श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1010 मारू महला १ ॥ सबदि मरै ता मारि मरु भागो किसु पहि जाउ ॥ जिस कै डरि भै भागीऐ अम्रितु ता को नाउ ॥ मारहि राखहि एकु तू बीजउ नाही थाउ ॥१॥ बाबा मै कुचीलु काचउ मतिहीन ॥ नाम बिना को कछु नही गुरि पूरै पूरी मति कीन ॥१॥ रहाउ ॥ अवगणि सुभर गुण नही बिनु गुण किउ घरि जाउ ॥ सहजि सबदि सुखु ऊपजै बिनु भागा धनु नाहि ॥ जिन कै नामु न मनि वसै से बाधे दूख सहाहि ॥२॥ जिनी नामु विसारिआ से कितु आए संसारि ॥ आगै पाछै सुखु नही गाडे लादे छारु ॥ विछुड़िआ मेला नही दूखु घणो जम दुआरि ॥३॥ अगै किआ जाणा नाहि मै भूले तू समझाइ ॥ भूले मारगु जो दसे तिस कै लागउ पाइ ॥ गुर बिनु दाता को नही कीमति कहणु न जाइ ॥४॥ साजनु देखा ता गलि मिला साचु पठाइओ लेखु ॥ मुखि धिमाणै धन खड़ी गुरमुखि आखी देखु ॥ तुधु भावै तू मनि वसहि नदरी करमि विसेखु ॥५॥ भूख पिआसो जे भवै किआ तिसु मागउ देइ ॥ बीजउ सूझै को नही मनि तनि पूरनु देइ ॥ जिनि कीआ तिनि देखिआ आपि वडाई देइ ॥६॥ नगरी नाइकु नवतनो बालकु लील अनूपु ॥ नारि न पुरखु न पंखणू साचउ चतुरु सरूपु ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ तू दीपकु तू धूपु ॥७॥ गीत साद चाखे सुणे बाद साद तनि रोगु ॥ सचु भावै साचउ चवै छूटै सोग विजोगु ॥ नानक नामु न वीसरै जो तिसु भावै सु होगु ॥८॥३॥ {पन्ना 1010} पद्अर्थ: मरै = स्वै भाव से मरता है। मारि = मार लेता है। मरु = मौत, मौत का डर। भागो = भागने से। पहि = पास। जाउ = मैं जाऊँ। जिस कै डरि = जिस परमात्मा के डर से। जिस कै भै = जिस प्रभू के डर में रहने से। भागीअै = भाग सकते हैं, बच सकते हैं (मौत के डर से)। अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन देने वाला। ता को = उस (प्रभू) का। बीजउ = दूसरा, कोई और।1। बाबा = हे प्रभू! कुचीलु = गंदा। काचउ = कच्चा, कमजोर। मति हीन = अकल से हीन। को = कोई जीव। कछु नही = किसी लायक नहीं। गुरि = गुरू ने। पूरी मति = गलती ना करने वाली अकल।1। रहाउ। अवगणि = अवगुण में। सुभर = नाको नाक। घरि = प्रभू के घर में। जाउ = मैं जाऊँ। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में। धनु = परमात्मा का नाम धन। बाधे = पापों में बँधे हुए।2। कितु = किस लिए? संसारि = संसार में। आगै पाछै = परलोक में और इस लोक में। गाडे = गाड़े। छारु = राख। घणे = बहुत। दुआरि = द्वार पर।3। जाणा नाहि = मैं नहीं जानता। मै = मुझे। मारगु = रास्ता। लागउ = मैं लगता हूँ। पाइ = पैरों पर।4। साजनु = प्रीतम प्रभू। गलि = गले से। साचु = सदा स्थिर प्रभू का नाम। लेखु = चिट्ठी। मुखि धिमाणै = झुके हुए मुँह, सिर झुका के। धन = जीव स्त्री। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। देखु = देख ले। नदरी = मेहर की निगाह से। करमि = बख्शिश से। बिसेखु = विशेषता, वडिआई।5। भूख पिआसे = भूखा प्यासा। मागउ = मैं माँगू। किआ देइ = वह क्या दे सकता है? पूरनु = व्यापक प्रभू। जिनि = जिस प्रभू ने। देखिआ = संभाल की है।6। नगरी नाइकु = शरीर नगरी का मालिक। नवतनो = नया। बालकु = बाल स्वभाव वाला, किसी के साथ वैर-विरोध ना रखने वाला। लील अनूपु = अनोखी खेलें खेलने वाला। पंखणू = पंछी। साचउ = सदा स्थिर रहने वाला। चतुरु सरूपु = बुद्धि का पुँज। दीपकु = प्रकाश देने वाला। धूपु = सुगंधि देने वाला।7। बाद = बाजे, गीत। तनि = तन में। सचु = सदा स्थिर प्रभू में। साचउ = सदा स्थिर रहने वाला (नाम) ही। चवै = बोलता है। सोग = शोक, चिंता। विजोगु = विछोड़ा। होगु = होगा।8। अर्थ: हे प्रभू! (तेरे नाम के बिना) मैं गंदा हूँ, कमजोर-दिल हूँ, बुद्धि-हीन हूँ। तेरे नाम के बिना कोई भी जीव किसी भी लायक नहीं (मति-हीन है)। (जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल गया) पूरे गुरू ने उसको वह मति दे दी जिससे वह जीवन-यात्रा में बिल्कुल गलती नहीं ना खाए।1। रहाउ। (जब मनुष्य गुरू के) शबद में (जुड़ के) स्वै भाव को मारता है तब वह मौत के डर को मार लेता है। (वैसे मौत से) भाग के मैं किस के पास जा सकता हॅूँ? जिस परमात्मा के डर में रहने से अदब में रहने से (मौत के डर से) बचा जा सकता है (उसका नाम जपना चाहिए), उसका नाम अटल आत्मिक जीवन देने वाला है। हे प्रभू! तू स्वयं ही मारता है तू खुद ही रक्षा करता है। तेरे बिना और कोई जगह नहीं (जो मार सके अथवा मौत से बचा सके)।1। (प्रभू के नाम से टूट के) मैं अवगुणों से नाको-नाक भर जाता हूँ, मेरे में गुण नहीं पैदा होते, और गुणों के बिना मैं (परमात्मा के) देश में कैसे पहुँच सकता हूँ? जो मनुष्य अडोल आत्मिक अवस्था में टिकता है गुरू के शबद में जुड़ता है उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है, पर यह नाम-धन किस्मत के बिना नहीं मिलता। जिनके मन में परमात्मा का नाम नहीं बसता, वे अवगुणों से बँधे हुए दुख सहते हैं।2। जिन लोगों ने परमात्मा का नाम भुला दिया वे संसार में किसलिए आए? उन्हें ना परलोक में सुख, ना इस लोक में सुख, वे तो राख से लदी हुई गाड़ियाँ हैं (उनके शरीर विकारों से भरे हुए हैं)। वे परमात्मा से विछुड़े हुए हैं, परमात्मा के साथ उनको मिलाप नसीब नहीं होता, वे जमराज के डर से काफी दुख सहते हैं।3। हे प्रभू! मुझे ये समझ नहीं कि तेरे नाम से टूट के मेरे साथ क्या होगा। मुझ भूले हुए को, हे प्रभू! तू स्वयं बुद्धि दे। मुझ गलत राह पर पड़े हुए को जो कोई रास्ता बताएगा, मैं उसके पैरों पर लगूँगा। (सही रास्ते की) दाति देने वाला गुरू के बिना और कोई नहीं है, गुरू की बख्शी हुई इस दाति का मूल्य नहीं डाला जा सकता।4। (गुरू की शरण पड़ कर) मैं सदा-स्थिर प्रभू का सिमरन कर रही हूँ, ये सिमरन-रूपी चिट्ठी मैंने (प्रभू-पति को) भेजी है, जब उस सज्जन-प्रभू का मैं दर्शन करूँगी तब मैं उसके गले से लग जाऊँगी। (प्रभू की याद से टूट के) हे बेहाल हो के खड़ी जीव स्त्री! तू भी गुरू की शरण पड़, और अपनी आँखों से उसका दर्शन कर ले। (पर, हे प्रभू! हम जीवों के भी क्या वश?) अगर तुझे अच्छा लगे तो तू जीवों के मन आ के प्रकट होता है, तेरी मेहर की निगाह से तेरी बख्शिश से तेरे दशर्नों की वडिआई मिलती है।5। अगर कोई मनुष्य स्वयं ही (माया के मोह में) भूखा-प्यासा भटक रहा हो, मैं उससे क्या (नाम की दाति) माँग सकता हॅूँ? वह मुझे क्या दे सकता है? मुझे तो और कोई (दाता) नहीं सूझता, (हाँ,) वही परमात्मा दे सकता है जो जीवों के मन में तन में भरपूर है। जिस परमात्मा ने यह जगत रचा है उसने स्वयं ही इसकी संभाल करनी है। वह स्वयं ही अपने (नाम की दाति की) वडिआई देता है।6। परमात्मा इन शरीरों का मालिक है, (जीवों को प्यार करने में वह हर वक्त) नया है, बालक (की तरह वह निर्वैर) है, वह अनोखे करिश्मे करने में समर्थ है। परमात्मा सदा-स्थिर रहने वाला है, बुद्धि का पुँज है, (स्त्री मर्द पंछी आदि सभी में मौजूद है) पर वह कोई खास स्त्री नहीं, कोई खास मर्द नहीं, कोई खास पंछी नहीं। जगत में वही कुछ हो रहा है जो उसको भाता है। हे प्रभू! तू सब जीवों को प्रकाश (ज्ञान) देने वाला है, तू सबको सुगन्धि (मीठा स्वभाव) देने वाला है।7। दुनियाँ के गीत सुन के देखे हैं, स्वाद चख के देखे हैं; ये गीत और स्वाद शरीर के रोग ही पैदा करते हैं। जिस मनुष्य को सदा-स्थिर प्रभू प्यारा लगता है जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू का नाम सिमरता है, उसका (प्रभू से) विछोड़ा समाप्त हो जाता है, उसकी चिंता दूर हो जाती है। हे नानक! जिस मनुष्य को प्रभू का नाम नहीं भूलता, उसको ये यकीन बन जाता है कि जगत में वही कुछ होता है जो प्रभू को पसन्द आता है।8।3। मारू महला १ ॥ साची कार कमावणी होरि लालच बादि ॥ इहु मनु साचै मोहिआ जिहवा सचि सादि ॥ बिनु नावै को रसु नही होरि चलहि बिखु लादि ॥१॥ ऐसा लाला मेरे लाल को सुणि खसम हमारे ॥ जिउ फुरमावहि तिउ चला सचु लाल पिआरे ॥१॥ रहाउ ॥ अनदिनु लाले चाकरी गोले सिरि मीरा ॥ गुर बचनी मनु वेचिआ सबदि मनु धीरा ॥ गुर पूरे साबासि है काटै मन पीरा ॥२॥ लाला गोला धणी को किआ कहउ वडिआईऐ ॥ भाणै बखसे पूरा धणी सचु कार कमाईऐ ॥ विछुड़िआ कउ मेलि लए गुर कउ बलि जाईऐ ॥३॥ लाले गोले मति खरी गुर की मति नीकी ॥ साची सुरति सुहावणी मनमुख मति फीकी ॥ मनु तनु तेरा तू प्रभू सचु धीरक धुर की ॥४॥ साचै बैसणु उठणा सचु भोजनु भाखिआ ॥ चिति सचै वितो सचा साचा रसु चाखिआ ॥ साचै घरि साचै रखे गुर बचनि सुभाखिआ ॥५॥ मनमुख कउ आलसु घणो फाथे ओजाड़ी ॥ फाथा चुगै नित चोगड़ी लगि बंधु विगाड़ी ॥ गुर परसादी मुकतु होइ साचे निज ताड़ी ॥६॥ अनहति लाला बेधिआ प्रभ हेति पिआरी ॥ बिनु साचे जीउ जलि बलउ झूठे वेकारी ॥ बादि कारा सभि छोडीआ साची तरु तारी ॥७॥ जिनी नामु विसारिआ तिना ठउर न ठाउ ॥ लालै लालचु तिआगिआ पाइआ हरि नाउ ॥ तू बखसहि ता मेलि लैहि नानक बलि जाउ ॥८॥४॥ {पन्ना 1010-1011} पद्अर्थ: साची = सदा स्थिर रहने वाली, जिसमें कोई कमी ना आऐ। होरि = (शब्द 'होर' का बहुवचन) (सिमरन के बिना) बाकी के। बादि = व्यर्थ। साचै = सदा स्थिर प्रभू ने। मोहिआ = वश में कर रखा है। जिहवा = जीभ। सचि = सदा स्थिर प्रभू (के सिमरन) में। सादि = स्वाद में, आनंद में। को = कोई। होरि = (जो नाम रस से वंचित रहते हैं) वे लोग। लादि = लाद के, इकट्ठा करके।1। लाला = गुलाम, सेवक। लाल को = लाल का, प्यारे प्रभू का। खसम = हे पति! चला = मैं चलता हूँ। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। लाल = हे लाल!।1। अनदिनु = हर रोज। गोले सिरि = गुलाम के सिर पर। मीरा = मालिक (अमीर), सरदार। धीरा = धीरज पकड़ता है। मन धीरा = मन की पीड़ा।2। धणी के = मालिक का। कहउ = मैं कहूँ। पूरा = सब ताकतों का मालिक। सचु = सदा स्थिर प्रभू का सिमरन। गुर कउ = गुरू से। बलि = बलिहार, कुर्बान।3। खरी = अच्छी। नीकी = सोहणी। फीकी = बेस्वादी। सचु = सदा स्थिर। धुर की = धर से, अपनी दरगाह से।4। साचै = सदा स्थिर प्रभू में। सचु = सदा स्थिर प्रभू का सिमरन। भाखिआ = बोली। चिहित = चिक्त में। सचै = सच्चे की (याद)। वितो = विक्त, धन। साचै घरि = सदा स्थिर रहने वाले घर में। बचनि = वचनों से।5। घणो = बहुत। चोगड़ी = कोझी चोग। लगि = (माया के मोह में) लग के। बंधु = (परमात्मा के साथ) संबंध। मुकतु = आजाद, स्वतंत्र। निज = अपनी। ताड़ी = सुरति।6। अनहति = नाश रहित प्रभू में। हेति = हित में, प्रेम में। बेधिआ = भेदा रहता है। जीउ = जिंद। जलि बलउ = जल के समाप्त हो जाए। साची = सदा स्थिर प्रभू की भक्ति। तरु = (तर: a ferry boat) बेड़ी। तारी = (तारिन् = enabling to cross) पार लंघाने के समर्थ।7। ठउरु = ठिकाना। ठाउ = जगह। लालै = सेवक ने। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ।8। अर्थ: हे मेरे पति! हे मेरे प्यारे लाल! (मेरी आरज़ू) सुन। मैं अपने लाल का (भाव, तेरा) ऐसा सेवक-ग़ुलाम हूँ कि (तू) जैसे हुकम करता है, मैं वैसे ही (जीवन-राह पर) चलता हूँ। तू ही सदा कायम रहने वाला है।1। रहाउ। (प्रभू-मालिक का गुलाम) सदा-स्थिर प्रभू की भक्ति की कार करता है, (नाम-सिमरन के बिना) बाकी के लालच उसको व्यर्थ (दिखाई देते) हैं। सदा-स्थिर प्रभू ने अपने सेवक का मन प्रेम-वश किया हुआ है (इस वास्ते सेवक की) जीभ सदा-स्थिर नाम-सिमरन के स्वाद में (मगन रहती) है। (सेवक को) प्रभू के नाम के बिना और कोई रस (आकर्षित) नहीं (करता)। (सेवक को निष्चय है कि नाम-रस से वंचित रहने वाले) लोग वह चीज इकट्ठी करके ले जाते हैं जो आत्मिक जीवन के लिए जहर है।1। सेवक ने हर रोज (हर वक्त) परमात्मा की भक्ति की सेवा ही संभाली हुई है, सेवक को अपने सिर पर मालिक-प्रभू (खड़ा दिखाई देता) है। सेवक ने अपना मन गुरू के वचनों से बेच दिया है, गुरू के शबद में (टिक के) सेवक का मन धैर्य धरता है। सेवक पूरे गुरू को धन्य-धन्य कहता है जो उसके मन की पीड़ा दूर करता है।2। जो मनुष्य मालिक प्रभू का सेवक-गुलाम बन जाता है मैं उसकी क्या महिमा कह सकता हूँ? वह सब ताकतों का मालिक प्रभू अपनी रजा में (अपने सेवक पर) बख्शिश करता है (जिसकी बरकति से सेवक) नाम-सिमरन (की) कार करता रहता है। सेवक अपने गुरू से सदा कुर्बान जाता है जो विछुड़े जीव को परमात्मा के चरणों में मिला लेता है।3। गुरू की सोहणी मति ले के सेवक-गुलाम की बुद्धि भी बढ़िया हो जाती है, उसकी सुरति सदा-स्थिर भगती में टिक के सुंदर हो जाती है। पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की मति उसको (परमात्मा से दूर ले जाने, फीका करने) के रास्ते पर डालने वाली होती है। (पर, हे प्रभू! जीवों के क्या वश? जीवों को यह) मन और शरीर तेरा ही दिया हुआ है, हे प्रभू! तू सदा-स्थिर रहने वाला है, तू ही अपनी धुर-दरगाह से जीवों को (सिमरन की) टेक देने वाला है।4। (सेवक का) उठना-बैठना (सदा ही) सदा-स्थिर प्रभू (की याद) में रहता है, सिमरन ही उसकी (आत्मिक) खुराक है सिमरन ही उसकी बोली है। सेवक के चिक्त में सदा-स्थिर प्रभू (की याद) टिकी रहती है, सदा-स्थिर प्रभू का नाम ही उसका धन है, यही रस सदा चखता रहता है। (सेवक) सदा-स्थिर प्रभू के घर में टिकाए रखता है।5। पर अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे को (नाम-सिमरन से) बहुत आलस रहता है, वह अपने मन के सूनेपन में ही फसा रहता है। (नाम से सूने मन की अगुवाई में) फँसा हुआ मनमुख नित्य (माया-मोह की) कोझी चोग चुगता है, (अपने मन के पीछे) लग के परमात्म से अपना संबंध खराब कर लेता है। (अपने मन की इस गुलामी में से मनमुख भी) गुरू की कृपा से स्वतंत्र हो के सदा-स्थिर प्रभू में अपनी सुरति जोड़ लेता है।6। सेवक नाश-रहित प्रभू की याद में टिका रहता है, प्रभू के प्यार में (उसका मन) भेदा रहता है, (सेवक प्रभू-चरणों से) प्यार जोड़ता है। (सेवक को निष्चय है कि) झूठे विकारी लोगों की जिंद सदा-स्थिर प्रभू की याद से टूट के (विकारों में ही) जल के खत्म हो जाती है। (इस वास्ते) सेवक मोह-माया की व्यर्थ के कार्य-व्यवहार त्याग देता है। परमात्मा की भक्ति (सेवक के लिए संसार-समुंद्र में से) तैराने वाली समर्थ बेड़ी है।7। जिन्होंने प्रभू का नाम बिसार दिया उन्हें आत्मिक शांति के लिए कोई और जगह नहीं मिलती। सेवक ने माया का लालच त्याग दिया है, और परमात्मा का नाम-धन पा लिया है। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) मैं तुझसे सदके जाता हूँ। तू स्वयं ही मेहर करे तो जीवों को (अपने चरणों में) मिलाए।8।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |