को) कामयाब बनाने वाला है। (ये नाम मिलता उनको है जिन पर) गुरू के द्वारा मेहर होती है।1।

हे मेरे मन! परमात्मा का नाम ही जगत में सबसे श्रेष्ठ पदार्थ है। भगत जन (इस नाम की बरकति से ही) विकारों से बचते हैं। नामदेव बच गया, जैदेव बच गया, कबीर बच गया, त्रिलोचन बच गया; नाम की बरकति से (रविदास) चमार के सारे पाप दूर हो गए। हे मन! जो भी मनुष्य गुरू के द्वारा हरी-नाम में लगे वे सब विकारों से बच गए, (उनके) सारे पाप टल गए।2।

जो जो नामु जपै अपराधी सभि तिन के दोख परहरे ॥ बेसुआ रवत अजामलु उधरिओ मुखि बोलै नाराइणु नरहरे ॥ नामु जपत उग्रसैणि गति पाई तोड़ि बंधन मुकति करे ॥३॥ जन कउ आपि अनुग्रहु कीआ हरि अंगीकारु करे ॥ सेवक पैज रखै मेरा गोविदु सरणि परे उधरे ॥ जन नानक हरि किरपा धारी उर धरिओ नामु हरे ॥४॥१॥ {पन्ना 995}

पद्अर्थ: जो जो = जो जो मनुष्य। अपराधी = विकारी (भी)। सभि = सारे। दोख = पाप। परहरे = दूर करता है। वेसुआ = वेश्या। रवत = संग करने वाला। उधरिओ = बच गया। मुखि = मुँह से। नरहरे = परमात्मा, नर हरी। उग्रसैणि = उग्रसेन ने (कंस का पिता)। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। तोड़ि = तोड़ के। बंधन = मोह की फाहियां। मुकति = बँधनों से मुक्ति।3।

जन = सेवक। कउ = को। अनुग्रहु = कृपा, दया। अंगीकारु = पक्ष। पैज = लाज, इज्जत। उधरे = विकारों से बच गए। जन नानक = हे दास नानक! उर = हृदय। हरे = हरी का।4।

अर्थ: हे मन! जो जो विकारी व्यक्ति (भी) परमात्मा का नाम जपता है, परमात्मा उनके सारे विकार दूर कर देता है। (देख) वेश्या का संग करने वाला अजामल जब मुँह से 'नारायण नर हरी' उचारने लग पड़ा, तब वह विकारों से बच गया। परमात्मा का नाम जपते हुए उग्रसैन ने उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली, परमात्मा ने उसके बँधन तोड़ के उसको विकारों से निजात बख्शी।3।

हे मन! परमात्मा अपने भगत पर (सदा) खुद मेहर करता आ रहा है, अपने भगत का (सदा) पक्ष करता है। परमात्मा अपने सेवक की लाज रखता है, जो भी उसकी शरण पड़ते हैं वे विकारों से बच जाते हैं। हे दास नानक! (कह-) जिस मनुष्य पर प्रभू ने मेहर (की निगाह) की, उसने उसका नाम अपने हृदय में बसा लिया।4।1।

मारू महला ४ ॥ सिध समाधि जपिओ लिव लाई साधिक मुनि जपिआ ॥ जती सती संतोखी धिआइआ मुखि इंद्रादिक रविआ ॥ सरणि परे जपिओ ते भाए गुरमुखि पारि पइआ ॥१॥ मेरे मन नामु जपत तरिआ ॥ धंना जटु बालमीकु बटवारा गुरमुखि पारि पइआ ॥१॥ रहाउ ॥ सुरि नर गण गंधरबे जपिओ रिखि बपुरै हरि गाइआ ॥ संकरि ब्रहमै देवी जपिओ मुखि हरि हरि नामु जपिआ ॥ हरि हरि नामि जिना मनु भीना ते गुरमुखि पारि पइआ ॥२॥ {पन्ना 995}

पद्अर्थ: सिध = सिद्ध, योग साधना में सिद्ध योगी। लिव लाई = सुरति जोड़ के। साधिक = साधन करने वाले। मुखि = मुँह से। इंद्रादिक = इन्द्र आदिकों ने। रविआ = जपा। ते = वे (बहुवचन)। भाऐ = (प्रभू को) अच्छे लगे। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए राह पर चल के।1।

मन = हे मन! बटवारा = डाकू, राह मारने वाला।1। रहाउ।

सुरि = देवते। गंधरबे = देवताओं के गवईऐ। रिखि बपुरै = बेचारे ऋषि (धर्मराज) ने। संकरि = शिव ने। नामि = नाम में। भीना = भीग गया। गण = शिव जी के खास उपासक देवते जो गणेश के अधीन बताए जाते हैं।2।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपते हुए (अनेकों प्राणी संसार समुंद्र से) पार लांघ गए। धन्ना जट पार लांघ गया, बाल्मीक डाकू पार लांघ गया।1। रहाउ।

हे मन! सिद्ध समाधि लगा के सुरति जोड़ के जपते रहे, साधिक और मुनि जपते रहे। जतियों ने प्रभू का ध्यान धरा, सतियों ने संतोखियों ने ध्यान धरा, इन्द्र आदिक देवताओं ने मुँह से प्रभू का नाम जपा। हे मन! जो गुरू की शरण पड़ कर प्रभू की शरण पड़े, जिन्होंने गुरू के रास्ते पर चल के नाम जपा, वे परमात्मा को प्यारे लगे, वे संसार-समुंद्र से पार लांघ गए।1।

हे मन! देवताओं ने, मनुष्यों ने, (शिव जी के उपासक-) गणों ने, देवताओं के रागियों ने नाम जपा; बेचारे धर्मराज ने हरी का गुणगान किया। शिव ने, देवताओं ने मुँह से हरी का नाम जपा। हे मन! गुरू की शरण पड़ कर जिनका मन परमात्मा के नाम-रस में भीग गया वे संसार-समुंद्र से पार लांघ गए।2।

कोटि कोटि तेतीस धिआइओ हरि जपतिआ अंतु न पाइआ ॥ बेद पुराण सिम्रिति हरि जपिआ मुखि पंडित हरि गाइआ ॥ नामु रसालु जिना मनि वसिआ ते गुरमुखि पारि पइआ ॥३॥ अनत तरंगी नामु जिन जपिआ मै गणत न करि सकिआ ॥ गोबिदु क्रिपा करे थाइ पाए जो हरि प्रभ मनि भाइआ ॥ गुरि धारि क्रिपा हरि नामु द्रिड़ाइओ जन नानक नामु लइआ ॥४॥२॥ {पन्ना 995}

पद्अर्थ: कोटि = करोड़। हरि जपतिआ अंतु = हरी का नाम जपने वालों की गिनती। मुखि = मुँह से। पंडित = पण्डितों ने (बहुवचन)। रसालु = (रस+आलय) सारे रसों का घर। मनि = मन में। ते = वे (बहुवचन)। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर।3।

अनत = अनंत, बेअंत। तरंग = लहर। अनत तरंगी = बेअंत लहरों वाला प्रभू। जिन = जिन्होंने। थाइ पाऐ = कबूल करता है, परवान करता है। जो = जो जीव। प्रभ मनि = प्रभू के मन में। भाइआ = अच्छा लगा। गुरि = गुरू ने। द्रिढ़ाइओ = हृदय में पक्का कर दिया।4।

अर्थ: हे मेरे मन! तेतीस करोड़ देवताओं ने परमात्मा का नाम जपा, हरी-नाम जपने वालों (की गिनती) का अंत नहीं पाया जा सकता। वेद-पुराण-स्मृतियाँ आदि धर्म-पुस्तकों के लिखने वालों ने हरी-नाम जपा, पण्डितों ने मुँह से प्रभू की सिफत-सालाह का गीत गाया। हे मन! गुरू की शरण पड़ कर जिनके मन में सारे रसों का श्रोत हरी-नाम टिक गया, वे संसार-समुंद्र से पार लांघ गए।3।

हे मेरे मन! बेअंत रचना के मालिक परमात्मा का नाम जिन प्राणियों ने जपा है, मैं उनकी गिनती नहीं कर सकता। जो प्राणी परमात्मा के मन को भा जाते हैं, परमात्मा कृपा करके (उनकी सेवा-भगती) परवान करता है।

हे नानक! गुरू ने कृपा करके जिनके हृदय में परमात्मा का नाम दृढ़ कर दिया, (उन्होंने ही) नाम सिमरा है।4।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh