श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पसु पंखी भूत अरु प्रेता ॥ बहु बिधि जोनी फिरत अनेता ॥ जह जानो तह रहनु न पावै ॥ थान बिहून उठि उठि फिरि धावै ॥ मनि तनि बासना बहुतु बिसथारा ॥ अहमेव मूठो बेचारा ॥ अनिक दोख अरु बहुतु सजाई ॥ ता की कीमति कहणु न जाई ॥ प्रभ बिसरत नरक महि पाइआ ॥ तह मात न बंधु न मीत न जाइआ ॥ जिस कउ होत क्रिपाल सुआमी ॥ सो जनु नानक पारगरामी ॥३॥ {पन्ना 1005}

पद्अर्थ: अरु = और। बहु बिधि जोनी = अनेकों तरह की जूनियों में। अनेता = अनेत्रा, अंधा। जह जानो = जिस असल ठिकाने पर जाना है। तह = वहाँ (प्रभू चरणों में)। रहनु न पावै = ठिकाना नहीं मिलता। थानु बिहून = निथावाँ हो के, बेआसरा हो के। उठि = उठ के। धावै = (अनेकों जूनियों में) भटकता है। मनि = मन में। तनि = तन में। बासना = मनो कामना। बिसथारा = पसारा, खिलारा।

अहंमेव = (अहं+एव) मैं ही मैं ही, अहंकार। मूठो = ठगा हुआ। बेचारा = निमाणा। दोख = ऐब। सजाई = सजा, दण्ड। कीमति = मूल्य (दुनियावी पदार्थ जिनके बदले ये सजा खत्म हो सके)। तह = वहाँ नर्क में। जाइआ = स्त्री। कउ = को, पर। पारगरामी = पार लांघ सकता है।3।

अर्थ: हे भाई! (माया के मोह में) अंधा हुआ जीव पशू-पंछी भूत-प्रेत आदि अनेकों जूनियों में भटकता फिरता है; जिस असल ठिकाने पर जाना है वहाँ टिक नहीं सकता, बेआसरा हो के बार-बार उठ के (और-और जूनियों में) भटकता है।

हे भाई! (माया के मोह के कारण) मनुष्य के मन में तन में अनेकों वासनाओं का पसारा पसरा रहता है, अहंकार इस बेचारे के आत्मिक जीवन को लूट लेता है। इसके अंदर ऐब पैदा हो जाते हैं, और उनकी सजा भी बहुत मिलती है (उससे बचने की दुनियावी पदार्थों की कोई) कीमत नहीं बताई जा सकती (किसी भी कीमत से इस सजा से खलासी नहीं हो सकती)।

हे भाई! परमात्मा का नाम भूलने के कारण जीव नर्क में फेंका जाता है, वहाँ ना माँ, ना कोई संबंधी, ना कोई मित्र, ना स्त्री - (कोई भी सहायता नहीं कर सकता)।

हे नानक! (कह- हे भाई!) वह मनुष्य (संसार-समुंद्र से) पार लांघने योग्य हो जाता है जिस पर मालिक-प्रभू मेहरवान होता है।3।

भ्रमत भ्रमत प्रभ सरनी आइआ ॥ दीना नाथ जगत पित माइआ ॥ प्रभ दइआल दुख दरद बिदारण ॥ जिसु भावै तिस ही निसतारण ॥ अंध कूप ते काढनहारा ॥ प्रेम भगति होवत निसतारा ॥ साध रूप अपना तनु धारिआ ॥ महा अगनि ते आपि उबारिआ ॥ जप तप संजम इस ते किछु नाही ॥ आदि अंति प्रभ अगम अगाही ॥ नामु देहि मागै दासु तेरा ॥ हरि जीवन पदु नानक प्रभु मेरा ॥४॥३॥१९॥ {पन्ना 1005}

पद्अर्थ: भ्रमत = भटकता। दीनानाथ = दीनों का नाथ, निमाणों का पति। पित = पिता। माइआ = माँ। बिदारण = नाश करने वाला। जिसु भावै = जो उसे भाए। कूप = कूआँ। ते = से। प्रेम भगति = प्यार भरी भक्ति से। निसतारा = पार उतारा। साध = गुरू। तनु = शरीर। उबारिआ = बचाया। इस ते = इस (जीव) से (संबंधक 'ते' के कारण 'इसु' की 'ु' मात्रा हट गई है)। अगम = अपहॅुंच। अगामी = अगाध। मागै = माँगता है (एक वचन)। जीवन पदु = आत्मिक जीवन का दर्जा।

तिस ही: 'तिसु' की 'सु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! प्रभू दीना नाथ है, जगत का माता-पिता है, दया का घर है, (जीवों के) दुख-दर्द दूर करने वाला है, जीव भटक-भटक के (आखिर उसकी) शरण आता है। हे भाई! जो जीव उस प्रभू को अच्छा लगने लगता है उसको वह (संसार-समुंद्र से) पार लंघा देता है। हे भाई! (संसार-रूप) अंधे कूएँ में से (प्रभू जीव को) निकालने के समर्थ है, प्रभू की प्यार-भरी भक्ति से जीव का पार-उतारा हो जाता है। हे भाई! परमात्मा ने गुरू-रूप अपना शरीर (स्वयं ही सदा) धारण किया है, और जीवों को माया की बड़ी आग से स्वयं ही सदा बचाया है। वरना इस जीव से जप तप (नाम की कमाई) और संजम (शुद्ध आचरण) की मेहनत कुछ भी नहीं हो सकती।

हे प्रभू! जगत के आरम्भ से अंत तक तू ही तू कायम रहने वाला है, तू अपहॅु। च है, तू अथाह है। तेरा दास तेरे दर से तेरा नाम माँगता है।

हे नानक! (कह- हे भाई!) मेरा हरी-प्रभू आत्मिक जीवन का दर्जा (देने वाला) है।4।3।19।

मारू महला ५ ॥ कत कउ डहकावहु लोगा मोहन दीन किरपाई ॥१॥ ऐसी जानि पाई ॥ सरणि सूरो गुर दाता राखै आपि वडाई ॥१॥ रहाउ ॥ भगता का आगिआकारी सदा सदा सुखदाई ॥२॥ अपने कउ किरपा करीअहु इकु नामु धिआई ॥३॥ नानकु दीनु नामु मागै दुतीआ भरमु चुकाई ॥४॥४॥२०॥ {पन्ना 1005}

पद्अर्थ: कत कउ = किस लिए? क्यों? डहकावहु = तुम अपने मन को डोलाते हो। लोगा = हे लोगो! मोहन = सुंदर परमात्मा। दीन = निमाणे। किरपाई = कृपा करता है।1।

अैसी = इस प्रकार। जानि पाई = हमने समझी है। सूरो = शूरवीर। गुर दाता = सबसे बड़ा दाता। वडाई = इज्जत।1। रहाउ।

आगिआकारी = बात मानने वाला।1।

अपने कउ = अपने सेवक पर। धिआई = मैं ध्याऊँ।3।

नानकु दीनु मागै = गरीब नानक माँगता है। दुतीआ = दूसरा। भरमु = भुलेखा। चुकाई = चुका के, दूर करके।4।

अर्थ: हे भाई! मैंने तो ऐसा समझ लिया है कि परमात्मा सबसे बड़ा दाता है, शरण पड़ों की मदद करने वाला सूरमा है, (अपने सेवक की) आप लाज रखता है।1। रहाउ।

हे लोगो! तुम क्यों अपने मन को डोलाते हो? सुंदर प्रभू गरीबों पर दया करने वाला है।1।

हे लोगो! परमात्मा अपने भक्तों की आरजू मानने वाला है, और (उनको) सदा सुख देने वाला है।2।

(हे प्रभू! मैं नानक तेरे दर का सेवक हूँ) अपने (इस) सेवक पर मेहर करनी, मैं (तेरा सेवक) तेरा नाम ही सिमरता रहॅूँ।3।

हे प्रभू! किसी और दूसरे (को तेरे जैसा समझने) का भुलेखा दूर कर के गरीब नानक (तेरे दर से) तेरा नाम माँगता है।4।4।20।

मारू महला ५ ॥ मेरा ठाकुरु अति भारा ॥ मोहि सेवकु बेचारा ॥१॥ मोहनु लालु मेरा प्रीतम मन प्राना ॥ मो कउ देहु दाना ॥१॥ रहाउ ॥ सगले मै देखे जोई ॥ बीजउ अवरु न कोई ॥२॥ जीअन प्रतिपालि समाहै ॥ है होसी आहे ॥३॥ दइआ मोहि कीजै देवा ॥ नानक लागो सेवा ॥४॥५॥२१॥ {पन्ना 1005}

पद्अर्थ: अति भारा = बहुत सारी ताकतों का मालिक। ठाकुरु = मालिक प्रभू। मोहि = मुझे, मैं। बेचारा = निमाणा।1।

मोहनु लालु = सुंदर प्यारा। प्रीतम = हे प्रीतम! प्रीतम मन प्राना = हे मन के प्रीतम! हे मेरे प्राणों के प्रीतम! मो कउ = मुझे। दाना = दान।1। रहाउ।

सगले = सारे। जोई = जोय, खोज के। बीजउ = बीअउ, दूसरा। अवरु = अन्य।2।

जीअन = सारे जीवों को। प्रतिपालि = पालता है। समाहै = संबाहै, रिज़क पहुँचाता है। है = इस वक्त मौजूद है। होसी = आगे भी मौजूद रहेगा। आहे = पहले भी मौजूद था।3।

मोहि = मेरे पर। देवा = हे देव! लगो = लगा रहे।4।

अर्थ: हे मेरे मन के प्यारे! हे मेरे प्राणों के प्यारे! तू मेरा सुंदर प्यारा प्रभू है। मुझे (अपने नाम का) दान बख्श।1। रहाउ।

हे भाई! मेरा मालिक प्रभू बहुत सारी ताकतों का मालिक है। मैं (तो उसके दर पे एक) निमाणा सेवक हूँ।1।

हे भाई! अन्य सारे आसरे खोज के देख लिए हैं, कोई और दूसरा (उस प्रभू के बराबर का) नहीं है।2।

हे भाई! परमात्मा सारे जीवों को पालता है, सबको रोज़ी पहुँचाता है। वह अब भी है, आगे भी कायम रहेगा, पहले भी था।3।

हे नानक! (कह-) हे देव! मेरे पर दया कर, मैं तेरी सेवा-भक्ति में लगा रहूँ।4।5।21।

मारू महला ५ ॥ पतित उधारन तारन बलि बलि बले बलि जाईऐ ॥ ऐसा कोई भेटै संतु जितु हरि हरे हरि धिआईऐ ॥१॥ मो कउ कोइ न जानत कहीअत दासु तुमारा ॥ एहा ओट आधारा ॥१॥ रहाउ ॥ सरब धारन प्रतिपारन इक बिनउ दीना ॥ तुमरी बिधि तुम ही जानहु तुम जल हम मीना ॥२॥ पूरन बिसथीरन सुआमी आहि आइओ पाछै ॥ सगलो भू मंडल खंडल प्रभ तुम ही आछै ॥३॥ अटल अखइओ देवा मोहन अलख अपारा ॥ दानु पावउ संता संगु नानक रेनु दासारा ॥४॥६॥२२॥ {पन्ना 1005}

पद्अर्थ: पतित उधारन = विकारों में गिरे हुओं को विकारों से उबारने वाला। तारन = (संसार समुंद्र से) पार लंघाने वाला। बलि जाईअै = कुर्बान जाना चाहिए। भेटै = मिल जाए। जितु = जिस (संत) से। धिआईअै = ध्याया जा सके।1।

मो कउ = मुझे। कहीअत = कहलवाता हॅूँ। ओट = सहारा। आधार = आसरा।1। रहाउ।

सरब धारन = हे सभी को सहारा देने वाले! सरब प्रतिपारन = हे सबको पालने वाले! बिनउ = विनती। दीना = मैं निमाणा। बिधि = जुगति, ढंग। हम = हम जीव। मीना = मछली।2।

पूरन = हे सर्व व्यापक! बिसथीरन = हे सारे पसारे वाले! आहि = तमन्ना से। पाछै = तेरी शरण। भू = धरती। भू मंडल = धरतियों के मण्डल। भू खंडल = धरती के हिस्से। आछै = हैं।3।

अखइओ = हे नाश रहित! देवा = हे प्रकाश रूप! पावउ = मैं पाऊँ। संगु = साथ। रेनु = चरण धूड़। रेनु दासारा = तेरे दासों की चरण धूड़।4।

अर्थ: हे प्रभू! मुझे (तो) कोई नहीं जानता, पर मैं तेरा दास कहलवाता हूँ। मुझे यही सहारा है, मुझे यही आसरा है (कि तू अपने दास की लाज रखेगा)।1। रहाउ।

हे भाई! विकारियों को बचाने वाले और (संसार-समुंद्र से) पार लंघाने वाले परमात्मा से सदा ही बलिहार जाना चाहिए, (हर वक्त यही प्रार्थना करनी चाहिए कि) कोई ऐसा संत मिल जाए जिससे सदा ही परमात्मा का सिमरन किया जा सके।1।

हे सारे जीवों को सहारा देने वाले! हे सबको पालने वाले! मैं निमाणा एक विनती करता हूँ कि तू पानी हो और मैं तेरी मछली बना रहूँ (पर ये कैसे संभव हो सके- ये) जुगति तू स्वयं ही जानता है।2।

हे सर्व-व्यापक! हे सारे पसारे के मालिक! मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ। यह सारा आकार- धरती, धरतियों के चक्कर, धरती के हिस्से- ये सब कुछ तू स्वयं ही स्वयं है (तूने अपने आप से पैदा किए हैं)।3।

हे नानक! (कह-) हे सदा कायम रहने वाले! हे अविनाशी! हे प्रकाश रूप! हे सुंदर स्वरूप वाले! हे अलख! हे बेअंत! तेरे संतों की संगति और दासों की चरण-धूड़ - (मेहर कर) मैं ये ख़ैर प्राप्त कर सकूँ।4।6।22।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh