श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुर पुरखै पुरखु मिलाइ प्रभ मिलि सुरती सुरति समाणी ॥ वडभागी गुरु सेविआ हरि पाइआ सुघड़ सुजाणी ॥ मनमुख भाग विहूणिआ तिन दुखी रैणि विहाणी ॥३॥ हम जाचिक दीन प्रभ तेरिआ मुखि दीजै अम्रित बाणी ॥ सतिगुरु मेरा मित्रु प्रभ हरि मेलहु सुघड़ सुजाणी ॥ जन नानक सरणागती करि किरपा नामि समाणी ॥४॥३॥५॥ {पन्ना 997}

पद्अर्थ: गुर पुरखै पुरखु मिलाइ प्रभ = गुर पुरखै प्रभ पुरखु मिलाय। मिलाइ = मिलाया है (जिसको)। गुर पुरखै = गुरू पुरख ने। सुरती = सुरति के मालिक प्रभू में। वडभागी = बड़े भाग्यों वालों ने। गुरु सेविआ = गुरू की शरण पकड़ी है। सुघड़ सुजाणी हरि = सुंदर सुजान हरी। सुघड़ = सुंदर आत्मिक घाड़त वाला। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। दुखी = दुखों में। रैणि = जीवन रात।3।

जाचिक दीन = निमाणे मंगते। प्रभ = हे प्रभू! मुखि = मुँह में। दीजै = कृपा करके दें। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाली। प्रभ हरि = हे हरी! हे प्रभू! सरणागती = शरण आया हूँ। नामि = नाम में। समाणी = समाया रहूँ।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू-पुरख ने प्रभू-पुरख से मिला दिया, (प्रभू को) मिल के उसकी सुरति सुरतियों के मालिक हरी में (सदा के लिए) टिक गई। हे भाई! भाग्यशाली मनुष्यों ने गुरू का आसरा लिया, उनको सुंदर सुजान परमात्मा मिल गया। पर अपने मन के पीछे चलने वाले बद्-किस्मत होते हैं (छुटॅड़ स्त्री की तरह ही उनकी) जिंदगी दुखों में बीतती है।3।

हे प्रभू! हम (जीव) तेरे (दर पर) निमाणे मंगते हैं, हमारे मुँह में (गुरू की) आत्मिक जीवन देने वाली बाणी दे। हे हरी! हे प्रभू! मुझे सुंदर सुजान मित्र मिला। हे दास नानक! (कह- हे प्रभू!) मैं तेरी शरण पड़ा हॅूँ, मेहर कर, मैं तेरे नाम में लीन रहूँ।4।3।5।

मारू महला ४ ॥ हरि भाउ लगा बैरागीआ वडभागी हरि मनि राखु ॥ मिलि संगति सरधा ऊपजै गुर सबदी हरि रसु चाखु ॥ सभु मनु तनु हरिआ होइआ गुरबाणी हरि गुण भाखु ॥१॥ मन पिआरिआ मित्रा हरि हरि नाम रसु चाखु ॥ गुरि पूरै हरि पाइआ हलति पलति पति राखु ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरि नामु धिआईऐ हरि कीरति गुरमुखि चाखु ॥ तनु धरती हरि बीजीऐ विचि संगति हरि प्रभ राखु ॥ अम्रितु हरि हरि नामु है गुरि पूरै हरि रसु चाखु ॥२॥ {पन्ना 997}

पद्अर्थ: भाउ = प्यार। बैरागीआ = हे बैरागी जीव! वडभागी = बड़े भाग्यों से। मनि = मन में। मिलि = मिल के। ऊपजै = पैदा होती है। गुर सबदी = गुरू के शबद से। चाखु = चख। सभु = सारा। हरि गुण = हरी के गुण। भाखु = उचार।1।

मन = हे मन! नाम रसु = नाम का स्वाद। गुरि पूरे = पूरे गुरू के द्वारा। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। पति = इज्जत। राखु = बचा ले।1। रहाउ।

धिआईअै = ध्याना चाहिए। कीरति = सिफत सालाह। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। बीजीअै = बीजना चाहिए। राखा = रखवाला। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। गुरि पूरै = पुरे गुरू के द्वारा।2।

अर्थ: हे प्यारे मित्र मन! सदा परमात्मा के नाम का स्वाद चखा कर। परमात्मा (का नाम) पूरे गुरू के द्वारा मिलता है (तू भी गुरू की शरण पड़, और) इस लोक और परलोक में अपनी इज्जत बचा ले।1। रहाउ।

हे बैरागी जीव! बड़े भाग्यों से (तेरे अंदर) परमात्मा का प्यार बना है, अब परमात्मा (के नाम) को (अपने) मन में संभाल के रख। हे भाई! संगति में मिल के (ही नाम जपने की) श्रद्धा पैदा होती है, (तू भी संगति में टिक के) गुरू के शबद द्वारा परमात्मा के नाम का स्वाद चखता रह। (जो मनुष्य नाम-रस चखता है उसका) उसका तन मन हर वक्त खिला रहता है। हे भाई! गुरू की बाणी के द्वारा (तू भी) परमात्मा के गुण उचारा कर।1।

हे भाई! सदा परमात्मा का नाम ध्याना चाहिए। (हे भाई! तू) गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा की सिफतसालाह (का स्वाद) चखा कर। ये शरीर (मानो) धरती है, (इसमें) परमात्मा (का नाम-बीज) बीजना चाहिए। संगति में (टिके रहने से) परमात्मा स्वयं (उस नाम-खेती का) रखवाला बनता है। हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, पूरे गुरू के द्वारा (तू भी) परमात्मा (के नाम) का स्वाद चखता रह।2।

मनमुख त्रिसना भरि रहे मनि आसा दह दिस बहु लाखु ॥ बिनु नावै ध्रिगु जीवदे विचि बिसटा मनमुख राखु ॥ ओइ आवहि जाहि भवाईअहि बहु जोनी दुरगंध भाखु ॥३॥ त्राहि त्राहि सरणागती हरि दइआ धारि प्रभ राखु ॥ संतसंगति मेलापु करि हरि नामु मिलै पति साखु ॥ हरि हरि नामु धनु पाइआ जन नानक गुरमति भाखु ॥४॥४॥६॥ {पन्ना 997}

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। भरि रहे = लिबड़े रहते हैं। मनि = मन में। दह दिस = दसों दिशाओं में। लाखु = (लक्ष्य) निशाना। बहु = अक्सर कर के। दह दिस बहु लाखु = अकसर करके उनका निशाना दसों दिशाएं ही है, सदा भटकते फिरते हैं। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। मनमुख राखु = मनमुखों का ठिकाना। ओइ = ('ओह' का बहुवचन)। आवहि = आते हैं, पैदा होते हैं। जाहि = जाते हैं, मरते हैं। भवाईअहि = भटकाए जाते हैं। दुरगंध = गंद। भाखु = भक्ष्य, खुराक है।3।

त्राहि = बचा ले। सरणागती = सरण आए हैं। हरि प्रभ = हे हरी! हे प्रभू! राखु = रक्षा कर। मिलै = मिलता है। पति साखु = इज्जत ऐतबार। गुरमति = गुरू की शिक्षा पर चल के। भाखु = उचार।4।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे तृष्णा (की मैल) के साथ लिबड़े रहते हैं, (उनके) मन में (माया की ही) आशा (टिकी रहती है), वे आम तौर पर (माया की खातिर) भटकते रहते हैं। नाम से वंचित रह कर उनका जीना धिक्कारयोग्य है। मनमुखों का ठिकाना (विकारों के) गंद में रहता है। वे सदा पैदा होते मरते रहते हैं, अनेकों जूनियों में भटकाए जाते हैं (विकारों की) गंदगी (उनकी हमेशा की) खुराक है।3।

हे हरी! हे प्रभू! मेहर कर, (हमारी) रक्षा कर, हम तेरी शरण आए हैं, हमें बचा ले बचा ले। संतों की संगति में हमारा मिलाप बनाए रख, (वहीं ही) हरी-नाम मिलता है (जिसको नाम मिलता है उसको लोक-परलोक में) आदर मिलता है। हे दास नानक! (संतों की संगति में ही) परमात्मा का नाम-धन मिलता है। तू भी गुरू की मति ले के नाम उचारता रह।4।4।6।

मारू महला ४ घरु ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि हरि भगति भरे भंडारा ॥ गुरमुखि रामु करे निसतारा ॥ जिस नो क्रिपा करे मेरा सुआमी सो हरि के गुण गावै जीउ ॥१॥ हरि हरि क्रिपा करे बनवाली ॥ हरि हिरदै सदा सदा समाली ॥ हरि हरि नामु जपहु मेरे जीअड़े जपि हरि हरि नामु छडावै जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ सुख सागरु अम्रितु हरि नाउ ॥ मंगत जनु जाचै हरि देहु पसाउ ॥ हरि सति सति सदा हरि सति हरि सति मेरै मनि भावै जीउ ॥२॥ {पन्ना 997-998}

पद्अर्थ: भंडारा = खजाने। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। निसतारा = पार उतारा।

जिस नो: संबंधक 'नो' के कारण 'जिसु' की 'ु' की मात्रा हट गई है।

सुआमी = मालिक प्रभू। गावै = गाता है।1।

बनवाली = बनमाली, बन के फूल की माला वाला, विष्णु, परमात्मा। हिरदै = हृदय में। समाली = संभाले, संभालता है। जीअड़े = हे जिंदे! छडावै = (बँधनों से) छुड़वाता है।1। रहाउ।

सुख सागर = सुखों का समुंद्र। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। मंगत जनु = मंगता। जाचै = माँगता है (एक वचन)। हरि = हे हरी! पसाउ = प्रसाद, कृपा। सति = सदा कायम रहने वाला। मेरै मनि = मेरे मन में। भावै = प्यारा लगता है।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर हरी परमात्मा कृपा करता है, वह मनुष्य सदा ही सदा ही परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखता है। हे मेरी जिंदे! तू परमात्मा का नाम सदा जपा कर। प्रभू का नाम ही विकारों से खलासी कराता है।1। रहाउ।

(हे भाई! गुरू के पास) परमात्मा की भगती के खजाने भरे पड़े हैं, परमात्मा गुरू के माध्यम से (ही) पार-उतारा करता है। मेरा मालिक-प्रभू जिस मनुष्य पर मेहर करता है वह मनुष्य (गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा के गुण गाता है।1।

(हे भाई!) तेरा नाम सुखों का खजाना है और आत्मिक जीवन देने वाला (अमृत) है। (तेरा) दास मंगता (बन के तेरे दर से) माँगता है। हे हरी! मेहर कर (अपना नाम) दे। हे भाई! परमात्मा सदा कायम रहने वाला है, वह सदा कायम रहने वाला प्रभू मेरे मन को प्यारा लग रहा है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh