श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1002 मारू महला ५ ॥ बाहरि ढूढन ते छूटि परे गुरि घर ही माहि दिखाइआ था ॥ अनभउ अचरज रूपु प्रभ पेखिआ मेरा मनु छोडि न कतहू जाइआ था ॥१॥ मानकु पाइओ रे पाइओ हरि पूरा पाइआ था ॥ मोलि अमोलु न पाइआ जाई करि किरपा गुरू दिवाइआ था ॥१॥ रहाउ ॥ अदिसटु अगोचरु पारब्रहमु मिलि साधू अकथु कथाइआ था ॥ अनहद सबदु दसम दुआरि वजिओ तह अम्रित नामु चुआइआ था ॥२॥ तोटि नाही मनि त्रिसना बूझी अखुट भंडार समाइआ था ॥ चरण चरण चरण गुर सेवे अघड़ु घड़िओ रसु पाइआ था ॥३॥ सहजे आवा सहजे जावा सहजे मनु खेलाइआ था ॥ कहु नानक भरमु गुरि खोइआ ता हरि महली महलु पाइआ था ॥४॥३॥१२॥ {पन्ना 1002} पद्अर्थ: ते = से। छूटि परे = बच गए। गुरि = गुरू ने। घर माहि = हृदय में। अनभउ = अनुभव, झलकारा। प्रभ = प्रभू का। कतहु = किसी और तरफ। न जाइआ = नहीं जाता।1। मानकु = मोती। रे = हे भाई! पाइआ = पा लिया है। मोलि अमोलु = किसी भी मूल्य से ना मिल सकने वाला। मोलि = मूल्य से। करि = कर के।1। रहाउ। अदिसटु = इन आँखों से ना दिखने वाला। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां। चरु = पहुँच) जो ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है। मिलि साधू = गुरू को मिल के। कथाइआ = सिफत सालाह करनी आरम्भ कर दी। अकथु = जिसका मुकम्मल स्वरूप बयान से परे है। अनहद = बिना बजाए बजने वाला, एक रस, मतवातर। सबदु वजिओ = सिफत सालाह की बाणी पूरा प्रभाव डालने लग पड़ी। दुआरि = द्वार में। दसम दुआरि = दसवें द्वार में, दिमाग़ में। तह = वहाँ, उस दिमाग़ में। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला।2। तोटि = कमी, घाटा। मनि = मन में (बस रही)। बूझी = बुझ गई। अखुट = ना खत्म होने वाले। भंडार = खजाने। चरण गुर = गुरू के चरण। अघड़ु = (अ+घड़) बिना किसी घड़त वाला (मन)। रसु = स्वाद।3। सहजे = सहज ही, आत्मिक अडोलता में ही। आवा जावा = आता जाता, कार्य व्यवहार करता है। खेलाइआ = खेलता है। कहु = कह। नानक = हे नानक! गुरि = गुरू ने। भरमु = भटकना। महली महलु = महल के मालिक का महल।4। अर्थ: हे भाई! मैंने मोती पा लिया है, मैंने पूरन परमात्मा को पा लिया है। है भाई! यह मोती बहुत अमूल्य है, किसी भी मूल्य पर नहीं मिल सकता। मुझे तो यह मोती गुरू ने दिलवा दिया है।1। रहाउ। (क्योंकि) गुरू ने हृदय में ही मुझे परमात्मा का दीदार करवा दिया है, अब मैं परमात्मा की खोज बाहर (जंगलों में) करन से बच गया हूँ। जब परमात्मा के आश्चर्य रूप का हृदय में अनुभव हो गया है, तो अब मेरा मन उसका आसरा छोड़ किसी ओर तरफ़ नहीं भटकता ।1। हे भाई! परमात्मा इन आँखों से नहीं दिखता, हमारी ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, उसका मुकम्मल स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। हे भाई! गुरू को मिल के मैंने उसकी सिफत-सालाह करनी शुरू कर दी है। हे भाई! मेरे दिमाग़ में अब हर वक्त सिफत-सालाह की बाणी प्रभाव डाल रही है; मेरे अंदर अब हर वक्त आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस टपक रहा है।2। हे भाई! मेरे मन में कभी ना समाप्त होने वाले नाम-खजाने भर गए हैं, इन खजानों में कभी कमी नहीं आ सकती, मन में (बस रही) तृष्णा (-आग की लाट) बुझ गई है। मैं हर वक्त गुरू के चरणों का आसरा ले रहा हूँ। मैंने नाम-अमृत का स्वाद चख लिया है, और पहले वाला बेढबी घाड़त वाला मन अब सुंदर मनमोहक बन गया है।3। हे भाई! नाम-खजाने की बरकति से मेरा मन हर वक्त आत्मिक अडोलता में टिक के कार्य-व्यवहार कर रहा है, मन सदा आत्मिक अडोलता में खेल रहा है। हे नानक! कह- (जब से) गुरू ने मेरी भटकना दूर कर दी है, तब से मैंने सदा-स्थिर ठिकाने वाले हरी (के चरणों में) ठिकाना पा लिया है।4।3।12। मारू महला ५ ॥ जिसहि साजि निवाजिआ तिसहि सिउ रुच नाहि ॥ आन रूती आन बोईऐ फलु न फूलै ताहि ॥१॥ रे मन वत्र बीजण नाउ ॥ बोइ खेती लाइ मनूआ भलो समउ सुआउ ॥१॥ रहाउ ॥ खोइ खहड़ा भरमु मन का सतिगुर सरणी जाइ ॥ करमु जिस कउ धुरहु लिखिआ सोई कार कमाइ ॥२॥ भाउ लागा गोबिद सिउ घाल पाई थाइ ॥ खेति मेरै जमिआ निखुटि न कबहू जाइ ॥३॥ पाइआ अमोलु पदारथो छोडि न कतहू जाइ ॥ कहु नानक सुखु पाइआ त्रिपति रहे आघाइ ॥४॥४॥१३॥ {पन्ना 1002} पद्अर्थ: जिसहि = जिसु ही (ने) ('जिसु' की 'सु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। साजि = पैदा करके। निवाजिआ = बख्शिशें की हैं। तिसहि सिउ = तिसु ही सिउ, उसी के साथ ही। रचु = प्यार। आन = (अन्य) और कोई। बोईअै = अगर बीज बीजें। फूलै = फूल। ताहि = उसको।1। वत्र बीजण = बीजने के उपयुक्त समय और तैयार जमीन। नाउ = प्रभू का नाम बीज। बोइ = बोय, बीज ले। लाइ = लगा के। समउ = समय। सुआउ = लाभ।1। रहाउ। खोइ = दूर करके। खहड़ा = जिद्द। भरमु = भटकना। जाइ = जा। करमु = कृपा, बख्शिश (का लेख)। जिस कउ = जिस के लिए, जिसके माथे पर (संबंधक 'कउ' के कारण 'जिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है)। धुरहु = प्रभू की हजूरी से। कमाइ = कमाता है।2। भाउ = प्यार। सिउ = साथ। घाल = मेहनत। थाइ पाई = प्रवान की। थाइ = (शब्द 'थाउ' से अधिकरण कारक) जगह में, जगह पर। खेति मेरै = मेरे हृदय खेत में। जंमिआ = उग पड़ा है। निखुटि न जाइ = समाप्त नहीं होता।3। अमोलु = जो किसी मूल्य से ना मिल सके। छोडि = छोड़ के। कतहू = कहीं भी। त्रिपति रहे आघाइ = पूरी तौर पर संतोषी जीवन वाले हो गए।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! (ये मनुष्य जीवन परमात्मा का) नाम-बीजने के लिए सही समय है। हे भाई! अपना मन लगा के (हृदय की) खेती में (नाम) बीज ले। यही सही मौका है, (इसी में) लाभ है।1। रहाउ। हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे पैदा करके कई बख्शिशें की हुई हैं, उससे ही तेरा प्यार नहीं है। (तू और-और काम-काजों में लगा फिरता है, पर अगर) ऋतु कोई हो, बीज कोई और बो दें, उसे ना फूल लगता है ना फल।1। हे भाई! अपने मन की जिद्द अपने मन की भटकना दूर कर, और, गुरू की शरण जा पड़ (और परमात्मा का नाम-बीज बीज ले)। पर ये काम वही मनुष्य करता है जिसके माथे पर प्रभू की हजूरी से ये लेख लिखा हुआ हो।2। हे भाई! जिस मनुष्य का परमात्मा से प्यार बन जाता है, (उसकी नाम-सिमरन की) मेहनत परमात्मा प्रवान कर लेता है। हे भाई! मेरे हृदय-खेत में भी वह नाम-फसल उग पड़ी है जो कभी समाप्त नहीं होती।3। हे नानक! जिन मनुष्यों ने (प्रभू का नाम) अमूल्य पदार्थ पा लिया, वे इसको छोड़ के किसी और तरफ नहीं भटकते; वे आत्मिक आनंद भोगते हैं, वे (माया से) पूरी तरह से संतोखी जीवन वाले हो जाते हैं।4।4।13। मारू महला ५ ॥ फूटो आंडा भरम का मनहि भइओ परगासु ॥ काटी बेरी पगह ते गुरि कीनी बंदि खलासु ॥१॥ आवण जाणु रहिओ ॥ तपत कड़ाहा बुझि गइआ गुरि सीतल नामु दीओ ॥१॥ रहाउ ॥ जब ते साधू संगु भइआ तउ छोडि गए निगहार ॥ जिस की अटक तिस ते छुटी तउ कहा करै कोटवार ॥२॥ चूका भारा करम का होए निहकरमा ॥ सागर ते कंढै चड़े गुरि कीने धरमा ॥३॥ सचु थानु सचु बैठका सचु सुआउ बणाइआ ॥ सचु पूंजी सचु वखरो नानक घरि पाइआ ॥४॥५॥१४॥ {पन्ना 1002} पद्अर्थ: मनहि = मन में। परगासु = प्रकाश, आत्मिक जीवन की सूझ। बेरी = बेड़ी। पगह ते = पैरों से। गुरि = गुरू ने। बंदि = बंदी से, कैद से, मोह की कैद से। खलासु = छुटकारा।1। आवण जाणु = जनम मरन का चक्कर, भटकना। रहिओ = समाप्त हो गया। तपत कड़ाहा = तपता हुआ कड़ाहा, तृष्णा की आग के शोले। गुरि = गुरू ने। सीतल = ठंडक देने वाला।1। रहाउ। जब ते = जब से। साधू संगु = गुरू का मिलाप। तउ = जब। निगहार = निगाह रखने वाले, आत्मिक मौत का संदेशा लाने वाले। कहा करै = क्या कर सकता है? कोटवार = कौतवाल, जमराज।2। जिस की, तिस ते: संबंधक 'की' और 'ते' के कारण 'जिसु' और 'तिसु' शब्द की 'ु' मात्रा हट गई है। भारा = कर्जा। करम का = पिछले किए कर्मों का। निहकरमा = वासना रहित। ते = से। कंढै = किनारे पर। गुरि = गुरू ने। धरमा = भलाई, उपकार।3। स्चु = सदा कायम रहने वाला। सुआउ = जीवन मनोरथ। पूँजी = राशि। वखरो = सौदा। घरि = हृदय में।4। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू ने आत्मिक ठंड देने वाला हरी-नाम दे दिया, उसके अंदर से तृष्णा की आग के शोले बुझ गए, उसकी (माया की खातिर) भटकना समाप्त हो गई।1। रहाउ। हे भाई! गुरू ने जिस मनुष्य के पैरों से (मोह की) बेड़ियाँ काट दीं, जिसको मोह की कैद से आजाद कर दिया, उसके मन में आत्मिक जीवन की सूझ पैदा हो गई, उसका भ्रम (भटकना) का अण्डा टूट गया (उसका मन आत्मिक उड़ान लगाने के योग्य हो गया, जैसे अण्डे का कवच टूट जाने के बाद उसके अंदर का पंछी उड़ान भरने के लायक हो जाता है)।1। हे भाई! जब (किसी भाग्यशाली मनुष्य को) गुरू का मिलाप हासिल हो जाता है, तब (उसके आत्मिक जीवन पर) निगाह रखने वाले (विकार उसको) छोड़ जाते हैं। जब परमात्मा की ओर से (आत्मिक जीवन की राह में) डाली हुई रुकावट उसकी मेहर से (गुरू के द्वारा) खत्म हो जाती है तब (उन निगाह रखने वालों का सरदार) कोतवाल (मोह) भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता।2। हे भाई! जिन मनुष्यों पर गुरू ने उपकार कर दिया, वह (संसार-) समुंद्र (में डूबने) से (बच के) किनारे पर पहुँच गए, उनका अनेकों जन्मों के किए बुरे कर्मों का कर्ज (भाव, विकारों के संस्कारों का संग्रह) खत्म हो गया, वे बुरे कर्मों की कैद में से निकल गए।3। हे नानक! (कह- जिस मनुष्य पर गुरू ने मेहर की, उसने अपने) हृदय-घर में सदा कायम रहने वाला नाम-राशि को पा लिया, सदा कायम रहने वाला नाम-सौदा प्राप्त कर लिया, उसने सदा-स्थिर हरी-नाम को अपनी जिंदगी का मनोरथ बना लिया, सदा-स्थिर हरी-चरण ही उसके लिए (आत्मिक निवास का) स्थल बन गए, बैठक बन गई।4।5।14। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |