श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1003 मारू महला ५ ॥ बेदु पुकारै मुख ते पंडत कामामन का माठा ॥ मोनी होइ बैठा इकांती हिरदै कलपन गाठा ॥ होइ उदासी ग्रिहु तजि चलिओ छुटकै नाही नाठा ॥१॥ जीअ की कै पहि बात कहा ॥ आपि मुकतु मो कउ प्रभु मेले ऐसो कहा लहा ॥१॥ रहाउ ॥ तपसी करि कै देही साधी मनूआ दह दिस धाना ॥ ब्रहमचारि ब्रहमचजु कीना हिरदै भइआ गुमाना ॥ संनिआसी होइ कै तीरथि भ्रमिओ उसु महि क्रोधु बिगाना ॥२॥ {पन्ना 1003} पद्अर्थ: पुकारै = ऊँचा ऊँचा पढ़ता है। मुख ते = मुँह से। पंडत = हे पण्डित! माठा = मध्यम, ढीला। कामामन का = कमावन का, कमाने का, आत्मिक जीवन बनाने का। मोनी = मौन धारी, सदा चुप साध के रखने वाला। इकांती = एकांत में, किसी गुफा आदि में अकेला। हिरदै = हृदय में। गाठा = गाँठ। कलपन = कल्पना, मानसिक दौड़ भाग। होइ = होय, हो के। उदासी = उपराम। ग्रिहु = घर, गृहस्त। नाठा = दौड़ भाग, भटकना।1। जीअ की बात = दिल की बात। कै पहि = किस के पास? कहा = कहूँ, (मैं) कहूँ। मुकतु = विकारों से मुक्त। मो कउ = मुझे। कहा = कहाँ? किस जगह? लहा = तलाशूँ।1। रहाउ। करि कै = (तप) करके। देही साधी = शरीर साधा, शरीर को कष्ट देता रहा। दहदिस = दसों दिशाओं में। धाना = दौड़ता रहा। ब्रहमचारि = ब्रहमचारी ने। ब्रहमचजु = ब्रहमचर्य, काम वासना को रोकने का अभ्यास। गुमाना = अहंकार। होइ कै = बन के। तीरथि = (हरेक) तीर्थ पर। बिगाना = बेगाना, मूर्खता वाला।2। अर्थ: (हे पण्डित!) मैं अपने दिल की बात किस को बताऊँ? मैं ऐसा (गुरमुख) कहाँ से तलाशूँ जो स्वयं (मोह माया से) बचा हुआ हो, और मुझे (भी) परमात्मा मिला दे? ।1। रहाउ। हे पण्डित! (तेरे जैसा कोई तो) मुँह से वेद ऊँची-ऊँची आवाज़ में पढ़ता है, पर आत्मिक कमाई करने के पक्ष से ढीला है; (कोई) मौन-धारी बन के (किसी गुफा आदि में) अकेला बैठा हुआ है, (पर उसके भी) हृदय में मानसिक दौड़-भाग की गाँठ बनी हुई है; (कोई दुनियाँ से) उपराम हो के गृहस्त छोड़ के चल पड़ा है (पर उसकी भी) भटकना खत्म नहीं हुई।1। (हे पण्डित!) कोई तपस्वी (तप) करके (निरे) शरीर को कष्ट दे रहा है, मन (उसका भी) दसों दिशाओं में दौड़ रहा है; किसी ब्रहमचारी ने कामवासना रोकने का अभ्यास कर लिया है, (पर उसके) हृदय में (इसी बात का) अहंकार पैदा हो गया है, (कोई) सन्यासी बन के (हरेक) तीर्थ पर भ्रमण कर रहा है; उसके अंदर उसको मूर्ख बना देने वाला क्रोध पैदा हो गया है (बता, हे पण्डित! मैं ऐसा मनुष्य कहाँ से ढूँढू जो स्वयं मुक्त हो)।2। घूंघर बाधि भए रामदासा रोटीअन के ओपावा ॥ बरत नेम करम खट कीने बाहरि भेख दिखावा ॥ गीत नाद मुखि राग अलापे मनि नही हरि हरि गावा ॥३॥ हरख सोग लोभ मोह रहत हहि निरमल हरि के संता ॥ तिन की धूड़ि पाए मनु मेरा जा दइआ करे भगवंता ॥ कहु नानक गुरु पूरा मिलिआ तां उतरी मन की चिंता ॥४॥ मेरा अंतरजामी हरि राइआ ॥ सभु किछु जाणै मेरे जीअ का प्रीतमु बिसरि गए बकबाइआ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥६॥१५॥ {पन्ना 1003} पद्अर्थ: बाधि = बाँध के। रामदासा = राम के दास, भक्तगण, रासधारिए। ओपावा = साधन, ढंग। करम खट = छे (धार्मिक) काम (विद्या पढ़नी और पढ़ानी, दान लेना और देना, यज्ञ करना और करवाना)। भेख = धार्मिक पहरावा। दिखावा = दिखाया। नाद = आवाज, राग। मुखि = मुँह से। अलापे = उचारे। मनि = मन में। गावा = गाया।3। हरख = हर्ष, खुशी। सोग = शोक। रहत = बचे हुए। हहि = हैं (बहुवचन)। धूड़ि = चरण धूल। जा = जब। नानक = हे नानक!।4। हरि राइआ = प्रभू पातशाह। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। सभु किछु = हरेक बात। जाणै = जानता है (एक वचन)। बकबाइआ = बहुत बोलना।1। अर्थ: ( हे पण्डित! कई ऐसे हैं जो अपने पैरों से) घुंघरू बाँध के रासधारिए बने हैं, पर वे भी रोटियाँ (कमाने के लिए ही ये) ढंग तरीके बरत रहे हैं; (कई ऐसे हैं जो) व्रत-नेम आदि और छे (निहित धार्मिक) कर्म करते हैं, (पर उन्होंने भी) बाहर (लोगों को ही) धार्मिक पहरावा दिखाया हुआ है; (कई ऐसे हैं जो) मुँह से (तो भजनों के) गीत-राग अलापते हैं, (पर अपने) मन (में उन्होंने कभी भी) परमात्मा की सिफत-सालाह नहीं की।3। (हे पण्डित! सिर्फ) हरी के संत जन ही पवित्र जीवन वाले हैं, वे खुशी-ग़मी-लोभ-मोह आदि से बचे रहते हैं। जब भगवान दया करे तब मेरा मन उनके चरणों की धूड़ प्राप्त करता है। हे नानक! (कह-हे पण्डित!) जब पूरा गुरू मिलता है तब मन की चिंता दूर हो जाती है।4। (हे पण्डित!) मेरा प्रभू-पातशाह सब के दिल की जानने वाला है (वह बाहरी भेषों, प्रयासों से नहीं पतीजता)। हे पण्डित! मेरी जीवात्मा का पातशाह सब कुछ जानता है (जिसको वह मिल जाता है, वह सारे) दिखावे के बोल बोलने भूल जाता है।1। रहाउ दूजा।6।15। मारू महला ५ ॥ कोटि लाख सरब को राजा जिसु हिरदै नामु तुमारा ॥ जा कउ नामु न दीआ मेरै सतिगुरि से मरि जनमहि गावारा ॥१॥ मेरे सतिगुर ही पति राखु ॥ चीति आवहि तब ही पति पूरी बिसरत रलीऐ खाकु ॥१॥ रहाउ ॥ रूप रंग खुसीआ मन भोगण ते ते छिद्र विकारा ॥ हरि का नामु निधानु कलिआणा सूख सहजु इहु सारा ॥२॥ माइआ रंग बिरंग खिनै महि जिउ बादर की छाइआ ॥ से लाल भए गूड़ै रंगि राते जिन गुर मिलि हरि हरि गाइआ ॥३॥ ऊच मूच अपार सुआमी अगम दरबारा ॥ नामो वडिआई सोभा नानक खसमु पिआरा ॥४॥७॥१६॥ {पन्ना 1003} पद्अर्थ: कोटि = करोड़। को = का। राजा = (दिल पर) हकूमत करने वाला। हिरदै = हृदय में। मेरै सतिगुरि = मेरे गुरू ने। जा कउ = जिन को। से = वह लोग। मरि जनमहि = मर के पैदा होते हैं, जनम मरन के चक्कर में पड़े रहते हैं। गावारा = मूर्ख।1। सतिगुर = हे गुरू! ही = (तू) ही। पति राखु = इज्जत का रखवाला। चीति = चिक्त में। आवहि = अगर तू आ बसे। पूरी = पूर्ण। रलीअै खाकु = मिट्टी में मिल जाते हैं।1। रहाउ। मन भोगण = मन के भोग, मन की मौजें। ते ते = वह सारे। छिद्र = ऐब, छेद (आत्मिक जीवन में)। निधानु = खजाना। कलिआणा = कल्याण, सुख शांति। सहजु = आत्मिक अडोलता। सारा = सेष्ठ।2। बिरंग = बे+रंग, फीके। बादर = बादल। छाइआ = छाया। गूढै़ रंगि = गाढ़े रंग में। राते = रंगे हुए। गुर मिलि = गुरू को मिल के।3। मूच = बड़ा। अपार = बेअंत, अ+पार। अगम = अपहुँच। नामो = नाम ही। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे मेरे सतिगुरू! तू ही (मेरी) इज्जत का रखवाला है। हे प्रभू! जब से तू (हम जीवों के) चित्त में आ बसा है तब से ही (हमें लोक-परलोक में) पूरी इज्जत मिलती है। (तेरा नाम) भूलने से मिट्टी में मिल जाते हैं।1। रहाउ। हे प्रभू! जिस मनुष्य के हृदय में तेरा नाम बसता है वह लाखों-करोड़ों (सब) लोगों (के दिल) का राजा बन जाता है। हे भाई! जिस मनुष्यों को गुरु ने नाम नहीं दिया वह जनम-मरण के चक्र में पड़े रहते हैं।1। दुनियाई रूप रंग ख़ुशियां, मन की मौजें और विकार (आत्मिक जीवन में) छेद हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम (ही) सारे सुखों सारी खुशियों का खजाना है; ये नाम ही श्रेष्ठ (पदार्थ) है और आत्मिक स्थिरता (का मूल) है।2। हे भाई! जैसे बादलों की छाया (छिन-भंगुर है, वैसे) माया के रंग-तमाशे छिन में फीके पड़ जाते हैं; पर, हे भाई! जिन्होंने गुरू को मिल के परमात्मा की सिफत-सालाह की, वह लाल (रत्न) हो गए, वे गाढ़े प्रेम-रंग में रंगे गए (उनका आत्मिक आनंद फीका नहीं पड़ता)।3। हे नानक! जिन्हें पति-प्रभू प्यारा लगता है, उनके वास्ते हरी-नाम ही (दुनिया की) महानता है, नाम ही (लोक-परलोक की) शोभा है, वह उस मालिक के दरबार में पहुँचे रहते हैं जो सबसे ऊँचा है जो सबसे बड़ा है जो बेअंत है और अपहुँच है।4।7।16। मारू महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ओअंकारि उतपाती ॥ कीआ दिनसु सभ राती ॥ वणु त्रिणु त्रिभवण पाणी ॥ चारि बेद चारे खाणी ॥ खंड दीप सभि लोआ ॥ एक कवावै ते सभि होआ ॥१॥ करणैहारा बूझहु रे ॥ सतिगुरु मिलै त सूझै रे ॥१॥ रहाउ ॥ त्रै गुण कीआ पसारा ॥ नरक सुरग अवतारा ॥ हउमै आवै जाई ॥ मनु टिकणु न पावै राई ॥ बाझु गुरू गुबारा ॥ मिलि सतिगुर निसतारा ॥२॥ हउ हउ करम कमाणे ॥ ते ते बंध गलाणे ॥ मेरी मेरी धारी ॥ ओहा पैरि लोहारी ॥ सो गुर मिलि एकु पछाणै ॥ जिसु होवै भागु मथाणै ॥३॥ सो मिलिआ जि हरि मनि भाइआ ॥ सो भूला जि प्रभू भुलाइआ ॥ नह आपहु मूरखु गिआनी ॥ जि करावै सु नामु वखानी ॥ तेरा अंतु न पारावारा ॥ जन नानक सद बलिहारा ॥४॥१॥१७॥ {पन्ना 1003-1004} पद्अर्थ: ओअंकारि = ओअंकार ने, सर्व व्यापक परमात्मा ने। उतपती = उत्पक्ति, सृष्टि की रचना। कीआ = बनाया। राती = रातें। वणु = जंगल। त्रिणु = तृण, तीला, घास। त्रिभवण = तीनों भवन (आकाश, मातृलोक, पाताल)। चारे खाणी = चारों ही उत्पक्ति के श्रोत (अण्डज, जेरज, उत्भुज, सेतज)। खंड = सृष्टि के खण्ड। दीप = द्वीप, जजीरे। सभि = सारे। लोआ = लोक, मण्डल। कवाउ = बचन, हुकम। ते = से। ऐक कवावै ते = एक परमात्मा के हुकम से ही।1। रे = हे भाई! बूझहु = जान पहचान पैदा करो। त = तब, तो। सूझै = समझ पड़ती है।1। रहाउ। पसारा = खिलारा। अवतारा = पैदा होने। आवै जाई = आता है जाता है, भटकता फिरता है। राई = रक्ती भर भी। गुबारा = अंधेरा। मिलि सतिगुर = गुरू को मिल के। निसतारा = पार उतारा।2। हउ हउ = मैं मैं, मैं बड़ा हूँ मैं बड़ा हूँ। करम = काम। ते ते = वह सारे। बंध = बँधन। गलाणे = गले में। मेरी मेरी = ममता। धारी = हृदय में बसाई। ओहा = वह ममता ही। पैरि = पैर में। लोहारी = लोहे की बेड़ी। ऐकु = एक परमात्मा को। पछाणै = गहरी सांझ डालता है। जिसु मथाणै = जिसके माथे पर। भागु = भाग्य, अच्छी किस्मत।3। जि = जो मनुष्य। मनि = मन में। भूला = गलत राह पर पड़ गया। भुलाइआ = गलत राह पर डाल दिया। आपहु = आपने आप से। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला, समझदार। जि = जो कुछ। सु = वह, उस जैसा। वखानी = कहा जाता है। नाम वखानी = नाम पड़ जाता है। सद = सदा।4। अर्थ: हे भाई! सृजनहार प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल। पर, हे भाई! जब गुरू मिल जाए तब ही ये सूझ पड़ती है।1। रहाउ। हे भाई! सर्व-व्यापक परमात्मा ने जगत की उत्पक्ति की है; दिन भी उसने बनाया; रातें भी उसने बनाई, सब कुछ उसने बनाया है। हे भाई! जंगल, (जंगल का) घास, तीनों भवन, पानी (आदि सारे तत्व), चारों वेद, चारों खाणियाँ, सृष्टि के अलग-अलग हिस्से (खण्ड), द्वीप, सारे लोग -ये सारे परमात्मा के हुकम से ही बने हैं।1। हे भाई! परमात्मा ने ही त्रैगुणी माया का पसारा रचा है, कोई नर्कों में हैं, कोई स्वर्गों में हैं। अहंकार के कारण जीव भटकता फिरता है, (जीव का) मन रक्ती भर भी नहीं टिकता। गुरू के बिना (आत्मिक जीवन का) अंधेरा (ही अंधेरा) है। गुरू को मिल के (ही इस अंधेरे में से) पार लांघा जाता है।2। हे भाई! अहंकार के आसरे जीव (अनेकों) कर्म करते हैं, वह सारे कर्म (जीवों के) गले में फंदे बन जाते हैं। जीव अपने हृदय में ममता बसाए रखता है, वह ममता ही जीव के पैरों में लोहे की बेड़ी बन जाती है। हे भाई! जिस मनुष्य के माथे के भाग्य जाग उठते हैं, वह गुरू को मिल के एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है।3। हे भाई! वही मनुष्य प्रभू-चरणों में जुड़ता है जो प्रभू के मन को प्यारा लगता है; वही मनुष्य गलत राह पर पड़ता है जिसे प्रभू स्वयं कुमार्ग पर डालता है। अपने आप ना कोई मूर्ख है ना ही कोई समझदार। परमात्मा जो कुछ जीवों से करवाता है उसके अनुसार ही उसका नाम (मूर्ख अथवा ज्ञानी) पड़ जाता है। हे दास नानक! (कह- हे प्रभू!) तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, तेरी हस्ती के इस पार-उस पार के छोर को तलाशा नहीं जा सकता। मैं तुझसे सदा सदके जाता हूँ।4।1।17। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |