श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 996 मारू महला ४ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि हरि नामु निधानु लै गुरमति हरि पति पाइ ॥ हलति पलति नालि चलदा हरि अंते लए छडाइ ॥ जिथै अवघट गलीआ भीड़ीआ तिथै हरि हरि मुकति कराइ ॥१॥ मेरे सतिगुरा मै हरि हरि नामु द्रिड़ाइ ॥ मेरा मात पिता सुत बंधपो मै हरि बिनु अवरु न माइ ॥१॥ रहाउ ॥ मै हरि बिरही हरि नामु है कोई आणि मिलावै माइ ॥ तिसु आगै मै जोदड़ी मेरा प्रीतमु देइ मिलाइ ॥ सतिगुरु पुरखु दइआल प्रभु हरि मेले ढिल न पाइ ॥२॥ {पन्ना 996} पद्अर्थ: निधानु = (असल) खजाना। लै = हासिल कर। गुरमति = गुरू की मति से। पति = इज्ज्त। हलति = इस लोक में (अत्र)। पलति = परलोक में (परत्र)। चलदा = साथ निबाहता है। अंते = आखिरी वक्त में। घट = पक्तन। अवघट = पक्तन दूर का बिखड़ा रास्ता। मुकति = निजात।1। सतिगुरा = हे सतिगुरू! मतै द्रिढ़ाइ = मेरे हृदय में पक्का कर। सुत = पुत्र। बंधपो = रिश्तेदार। माइ = हे माँ!।1। रहाउ। बिरही = प्यारा। आणि = ला के। जोदड़ी = आरजू। देइ मिलाइ = देय मिलाय, मिला दे। प्रभ हरि मेले = हरी प्रभू (से) मिला देता है।2। अर्थ: हे मेरे सतिगुरू! परमात्मा का नाम मेरे हृदय में दृढ़ कर दे। हे मेरी माँ! हरी ही मेरी माँ है, हरी ही मेरा पिता है, हरी ही मेरे पुत्र हैं, हरी ही मेरा संबंधी है। हे माँ! हरी के बिना और कोई मेरा (पक्का साक) नहीं।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा का नाम (ही असल) खजाना है; गुरू की शिक्षा पर चल के (ये खजाना) हासल कर; (जिसके पास ये खजाना होता है, वह) प्रभू की हजूरी में इज्जत पाता है। (ये खजाना) इस लोक में और परलोक में साथ निभाता है, और आखिरी वक्त भी परमात्मा (दुखों से) बचा लेता है। हे भाई! जीवन के जिस इस रास्ते में पक्तन से दूर के बिखड़े रास्ते हैं, बहुत ही संकरी गलियाँ हैं (जिनमें आत्मिक जीवन का दम घुटता जाता है) वहाँ परमात्मा ही निजात दिलवाता है। हे भाई! परमात्मा का नाम ही मेरा (असल) प्यारा (मित्र) है। हे माँ! अगर कोई (उस मित्र को) ला के (मेरे साथ) मिलाप करवा सकता हो, मैं उसके आगे नित्य आरजू करता रहूँ, भला कि कहीं मेरा प्रीतम मुझे मिला दे। हे माँ! गुरू ही दयावान पुरख है जो हरी प्रभू के साथ मिला देता है और रक्ती भर भी देरी नहीं होती।2। जिन हरि हरि नामु न चेतिओ से भागहीण मरि जाइ ॥ ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि मरि जमहि आवै जाइ ॥ ओइ जम दरि बधे मारीअहि हरि दरगह मिलै सजाइ ॥३॥ तू प्रभु हम सरणागती मो कउ मेलि लैहु हरि राइ ॥ हरि धारि क्रिपा जगजीवना गुर सतिगुर की सरणाइ ॥ हरि जीउ आपि दइआलु होइ जन नानक हरि मेलाइ ॥४॥१॥३॥ {पन्ना 996} पद्अर्थ: जिन = (बहुवचन) जिन्होंने। से = वह लोग (बहुवचन)। भाग हीण = बद् किस्मत (बहुवचन)। मरि जाइ = (एक वचन) मर जाता है, आत्मिक मौत मरता है। ओइ = वह लोग ('ओह' का बहुवचन)। भवाईअहि = भटकाए जाते हैं। मरि जंमहि = मर के पैदा होते हैं, मरते हैं पैदा होते हैं। आवै जाइ = (एक वचन) आता है जाता है, पैदा होता है मरता हीै। जम दरि = जमराज के दर पर। मारीअहि = पिटाई होती है।3। प्रभू = मालिक। हम = हम जीव। सरणागती = शरण आते हैं। मो कउ = मुझे। हरि राइ = हे प्रभू पातशाह! जग जीवना = हे जगत के जीवन हरी! दइआलु = दयावान।4। अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों ने कभी परमात्मा का सिमरन नहीं किया, वे बद्-किस्मत हैं। हे भाई! (नाम-हीन मनुष्य) आत्मिक मौत मरा रहता है। वह (नाम से वंचित) बंदे बार-बार जूनियों में भटकाए जाते हैं, वह जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। हे भाई! नाम-हीन मनुष्य पैदा होता है मरता रहता है। हे भाई! उन (नाम से वंचित हुए) बंदों की जमराज के दर बाँध कर मार-पिटाई होती है। प्रभू की दरगाह में उनको (ये) सजा मिलती है।3। हे पातशाह! तू हमारा मालिक है, हम जीव तेरी शरण में हैं। हे पातशाह! मुझे (अपने चरणों में) जोड़े रख। हे हरी! हे जगत के जीवन हरी! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे गुरू की शरण सतिगुरू की शरण में (सदा) रख। हे दास नानक! (कह- हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा आप दयावान होता है, उसको (गुरू की शरण में रख के) अपने साथ मिला लेता है।4।1।3। मारू महला ४ ॥ हउ पूंजी नामु दसाइदा को दसे हरि धनु रासि ॥ हउ तिसु विटहु खन खंनीऐ मै मेले हरि प्रभ पासि ॥ मै अंतरि प्रेमु पिरम का किउ सजणु मिलै मिलासि ॥१॥ मन पिआरिआ मित्रा मै हरि हरि नामु धनु रासि ॥ गुरि पूरै नामु द्रिड़ाइआ हरि धीरक हरि साबासि ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरि आपि मिलाइ गुरु मै दसे हरि धनु रासि ॥ बिनु गुर प्रेमु न लभई जन वेखहु मनि निरजासि ॥ हरि गुर विचि आपु रखिआ हरि मेले गुर साबासि ॥२॥ {पन्ना 996} पद्अर्थ: हउ = मैं। पूंजी = राशि, सरमाया। दसाइदा = मैं पूछता हूँ, मैं तलाश रहा हूँ। को = कोई (सज्जन)। दसे = बताए। रासि = राशि। विटहु = से, में से। खन खंनीअै = सदके, बलिहार। पासि = साथ, से। मै अंतरि = मेरे अंदर, मेरे हृदय में। पिरंम का = प्यारे प्रभू का। किउ = कैसे? किस तरह?।1। मन = हे मन! गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में दृढ़ कर दिया। धीरक = धीरज, हौसला।1। रहाउ। हरि हरि = हे हरी! मै = मुझे। दसे = बताए, दिखा दे। न लभई = ना मिले, नहीं मिलता। जन = हे जन! हे भाई! मनि = मन में। निरजासि = निर्णय करके। आपु = अपना आप। गुर साबासि = गुरू को शाबाश है।2। अर्थ: हे मेरे मन! हे प्यारे मित्र! परमात्मा का नाम ही मुझे (असल) धन (असल) सरमाया (प्रतीत होता है)। जिस मनुष्य के हृदय में पूरे गुरू ने प्रभू का नाम पक्का कर दिया, उसको परमात्मा धीरज देता है उसको साबाश देता है।1। रहाउ। हे भाई! मैं हरी-नाम सरमाए की तलाश करता फिरता हूँ। अगर कोई मुझे उस नाम-धन, नाम-राशि के बारे में बता दे, और, मुझे हरी-प्रभू के साथ जोड़ दे तो मैं उसके सदके जाऊँ, बलिहार जाऊँ। हे भाई! मेरे हृदय में प्यारे प्रभू का प्रेम बस रहा है। वह सज्जन मुझे कैसे मिले? मैं उससे किस प्रकार मिलूँ?।1। हे हरी! तू खुद ही मुझे गुरू मिला दे, ता कि गुरू मुझे तेरा नाम-धन सरमाया दिखा दे। हे सज्जनो! अपने मन में निर्णय करके देख लो, गुरू के बिना प्रभू का प्यार हासिल नहीं होता। परमात्मा ने गुरू में अपने आप को रखा हुआ है, गुरू ही उससे मिलाता है। गुरू की उपमा (वडिआई) करो।2। सागर भगति भंडार हरि पूरे सतिगुर पासि ॥ सतिगुरु तुठा खोलि देइ मुखि गुरमुखि हरि परगासि ॥ मनमुखि भाग विहूणिआ तिख मुईआ कंधी पासि ॥३॥ गुरु दाता दातारु है हउ मागउ दानु गुर पासि ॥ चिरी विछुंना मेलि प्रभ मै मनि तनि वडड़ी आस ॥ गुर भावै सुणि बेनती जन नानक की अरदासि ॥४॥२॥४॥ {पन्ना 996} पद्अर्थ: सागर = समुंद्र। भंडार = खजाने। पासि = पास। तुठा = मेहरवान हुआ। खोलि = खोल के। देइ = देय, देता है। मुखि = मुँह से (उपदेश देता है)। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले। परगास = प्रकाश करता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली। तिख = प्यास, तृष्णा। मुईआ = मर गई, आत्मिक मौत मर गई। कंधी पासि = (सरोवर के) किनारे पास।3। हउ मागउ = मैं माँगता हूँ। चिरी विछुंना = चिर से विछुड़ा हुआ। मै मनि तनि = मेरे मन में मेरे तन में। गुर भावै = हे गुरू! अगर तुझे अच्छा लगे।4। अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू के पास परमात्मा की भक्ति के समुंद्र, भक्ति के खजाने मौजूद हैं। जिस गुरमुख मनुष्य पर गुरू मेहरवान होता है (ये खजाने) खोल के (उसको) दे देता है, मुँह से उसको उपदेश करता है जिसके कारण उसके अंदर रॅबी नूर प्रकट हो जाता है। पर अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री बद्-किस्मत होती है, वह गुरू के नजदीक होते हुए भी वैसे ही आत्मिक मौत मरी रहती है जैसे कोई मनुष्य सरोवर के किनारे पर खड़ा हुआ भी प्यासा मर जाता है।3। हे भाई! गुरू सब दातें देने में समर्थ है। मैं गुरू से यह खै़र माँगता हूँ कि मुझे चिरों से विछड़े हुए को प्रभू मिला दे, मेरे मन में मेरे हृदय में ये बड़ी तमन्ना है। हे गुरू! अगर तुझे भाए तो दास नानक की ये विनती सुन, अरदास सुन।4।2।4। मारू महला ४ ॥ हरि हरि कथा सुणाइ प्रभ गुरमति हरि रिदै समाणी ॥ जपि हरि हरि कथा वडभागीआ हरि उतम पदु निरबाणी ॥ गुरमुखा मनि परतीति है गुरि पूरै नामि समाणी ॥१॥ मन मेरे मै हरि हरि कथा मनि भाणी ॥ हरि हरि कथा नित सदा करि गुरमुखि अकथ कहाणी ॥१॥ रहाउ ॥ मै मनु तनु खोजि ढंढोलिआ किउ पाईऐ अकथ कहाणी ॥ संत जना मिलि पाइआ सुणि अकथ कथा मनि भाणी ॥ मेरै मनि तनि नामु अधारु हरि मै मेले पुरखु सुजाणी ॥२॥ {पन्ना 996-997} पद्अर्थ: हरि हरि कथा प्रभ = हरी प्रभू की कथा। कथा = सिफत सालाह की बात। गुरमति = गुरू की मति से। रिदै = हृदय में। वडभागीआ = हे भाग्यशाली मन! पदु = दर्जा। निरबाणी = वासना रहित। गुरमुखा मनि = गुरू के सन्मुख रहने वालों के मन में। गुरि पूरै = पूरे गुरू के द्वारा। नामि = नाम में। सुणाइ = सुन।1। मन = हे मन! मनि = मन में। भाई = प्यारी लगती है। करि = करता रह। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। अकथ कहाणी = अकथ की कहानी। अकथ = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके।1। रहाउ। खोजि = खोज के। पाईअै = प्राप्त की जा सके। मिलि = मिल के। पाइआ = (अकथ प्रभू) मिल सकता है। सुणि = (संत जनों से) सुन के। अधारु = आसरा। मै = मुझे। पुरखु सुजाणी = सबके दिल की जानने वाला अकाल पुरख।2। अर्थ: हे मेरे मन! मुझे अपने अंदर परमात्मा की सिफत सालाह प्यारी लगती है। हे मन! परमात्मा की सिफत सालाह सदा करता रह। अकथ प्रभू की सिफत सालाह गुरू के द्वारा मिलती है (इस वास्ते हे मन! गुरू की शरण पड़ा रह)।1। रहाउ। हे मन! सदा हरी-प्रभू की महिमा सुनता रह। गुरू की मति पर चलने से ही ये हरी-कथा हृदय में टिक सकती है। हे भाग्यशाली मन! (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा की सिफत सालाह याद करता रह, (इस तरह) उक्तम और वासना-रहित आत्मिक दर्जा मिल जाता है। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के मन में (प्रभू की सिफत सालाह के लिए) श्रद्धा बनी रहती है, पूरे गुरू के द्वारा वे हरी नाम में लीन रहते हैं।1। हे भाई! मैंने अपने मन को अपने तन को खोज के तलाश की है कि किस तरह अकथ प्रभू की सिफतसालाह की जा सके। हे भाई! संत जनों को मिल के (अकथ प्रभू का मिलाप) हासिल हो सकता है; (संत जनों से) अकॅथ प्रभू की सिफत सालाह सुन के मन में प्यारी लगती है। हे भाई! (संत गुरू की कृपा से) मेरे मन में परमात्मा का नाम आसरा बन गया है। (गुरू ही) मुझे सुजान अकाल-पुरख मिला सकता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |