श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1007 मारू महला ५ ॥ तजि आपु बिनसी तापु रेण साधू थीउ ॥ तिसहि परापति नामु तेरा करि क्रिपा जिसु दीउ ॥१॥ मेरे मन नामु अम्रितु पीउ ॥ आन साद बिसारि होछे अमरु जुगु जुगु जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ नामु इक रस रंग नामा नामि लागी लीउ ॥ मीतु साजनु सखा बंधपु हरि एकु नानक कीउ ॥२॥५॥२८॥ {पन्ना 1007} पद्अर्थ: तजि = छोड़। आपु = स्वै भाव। बिनसी = नाश हो जाएगा। तापु = चिंता फिक्र, कलेश। रेण साधू = गुरू की चरण धूड़। थीउ = हो जा। करि = कर के। दीउ = (तूने) दिया है।1। तिसहि: तिसु ही। 'तिसु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। मन = हे मन! अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। आन साद = और सारे स्वाद। होछे = जल्दी नाश हो जाने वाले। अमरु = अटल आत्मिक जीवन के मालिक। जुगु जुगु = सदा के लिए। जीउ = जीओ।1। रहाउ। नामु इक = एक (प्रभू) का नाम। रस = (मायावी पदार्थों के) स्वाद। रंग = (दुनिया के) रंग तमाशे। नामि = नाम में। लीउ = लिव। बंधपु = रिश्तेदार। कीउ = किया। नानक = हे नानक!।2। अर्थ: हे मेरे मन! आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम जल पीया कर (नाम की बरकति से) और सारे (मायावी पदार्थों के) नाशवान चस्के भुला के सदा के लिए अटल आत्मिक जीवन वाली जिंदगी गुजार।1। रहाउ। हे मेरे मन! स्वै भाव छोड़ दे, गुरू की चरण-धूड़ बन जा, तेरा सारा दुख-कलेश दूर हो जाएगा। हे प्रभू! तेरा नाम उसी मनुष्य को मिलता है, जिसको तू स्वयं मेहर कर के देता है।1। हे नानक! (कह- हे भाई!) जिस मनुष्य ने एक परमात्मा को ही अपना सज्जन-मित्र और संबंधी बना लिया, उसकी लिव सदा परमात्मा के नाम में लगी रहती है, परमात्मा का नाम ही उसके वास्ते (मायावी पदार्थों के स्वाद हैं), नाम ही उसके लिए दुनियां के रंग-तमाशे हैं।2।5।28। मारू महला ५ ॥ प्रतिपालि माता उदरि राखै लगनि देत न सेक ॥ सोई सुआमी ईहा राखै बूझु बुधि बिबेक ॥१॥ मेरे मन नाम की करि टेक ॥ तिसहि बूझु जिनि तू कीआ प्रभु करण कारण एक ॥१॥ रहाउ ॥ चेति मन महि तजि सिआणप छोडि सगले भेख ॥ सिमरि हरि हरि सदा नानक तरे कई अनेक ॥२॥६॥२९॥ {पन्ना 1007} पद्अर्थ: प्रतिपालि = पालना कर के। उदरि = उदर में। माता उदरि = माँ के पेट में। राखै = रखता है। सोई = वही। सुआमी = मालिक। ईहा = यहाँ, इस जगत में। बूझु = (हे भाई!) समझ कर। बिबेक = परख। बुधि बिबेक = परख की बुद्धि से।1। मन = हे मन! टेक = सहारा। जिनि = जिस (प्रभू) ने। तूं = तुझे। करण = सृष्टि। करण कारण = सृष्टि का मूल।1। रहाउ। तिसहि: 'तिसु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। चेति = याद कर, याद करता रह। तजि = त्याग के। सगले = सारे। भेख = (दिखावे के धार्मिक) पहरावे। नानक = हे नानक! सिमरि = सिमर के। तरे = पार लांघ गए।2। अर्थ: हे मेरे मन! (सदा) परमात्मा के नाम का आसरा ले। उस परमात्मा को ही (सहारा) समझ, जिसने तुझे पैदा किया है। हे मन! एक प्रभू ही सारे जगत का मूल है।1। रहाउ। हे मन! पालना करके प्रभू माँ के पेट में बचाता है, (पेट की आग का) सेक लगने नहीं देता। वही मालिक इस जगत में भी रक्षा करता है। हे भाई! परख की बुद्धि से यह (सच्चाई) समझ ले।1। हे भाई! चतुराईयाँ छोड़ के (दिखावे के) सारे (धार्मिक) पहरावे छोड़ के अपने मन में परमात्मा को याद करता रह। हे नानक! परमात्मा का सदा सिमरन करके अनेकों जीव संसार-समुंद्र से पार लांघते चले आ रहे हैं।2।6।29। मारू महला ५ ॥ पतित पावन नामु जा को अनाथ को है नाथु ॥ महा भउजल माहि तुलहो जा को लिखिओ माथ ॥१॥ डूबे नाम बिनु घन साथ ॥ करण कारणु चिति न आवै दे करि राखै हाथ ॥१॥ रहाउ ॥ साधसंगति गुण उचारण हरि नाम अम्रित पाथ ॥ करहु क्रिपा मुरारि माधउ सुणि नानक जीवै गाथ ॥२॥७॥३०॥ {पन्ना 1007} पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। पतित पावन = विकारियों को पवित्र करने वाला। को = का। अनाथ = अ+नाथ। नाथु = पति। भउजल = संसार समुंद्र। माहि = में। तुलहो = तुलहा, काम चलाने के लिए शतीरियां आदि बाँध के बनाई हुई बेड़ी। माथ = माथे पर।1। घन = बहुत, अनेकों। साथ = काफले। करण कारणु = जगत का मूल (करण = जगत)। चिति = चिक्त में। दे करि = दे के।1। रहाउ। अंम्रित पाथ = (पथ = रास्ता) आत्मिक जीवन देने वाला रास्ता। मुरारि = हे मुरारी! (मुर+अरि), हे परमात्मा! माधउ = (मा = माया। धउ = धव, पति) हे माया के पति प्रभू! गाथ = कथा, सिफत सालाह।2। अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा (जीवों को) हाथ दे के बचाता है उसके नाम के बिना (ना जाने कितने ही) काफिले (इस संसार समुंद्र में) डूब रहे हैं, (क्योंकि) जगत का मूल परमात्मा (उनके) चिक्त में नहीं बसता।1। रहाउ। हे भाई! जिस परमात्मा का नाम पापियों को पवित्र करने योग्य है, जो बेआसरों का आसरा है, वह परमात्मा इस भयानक संसार समुंद्र में (जीव के लिए) जहाज है। (पर ये उसी को मिलता है) जिसके माथे पर (मिलाप के लेख) लिखे होते हैं।1। हे भाई! साध-संगति में (टिक के) परमात्मा का नाम परमात्मा के गुण उचारते रहना- यही है आत्मिक जीवन देने वाला रास्ता। हे नानक! (कह-) हे मुरारी! मेहर कर (ता कि तेरा दास तेरी) सिफत सालाह सुन के आत्मिक जीवन हासिल करता रहे।2।7।30। मारू अंजुली महला ५ घरु ७ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ संजोगु विजोगु धुरहु ही हूआ ॥ पंच धातु करि पुतला कीआ ॥ साहै कै फुरमाइअड़ै जी देही विचि जीउ आइ पइआ ॥१॥ जिथै अगनि भखै भड़हारे ॥ ऊरध मुख महा गुबारे ॥ सासि सासि समाले सोई ओथै खसमि छडाइ लइआ ॥२॥ विचहु गरभै निकलि आइआ ॥ खसमु विसारि दुनी चितु लाइआ ॥ आवै जाइ भवाईऐ जोनी रहणु न कितही थाइ भइआ ॥३॥ मिहरवानि रखि लइअनु आपे ॥ जीअ जंत सभि तिस के थापे ॥ जनमु पदारथु जिणि चलिआ नानक आइआ सो परवाणु थिआ ॥४॥१॥३१॥ {पन्ना 1007} अंजुली-दोनों हथेलियों को मिला के बनाई हुई मुद्रा, खैर माँगने के लिए अरजोई की अवस्था। पद्अर्थ: संजोगु = मिलाप (प्राण और शरीर का)। विजोग = विछोड़ा (प्राण और शरीर का)। धुरहु = परमात्मा के हुकम अनुसार। पंच धातु = (पवन, पानी, आग, मिट्टी, आकाश = ये) पाँच तत्व। करि = मिल के। पुतला = शरीर। फुरमाइड़ा = फरमाया हुआ हुकम। कै फरमाइअड़ै = के हुकम अनुसार। साह = शाह। साहै कै फुरमाइअड़ै = शाह के किए हुकम अनुसार। जी = हे भाई! देही = शरीर। जीउ = जीवात्मा।1। जिथै = जिस जगह में। अगनि = आग। भखै = भखती है, जलती है। भड़हारे = भड़ भड़ करके, बड़ी तेज। ऊरध = उल्टा। ऊरध मुख = उलटे मुँह। गुबारे = घोर अंधेरे में। सासि = साँस से। सासि सासि = हरेक साँस से। सोई = वही जीव। समाले = याद करता है। खसमि = पति ने।2। विसारि = भुला के। दुनी = दुनियां में, दुनियां के पदार्थों में। आवै जाइ = पैदा होता है मरता है। भवाईअै जोनी = जूनियों में भटकाया जाता है। कित ही = कहीं भी ('कितु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। थाइ = जगह में। कित ही थाइ = किसी भी जगह में। रहणु = ठिकाना।3। मिहरवानि = मेहरवान ने। रखि लइअनु = रख लिए हैं, बचा लिए हैं। सभि = सारे। तिस के = उस (परमात्मा) के। थापे = पैदा किए हुए। जिणि = जीत के। आइआ = जन्मा हुआ।4। अर्थ: हे भाई! (प्राण और शरीर का) मिलाप और विछोड़ा परमात्मा की रजा अनुसार ही होता है। (परमात्मा के हुकम में ही) पाँच तत्व (इकट्ठे) करके शरीर बनाया जाता है। प्रभू-पातशाह के हुकम अनुसार ही जीवात्मा शरीर में आ टिकता है।1। हे भाई! जहाँ (माँ के पेट में पेट की) आग बहुत जलती है, उस भयानक अंधेरे में जीव उल्टे मुँह पड़ा रहता है। जीव (वहाँ अपने) हरेक साँस के साथ परमात्मा को याद करता रहता है, उस जगह मालिक-प्रभू ने ही जीव को बचाया होता है।2। हे भाई! जब जीव माँ के पेट में से बाहर आ जाता है, मालिक प्रभू को भुला के दुनियां के पदार्थों में चिक्त जोड़ लेता है। (प्रभू को बिसारने के कारण) पैदा होने-मरने के चक्कर में (जीव) पड़ जाता है, जूनियों में पाया जाता है, किसी एक जगह इसको ठिकाना नहीं मिलता।3। हे भाई! सारे जीव उस (परमात्मा) के ही पैदा किए हुए हैं, उस मेहरवान (प्रभू) ने स्वयं ही (कई जीव जनम-मरण के चक्कर से) बचाए हैं। हे नानक! जो मनुष्य (परमात्मा के नाम से) इस कीमती जनम (की बाज़ी) को जीत के यहाँ से चलता है, वह इस जगत में आया हुआ मनुष्य परमात्मा की हजूरी में कबूल होता है।4।1।31। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |