श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1008 मारू महला ५ ॥ वैदो न वाई भैणो न भाई एको सहाई रामु हे ॥१॥ कीता जिसो होवै पापां मलो धोवै सो सिमरहु परधानु हे ॥२॥ घटि घटे वासी सरब निवासी असथिरु जा का थानु हे ॥३॥ आवै न जावै संगे समावै पूरन जा का कामु हे ॥४॥ भगत जना का राखणहारा ॥ संत जीवहि जपि प्रान अधारा ॥ करन कारन समरथु सुआमी नानकु तिसु कुरबानु हे ॥५॥२॥३२॥ {पन्ना 1008} पद्अर्थ: वैदो = वैद्य, हकीम। वैदो न वाई = ना कोई वैद्य ना ही किसी वैद्य की दवा। वाई = दवाई। सहाई = मदद करने वाला।1। जिसो = जिसु, जिस का। मलो = मैल। परधानु = शिरोमणि।2। घटि घटे = घटि घटि, हरेक शरीर में। वासी = बसने वाला। असथिरु = सदा कायम रहने वाला। थानु = स्थान, ठिकाना।3। आवै न जावै = ना पैदा होता है ना मरता है। संगे = (हरेक के) साथ ही। समावै = गुप्त बसता है। पूरन = पूर्ण, मुकम्मल, अभूल। कामु = काम।4। जीवहि = (बहुवचन) जीते हैं। जपि = जप के। प्रान अधारा = प्राणों का आसरा। करन कारन = जगत का मूल (करन = सृष्टि)। समरथु = सब ताकतों के मालिक। तिसु = उससे। कुरबानु = सदके। हे = है।5। अर्थ: हे भाई! (दुख-दर्द के समय) सिर्फ एक परमात्मा ही मदद करने वाला होता है। ना कोई वैद्य ना ही किसी वैद्य की दवाई; ना कोई बहन ना ही कोई भाई- कोई भी मददगार नहीं होता।1। हे भाई! उस परमात्मा का सिमरन करते रहो जिसका किया हरेक काम (जगत में) हो रहा है, जो (जीवों के) पापों की मैल धोता है। हे भाई! वह परमात्मा ही (जगत में) शिरोमणि है।2। हे भाई! (उस परमात्मा का ही सिमरन करो) जिसका आसन सदा अडोल रहने वाला है, जो हरेक शरीर में बसता है, जो सब जीवों में निवास रखने वाला है।3। हे भाई! (उसी परमात्मा का ही सिमरन करो) जिसका हरेक काम मुकम्मल (अभूल) है, जो ना पैदा होता है ना मरता है, पर हरेक जीव के साथ गुप्त बसता है।4। हे भाई! वह परमात्मा अपने भक्तों की रक्षा करने वाला है, वह हरेक के प्राणों का आसरा है। संत जन (उसका नाम) जप के आत्मिक जीवन हासिल करते रहते हैं। वह परमात्मा इस जगत-रचना का मूल है, सारी ताकतों का मालिक है, सब का पति है। हे भाई! नानक (सदा) उससे बलिहार जाता है।5।2।32। नोट: मारू राग में 'महला ५' के 32 शबद हैं। 'महला ३' के 5 शबद और 'महला ४' के 8 शबद हैं। गुरू नानक देव जी के 12 शबद हैं। कुल वेरवा इस प्रकार है; ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मारू महला ९ ॥ हरि को नामु सदा सुखदाई ॥ जा कउ सिमरि अजामलु उधरिओ गनिका हू गति पाई ॥१॥ रहाउ ॥ पंचाली कउ राज सभा महि राम नाम सुधि आई ॥ ता को दूखु हरिओ करुणा मै अपनी पैज बढाई ॥१॥ जिह नर जसु किरपा निधि गाइओ ता कउ भइओ सहाई ॥ कहु नानक मै इही भरोसै गही आनि सरनाई ॥२॥१॥ {पन्ना 1008} पद्अर्थ: को = का। सुखदाई = सुखद, आनंद देने वाला है। कउ = को। सिमरि = सिमर के। अजामलु = (इसने एक महात्मा के कहने पर अपने पुत्र का नाम 'नारायण' रखा था। 'नारायण, नारायण' कहते कहते सचमुच नारायण परमात्मा से इसका प्यार बन गया)। उधरिओ = विकारों से बच गया, उद्धार हो गया। गनिका = (तोते को 'राम नाम' पढ़ाते हुए इसकी अपनी सुरति भी परमात्मा में लग गई)। ह = भी। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ। पंचाली = पाँचाल देश की राज कुमारी, द्रोपदी। राज सभा महि = राज सभा में, दुर्योधन के दरबार में। सुधि = सूझ। राम नाम सुधि = परमात्मा के नाम का ध्यान (भाई गुरदास जी ने दसवीं 'वार' जो 'हा हा क्रिशन करै' लिखी है, वह आम प्रचलित इस कहानी का हवाला है। उनका अपना सिद्धांत आखिर पर है कि 'नाथ अनाथां बाण धुरां दी')। को = का। हरिओ = दूर किया। करुणामै = करुणामय, तरस स्वरूप परमात्मा। पैज = इज्जत, मशहूरी।1। जिह नर = जिन लोगों ने। किरपा निधि जसु = कृपा के खजाने प्रभू की सिफत सालाह। सहाई = मददगार। कहु = कह। नानक = हे नानक! इही भरोसै = इसी भरोसे पर। गही = पकड़ी। आनि = आ के।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सदा आत्मिक आनंद देने वाला है, जिस नाम को सिमर के अजामल विकारों से बच गया था, (इस नाम को सिमर के) वेश्वा ने भी उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर ली थी।1। रहाउ। हे भाई! दुर्याधन के राज-दरबार में द्रोपदी ने (भी) परमात्मा के नाम का ध्यान धरा था, और, तरस-स्वरूप परमात्मा ने उसका दुख दूर किया था, (और इस तरह) अपना रसूख बढ़ाया था।1। हे भाई! जिन भी लोगों ने कृपा के खजाने परमात्मा की सिफत-सालाह की, परमात्मा उनका मददगार (हो के) पहुँचा। हे नानक! कह- मैंने भी इसी ही भरोसे में आ कर परमात्मा की शरण ली है।2।1। मारू महला ९ ॥ अब मै कहा करउ री माई ॥ सगल जनमु बिखिअन सिउ खोइआ सिमरिओ नाहि कन्हाई ॥१॥ रहाउ ॥ काल फास जब गर महि मेली तिह सुधि सभ बिसराई ॥ राम नाम बिनु या संकट महि को अब होत सहाई ॥१॥ जो स्मपति अपनी करि मानी छिन महि भई पराई ॥ कहु नानक यह सोच रही मनि हरि जसु कबहू न गाई ॥२॥२॥ {पन्ना 1008} पद्अर्थ: अब = अब, जवानी का समय गुजार के। कहा = क्या? करउ = मैं करूँ। री माई = हे माँ! (शब्द 'री' स्त्रीलिंग है, 'रे' पुलिंग। 'कहत कबीर सुनहु रे लोई' में 'रे' पुलिंग है। शब्द 'लोई' कबीर जी की पत्नी के लिए नहीं है)। सगल = सारा। बिखिअन सिउ = विषौ विकारों से। कन्हाई = कन्हईया, परमात्मा।1। रहाउ। फास = फंदा। काल = मौत। गर महि = गले में। मेली = डाल दी। तिह = उस की। सुधि = होश। बिसराई = भुला दी। या संकट महि = इस बिपता में। को = कौन? सहाई = मददगार।1। स्ंपति = सम्पक्ति, धन पदार्थ। करि मानी = करके मानी थी, समझी हुई थी। पराई = बेगानी। सोच = पछतावा। मनि = मन में।2। (नोट: भूत काल को वर्तमान समझना है, ये हालत सदा ही होती रहती है अपने आप को सामने रख के जगत की आम दशा बता रहे हैं)। अर्थ: हे माँ! समय बीत जाने पर मैं क्या कर सकता हूँ? (भाव, वक्त बीत जाने पर मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता)। जिस मनुष्य ने सारी जिंदगी विषय-विकारों में गवा ली, और, परमात्मा का सिमरन कभी भी ना किया (वह समय बीत जाने पर फिर कुछ नहीं हो सकता)।1। रहाउ। हे माँ! जब जमराज (मनुष्य के) गले में मौत का फंदा डाल देता है, तब वह उसकी सारी सुध-बुध भुला देता है। उस बिपता में परमात्मा के नाम के बिना और कोई भी मददगार नहीं बन सकता (जमों के फंदों से, आत्मिक मौत से सहम से सिर्फ हरी-नाम ही बचाता है)।1। हे माँ! जिन धन-पदार्थों को मनुष्य हमेशा अपना समझे रखता है (जब मौत आती है, वह धन-पदार्थ) एक छिन में बेगाना हो जाता है। हे नानक! कह-उस वक्त मनुष्य के मन में यह पछतावा रह जाता है कि परमात्मा की सिफत सालाह कभी भी ना की।2।2। मारू महला ९ ॥ माई मै मन को मानु न तिआगिओ ॥ माइआ के मदि जनमु सिराइओ राम भजनि नही लागिओ ॥१॥ रहाउ ॥ जम को डंडु परिओ सिर ऊपरि तब सोवत तै जागिओ ॥ कहा होत अब कै पछुताए छूटत नाहिन भागिओ ॥१॥ इह चिंता उपजी घट महि जब गुर चरनन अनुरागिओ ॥ सुफलु जनमु नानक तब हूआ जउ प्रभ जस महि पागिओ ॥२॥३॥ {पन्ना 1008} पद्अर्थ: माई = हे माँ! को = का। मदि = नशे में। सिराइओ = गुजारा।1। रहाउ। डंडु = डण्डा। परिओ = पड़ा। ऊपरि = ऊपर। सोवत ते = सोए रहने से। कहा होत = क्या हो सकता है? छूटत नाहिन भागिओ = भागने से (जम से) खलासी नहीं हो सकती।1। उपजी = पैदा हुई। घट महि = हृदय में। अनुरागिओ = प्यार पाया। सुफलु = कामयाब। जउ = जब। प्रभ जस महि = प्रभू के यश में। पागिओ = (मैं) पड़ा।2। अर्थ: हे माँ! (जब से मैंने गुरू-चरणों में प्यार डाला है, तब से मैं पछता रहा हूँ कि) मैंने अपने मन का अहंकार नहीं छोड़ा। माया के नशे में मैंने अपनी उम्र गुजार दी, और, परमात्मा के भजन में ना लगा।1। रहाउ। (हे भाई! मनुष्य माया की नींद में गाफिल पड़ा रहता है) जब जमदूत का डंडा (इस के) सिर पर बजता है, तब (माया के मोह की नींद में से) सोया हुआ जागता है। पर उस वक्त के पछतावे से कुछ सँवरता नहीं, (क्योंकि उस समय जमों से) भागने पर बचाव नहीं हो सकता।1। हे भाई! जब मनुष्य गुरू के चरणों में प्यार डालता है, तब उसके हृदय में यह फुरना उठता है (कि प्रभू के भजन के बिना उम्र व्यर्थ ही बीतती रही)। हे नानक! मनुष्य की जिंदगी कामयाब तब ही होती है जब (यह गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा की सिफत-सालाह में जुड़ता है।2।3। मारू असटपदीआ महला १ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ बेद पुराण कथे सुणे हारे मुनी अनेका ॥ अठसठि तीरथ बहु घणा भ्रमि थाके भेखा ॥ साचो साहिबु निरमलो मनि मानै एका ॥१॥ तू अजरावरु अमरु तू सभ चालणहारी ॥ नामु रसाइणु भाइ लै परहरि दुखु भारी ॥१॥ रहाउ ॥ हरि पड़ीऐ हरि बुझीऐ गुरमती नामि उधारा ॥ गुरि पूरै पूरी मति है पूरै सबदि बीचारा ॥ अठसठि तीरथ हरि नामु है किलविख काटणहारा ॥२॥ जलु बिलोवै जलु मथै ततु लोड़ै अंधु अगिआना ॥ गुरमती दधि मथीऐ अम्रितु पाईऐ नामु निधाना ॥ मनमुख ततु न जाणनी पसू माहि समाना ॥३॥ हउमै मेरा मरी मरु मरि जमै वारो वार ॥ गुर कै सबदे जे मरै फिरि मरै न दूजी वार ॥ गुरमती जगजीवनु मनि वसै सभि कुल उधारणहार ॥४॥ सचा वखरु नामु है सचा वापारा ॥ लाहा नामु संसारि है गुरमती वीचारा ॥ दूजै भाइ कार कमावणी नित तोटा सैसारा ॥५॥ साची संगति थानु सचु सचे घर बारा ॥ सचा भोजनु भाउ सचु सचु नामु अधारा ॥ सची बाणी संतोखिआ सचा सबदु वीचारा ॥६॥ रस भोगण पातिसाहीआ दुख सुख संघारा ॥ मोटा नाउ धराईऐ गलि अउगण भारा ॥ माणस दाति न होवई तू दाता सारा ॥७॥ अगम अगोचरु तू धणी अविगतु अपारा ॥ गुर सबदी दरु जोईऐ मुकते भंडारा ॥ नानक मेलु न चूकई साचे वापारा ॥८॥१॥ {पन्ना 1008-1009} पद्अर्थ: कथे = कह के, सुना के। सुणे = सुन के। हारे = थक गए। अठसठि = अढ़सठ। घणा = बहुते। भ्रमि = भटक के। भेखा = कई भेषों के साधू। साचो = सदा स्थिर रहने वाला। मनि = मन से। ऐका = केवल, सिर्फ।1। अजरावरु = (अजर+अवर)। अजर = कभी बूढ़ा ना होने वाला। अवरु = (अत्यन्त श्रेष्ठ) अति श्रेष्ठ। रसाइण = (रस अयनु) रसों का घर, रसों का श्रोत। भाइ = प्रेम से। परहरि = दूर कर लेता है।1। रहाउ। नामि = नाम से। उधारा = (पापों से) बचाव। गुरि = गुरू से। सबदि = शबद से। बीचारा = श्रेष्ठ विचार। किलविख = पाप।2। बिलोवै = मथता है। मथै = मथता है। ततु = तत्व, मख्खन, श्रेष्ठ वस्तु। अंधु = अंधा मनुष्य। दधि = दही। मथीअै = मथें। निधाना = खजाना (सब पदार्थों का)। जाणनी = जानते हैं। पशू = पशु स्वभाव।3। मरी = (आत्मिक) मौत। मरु = मौत। वारो वार = बार बार। सबदे = शबद से। मरै = (स्वैभाव से) मरता है। न मरै = 'अहंकार' की मौत नहीं मरता। जगजीवनु = जगत का जीवन प्रभू। मनि = (जिसके) मन में। सभि = सारे।4। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। लाहा = कमाई। संसारि = संसार में। वीचारा = सूझ। दूजै भाइ = प्रभू के बिना किसी और के प्रेम में। तोटा = कमी (आत्मिक जीवन में)।5। सची = सदा एक रस रहने वाली, गलती ना करने वाली। भाउ = प्रेम। आधारा = आसरा। बाणी = बाणी से। संतोखिआ = (जो मनुष्य माया की तृष्णा से) संतोखी हो जाता है।6। संघारा = व्यापते हैं। मोटा = बड़ा। गलि = गले में। सारा = श्रेष्ठ।7। अगम = अपहुँच। अगोचरु = अ+गो+चरु, जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। धणी = मालिक। अविगतु = (अव्यक्तत्र) अदृष्ट। अपारा = अपार, जिसका परला किनारा ना मिल सके। दरु = दरवाजा। जोईअै = ढूँढिए। मुकते = विकारों से मुक्ति। चूकई = खत्म होता।8। अर्थ: हे प्रभू! सारी सृष्टि नाशवंत है। (पर) तू कभी बूढ़ा नहीं होता, तू अति श्रेष्ठ है, तू मौत से रहित है। तेरा नाम सारे रसों का श्रोत है। जो जीव (तेरा नाम) प्रेम से जपता है, वह अपना बड़े से बड़ा दुख दूर कर लेता है।1। रहाउ। अनेकों ऋषि मुनि (मौनधारी) वेद-पुराण (आदि धर्म-पुस्तकें) सुना-सुना के सुन-सुन के थक गए, सब भेषों के अनेकों साधू अढ़सठ तीर्थों पर भटक-भटक के थक गए (परन्तु परमात्मा को प्रसन्न ना कर सके)। वह सदा-स्थिर रहने वाला पवित्र मालिक सिर्फ मन (की पवित्रता) के द्वारा ही पतीजता है।1। (हे भाई!) परमात्मा का नाम (ही) पढ़ना चाहिए नाम ही समझना चाहिए, गुरू की शिक्षा ले के प्रभू के नाम से ही (पापों से) बचाव होता है। यह पूरी मति और श्रेष्ठ विचार पूरे गुरू के द्वारा पूरे गुरू के शबद में जुड़ने से ही मिलता है कि परमात्मा का नाम अढ़सठ तीर्थों का स्नान है, और सारे पाप नाश करने के समर्थ है।2। जो मनुष्य पानी मथता है, (सदा) पानी (ही) मथता है पर मक्खन हासिल करना चाहता है, वह (अक्ल से) अंधा है वह अज्ञानी है। अगर दही मथें तो मक्खन मिलता है (इसी तरह) अगर गुरू की मति लें तो प्रभू का नाम मिलता है जो (सारे सुखों का) खजाना है। पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य इस भेद को नहीं समझते, वे पशू-बिरती में टिके रहते हैं।3। अहंकार और ममता निरी आत्मिक मौत है, इस आत्मिक मौत मर के जीव बार-बार पैदा होता मरता है। जो मनुष्य गुरू के शबद से (इस अहंकार और ममता की ओर से) सदा के लिए तर्क कर ले तो वह दोबारा कभी आत्मिक मौत नहीं सहेड़ता। गुरू की शिक्षा की बरकति से जिस मनुष्य के मन में जगत का जीवन परमात्मा बस जाता है (खुद तो पार होता ही है) अपनी सारी कुलों को भी आत्मिक मौत से बचा लेता है।4। (जीव-वणजारा जगत-हाट में व्यापार करने आया है) सदा कायम रहने वाला (कभी नाश ना होने वाला) सौदा परमात्मा का नाम (ही) है, यही ऐसा व्यापार है जो सदा-स्थिर रहता है। जिस मनुष्य को गुरू की मति ले के ये सूझ आ जाती है वह जगत (-हाट) में नाम (की) कमाई कमाता है। पर अगर माया के प्यार में ही (सदा) किरत-कार की जाए, तो संसार में (आत्मिक जीवन की पूँजी को) घाटा ही घाटा पड़ता है।5। जो मनुष्य सदा-स्थिर बाणी से (माया की तृष्णा से) संतोषी हो जाता है, जो गुरू के शबद को अपने सोच-मण्डल में टिकाए रखता है, परमात्मा का सदा-स्थिर नाम परमात्मा का सदा-स्थिर प्रेम उस (की जिंदगी) का आसरा बन जाता है उसके आत्मिक जीवन की चिर-स्थाई खुराक बन जाता है। उसकी संगति पवित्र, उसकी रिहायशी जगह पवित्र, उसका घर-बार पवित्र हैं।6। पर दुनियां के रस भोगने से, दुनियावी बादशाहियों से (मनुष्य को) दुख-सुख व्यापते रहते हैं। अगर (दुनिया के बड़प्पन के कारण अपना) बड़ा नाम भी रखा लें, तो भी बल्कि गले में अवगुणों का भार बंध जाता है (जिसके कारण मनुष्य संसार-समुंद्र में डूबता ही है)। हे प्रभू! तू बड़ा दाता है (सब दातें देता है), पर तेरी (मायावी) दातों से मनुष्यों की (माया से) तृप्ति नहीं होती।7। हे प्रभू! तू अगम है, ज्ञानेन्द्रियों की तेरे तक पहुँच नहीं हो सकती, तू सब पदार्थों का मालिक है, तू अदृष्ट है, तू बेअंत है। अगर गुरू के शबद में जुड़ के तेरा दरवाजा तलाशें तो (तेरे दर से नाम का वह) खजाना मिलता है जो (माया के मोह से) मुक्ति देता है। हे नानक! (नाम का व्यापार) सदा-स्थिर रहने वाला व्यापार है (इस व्यापार की बरकति से जीव-वणजारे का परमात्मा-शाह से कभी) मिलाप समाप्त नहीं होता।8।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |