श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मारू महला ५ ॥ मोहनी मोहि लीए त्रै गुनीआ ॥ लोभि विआपी झूठी दुनीआ ॥ मेरी मेरी करि कै संची अंत की बार सगल ले छलीआ ॥१॥ निरभउ निरंकारु दइअलीआ ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपलीआ ॥१॥ रहाउ ॥ एकै स्रमु करि गाडी गडहै ॥ एकहि सुपनै दामु न छडहै ॥ राजु कमाइ करी जिनि थैली ता कै संगि न चंचलि चलीआ ॥२॥ एकहि प्राण पिंड ते पिआरी ॥ एक संची तजि बाप महतारी ॥ सुत मीत भ्रात ते गुहजी ता कै निकटि न होई खलीआ ॥३॥ होइ अउधूत बैठे लाइ तारी ॥ जोगी जती पंडित बीचारी ॥ ग्रिहि मड़ी मसाणी बन महि बसते ऊठि तिना कै लागी पलीआ ॥४॥ काटे बंधन ठाकुरि जा के ॥ हरि हरि नामु बसिओ जीअ ता कै ॥ साधसंगि भए जन मुकते गति पाई नानक नदरि निहलीआ ॥५॥२॥१८॥ {पन्ना 1004}

पद्अर्थ: मोहनी = मोह लेने वाली (माया) ने। मोहि लीऐ = भरमा लिए हैं। त्रैगुनीआ = माया के तीन गुण वाले जीव। लोभि = लोभ में। विआपी = फसी हुई है। झूठी दुनीआ लोभि = नाशवंत जगत के लोभ में। संची = इकट्ठी की। सगल = सारे। छलीआ = ठॅग लिए।1।

दइआलीआ = दयालु। प्रतिपालीआ = पालता है।1। रहाउ।

ऐकै = एक (जीव) ने। स्रमु = श्रम, मेहनत। गाडी = गाड़ दी, दबा दी। गडहै = गड्ढे में। सुपनै = सपने में (भी)। दामु = पैसा, धन। जिनि = जिस ने। संगि = साथ। चंचलि = किसी एक जगह ना टिक सकने वाली।2।

प्राण पिंड ते = प्राणें से शरीर से। तजि = छोड़ के। महतारी = माँ। सुत = पुत्र। भ्रात = भाई। ते = से। गुहजी = छुपा रखी। निकटि = नजदीक।3।

अउधूत = त्यागी। तारी = ताड़ी, समाधि। बीचारी = विचारवान। ग्रिहि = घर में। मसाणी = मसाणों में। बन = जंगल। ऊठि = उठ के। पलीआ = पल्ले।4।

ठाकुर = ठाकुर ने। जा के = जिनके। जीअ ता कै = उनके चिक्त में। साध संगि = गुरू की संगति में। मुकत = माया के बँधनों से आजाद। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। नदरि = मेहर की निगाह। निहलीआ = देखता है।5।

अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा डर-रहित है, जिसका कोई खास स्वरूप बताया नहीं जा सकता, जो दया का घर है, वह सारे जीवों की पालना करता है।1। रहाउ।

(हे भाई! उस परमात्मा की पैदा की हुई) मोहनी माया ने सारे त्रै-गुणी जीवों को अपने वश में किया हुआ है, सारी दुनिया नाशवंत दुनिया के लोभ में फंसी हुई है। सारे जीव (इस माया की) ममता में फस के (इसको) एकत्र करते हैं, पर आखिरी वक्त ये सबको धोखा दे जाती है।1।

हे भाई! कोई तो ऐसा है जो बड़ी मेहनत से कमा के धरती में दबा के रखता है; कोई ऐसा है जो सपने में (भी, भाव, कभी भी इसको) हाथों से नहीं छोड़ता। जिस मनुष्य ने हकूमत करके खजाना जोड़ लिया; ये कभी एक जगह ना टिकने वाली माया उसके साथ भी नहीं जाती।2।

हे भाई! कोई ऐसा मनुष्य है जिसको ये माया प्राणों से शरीर से भी ज्यादा प्यारी लगती है। कोई ऐसा है जो माता-पिता का साथ छोड़ के एकत्र करता है; पुत्रों-मित्रों-भाईयों से छुपा के रखता है, पर ये उसके पास भी नहीं रुकती।3।

हे भाई! कई ऐसे हैं जो त्यागी बन के समाधि लगा के बैठते हैं; कई जोगी हैं, जती हैं ज्ञानी पंण्डित हैं; (पंडित) घर में, (त्यागी) मढ़ी-मसाणों में जंगलों में टिके रहते हैं, पर ये माया उठके उनको भी चिपक जाती है।4।

हे भाई! मालिक-प्रभू ने जिन मनुष्यों के (माया के मोह के) बँधन काट दिए, उनके हृदय में परमात्मा का नाम सदा के लिए आ टिका, वह मनुष्य गुरू की संगति में रह के (माया के मोह के फंदों से) आजाद हो गए। हे नानक! परमात्मा ने उन पर मेहर की निगाह की, और उन्होंने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली।5।2।18।

मारू महला ५ ॥ सिमरहु एकु निरंजन सोऊ ॥ जा ते बिरथा जात न कोऊ ॥ मात गरभ महि जिनि प्रतिपारिआ ॥ जीउ पिंडु दे साजि सवारिआ ॥ सोई बिधाता खिनु खिनु जपीऐ ॥ जिसु सिमरत अवगुण सभि ढकीऐ ॥ चरण कमल उर अंतरि धारहु ॥ बिखिआ बन ते जीउ उधारहु ॥ करण पलाह मिटहि बिललाटा ॥ जपि गोविद भरमु भउ फाटा ॥ साधसंगि विरला को पाए ॥ नानकु ता कै बलि बलि जाए ॥१॥ राम नामु मनि तनि आधारा ॥ जो सिमरै तिस का निसतारा ॥१॥ रहाउ ॥ {पन्ना 1004}

पद्अर्थ: निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = माया के मोह की कालिख) निर्लिप। सोऊ = वही। जा ते = जिस (के दर) से। बिरथा = खाली। जात = जाता। गरभ = पेट। जिनि = जिस ने। प्रतिपारिआ = पालना की। जीउ = प्राण, जिंद। पिंडु = शरीर। दे = दे के। साजि = पैदा करके। ढकीअै = ढका जा सकता है। उर = हृदय। अंतरि = अंदर। बिखिआ = माया। बन = पानी। ते = से। जीउ = जिंद। उधारहु = बचा लो। करण पलाह = (करुणा प्रलाप) तरस पैदा कर सकने वाले विलाप, कीरने, गिड़ गिड़ाना। मिटहि = (बहु वचन) मिट जाते हैं। बिललाटा = विलाप। जपि = जप के। भरमु = भटकना। फाटा = फट जाता है। को = कोई मनुष्य। साध संगि = गुरू की संगति में। नानकु बलि जाऐ = नानक बलिहार जाता है। ता कै = उस (मनुष्य) से।1।

मनि = मन से। तनि = तन से। आधारा = सहारा।

तिस का: संबंधक 'का' के कारण शब्द 'तिसु' की 'ु' की मात्रा हट गई है।

निसतारा = पार उतारा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम को अपने मन में अपने शरीर में (अपनी जिंदगी का) सहारा बनाए रख। जो मनुष्य (नाम) सिमरता है (संसार-समुंद्र से) उस (मनुष्य) का पार-'उतारा हो जाता है।1। रहाउ।

हे भाई! उसी निर्लिप परमात्मा का सिमरन करते रहो, जिस (के दर) से कोई भी जीव खाली नहीं जाता; माँ के पेट में जिस ने पालना की, प्राण और शरीर दे के पैदा करके सुंदर बना दिया।

हे भाई! उसी सृजनहार को हरेक छिन जपना चाहिए, जिसको सिमरते हुए अपने सारे अवगुणों को ढक सकते हैं। हे भाई! परमात्मा के सुंदर चरण (अपने) हृदय में बसाए रखो, और इस तरह माया (सागर के लबालब भरे) पानी से (अपने) प्राणों को बचा लो।

हे भाई! (सिमरन की बरकति से) सारी गिड़-गिड़ाहटें और विलाप मिट जाते हैं, गोबिंद (का नाम) जप के भटकना और डर (का पर्दा) फट जाता है।

पर, हे भाई! कोई विरला मनुष्य गुरू की संगति में रह के नाम प्राप्त करता है। नानक उस मनुष्य से सदा बलिहार जाता है।1।

मिथिआ वसतु सति करि मानी ॥ हितु लाइओ सठ मूड़ अगिआनी ॥ काम क्रोध लोभ मद माता ॥ कउडी बदलै जनमु गवाता ॥ अपना छोडि पराइऐ राता ॥ माइआ मद मन तन संगि जाता ॥ त्रिसन न बूझै करत कलोला ॥ ऊणी आस मिथिआ सभि बोला ॥ आवत इकेला जात इकेला ॥ हम तुम संगि झूठे सभि बोला ॥ पाइ ठगउरी आपि भुलाइओ ॥ नानक किरतु न जाइ मिटाइओ ॥२॥ {पन्ना 1004}

पद्अर्थ: मिथिआ = (नाशवंत) मिथ्या। वसतु = चीज। सति = सदा स्थिर रहने वाली। हितु = प्यार। सठ = शठ, हे दुष्ट! मूढ़ = हे मूर्ख! अगिआनी = हे बेसमझ! मद = नशा। माता = मस्त। बदलै = के बदले में। गवाता = गवा लिया। पराइअै = पराए में। राता = रति हुआ। मन तन संगि = मन के संग तन के संग। जाता = जाता, चलता, दौड़ भाग करता। त्रिसना = तृष्णा। कलोल = खेल तमाशे। करत = करते हुए। ऊणी = पूरी नही। मिथिआ = नाशवंत (माया खातिर ही)। सभि = सारे। हम तुम संगि = सब लोगों के साथ। पाइ = पा के। ठगउरी = ठग बूटी, धतूरा आदि जो ठॅग लोग इस्तेमाल करके परदेसियों को ठॅगते हैं। नानक = हे नानक! किरतु = किया कमाया हुआ, किए कर्मों के संस्कारों का समूह।2।

अर्थ: हे दुष्ट! हे मूर्ख! हे बेसमझ! तूने प्यार डाला नाशवंत पदार्थों के साथ और उसको सदा-स्थिर रहने वाला समझ रहा है। हे मूर्ख! तू काम क्रोध लोभ (आदि विकारों) के नशे में मस्त है, और, इस तरह कौड़ी के बदले में अपना (कीमती मानस) जनम गवा रहा है।

हे मूर्ख! (सिर्फ परमात्मा ही) अपना (असल साथी है, उसको) छोड़ के पराए (हो जाने वाले धन-पदार्थ) के साथ प्यार कर रहा है। तुझे माया का नशा चढ़ा हुआ है, तू मन के पीछे लग के सिर्फ शरीर की खातिर दौड़-भाग करता है। दुनिया के मौज-मेले करते हुए तेरी तृष्णा नहीं मिटती, (तेरी तृप्ति की) आस (कभी) पूरी नहीं होती। नाशवंत माया की खातिर ही तेरी सारी बातें हैं।

हे भाई! जीव इस संसार में अकेला ही आता है और यहाँ से अकेला ही चल पड़ता है; संसारी साथियों के साथ (साथ निबाहने वाले) सारे बोल झूठे ही हो जाते हैं। पर, हे नानक! (जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही (माया के मोह की) ठॅग-बूटी खिला के जीव को गलत रास्ते पर डाल देता है, (जन्म-जन्मांतरों के) किए हुए कर्मों के संस्कारों के समूह को मिटाया नहीं जा सकता।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh