श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1009 मारू महला १ ॥ बिखु बोहिथा लादिआ दीआ समुंद मंझारि ॥ कंधी दिसि न आवई ना उरवारु न पारु ॥ वंझी हाथि न खेवटू जलु सागरु असरालु ॥१॥ बाबा जगु फाथा महा जालि ॥ गुर परसादी उबरे सचा नामु समालि ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरू है बोहिथा सबदि लंघावणहारु ॥ तिथै पवणु न पावको ना जलु ना आकारु ॥ तिथै सचा सचि नाइ भवजल तारणहारु ॥२॥ गुरमुखि लंघे से पारि पए सचे सिउ लिव लाइ ॥ आवा गउणु निवारिआ जोती जोति मिलाइ ॥ गुरमती सहजु ऊपजै सचे रहै समाइ ॥३॥ सपु पिड़ाई पाईऐ बिखु अंतरि मनि रोसु ॥ पूरबि लिखिआ पाईऐ किस नो दीजै दोसु ॥ गुरमुखि गारड़ु जे सुणे मंने नाउ संतोसु ॥४॥ मागरमछु फहाईऐ कुंडी जालु वताइ ॥ दुरमति फाथा फाहीऐ फिरि फिरि पछोताइ ॥ जमण मरणु न सुझई किरतु न मेटिआ जाइ ॥५॥ हउमै बिखु पाइ जगतु उपाइआ सबदु वसै बिखु जाइ ॥ जरा जोहि न सकई सचि रहै लिव लाइ ॥ जीवन मुकतु सो आखीऐ जिसु विचहु हउमै जाइ ॥६॥ धंधै धावत जगु बाधिआ ना बूझै वीचारु ॥ जमण मरणु विसारिआ मनमुख मुगधु गवारु ॥ गुरि राखे से उबरे सचा सबदु वीचारि ॥७॥ सूहटु पिंजरि प्रेम कै बोलै बोलणहारु ॥ सचु चुगै अम्रितु पीऐ उडै त एका वार ॥ गुरि मिलिऐ खसमु पछाणीऐ कहु नानक मोख दुआरु ॥८॥२॥ {पन्ना 1009-1010} पद्अर्थ: बोहिथा = जहाज, बेड़ा। दीआ = ठेल दिया। मंझारि = बीच में। कंधी = किनारा। उरवारु = इस पार। वंझी = वंझ, डंडा, पतवार। हाथि = हाथ में। खेवटु = मल्लाह। असरालु = भयानक।1। बाबा = हे भाई! जालि = जाल में। परसादी = कृपा से। समालि = संभाल के।1। रहाउ। सबदि = शबद में (जोड़ के)। तिथै = उस आत्मिक अवस्था में, उस जगह। पावको = आग। आकारु = (दिखाई देता) जगत। नाइ = नाम में। सचि नाइ = सदा स्थिर नाम में (जोड़ के)।2। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। आवागउणु = पैदा होना मरना, जनम मरन का चक्कर। निवारिआ = दूर कर दिया। सहजु = अडोल आत्मिक अवस्था।3। पिड़ाई = पटारी में। मनि = मन में। रोसु = क्रोध। दीजै = दिया जाए। गारुड़ ु = (साँप के जहर को दूर करने वाला) गरुड़ मंत्र। संतोसु = संतोख, आत्मिक ठंड, शांति।4। फहाईअै = फसा लेते हैं। वताइ = पा के। फाथा = फसा हुआ। फाहीअै = फस जाता है। किरतु = किए हुए कर्मों के संस्कारों का समूह।5। बिखु = जहर। जाइ = दूर हो जाता है। जरा = बुढ़ापा। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। मुकतु = विकारों से आजाद।6। धंधै = धंधे में। मुगधु = मूर्ख। गुरि = गुरू ने। वीचारि = विचार के। (नोट: शब्द 'वीचारु' और 'वीचारि' में फर्क है)। सूहटु = तोता। पिंजरि = पिंजरे में। पीअै = पीता है। गुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। मोख = विकारों से निजात। दुआरु = दरवाजा।8। अर्थ: हे भाई! जगत (माया मोह के) बहुत बड़े जाल में फंसा हुआ है। (इस जाल में) जीवित वे निकलते हैं जो गुरू की मेहर से सदा-स्थिर प्रभू का नाम संभालते हैं।1। रहाउ। जगत ने अपनी जिंदगी का बेड़ा माया के जहर से लादा हुआ है, और इसको संसार-समुंद्र में ठेल दिया हुआ है। (संसार का) किनारा दिखाई नहीं देता, ना इस पार का ना उस पार का। ना ही (मुसाफिर के) हाथ में वंझ है, ना (बेड़े को चलाने वाला कोई) मल्लाह है। (जिस समुंद्र में से जहाज गुजर रहा है वह) समुंद्र भयानक है (उस का ठाठा मारता) पानी डरावना है।1। गुरू जहाज है, गुरू अपने शबद के द्वारा (जीव मुसाफिर को संसार-समुंद्र में से) पार लंघाने के समर्थ है, (गुरू जिस जगह जिस आत्मिक अवस्था में पहुँचा देता है) वहाँ ना हवा ना आग ना पानी ना ये सब कुछ जो दिखाई दे रहा है (कोई प्रभाव नहीं डाल सकता)। उस अवस्था में पहुँचा हुआ जीव सदा-स्थिर प्रभू के नाम में लीन होता है जो जीव, संसार-समुंद्र से पार लंघाने की ताकत रखता है।2। जो लोग गुरू की शरण पड़ कर (इस समुंद्र में से) गुजरते हैं, वे सदा-स्थिर परमात्मा (के चरणों) में सुरति जोड़ के उस पार किनारे पर जा पहुँचते हैं। (गुरू) उनकी ज्योति प्रभू की ज्योति में मिल के उनका जनम-मरण का चक्कर समाप्त कर देता है। गुरू की शिक्षा ले के जिस मनुष्य के अंदर अडोल आत्मिक अवस्था पैदा होती है वह सदा-स्थिर प्रभू में लीन रहता है।3। अगर साँप को पिटारी में डाल दें तो उसका जहर उसके अंदर ही टिका रहता है (दूसरों को डंक मारने के लिए) गुस्सा भी उसके मन में मौजूद रहता है (मनुष्य का मन, जैसे, साँप है। किसी धार्मिक भेष से मन का बुरा स्वभाव बदल नहीं सकता), पिछले किए कर्मों के संस्कारों के संग्रह का फल भोगना ही पड़ता है, किसी जीव को (उसके द्वारा किसी की बुराई के बारे में) दोष नहीं दिया जा सकता। अगर मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (मन रूपी साँप को वश में करने वाला) गरुड़ मंत्र (गुरू से) सुन ले, परमात्मा का नाम सुनने की आदत डाल ले तो उसके अंदर शांति पैदा हो जाती है।4। (दरिआ में) जाल डाल के कुंढी से मगरमछ फसा लेते हैं, वैसे ही बुरी मति में फंसा हुआ जीव माया के मोह में काबू आ जाता है (विकार करता है और) बार-बार पछताता (भी) है। उसको ये सूझता ही नहीं कि (इन विकारों के कारण) जनम-मरण का चक्कर व्यापेगा। (पर उसके भी क्या वश?) पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह (जो जीव के मन में मौजूद रहता है) मिटाया नहीं जा सकता।5। ईश्वर ने जीवों के अंदर अहंकार का जहर डाल के जगत पैदा कर दिया है। जिस जीव के हृदय में गुरू का शबद बस जाता है उसका यह जहर दूर हो जाता है। (वह एक ऐसी आत्मिक अवस्था में पहुँचता है जिसको) बुढ़ापा छू नहीं सकता, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा में सुरति जोड़े रखता है। जिस मनुष्य के अंदर से अहंकार दूर हो जाए उसकी बाबत कहा जा सकता है कि वह सांसारिक जीवन जीते हुए ही माया के बँधनों से आजाद है।6। दुनिया के कार्य-व्यवहार में दौड़-भाग करता हुआ मनुष्य माया के मोह में बँध जाता है, वह (इसमें से निकलने की कोई) सोच सोच ही नहीं सकता। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य ऐसा मूर्ख और बुद्धू बन जाता है कि वह जनम-मरण का चक्कर भुला ही बैठता है। जिनकी रक्षा गुरू ने की, वे सच्चे शबद को अपने सोच-मण्डल में बसा के (मोह की जंजीरों में से) बच निकले।7। (तोता अपने मालिक के पिंजरे में पड़ कर वही बोली बोलता है जो मालिक सिखाता है, मालिक वह बोली सुन के तोते पर खुश होता है) जो जीव-तोता प्रभू के प्रेम के पिंजरे में पड़ कर वह बोल बोलता है जो इसके अंदर बोलणहार प्रभू को पसंद है, तो वह जीव-तोता सदा-स्थिर नाम की चोग चुगता है नाम-अमृत पीता है। (शरीर पिंजरे को सदा के लिए) एक बार ही त्याग जाता है (बार-बार जनम मरण में नहीं पड़ता)। हे नानक! कह- अगर गुरू मिल जाए तो पति-परमात्मा के साथ गहरी सांझ पड़ जाती है, और माया के मोह से खलासी का दरवाजा मिल जाता है।8।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |