श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 998 नवे छिद्र स्रवहि अपवित्रा ॥ बोलि हरि नाम पवित्र सभि किता ॥ जे हरि सुप्रसंनु होवै मेरा सुआमी हरि सिमरत मलु लहि जावै जीउ ॥३॥ माइआ मोहु बिखमु है भारी ॥ किउ तरीऐ दुतरु संसारी ॥ सतिगुरु बोहिथु देइ प्रभु साचा जपि हरि हरि पारि लंघावै जीउ ॥४॥ तू सरबत्र तेरा सभु कोई ॥ जो तू करहि सोई प्रभ होई ॥ जनु नानकु गुण गावै बेचारा हरि भावै हरि थाइ पावै जीउ ॥५॥१॥७॥ {पन्ना 998} पद्अर्थ: नवे = नौ ही। छिद्र = छेद (कान, नाक आदिक)। स्रवहि = बहते रहते हैं। अपवित्रा = गंदे। बोलि = बोल के, उचार के। सभि = सारे। कीता = कर लिए। सिमरत = सिमरते हुए। मलु = (विकारों की) मैल।3। भारी बिखमु = बहुत मुश्किल। किउ तरीअै = कैसे पार लांघा जाए? दुतर = दुस्तर, जिससे पार लांघना मुश्किल है। संसारी = संसार समुंद्र। बोहिथु = जहाज़। देइ प्रभु = प्रभू देता है। साचा = सदा कायम रहने वाला।4। सरबत्र = सब जगह। सभु कोई = हरेक जीव। प्रभ = हे प्रभू! जनु नानकु गावै = दास नानक गाता है। बेचारा = गरीब। हरि भावै = अगर हरी को (ये काम) पसंद आ जाए। थाइ = थाय, जगह में (शब्द 'थाउ' से अधिकर्णकारक, एक वचन)। थाइ पावै = परवान करता है।5। अर्थ: (हे भाई! मनुष्य के शरीर में नाक-कान आदि नौ छेद हैं, यह) नौ के नौ छेद बहते (सिमते) रहते हैं (और विकार-वासना के कारण) अपवित्र भी हैं। (जो मनुष्य हरी-नाम उचारता है) हरी-नाम उचार के उसने ये सारे पवित्र कर लिए हैं। हे भाई! अगर मेरा मालिक प्रभू किसी जीव पर दयावान हो जाए, तो हरी-नाम सिमरते हुए (उसकी इन इन्द्रियों के विकारों की) मैल दूर हो जाती है।3। हे भाई! संसार-समुंद्र से पार लांघना मुश्किल है (क्योंकि इसमें) माया का मोह बहुत ही कठिन है। फिर इससे कैसे पार लांघा जाए? हे भाई! गुरू जहाज़ (है) सदा कायम रहने वाला प्रभू (जिस मनुष्य को यह जहाज़) दे देता है, वह मनुष्य प्रभू का नाम जपता है, और गुरू उसको पार लंघा देता है।4। हे प्रभू! तू हर जगह बसता है, हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ) है। हे प्रभू! जो कुछ करते हो वही होता है। हे भाई! प्रभू का दास गरीब नानक प्रभू के गुण गाता है, अगर उस को (यह काम) पसंद आ जाए तो वह इसको परवान कर लेता है।5।1।7। मारू महला ४ ॥ हरि हरि नामु जपहु मन मेरे ॥ सभि किलविख काटै हरि तेरे ॥ हरि धनु राखहु हरि धनु संचहु हरि चलदिआ नालि सखाई जीउ ॥१॥ जिस नो क्रिपा करे सो धिआवै ॥ नित हरि जपु जापै जपि हरि सुखु पावै ॥ गुर परसादी हरि रसु आवै जपि हरि हरि पारि लंघाई जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ निरभउ निरंकारु सति नामु ॥ जग महि स्रेसटु ऊतम कामु ॥ दुसमन दूत जमकालु ठेह मारउ हरि सेवक नेड़ि न जाई जीउ ॥२॥ {पन्ना 998} पद्अर्थ: मन = हे मन! सभि = सारे। किलबिख = पाप। काटै = काटता है। राखहु = संभाल लो। संचहु = इकट्ठा करो। चलदिआ = चलते फिरते, हर वक्त। सखाई = मित्र, मददगार।2। जिस नो = जिस मनुष्य पर। धिआवै = ध्याता है। हरि जपि = हरी नाम का जप। जापै = जपता है। जपि हरि = हरी नाम जप के। गुर परसादी = गुरू की कृपा से।1। रहाउ। निरंकारु = आकार रहित। सतिनामु = जिस का नाम सदा कामय रहने वाला है। कामु = काम। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत, मौत का डर। ठेह = जगह ही। मारउ = बेशक मार दे, अवश्य मार देता है (हुकमी भविष्यत, अॅन पुरख, एक वचन)। ठेह मारउ = बेशक जगह पर ही मार दे, अवश्य ही मार देता है। नेड़ि न जाई = नजदीक नहीं फटकता।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा करता है, वह मनुष्य उसको ध्याता है। वह मनुष्य सदा हरी-नाम का जाप जपता है और हरी-नाम जप के आत्मिक आनंद भोगता है। गुरू की कृपा से जिस मनुष्य को हरी-नाम का स्वाद आता है वह हरी-नाम सदा जप के (अपनी जीवन-बेड़ी को संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है।1। रहाउ। हे मेरे मन! परमात्मा का नाम सदा जपा कर, परमात्मा तेरे सारे पाप काट सकता है। हे मन! हरी-नाम का धन संभाल के रख, हरी-नाम-धन इकट्ठा करता रह, यही धन हर वक्त मनुष्य के साथ मददगार बनता है।1। हे भाई! परमात्मा को किसी का डर नहीं, परमात्मा की कोई विशेष शकल-सूरति बताई नहीं जा सकती, परमात्मा सदा कायम रहने वाला है। (उसका नाम जपना) दुनियाँ में (अन्य सारे कामों से) बढ़िया और अच्छा काम है। (जो मनुष्य नाम जपता है वह) वैरी जमदूतों को आत्मिक मौत अवश्य ही मार सकता है। ये आत्मिक मौत परमात्मा की सेवा-भगती करने वालों के नजदीक नहीं फटकती।2। जिसु उपरि हरि का मनु मानिआ ॥ सो सेवकु चहु जुग चहु कुंट जानिआ ॥ जे उस का बुरा कहै कोई पापी तिसु जमकंकरु खाई जीउ ॥३॥ सभ महि एकु निरंजन करता ॥ सभि करि करि वेखै अपणे चलता ॥ जिसु हरि राखै तिसु कउणु मारै जिसु करता आपि छडाई जीउ ॥४॥ हउ अनदिनु नामु लई करतारे ॥ जिनि सेवक भगत सभे निसतारे ॥ दस अठ चारि वेद सभि पूछहु जन नानक नामु छडाई जीउ ॥५॥२॥८॥ {पन्ना 998} पद्अर्थ: जिस उपरि = जिस जीव पर। मानिआ = पतीजता है, प्रसन्न होता है। चहु जुग = सारे युगों में, सदा के लिए ही। चहु कुंट = चार कूटों में, सारे संसार में। जानिआ = शोभा कमाता है, प्रसिद्ध हो जाता है। कंकरु = किंकर, नौकर। जम कंकरु = जमराज का नौकर, जमदूत। खाई = खा जाता है।3। निरंजन = (निर+अंजन) निर्लिप। सभि = सारे। करि = कर के। चलता = चोज तमाशे। कउणु मारै = कौन मार सकता है? कोई नहीं मार सकता। छडाई = बचाता है।4। हउ = मैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लई = मैं लेता हूँ। जिनि = जिस (करतार) ने। निसतारे = पार लंघा लिए हैं। दस अठ = दस और आठ, अठारह (पुराण)। सभि = सारे। जन नानक = हे दास नानक! ।5। अर्थ: हे भाई! जिस सेवक पर परमात्मा प्रसन्न होता है, वह सेवक सदा के लिए सारे संसार में शोभा वाला हो जाता है। अगर कोई कुकर्मी उस सेवक की बखीली करे, उसको जमदूत खा जाता है। (वह मनुष्य आत्मिक मौत मर जाता है)।3। (हे भाई!) सब जीवों में एक ही निर्लिप करतार बस रहा है, अपने सारे चोज-तमाशे कर-करके वह स्वयं ही देख रहा है। करतार जिस मनुष्य की स्वयं रक्षा करता है, करतार जिसको खुद बचाता है उसको कोई मार नहीं सकता।4। हे भाई! मैं हर वक्त (उस) करतार का नाम जपता हूँ, जिसने अपने सारे सेवक-भक्त संसार-समुंद्र से (सदा ही) पार लंघाए हैं। हे दास नानक! (कह- हे भाई!) अठारह पुराण चार वेद (आदि धर्म-पुस्तकों) को पूछ के देखो (वे भी यही कहते हैं कि) परमात्मा का नाम ही जीव को बचाता है।5।2।8। मारू महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ डरपै धरति अकासु नख्यत्रा सिर ऊपरि अमरु करारा ॥ पउणु पाणी बैसंतरु डरपै डरपै इंद्रु बिचारा ॥१॥ एका निरभउ बात सुनी ॥ सो सुखीआ सो सदा सुहेला जो गुर मिलि गाइ गुनी ॥१॥ रहाउ ॥ देहधार अरु देवा डरपहि सिध साधिक डरि मुइआ ॥ लख चउरासीह मरि मरि जनमे फिरि फिरि जोनी जोइआ ॥२॥ राजसु सातकु तामसु डरपहि केते रूप उपाइआ ॥ छल बपुरी इह कउला डरपै अति डरपै धरम राइआ ॥३॥ सगल समग्री डरहि बिआपी बिनु डर करणैहारा ॥ कहु नानक भगतन का संगी भगत सोहहि दरबारा ॥४॥१॥ {पन्ना 998-999} पद्अर्थ: डरपै = डरता है, रजा में चलता है, हुकम से बाग़ी नहीं हो सकता। नख्त्रा = तारे। अमरु = हुकम। करारा = करड़ा। बैसंतरु = आग।1। ऐका बात = एक ही बात। निरभउ = डर रहित। मिलि = मिल के। गुनी = (परमात्मा के) गुण ।1। रहाउ। देहधारी = जीव। अर = और। डरपहि = डरते हैं, रजा में चलते हैं। सिध = जोग साधसना में पुगे हुए जोगी। साधिक = जोग साधना करने वाले। मरि = मर के। जोनी = जूनियों में। जोइआ = धकेले जाते हैं।2। राजसु = रजो गुण। सातकु = सतो गुण। तामसु = तमो गुण। केते = बेअंत। बपुरी = बिचारी, निमाणी। कउला = लक्ष्मी। अति = बहुत।3। डरहि = डर में। बिआपी = फसी रहती है। करणैहारा = सृजनहार प्रभू। संगी = साथी। सोहहि = शोभा देते हैं।4। अर्थ: हे भाई! (हमने) एक ही बात सुनी हुई है जो मनुष्य को डरों से रहित कर देती है (वह यह है कि) जो मनुष्य गुरू को मिल के परमात्मा के गुण गाता है (और रज़ा के अनुसार जीना सीख लेता है) वह सुखी जीवन वाला है वह सदा आराम से रहता है।1। रहाउ। हे भाई! धरती, आकाश, तारे- इन सबके सिर पर परमात्मा का कठोर हुकम चल रहा है (इनमें से कोई भी) रजा से आकी नहीं हो सकता। हवा, पानी, आग (आदि हरेक तत्व) रज़ा में चल रहे हैं। बेचारा इन्द्र (भी) प्रभू के आदेश में चल रहा है (भले ही लोगों के विचार में वह सारे देवताओं का राजा है)।1। हे भाई! सारे जीव और देवता हुकम में चल रहे हैं, सिद्ध और साधिक भी (हुकम के आगे) थर-थर काँपते हैं। चौरासी लाख जूनियों के सारे जीव (जो रज़ा में नहीं चलते) जनम-मरण के चक्करों में पड़े रहते हैं, बार-बार जूनियों में डाले जाते हैं।2। हे भाई! परमात्मा ने बेअंत जीव पैदा किए हैं जो रजो, सतो, तमो (इन तीन गुणों में विचर रहे हैं, ये सारे उसके) हुकम में कार्य-व्यवहार कर रहे हैं। (दुनिया के सारे जीवों के लिए) छलावा (बनी हुई) यह बेचारी लक्ष्मी भी रज़ा में चल रही है, धर्मराज भी हुकम के आगे थर-थर काँपता है।3। हे भाई! दुनिया की सामग्री रज़ा में बँधी हुई है, एक सृजनहार प्रभू ही है जिस पर किसी का डर नहीं। हे नानक! कह- परमात्मा अपने भगतों की सहायता करने वाला है, उसके दरबार में भक्तगण हमेशा शोभा पाते हैं।4।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |